संगम साहित्य ( Sangam Sahitya )

संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) तमिल भाषा में रचित है जो दक्षिण भारत की प्राचीनतम भाषा है | तमिल साहित्य का आरंभिक ज्ञात साहित्य संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) है | तमिल साहित्य की रचना मदुरै के पांड्य राजाओं के दरबार में कवियों का संघ होता था | इस संघ को ही संगम कहा जाता है | परंतु कालांतर में यह बात स्वीकार की जाने लगी कि इस संगम या संघ का निर्माण साहित्य के विकास के लिए विद्वानों एवं कवियों ने स्वयं किया था |

तीनों संगमों का परिचय ( Introduction of Three Sangams )

‘संगम’ शब्द का अर्थ है – सभा | इस अर्थ में ‘संगम’ तमिल कवियों और विद्वानों के एक सभा थी | तमिल परंपरा के अनुसार प्राचीन समय में तीन संगम हुए | अधिकांश इतिहासकार इन तीनों संगमों का समय 200 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी के बीच मानते हैं | संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) के तीन संगम माने जाते हैं जिनका सामान्य परिचय निम्नलिखित है —

(i) प्रथम संगम ( First Sangam )

प्रथम संगम की अध्यक्षता अगस्त्य ऋषि ने की थी | इस संगम के प्रमुख कवियों में कुन्नमेरिन्द, मुरूगवल, तिरिपुर मेरिथ, मुदिनागरायर आदि का नाम लिया जा सकता है | इस संगम का गठन पाण्ड्य राजधानी मदुरा ( मदुरै ) में हुआ था । इस संगम को 89 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण मिला तथा इसकी अवधि 4400 वर्ष बताई गई है, ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत लगता है। इस संगम में रचित काव्य ग्रन्थों में परिपदल, अकत्तियम, मुदुकुरूक, कलिरियाविरै आदि मुख्य हैं। इनमें से कोई भी ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं है। सम्भवतः मदुरा नगरी के समुद्र में विलीन हो जाने के कारण प्रथम संगम समाप्त हो गया।

(ii) द्वितीय संगम (Second Sangam)

मदुरा के पतन के बाद पाण्ड्य शासकों ने द्वितीय संगम की स्थापना ‘कपाटपुरम’ अथवा ‘अलवें’ नगर में की। इस संगम के अध्यक्ष आरम्भ में अगस्त्य ही थे। बाद में उनका स्थान उनके शिष्य तोलकाप्पियार ने ले लिया। इस संगम में 49 विद्वानों ने भाग लिया। इसे कुल 59 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण बताया गया है। इसका काल 3700 वर्ष बताया गया है, जो कि बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है। द्वितीय
संगम में 3700 कविताओं की रचना का उल्लेख मिलता है। प्रमुख काव्य-ग्रन्थों में अंकतियम्, मापुरानम्, कलि, व्यालमलय्, कुरुक तथा तोल्काप्पियम शामिल हैं। इनमें से केवल एक ग्रन्थ तोलकाप्पियम मिलता है जो तमिल भाषा का व्याकरण ग्रन्थ है।

(iii) तृतीय संगम (Third Sangam)

तमिल परम्परा के अनुसार, दूसरे संगम की समाप्ति का कारण भी कपाटपुरम का समुद्र में डूब जाना माना जाता है। अतः तृतीय संगम
पुनः उत्तरी मदुरा में आयोजित हुआ। इस संगम का जीवन-काल 1850 वर्ष माना गया है | तृतीय संगम को 49 शासकों का संरक्षण प्राप्त था | इसमें भाग लेने वाले कवियों की संख्या 449 बताई जाती है। परन्तु ये तथ्य अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। इस संगम की अध्यक्षता नक्कीकर नामक महाकवि ने की थी। इस संगम के प्रसिद्ध ग्रन्थों में से अधिकांश आज उपलब्ध नहीं हैं | पत्थुप्पात्तु, एतुत्थोकई, पदिनेन कीलननक्कु, आज भी उपलब्ध हैं। अन्य प्रसिद्ध रचनाएँ परिपादल, पदिलुटपतु, नेडुण्थौके, कुरून्योके विशेष उल्लेखनीय हैं, परन्तु ये अब अप्राप्य हैं। तीसरे संगम में इन कविता संग्रहों के अतिरिक्त तीन बड़े महाकाव्यों को भी शामिल किया जाता है। इनके नाम हैं — शिल्पादिकारम्, मणिमेखलय और जीवक चिन्तामणि ।

उपलब्ध महत्वपूर्ण संगम ग्रन्थ (Available Important Sangam Books)

ऊपर दिए गए तीनों संगमों के वृत्तान्त के साथ-साथ, इन संगमों में रचित साहित्य के बारे में जानकारी प्राप्त करना भी उपयोगी है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस प्राचीन तमिल साहित्य के लिए ‘संगम’ शब्द का पहली बार प्रयोग सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए शैव सन्त तिरूनवुक्करासु नयनार (अप्पार) ने किया था। उन्होंने ‘संगम’ शब्द का प्रयोग कवियों के पारम्परिक संघ के अर्थ में ही किया था। तभी से संगम शब्द को प्राचीन तमिल साहित्य के संग्रह या समूह के लिए स्वीकार्य शब्द मान लिया गया। विशाल संगम साहित्य में से आज जो रचनाएँ उपलब्ध हैं उनकी संख्या 2289 है। इनमें से कुछ कविताएँ अत्यन्त छोटी (मात्र पाँच पक्तियों की) हैं और कुछ बहुत लम्बी हैं। एक कविता तो आठ सौ पंक्तियों से भी अधिक लम्बी है। ये कविताएँ 473 कवियों द्वारा रचित हैं जिनमें कुछ कवयित्रियाँ भी हैं। अधिकतर कविताओं के अन्त में टिप्पणियाँ भी दी गई हैं, जिनमें कवियों के नाम तथा कविता रचना की परिस्थिति आदि का विवरण है। कविताओं के अतिरिक्त तमिल व्याकरण तथा महाकाव्य भी उपलब्ध हैं। वर्तमान में उपलब्ध संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) के प्रमुख ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय निम्नलिखित प्रकार से है —

(1) पत्थुप्पात्तु

पत्थुप्पात्तु बहुत लम्बे दस काव्यों का संग्रह है। नम्किरर कृत एक काव्य मुरूगन नामक युद्ध के एक देवता की स्तुति की गई है। इसी कवि ने एक काव्य में एक राजा का युद्ध भूमि में वीरतापूर्वक युद्ध तथा महलों में रह रही रानी की विरह-वेदना का हृदय स्पर्शी वृत्तान्त प्रस्तुत किया है। एक अन्य बड़े कवि रूदन कन्नार के काव्य में 500 कविताएँ हैं जिनमें कांचीपुरम् का सुन्दर वर्णन है। इसी कवि का दूसरा काव्य एक प्रेम कथा है। इसमें चोल राज्य की राजधानी पुहार का विस्तार से वर्णन है। शेष छह काव्य छह कवियों की रचनाएँ हैं। इनके नाम हैं-मरूथनार, कन्नियार, कत्थथनार, नप्पुथनार, कपिलर और कैसिकनार। ये रचनाएं चोल और पाण्ड्य राजाओं को समर्पित हैं।

(ii) एतुत्योकई

इन कविताओं के आठ संग्रह हैं। संग्रहों में 70 से 500 कविताएँ हैं। इन कविताओं की विषय-वस्तु प्यार और निजी व आन्तरिक मनोभाव हैं या राजाओं और वीरों के कृत्यों का बखान है। कई कविताओं में नगरों (विशेषत: मदुरा शहर) और नदियों के सौंदर्य आदि का भी वर्णन है।

(iii) पदिनेन कीलकनक्कु

इसमें 18 धर्मोपदेशों का संग्रह है। इनमें सबसे प्रसिद्ध तिरूवल्लुवर की रचना ‘कुराल’ या ‘तिरूकुराल’ है। इसमें दस-दस कविताओं के 118 वर्ग-भाग हैं। कुराल धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र एवं कामसूत्र तीनों का संगम है। लेकिन धार्मिक ज्ञान और नैतिक मूल्यों की जानकारी के लिए इसका अधिक महत्व है। इसलिए इस पुस्तक को तमिल वेद या संक्षिप्त वेद भी कहा जाता है।

(iv) शिल्पादिकारम्

शिल्पादिकारम् एक महाकाव्य है। इसका लेखक चोल नरेश करिकल का पौत्र इंलगोवन था, परन्तु वास्तविक रचनाकार के सम्बन्ध में विवाद है। यह महाकाव्य बहुत यथार्थवादी है। इसमें पुहार या कावेरीपत्तनम् के धनी व्यापारी के पुत्र कोवलन और उसकी अभागी पत्नी कन्नगी का बहुत दुखद और मार्मिक चित्रण है। कन्नगी एक पतिव्रता नारी थी। उसका पति कोवलन माधवी नामक एक वेश्या के चक्कर में अपना धन गंवा बैठता है। वह गरीब होकर पुहार से मदुरा चला जाता है। वहाँ पर मदुरा की रानी के हार की चोरी के आरोप में पाण्ड्य राजा शेनगुट्टव द्वारा उसको प्राण दण्ड दिया जाता है। कन्नगी द्वारा अपने पति को निर्दोष सिद्ध करने पर राजा को पश्चात्ताप हुआ तथा इस आघात से सिंहासन पर ही उसकी मृत्यु हो गई। आज भी दक्षिण में कन्नगी की पूजा प्रचलित है। यह अनेक धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं से परिपूर्ण है।

(v) मणिमेखलम

यह भी महाकाव्य है। इसका लेखक मदुराई के कवि सतनार या शातन को बताया जाता है। लेखक बौद्ध धर्म का एक अनुयायी लगता है। इसकी नायिका मणिमेखलम् (शिल्पादिकारम् के नायक कोवलन की पुत्री) है। वह अपने प्रेमी की मृत्यु का समाचार सुनकर बौद्ध भिक्षुणी हो जाती है। इस ग्रन्थ का अन्य उद्देश्य बौद्ध धर्म के उत्थान को दर्शाना है।

(vi) जीवक चिन्तामणि

यह भी महाकाव्य है। उत्तर संगम साहित्य से जुड़े इस ग्रन्थ का नायक जीवक है। वह अपने पिता के हत्यारे से बदला लेता है और पिता का खोया हुआ राज्य वापस प्राप्त करता है। नायक को युवावस्था में ही वैराग्य हो जाता है। अतः वह राज्य छोड़कर जैन मुनि बन जाता है। जीवक चिन्तामणि दक्षिण में जैन मत पर भी प्रकाश डालता है।

(vii) तोलकाप्पिय

वीर काव्य ग्रन्थों तथा महाकाव्यों के अलावा संगम साहित्य के अन्तर्गत तमिल व्याकरण का ग्रन्थ ‘तोलकाप्पियम’ भी आता है। इसकी रचना अगस्त्य के शिष्य तोलकाप्पियार तथा अगस्त्य ऋषि के 11 शिष्यों द्वारा की गई है। यह ग्रन्थ तमिल व्याकरण, साहित्य परम्परा तथा समाजशास्त्र की एक रचना है। इसे तमिल साहित्य की सभी साहित्यिक परम्पराओं का स्रोत भी स्वीकार किया जाता है।

संगम साहित्य का रचना-काल (Writing Period of Sangam Literature)

संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) के रचनाकाल को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। यह साहित्य मूल रूप से तमिल तथा आर्य, दो भिन्न संस्कृतियों के योग से विकसित हुआ है। परन्तु इसका आरम्भ किस काल से हुआ, यह ज्ञात नहीं है। संगम साहित्य की जो रचनाएं आज उपलब्ध हैं, वास्तव में भिन्न-भिन्न कालों में रची गई हैं। संगम साहित्य के काल निर्धारण में सबसे बड़ी समस्या यह है कि आरम्भिक और बाद के स्वरूप को निश्चित करना कठिन है क्योंकि ये सब एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। नीलकण्ठ शास्त्री इनका रचनाकाल 100 ई० से 300 ई० के मध्य मानते हैं। श्रीनिवास आयंगर के अनुसार कि संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) 500 ई० पू० से 500 ई० के बीच में रचा गया है। परन्तु यह मत स्वीकार नहीं किया जाता । रामशरण शर्मा के अनुसार, संगम साहित्य की रचना ईसा की लगभग तीसरी सदी से छठी शताब्दियों के मध्य हुआ। यह निश्चित रूप से स्वीकार किया जा सकता है कि इस साहित्य के उद्भव के साथ ही सुदूर दक्षिण प्रागैतिहासिक काल से निकलकर ऐतिहासिक काल में प्रवेश कर गया। इसकी संरचना काल से मेल खाते अभिलेख (अशोक के अभिलेख और खारवेल का अभिलेख) भी प्राप्त होते हैं। इस साहित्य में वर्णित समाज और संस्कृति का मेल विदेशी लेखकों की पुस्तकों में भी मिलता है। उदाहरण के लिए, यूनान तथा रोम के लेखकों; जैसे टालमी, प्लिनी दि एल्डर, स्ट्रैबो तथा पेरिप्लस का लेखक दक्षिण के भूगोल और इतिहास की जानकारी देते हैं जो कि संगम साहित्य के वर्णन से मेल खाती है।

संगम साहित्य का महत्व (Importance of Sangam Literature )

नीलकण्ठ शास्त्री ने अपनी पुस्तक ‘A History of South India’ में लिखा है कि संगम साहित्य ( Sangam Sahitya ) में आदर्शवाद के साथ वास्तविकता और उच्च कोटि की गरिमा के साथ परिश्रम और शक्ति का सम्मिश्रण था। संगम युग तमिल साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है। इसे ‘साफ तमिल, साहित्य’ भी कहा जाता है। संगम साहित्य संस्कृत भाषा एवं साहित्य के समानान्तर की साहित्य परम्परा का प्रतिनिधित्व भी करता है। इस पर संस्कृत का प्रभाव भी है, परन्तु प्रमुख तौर पर इसकी उत्पत्ति तमिल लोक कथाओं पर आधारित वीर काव्य के रूप में हुई है। इसके रचयिता दरबारी कवि ही नहीं घुमक्कड़ भाट कवि भी थे। यह काव्य वैदिक साहित्य की तुलना में लोक परम्परा से अधिक जुड़ा हुआ है। इसके अतिरिक्त संगम साहित्य 200 ईस्वी पूर्व से 300 ईस्वी तक के इतिहास को जानने का महत्त्वपूर्ण स्रोत है | इतिहासकारों के अनुसार तमिल साहित्य के साथ ही दक्षिण भारत प्रागैतिहासिक काल से निकलकर ऐतिहासिक काल में प्रवेश करता है | भले ही संगम साहित्य से तिथि-क्रम की प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती लेकिन इससे दक्षिण भारत की राजनीतिक इतिहास, प्रशासनिक व्यवस्था, सामाजिक स्थिति, धार्मिक परम्पराओं एवं संस्कृति के संबंध में पर्याप्त सामग्री मिलती है |

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