प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है दुर्भाग्यवश हम प्राचीन इतिहास को सामग्री के अभाव में पूर्णत: पुनर्निर्मित करने में असमर्थ हैं | इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में यूनान, रोम आदि देशों की भांति इतिहास लेखकों का सदा अभाव रहा है | विदेशियों ने यहाँ तक आरोप लगाया है कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास-बुद्धि का सर्वथा अभाव रहा है | यह बात भले ही सही न हो लेकिन इतना सही है कि प्राचीन समय में भारत वासियों का इतिहास लेखन के प्रति कोई झुकाव नहीं था | इतना होते हुए भी प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत बहुतायत में हैं |

प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत मुख्य रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किए जा सकते हैं —

(1) पुरातात्विक स्रोत

(2) साहित्यिक स्रोत

(3) विदेशियों के वृत्तांत

(1) पुरातात्विक स्रोत

भारत में पुरातात्विक सामग्री का भण्डार प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है | अनेक स्थानों पर किया गया उत्खनन कार्य करने से प्राचीन इतिहास के अनेक छुपे पहले सामने आये हैं | प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए पुरातात्विक सामग्री का अत्यधिक महत्व है | अनेक प्राचीन भारतीय ग्रन्थों का रचना काल ठीक से ज्ञात नहीं है | अतः इन ग्रन्थों से किसी काल विशेष की सामाजिक और आर्थिक स्थति का ठीक-ठीक पता नहीं चलता है कभी-कभी साहित्यक साधनों में लेखक का दृष्टि कोण भी बाधा उत्पन्न करता है | अतः ऐसी स्थिति में प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के लिए पुरातात्विक सामग्री अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय एवं प्रामाणिक बन जाती है | इसके काल निर्धारण में हेर-फेर की सम्भावना कम होती है | पुरातात्विक सामग्री के अन्तर्गत अभिलेख, मुद्राएं, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला तथा अन्य अवशेषों को रखा जाताहै |

(क ) अभिलेख

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए पुरातात्विक स्रोतों में अभिलेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विश्वसनीय स्रोतों में से एक हैं | सबसे प्राचीन अभिलेखों में मध्य एशिया के बोधणकोई से प्राप्त अभिलेख है | ये लगभग 1400 ई. पू. के हैं तथा इनसे ऋग्वेद की तिथि ज्ञात करने में सहायता मिलती है | अभिलेखों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार फ्लीट ने लिखा है कि “प्राचीन भारत के राजनीतिक इतिहास का ज्ञान हमें केवल अभिलेखों के धैर्यपूर्ण अध्ययन से प्राप्त होता है, परन्तु भारत के अन्वेषण की अन्य शाखाओं को भी अन्त में अभिलेखों का आश्रय लेना पड़ता है | इसके बिना कोई निश्चित तिथि तथा एकरूपता स्थापित नहीं की जा सकती है और यह प्रत्येक वस्तु में क्रम उत्पन्न करते हैं जो हमें साहित्य, परम्परागत कथाओं, सिक्कों, कला शिल्प अथवा अन्य किसी साधन से ज्ञात होता है |”

यद्यपि यह सत्य है कि अनेक अभिलेखों पर तिथि अंकित नहीं है, किन्तु इन अभिलेखों पर अंकित विभिन्न अक्षरों की बनावट, लिपि आदि के आधार पर मोटे रूप में उनका काल निर्धारित हो जाता है | अभिलेखों के अन्तर्गत गुहालेख, शिलालेख, स्तम्भ लेख, ताम्रपत्र आदि आते हैं | अध्ययन-सुविधा की दृष्टि से अभिलेखों को दो भागों में बाँटा जा सकता है — (i) देशी अभिलेख तथा (ii) विदेशी अभिलेख |

(i) देशी अभिलेख — देशी अभिलेख व शिलालेखों से सम्बन्धित शासकों के जीवन चरित्र, साम्राज्य विस्तार, धर्म, शासन प्रबन्ध, कला तथा राजनीतिक स्थिति की जानकारी प्राप्त होती है | जैसे सम्राट अशोक के शिलालेखों से अशोक के विषय में, प्रयाग स्तम्भ लेख से समुद्रगुप्त, महरौली स्तम्भ लेख से चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा भीतरी स्तम्भ लेख से स्कन्दगुप्त के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है |

(ii) विदेशी अभिलेख — भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले विदेशी अभिलेखों की संख्या बहुत अधिक है | इस प्रकार के अभिलेख देवताओं की मूर्तियों तथा धार्मिक इमारतों पर खुदे हैं | इनकी भाषा से तत्कालीन भारतीय समाज, साहित्य एवं भाषा पर प्रकाश पड़ता है | साथ ही ये अभिलेख भारतीय कला एवं धर्म एवं राजनीतिक दशा पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालते हैं | एशिया माइनर में बोगजकोई नामक स्थान से प्राप्त अभिलेख से इन्द्र वरुण, मित्र आदि ऋग्वैदिक देवताओं के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है | ये भारतीयों के धार्मिक मान्यताओं के बारे में जानकारी देता है | पर्पोपोलिस व नक्श-ए-रुस्तम के अभिलेख से ईरान तथा भारत के सम्बन्धों पर प्रकाश पड़ता है | कुछ लेख सुदूर पूर्व में प्राप्त हुए हैं जिनसे यह बात प्रमाणित होती है कि प्राचीन भारत के सुदूर पूर्व के देशों से पारस्परिक सम्बन्ध थे |

(ख ) मुद्राएं

पुरातात्विक सामग्री में मुद्राओं का ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है, ये मुद्राएं प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास का पुनर्निर्माण करने में बड़ी ही उपयोगी सिद्ध होती हैं. उदाहरणार्थ यूनान और रोम के इतिहासकारों द्वारा केवल चार-पाँच हिन्दी, यूनानी शासकों का उल्लेख किया गया है, किन्तु मुद्राओं के आधार पर इनके राज्यकाल का पूरा इतिहास लिखना सम्भव हुआ है | भारत के विभिन्न भागों से विभिन्न प्रकार की स्वर्ण मुद्राएं, रजत मुद्राएं तथा ताम्र मुद्राएं प्राप्त हुई हैं | इन मुद्राओं पर अंकित तिथियों से काल-क्रम को निर्धारित करने में सहायता मिलती है | मुद्राओं से तत्कालीन राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक दशा, सम्बन्धित सम्राट का शासनकाल , कला तथा अन्य अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है | शकक्षत्रप, इण्डोबैक्ट्रियन, इण्डोग्रीक तथा इण्डोपर्शियन राजाओं के इतिहास को जानने के एकमात्र साधन सिक्के ही हैं. गुप्त साम्राज्य के पतन के पश्चात प्राचीन भारत के इतिहास जानने में मुद्राएं बहुत ही कम उपयोगी सिद्ध हुई हैं क्योंकि प्रतिहार, पाल, चालुक्य और राष्ट्रकूट शासकों के काल की अब तक बहुत कम मुद्राएं प्राप्त हुई हैं |

(ग ) स्मारक

पुरातात्विक सामग्री में अभिलेख और मुद्राओं के साथ ही स्मारकों का भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है | राजनीतिक दृष्टिकोण से तो स्मारकों का अधिक महत्व नहीं है, किन्तु धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से स्मारकों का बहुत अधिक महत्व है | स्मारकों के अन्तर्गत सभी प्रकार के भवन, मूर्तियाँ, इमारतें, कलात्मक वस्तुएं, मन्दिर, मठ,विहार, स्तूप आदि रखे जा सकते हैं. ये स्मारक तत्कालीन भारत की धार्मिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं |

अध्ययन-सुविधा की दृष्टि से स्मारकों को दो भागों मे बाँटा जा सकता है –(i) देशी स्मारक तथा (ii) विदेशी स्मारक |

(i) देशी स्मारक — हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, नालंदा, रोपड़, हस्तिनापुर, बनवाली आदि प्राचीन नगरों के उत्खनन से प्राप्त अनेक प्रकार की कलात्मक वस्तुओं से सिन्धु सभ्यता पर, तक्षशिला से प्राप्त उत्खनन सामग्री से प्राचीन भारतीय संस्कृति, कुषाण वंश के राजाओं तथा गांधारकालीन कला पर यथोचित प्रकाश पड़ता है | मठ, स्तूप चैत्य, विहार से मौर्यकालीन इतिहास तथा झाँसी स्थित देवगढ़ मन्दिर, कानपुर के भीतरगाँव के ईंटों के मन्दिर से गुप्तकालीन इतिहास की जानकारी प्राप्त होती है |

(ii) विदेशी स्मारक — कम्बोडिया स्थित अंकोरवाट का मंदिर, जावा स्थित बोरोबुदूर मंदिर तथा मलावा व बाली द्वीप से प्राप्त अनेक प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि वहाँ पर भारतीय धर्म एवं संस्कृति का अत्यधिक प्रचार था | इसी प्रकार बोर्नियों में मुकरमन नामक स्थान पर बनी विष्णु की मूर्ति प्राप्त हुई है, जो तत्कालीन सांस्कृतिक स्थिति को स्पष्ट करती है | कुछ मूर्तियों पर तिथियाँ भी अंकित हैं जिससे भारतीय इतिहास के तिथि क्रम पर प्रकाश पड़ता है |

(घ ) अवशेष

भारत में विभिन्न स्थलों पर हुए उत्खनन में प्रचुर मात्रा में अवशेष प्राप्त हुए है | इन अवशेषों से प्रागैतिहास तथा आद्य इतिहास के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है | आदि मानव ने किस प्रकार उपलब्ध साधनों का प्रयोग कर अपना जीवन उन्नत बनाया, उनका समाज कैसा था, वे कौन-कौन से उद्योग धन्धे करते थे, या उनका मुख्य व्यवसाय क्या था आदि की पूर्ण जानकारी अवशेषों यथा-बर्तन, हथियार, औजार, खिलौनों आदि से ही होती है |

(ङ ) मुहरें

मुहरें भी प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के मुख्य स्रोतों में आती हैं | इन मुहरों से प्राचीन भारत की अर्थव्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है | उत्खनन से प्राप्त मुहरों ने प्राचीन भारत का इतिहास लिखने में इतिहासकारों की बहुत मदद की है | उदाहरणार्थ मोहनजोदड़ो से प्राप्त 500 से अधिक मुहरों के आधार पर हड़प्पा संस्कृति के निवासियों के धार्मिक विश्वासों की जानकारी प्राप्त हुई | इसी प्रकार बसाढ (प्राचीन वैशाली) से प्राप्त 274 मुहरों से चौथी शताब्दी ईसवी में एक ऐसी व्यापारियों की श्रेणी के विषय में जानकारी प्राप्त हुई जिसके सदस्य साहूकार, व्यापारी और माल ढोने वाले व्यवसायी थे. इन मुहरों से यह भी ज्ञात होता है कि इनकी शाखाएं उत्तर भारत के विभिन्न नगरों में फैली हुई थीं |

(च) मूर्तियाँ

मूर्तियां हमें सम्बंधित काल की धार्मिक मान्यताओं, आराध्य देवी-देवताओं और कला के विषय में जानकारी देती हैं | उदाहरणार्थ गुप्तकाल की मूर्तियों में अन्तरात्मा तथा मुखाकृति में जो सामंजस्य देखने को मिलता है वह अन्य किसी काल की मूर्तियों में नहीं मिलता | गुप्तोत्तर काल की मूर्ती कला में सांकेतिकता अधिक देखने को मिलती है | मूर्तिकला की ये विशिष्टताएं तत्कालीन जनसाधारण के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश डालती हैं |

(छ) चित्रकला

चित्रकला से सम्बन्धित काल की सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है | चित्रकला में तत्कालीन जीवन की झलक देखने को मिलती है | उदाहरणार्थ अजंता की चित्रकला, गुप्तकाल की उन्नत दशा के विषय में जानकारी प्रदान करती है |

(2) साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों के अन्तर्गत प्राचीन धार्मिक साहित्य यथा हिन्दू धार्मिक साहित्य, बौद्ध धार्मिक साहित्य, जैन धार्मिक साहित्य, धर्मेत्तर साहित्य यथा ऐतिहासिक ग्रन्थ, नाटक, राजनीतिक एवं व्याकरण सम्बन्धी ग्रन्थ आते हैं | ये सम्पूर्ण साहित्यिक ग्रन्थ प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं |

(क) हिन्दू धार्मिक साहित्य

हिन्दू धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत वेद, उपवेद, वेदांग, ब्राह्मण, आरण्यक, रामायण, महाभारत तथा पुराण आदि आते हैं | यह धार्मिक साहित्य प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में अनेक महत्वपूर्ण तथ्य प्रदान करते हैं |

(i) वेद — इनकी संख्या चार है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद | वेदों में ऋग्वेद सर्वाधिक प्राचीन है | इसमें 10 मण्डल, 1028 सूक्त तथा 10,580 ऋचाएं हैं | इस ग्रन्थ से प्राचीन आर्यों के सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक जीवन के विषय में विशद जानकारी प्राप्त होती है | उदाहरणार्थ ऋग्वेद के दो सूक्तों में राजा सुदास के विरुद्ध दस राजाओं के संगठन का वर्णन किया गया है |

यजुर्वेद — यजुर्वेद में 40 अध्याय तथा लगभग दो हजार मन्त्र हैं | इस ग्रन्थ से तत्कालीन भारत के सामाजिक एवं धार्मिक पक्ष की जानकारी प्राप्त होती है |

सामवेद — सामवेद में 1,549 अथवा 1,810 श्लोक हैं. इन श्लोकों को यज्ञ के अवसर पर गाया जाता था | यह ग्रन्थ तत्कालीन भारत की गायन कला का श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करता है |

अथर्ववेद — अथर्ववेद में 20 मण्डल, 731 ऋचाएं तथा 5,839 मन्त्र हैं | इस ग्रन्थ से उत्तर वैदिककालीन भारत की सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है | इसके अधिकांश मन्त्र आयुर्वेद से सम्बन्धित हैं, जिनमें अनेक रोगों से बचने, औषधियों, साँप के विष को दूर करने तथा जादू-टोने, तंत्र-मंत्र से सम्बन्धित मंत्रों का उल्लेख है |

प्रत्येक वेद का एक-एक उपवेद है | आयुर्वेद, ऋग्वेद का उपवेद है | इसमें चिकित्सा सम्बन्धी विशेष तथ्यों का उल्लेख मिलता है. धनुर्वेद, यजुर्वेद का उपवेद है | इसमें शस्त्र प्रयोग का उल्लेख मिलता है | गन्धर्ववेद, सामवेद का उपवेद है | इसमें संगीत, गायन, नृत्य आदि का उल्लेख मिलता है | शिल्पवेद, अथर्ववेद का उपवेद है | इसमें वास्तुकला तथा कुछ अन्य कलाओं का वर्णन मिलता है |

(ii) वेदांग — इनकी रचना वैदिक काल के अन्त में हुई | ये वेदों के ही अंग हैं | इनकी संख्या 6 है | ये वेदांग हैं – व्याकरण, निरुक्त, छंद, शिक्षा, कल्प और ज्योतिष |

(iii) ब्राह्मण ग्रन्थ — ऋषियों द्वारा गद्य में वेदों की की गई सरल व्याख्या को ब्राह्मण ग्रन्थ कहा जाता है | प्रत्येक वेद के अपने ब्राह्मण ग्रन्थ हैं | कौषीतकी तथा एतरेय ऋग्वेद के ब्राह्मण ग्रन्थ हैं | एतरेय ब्राह्मण ग्रन्थ में विभिन्न प्रकार के राज्याभिषेक उत्सव तथा वैदिक काल के कुछ राजाओं का विवरण दिया हुआ है | तैतरीय कृष्ण यजुर्वेद का, शतपथ शुक्ल यजुर्वेद का, पंचविश तथा जैमनीय सामवेद के तथा गोपथ अथर्ववेद का ब्राह्मण ग्रन्थ है | इन ब्राह्मण ग्रन्थों से तत्कालीन लोगों की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक जीवन की जानकारी प्राप्त होती है |

(iv) आरण्यक — ब्राह्मण ग्रंथों के पश्चात आरण्यकों का स्थान आता है | इनकी रचना बाद में हुई | इनमें आत्मा, मृत्यु तथा जीवन सम्बन्धी विषयों का वर्णन किया गया है. चूँकि इनका पठनपाठन वानप्रस्थी, मुनि तथा वनवासियों द्वारा वन ( अरण्य ) में किया गया | इसलिए इन ग्रन्थों को आरण्यक के नाम से जाना जाता है | कौषीतकी और एतरेय ऋग्वेद के, तैत्तरीय कृष्ण यजुर्वेद के आरण्यक हैं. सामवेद तथा अथर्ववेद का कोई आरण्यक नहीं है |

(v) उपनिषद — ‘उप’ का अर्थ है ‘समीप’ और ‘निषद् ‘ का अर्थ होता है ‘बैठना’ विभिन्न विद्वानों के मतानुसार वह रहस्य विद्या जिसका ज्ञान गुरु के समीप बैठ कर किया जाता था उसे उपनिषद कहा जाता था | वास्तव में ये ब्राह्मण ग्रन्थों के अन्तिम भाग थे | इनमें अध्यात्म विद्या के गूढ़ रहस्यों का बड़े ही सुन्दर ढंग से वर्णन प्रस्तुत किया गया है | इनमें ब्रह्मा तथा सृष्टि सम्बन्धी दार्शनिक प्रश्नों का विवेचन किया गया है | उपनिषदों की संख्या 108 है |

(vi) स्मृतियाँ — हिन्दू धार्मिक साहित्य में स्मृतियों का अपना अलग ही स्थान है वे वैदिक आर्यों के कानून सम्बन्धी ग्रन्थ हैं | इनमें वैदिक आर्यों के दैनिक जीवन के विषय में नियम मिलते हैं | स्मृतियों में मनुस्मृति, नारद स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति तथा पाराशर स्मृति प्रमुख हैं |

(vii) रामायण तथा महाभारत — महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखित रामायण तथा वेद व्यास द्वारा लिखित महाभारत हिन्दुओं के दो प्रसिद्ध महाकाव्य हैं परन्तु इन महाकाव्यों का रचनाकाल निश्चित नहीं है | इन ग्रंथों की कथा और पात्र काल्पनिक हैं इसीलिए इनसे किसी काल विशेष का इतिहास जानना सम्भव नहीं है | काल्पनिक साहित्य से भी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक जानकारी मिलती है | लेकिन इन रचनाओं के लेखन काल की जानकारी संदिग्ध है, अतः इतिहास पुनर्निर्माण के लिए अभी अधिक उपयोगी नहीं |

(viii) पुराण — ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी प्राप्त करने के लिए पुराण एक महत्वपूर्ण स्रोत है इन पुराणों से प्राचीन राजवंशों तथा उनके क्रियाकलापों का ज्ञान प्राप्त होता है, ये पुराण वर्तमान रूप में सम्भवतः ईसा की तीसरी और चौथी शताब्दी में लिखे गए | यद्यपि इन पुराणों में दिया गया वंशानुक्रम भिन्न-भिन्न है, किन्तु फिर भी इनसे अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती हैं | पुराणों की संख्या 18 है | पुराणों में ब्रह्म, मत्स्य, विष्णु भागवत, अग्नि, शिव, मार्कण्डेय तथा गरुड़ पुराण ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण हैं |

(ख) बौद्ध साहित्य

भारतीय इतिहास के स्रोत के रूप में हिन्दू धार्मिक साहित्य की भाँति बौद्ध साहित्य का विशेष महत्व है | बौद्ध साहित्य के तीन प्रमुख अंग हैं — (i) जातक (ii) पिटक (iii) निकाय |

जातक कथाओं का बौद्ध साहित्य में प्रथम स्थान है | इन कथाओं में बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएँ हैं | यद्यपि ये काल्पनिक हैं, किन्तु फिर भी इनके ऐतिहासिक महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता | ये कथाएं तत्कालीन भारत की सामाजिक स्थिति का दिग्दर्शन कराती हैं |

बौद्ध साहित्य में दूसरा स्थान त्रिपिटक का है | ये संख्या में तीन हैं — (i) सुत्तपिटक, (ii) अभिधम्म पिटक, (iii) विनयपिटक |

इन पिटकों में बुद्ध के सिद्धान्तों और वचनों का पूर्ण संग्रह मिलता है | इनकी रचना बुद्ध के निर्वाण प्राप्त करने के बाद हुई सुत्तपिटक में महात्मा बुद्ध के धार्मिक विचारों और उपदेशों, अभिधम्मपिटक में बौद्ध धर्म के दर्शन तथा विनयपिटक में बौद्ध भिक्षुओं के आचरण सम्बन्धी नियमों का वर्णन किया गया है | इन त्रिपिटकों से महात्मा बुद्ध के समकालीन शासकों तथा तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है | इन त्रिपिटकों को पाली भाषा में लिखा गया है |

महावंश और दीपवंश पालि भाषा में लिखित प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ हैं, जिनसे श्रीलंका के राजवंशों की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है | इन ग्रन्थों में महावंश की रचना सम्भवतः पाँचवीं शताब्दी में तथा दीपवंश की रचना लगभग चौथी अथवा पाँचवीं शताब्दी में की गई थी | महावंश दीपवंश की तुलना में कुछ अधिक विस्तृत है | चूँकि प्राचीन काल में श्री लंका और भारत का घनिष्ठ सम्बन्ध था अतः इन ऐतिहासिक ग्रन्थों से प्राचीन भारत के इतिहास पर भी पर्याप्त प्रकाश पड़ता है, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि इन ग्रन्थों में कपोल कल्पित सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है | अतः इतिहासकारों को इनकी जानकारी का प्रयोग सावधानीपूर्वक करना होगा |

कनिष्क के शासनकाल में अश्वघोष द्वारा लिखित ‘बुद्धचरित’ प्राचीन भारतीय इतिहास पर यथोचित प्रकाश डालता है |

मिलिन्द्रपन्हो में यूनानी राजा मिनांडर और बौद्ध भिक्षु नागसेन का दार्शनिक वार्तालाप है | इसमें तत्कालीन राजनीतिक और दार्शनिक प्रश्नों पर विचार किया गया है. दिव्यावदान में अनेक राजाओं की कथाएं हैं | संस्कृत में लिखित इस बौद्ध ग्रन्थ की भाषा विषय और शैली से अनुमान होता है कि यह एक लेखक या एक काल की रचना नहीं है. इसमें अनेक बाद में जोड़े गए लगते हैं |

‘मंजुश्री मूलकल्प में गुप्त सम्राटों का वर्णन मिलता हैं | ‘महावस्तु’ में महात्मा बुद्ध को अद्भुत शक्ति युक्त दिखाया गया है |

(ग) जैन साहित्य

प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में अनेक ऐसे तथ्यों का वर्णन प्राकृत भाषा में लिखित जैन साहित्य में मिलता है, जिनका वर्णन ब्राह्मण एवं बौद्ध साहित्य में या तो किया ही नहीं गया है या फिर बहुत कम किया गया है |

जैन साहित्य में ‘जैन आगम’ का स्थान प्रमुख है जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 पकीर्ण, 6 छंदसूत्र, नन्दिसूत्र, अनुयोगद्वार और मूल सूत्र सम्मलित हैं. इनकी रचना किसी एक व्यक्ति द्वारा तथा किसी एक काल में नहीं हुई इन ग्रन्थों को वर्तमान स्वरूप वल्लभी में 513 ई. अथवा 526 ई. में आयोजित एक सभा में प्रदान किया गया था |

जैन साहित्य के ‘आचारांग सूत्र’ में जैन भिक्षुओं के आचार-विचार व नियमों का, भगवती सूत्र में महावीर स्वामी के जीवन के विषय में तथा छठी शताब्दी ई.पू. के उत्तर भारत के महाजनपदों का, ‘आवश्यक सूत्र में अजातशत्रु के धार्मिक विचारों का भद्रबाहु चरित्र में चन्द्र गुप्त मौर्य के राज्यकाल की घटनाओं का वर्णन मिलता है |

इसके अतिरिक्त कथाकोष, आराधना कथाकोष, कल्पसूत्र आदि जैन साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं | ‘परिशिष्ट पर्व’ जिसकी रचना बारहवीं शताब्दी हमचंद्र द्वारा की गई जैन साहित्य का अति महत्वपूर्ण ग्रन्थ है |

(घ) धर्मेत्तर साहित्य

उपर्युक्त वर्णित साहित्य के अतिरिक्त धर्मेत्तर साहित्य भी प्राचीन भारतीय इतिहास पर समुचित प्रकाश डालता है, इस प्रकार के साहित्य के अन्तर्गत कानून की पुस्तक जिन्हें धर्मसूत्र तथा स्मृतियाँ कहते हैं, रखा जा सकता है |

स्मृतियों कि रचना छठी शताब्दी ई.पू. में की गई थी, जिनका वर्णन पहले ही किया जा चुका है | स्मृतियों में विभिन्न वर्ण से सम्बन्धित व्यक्तिओं, राजाओं तथा उनके अधिकारियों के कर्तव्यों का विशद वर्णन किया गया है |

(ङ) ऐतिहासिक ग्रन्थ

अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थों को प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों में स्थान दिया गया है | इन ऐतिहासिक ग्रन्थों से सम्बन्धित शासकों व राज्यों के विषय में राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक अवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है | ऐतिहासिक ग्रन्थों में गार्गी संहिता, शुक्रनीतिसार, राजतरंगिणी, हर्षचरित, मुद्राराक्षस, पृथ्वीराजरासो, रसमाला, कीर्तिकौमुदी, प्रबन्ध चिन्तामणि, भोज प्रबन्ध, गोडवाहो, कुमारपाल चरित, हम्मीर रासो आदि प्रमुख हैं | इन ऐतिहासिक ग्रन्थों में गार्गी संहिता से यवनों के आक्रमण, शुक्रनीतिसार से कुछ प्राचीन भारत के ऐतिहासिक तत्वों, राजतरंगिणी से कश्मीर के इतिहास, हर्षचरित से हर्ष वर्धन के शासन काल की, मुद्राराक्षस से चाणक्य एवं मौर्य वंश की , पृथ्वीराज रासो से पृथ्वीराज के काल की जानकारी मिलती है |

(च ) संगम साहित्य

उपर्युक्त ऐतिहासिक ग्रन्थों के अतिरिक्त तमिल भाषा में लिखा गया संगम साहित्य दक्षिण भारत के इतिहास पर प्रकाश डालता है | इस साहित्य को अनेक प्रबुद्ध कवियों द्वारा लिखा गया था | चूँकि लेखन कार्य साहित्यक सभाओं में किया जाता था और इन सभाओं को संगम कहा जाता था, अतः इस काल के साहित्य को संगम साहित्य के नाम से जाना जाता है | संगम साहित्य में ‘नन्दिक्कलम्बकम’ से पल्लव राजा नन्दिवर्मन तृतीय के विषय में तथा कलिंगतुप्परणि से कोलोत्तुंग द्वारा कलिंग राज्य पर किए गए आक्रमण के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है |

इसके अतिरिक्त ओट्टकूतन नामक प्रसिद्ध लेखक ने तीन चोलवंशी शासकों-विक्रम चोल, कुलोत्तुंग द्वितीय और राजराज द्वितीय पर तीन अलग-अलग ग्रन्थों की रचना की जिसमें इन शासकों की उपलब्धियों का वर्णन किया गया है, किन्तु इन सभी लेखकों के वर्णन पूर्णतया ऐतिहासिक नहीं हैं | इनमें कल्पना का अतिशय है |

(छ) राजनीतिक एवं व्याकरण सम्बन्धी साहित्य

इस प्रकार के ग्रन्थों के अन्तर्गत कौटिल्य का अर्थशास्त्र, कामन्दक ( कमन्द ) का नीतिशास्त्र, पाणिनि का अष्टाध्यायी, पतंजलि का महाभाष्य आदि ग्रन्थों को रखा जा सकता है | कौटिल्य द्वारा लिखित ‘अर्थशास्त्र’ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है | इसमें 15 खण्ड हैं | यह कानून एवं शासन प्रबन्ध की महत्वपूर्ण पुस्तक है | इसमें मौर्य युग की सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक स्थिति का वर्णन किया गया है साथ ही इस ग्रन्थ में राजा के कर्तव्य, राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा, मंत्रियों की नियुक्ति व पद से हटाना, युद्ध शैली तथा तत्कालीन गुप्तचर विभाग के संगठन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है |

अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य संस्कृत के व्याकरण ग्रन्थ होने के बावजूद भी तत्कालीन राजनीतिक घटनाओं पर यथोचित प्रकाश डालते हैं | पाणिनी का अष्टाध्यायी मौर्यकाल से पूर्व के भारत की राजनीतिक, सामाजिक व धार्मिक दशा की जानकारी प्रदान करता है | पतंजलि कृत महाभाष्य से शुंगवंश के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है |

अतः कहा जा सकता है कि ये ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं | प्रसिद्ध इतिहासकार राय चौधरी का मत है कि “इन ग्रन्थों से प्राप्त सूचनाएं महाकाव्यों एवं पुराणों से प्राप्त सूचनाओं की तुलना में अधिक तर्कपूर्ण एवं विश्वसनीय हैं |”

(3) विदेशियों के वृत्तांत

प्राचीन काल में समय-समय पर अनेक विदेशी लेखक तथा यात्रियों को भारतीय संस्कृति ने प्रभावित किया. अतः उन्होंने भारत की यात्रा की और सम्पूर्ण भारत में भ्रमण करने के उपरान्त उन्होंने अपने

अनुभव के आधार पर भारत के सम्बन्ध में लेखन कार्य किया | इन साहसी यात्रियों द्वारा लिखित लेखों से भारतीय इतिहास के निर्माण में अत्यधिक सहायता प्राप्त हुई है |

इन विदेशी वृत्तान्तों का वर्णन निम्नलिखित ढंग से वर्गीकृत किया जा सकता है —

(क) यूनानी लेखक

यूनानी लेखकों में भारत के सम्बन्ध में लिखने वाला प्रथम लेखक हेरोडोट्स था जिसे इतिहास का पिता ( Father of History ) कहा जाता है | टीसीयम, मैगस्थनीज, डीमेक्स, एरियन, डायनीसिस, प्लूटार्क व स्ट्रेबो आदि लेखकों ने भी भारत के सम्बन्ध में बहुत कुछ अपनी पुस्तकों में लिखा है | हेरोडोट्स द्वारा लिखित ‘हिस्टोरिका’ से भारत की उत्तर पश्चिमी जातियों के तथा टीसियस द्वारा संगृहीत की गई अनेक कहानियों से भारत तथा ईरान के आपसी सम्बन्धों, मेगस्थनीज द्वारा लिखित ‘इण्डिका’ से मौर्य साम्राज्य के अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों, प्लूटार्क तथा स्ट्रेबो के लेखों से मौर्यकालीन भारतीय इतिहास, टॉलेमी के लेखों तथा ‘पेरीप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी’ नामक पुस्तक से भारतीय वाणिज्य बन्दरगाह तथा तत्कालीन प्राकृतिक दशा की जानकारी प्राप्त होती है |

(ख) चीनी यात्रियों के वृत्तान्त

चीन में ‘इतिहास के पिता के नाम से प्रख्यात इतिहासकार ‘सुमाशील के ग्रन्थ से भारत के सम्बन्ध में अनेक सूचनाएं प्राप्त होती हैं | चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के शासनकाल में प्रथम चीनी यात्री फाह्यान भारत आया | उसने यहाँ 15 वर्ष तक निवास कर अपनी पुस्तक ‘भारत की दशा का विवरण’ में तत्कालीन भारत की सामाजिक व राजनीतिक दशा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया | यात्रियों के सम्राट के रूप में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल में भारत आया था | उसने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘सी यू की’ (SiYuki) में हर्षकालीन भारत की सामाजिक व धार्मिक स्थति के विषय में लिखा | चीनी यात्री इत्सिंग के लेखों से सातवीं सदी के भारत के विषय में अत्यधिक महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि चीनी यात्रियों के वृत्तान्त प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं |

(ग) तिब्बतियों के वृत्तान्त

तिब्बत के लेखकों में लामा तारानाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध लेखक हैं | इनके द्वारा लिखित ‘कंग्यूर’ तथा ‘तंग्यूर’ ग्रन्थ में वर्णित वृत्तान्त प्राचीन भारतीय इतिहास के निर्माण में सहायक सिद्ध हुए हैं | चीनी व तिब्बती लेखकों के विवरण से मौर्यकाल के पश्चात के प्राचीन भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है |

(घ) मुस्लिम लेखक

प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रस्तुतीकरण में मुसलमान लेखकों के विवरणों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता | प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार एवं लेखक अलबेरूनी, ग्यारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत आए | उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘तहकीक-ए-हिन्द’ में तत्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक दशा का विस्तृत वर्णन किया है. इसके अतिरिक्त अन्य मुसलमान लेखक व इतिहासकारों यथा- अलबिलादुरी, सुलेमान अलमसूदी आदि के लेखों से भी प्राचीन भारतीय इतिहास के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है |

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि विदेशी लेखकों व यात्रियों के विवरण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त ही उपयोगी सिद्ध हुए हैं |

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