त्रिपक्षीय संघर्ष / त्रिकोणीय संघर्ष

सम्राट हर्षवर्धन ने 606 ईसवी से 647 ईसवी तक उत्तर भारत में शासन किया | कन्नौज उसकी राजधानी थी | 647 ईस्वी में हर्ष की मृत्यु के पश्चात उत्तरी भारत में राजनीतिक उथल-पुथल मच गई | हर्ष के बाद शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के अभाव में उसका साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों व रियासतों में बँट गया। इस परिवर्तन की दौड़ में कन्नौज का राजनैतिक व सामरिक महत्व सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। कन्नौज को प्राप्त करने के उद्देश्य से पश्चिमी भारत के गुर्जर-प्रतिहार, पूर्वी भारत के पाल तथा दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूटों के बीच एक लम्बा एवं रक्तरंजित संघर्ष हुआ, जिसे त्रिपक्षीय संघर्ष या त्रिकोणीय संघर्ष कहा जाता है।

वास्तव में 8वीं तथा 9वीं शताब्दियों में भारत के नवोदित राजवंशों के लिए कन्नौज का वही महत्व था जो प्राचीनकाल में मगध के इतिहास में पाटलिपुत्र का था। यद्यपि त्रिकोणीय संघर्ष से पूर्व भी कई राजवंशों ने कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित करने के प्रयत्न किए थे किन्तु जितना महत्वपूर्ण संघर्ष प्रतिहार, पाल तथा राष्ट्रकूटों के बीच हुआ उसका अन्यत्र उदाहरण नहीं मिलता। इस संघर्ष की महत्ता के आधार पर कई विद्वान् तो 9वीं शताब्दी को त्रिपक्षण संघर्ष की शताब्दी कहकर पुकारते हैं।

(1) त्रिपक्षीय संघर्ष के कारण (Causes of Tripartite Struggle)

त्रिपक्षीय संघर्ष ( Tripartite Struggle ) किसी एक कारण का परिणाम न होकर अनेक कारणों का प्रतिफल था। इस संघर्ष के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे —

(i) कन्नौज की आर्थिक समृद्धि

त्रिपक्षीय संघर्ष ( Tripartite Struggle ) का सबसे प्रमुख कारण कन्नौज की आर्थिक समृद्धि था। यह उत्तरी भारत के विशाल गंगा-यमुना के मैदान में स्थित होने के कारण धन-धान्य से परिपूर्ण था। इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में खनिज पदार्थ भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। इस क्षेत्र में सड़कों व जलमार्गों के जाल ने इसके आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया। फलस्वरूप तीनों ही शक्तियाँ – पाल, प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट इसे अपने-अपने राज्य का अंग बनाना चाहती थी।

(ii) कन्नौज का सांस्कृतिक महत्त्व

कन्नौज उत्तरी भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र था। हर्ष ने इसे अपनी राजधानी बनाकर इसके सांस्कृतिक विकास की ओर ध्यान दिया। उत्तरी भारत के सभी प्रसिद्ध धार्मिक एवं सांस्कृतिक स्थल जैसे इलाहाबाद, ऋषिकेश, मथुरा, थानेसर आदि इसी विशाल उत्तरी मैदान में स्थित थे। हर्ष ने कन्नौज को इन धर्मस्थलों के बीच संस्कृति का केन्द्र बनाकर इसके महत्व को और बढ़ा दिया। जनता की धर्म आसक्ति को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक शासक इन धर्मस्थलों पर अपना आधिपत्य जमाकर जन-भावनाओं को अपने साथ जोड़ना चाहता था। इसीलिए भिन्न-भिन्न शासकों ने इन सांस्कृतिक केन्द्रों को अपने अधिकार में ले लिया। इस आपसी छीना-झपटी में बनारस व प्रयाग पालों ने जीत लिया तो मथुरा व थानेसर प्रतिहारों ने झटक लिया। ये दोनों ही शक्तियाँ अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि करना चाहती थीं। इसके लिए कन्नौज पर अधिकार करना आवश्यक था। इसलिए यह त्रिपक्षीय संघर्ष हुआ।

(iii) कन्नौज का भौगोलिक महत्त्व

भौगोलिक दृष्टि से कन्नौज की स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण थी। यह गंगा-यमुना नदियों के बीच उत्तर की ओर से हिमालय की श्रृंखलाओं से एकदम सुरक्षित था | पाल तथा प्रतिहार दोनों की उत्तरी भारत में अपने प्रभाव की वृद्धि के लिए सुरक्षित राजधानी चाहते थे। ऐसी सुरक्षित स्थिति केवल कन्नौज की ही थी। और इन दोनों के बीच इसकी प्राप्ति के लिए एक लम्बा संघर्ष चला।

(iv) अयोग्य शासक

5वीं शताब्दी से लेकर 10वीं शताब्दी के बीच के लम्बे काल में हर्ष को छोड़कर कन्नौज पर किसी शक्तिशाली व योग्य शासक का शासन नहीं रहा। हर्ष के उत्तराधिकारी तो इस मामले में अपने पूर्ववर्तियों से भी निकम्मे सिद्ध हुए। यही कारण है कि कश्मीर कि कश्मीर के करकोर तथा बंगाल के पाल शासकों ने समय-समय पर कन्नौज को अपने आक्रमणों का निशाना बनाया |

(v) मुस्लिम आक्रमण

आठवीं शताब्दी का काल भारतीय इतिहास में संक्रमण काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में एक ओर तो प्राचीनकाल के तत्त्व मौजूद थे, जबकि दूसरी ओर मध्यकालीन लक्षण भी स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। आन्तरिक परिवर्तन के इस दौर में ही 712-13 ई० में मुहम्मद-बिन-कासिम के आक्रमण के बाद इस क्षेत्र पर मुसलमानों (अरबों) के निरन्तर आक्रमण हो रहे थे। इन आक्रमणों का सर्वाधिक नुकसान पश्चिमी भारत के प्रतिहारों को उठाना पड़ रहा था। इस नुकसान से बचने के लिए वे अपनी राजधानी किसी सुरक्षित स्थान पर बनाना चाहते थे। यह स्थान कन्नौज था जो कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पालों के नियन्त्रण में था। अतः इन दोनों के बीच संघर्ष अनिवार्य हो गया।

(vi) महत्वाकांक्षी साम्राज्यवादी सोच

आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच चलने वाले इस त्रिपक्षीय संघर्ष का प्रमुख कारण वर्चस्व की लड़ाई था। ये तीनों ही शक्तियाँ – पाल,
प्रतिहार तथा राष्ट्रकूट यह जानती थीं कि भारत का स्वामी बनने के लिए कन्नौज पर अधिकार करना अति आवश्यक है। इस प्रकार कन्नौज पर अधिकार करना तीनों ही शक्तियों की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया। प्रतिहार तथा पाल तो इस नगर को अपने अस्तित्व का प्रश्न मानते थे, जबकि राष्ट्रकूट उत्तरी भारत में अपनी पैठ बनाने के लिए कन्नौज को जीतना चाहते थे। फलस्वरूप यह त्रिपक्षीय संघर्ष एक लम्बे समय तक चलता रहा।

(2) त्रिपक्षीय संघर्ष के चरण (Stages of Tripartite struggles)

त्रिकोणीय संघर्ष गुर्जर-प्रतिहार, पाल व चालुक्यों के बीच 780 ईo से 925 ई० तक चलता रहा। इस संघर्ष को छह चरणों में विभाजित किया जा सकता है जिनका वर्णन निम्नलिखित है —

(क) प्रथम चरण

कन्नौज की प्राप्ति के लिए पहला चरण पाल वंश एक शक्तिशाली
शासक धर्मपाल के समय में आरम्भ हुआ। धर्मपाल कन्नौज को हथियाकर अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, किन्तु प्रतिहार राजा वत्स इसे सहन करने के लिए तैयार नहीं था। उसने दोआब में हुए एक युद्ध में धर्मपाल को हरा दिया। इसी समय महान राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने कन्नौज को अपने अधिकार में लेने के उद्देश्य से वत्सराज पर आक्रमण कर उसे भगा दिया। फिर उसने धर्मपाल को भी एक लड़ाई में पराजित किया।

डॉ० आर०सी० मजूमदार के अनुसार , “इस प्रकार साम्राज्य के लिए पाल, गुर्जर-प्रतिहार व राष्ट्रकूटों में त्रिकोणीय संघर्ष आरम्भ हुआ और वह अगली शताब्दी तक भारत के राजनीतिक इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व रहा।”

राष्ट्रकूट राजा ध्रुव को अपने साम्राज्य में अनेक आंतरिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। धर्मपाल ने मौके का फायदा उठाकर कन्नौज को जीतकर चक्रयुध को वहाँ की गद्दी पर बैठा दिया।

(ख) द्वितीय चरण

दूसरे चरण के संघर्ष का आधार पहला चरण था। इस संघर्ष में राष्ट्रकूट शासक ध्रुव का उत्तराधिकारी गोविन्द तृतीय धर्मपाल के कार्यों से असन्तुष्ट था। वह उसे सबक सिखाना चाहता था। इसी बीच प्रतिहार शासक वत्सराज के उत्तराधिकारी नागभट्ट द्वितीय ने चक्रयुध को हराकर कन्नौज पर अधिकार कर लिया | उसके बाद उसने मुंगेर के पास एक युद्ध में धर्मपाल को हरा दिया। तभी राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय भी कन्नौज पर अधिकार करने के लिए उत्तरी भारत की ओर बढ़ा। उसने पाल व प्रतिहार शासकों से एक साथ लड़ने की अपेक्षा धर्मपाल से समझौता कर लिया | इसी बीच गोविन्द तृतीय को अपने साम्राज्य में फैली अशांति को दबाने के लिए दक्षिण लौटना पड़ा | इस स्थिति का लाभ पाल शासकों ने उठाया |

(ग ) तृतीय चरण

इस चरण के प्रथम पक्ष में पाल शासकों की स्थिति मजबूत रही। इसका प्रमुख कारण प्रतिहारों व राष्ट्रकूटों की केन्द्रीय सत्ता का कमजोर होना था। पाल शासक देवपाल ने प्रतिहार शासक रामचन्द्र तथा उसके बाद मिहिरभोज को पराजित किया। किन्तु देवपाल की मृत्यु के बाद स्थिति में परिवर्तन आया। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष ने पाल शासकों पर आक्रमण कर उन्हें कमजोर बना दिया। प्रतिहार शासक मिहिरभोज ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए कन्नौज को अपने राज्य की राजधानी बना लिया। इसके बाद पालों की शक्ति बंगाल तक ही सीमित होकर रह गई।

(घ) चतुर्थ चरण

इस चरण में सर्वाधिक ख्याति प्रतिहार शासक मिहिरभोज की रही।
उसने अपने साम्राज्य का विस्तार करते हुए पाल शासक नारायण पाल से उसका राज्य छीन लिया तथा राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को भी पराजित कर अपनी शक्ति का लोहा मनवाया । मिहिर भोज प्रथम के बाद उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल ने पालों तथा राष्ट्रकूटों के वर्चस्व को उभरने नहीं दिया। एक समय तो ऐसा आया जिससे लगा कि कन्नौज के लिए संघर्ष समाप्त हो गया।

(ङ) पंचम चरण

इस चरण में प्रतिहारों की शक्ति और प्रतिष्ठा गिरी। महेन्द्रपाल का
उत्तराधिकारी महीपाल उसके समान योग्य नहीं था। जबकि उसके प्रतिद्वन्द्वी राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय ने अपनी शक्ति एकत्र कर महीपाल पर आक्रमण कर उसके राज्य को लूटा। पाल शासक बंगाल में आपसी संघर्षों में घिरे होने के कारण कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। यद्यपि महीपाल ने चंदेलों से मित्रता कर कन्नौज को वापस ले लिया किन्तु राष्ट्रकूटों की शक्ति अभी भी अविजित ही रही।

(च) षष्ठम चरण

त्रिपक्षीय संघर्ष के अन्तिम चरण तक आते-आते तीनों ही राजवंश
अवनति की ओर अग्रसर होने लगे थे। इन्द्र तृतीय के बाद कोई भी योग्य राष्ट्रकूट नरेश सत्ता में नहीं आया जो उत्तरी भारत की राजनीति में हस्तक्षेप कर सके। यद्यपि 988 से 1038 ई० तक महीपाल के शासनकाल में पालों की शक्ति बची रही किन्तु वे भी अब अपने क्षेत्र तक ही सीमित रह गए। हाँ प्रतिहार अवश्य कन्नौज पर अपना दबाव बनाए रहे, भले ही उनकी भी पतनावस्था शुरू हो चुकी थी। इस प्रकार त्रिपक्षीय संघर्ष का अन्तिम चरण संघर्षहीन रहा तथा प्रतिहार कमजोर होते हुए भी कन्नौज के मालिक बने रहे।

(3) त्रिपक्षीय संघर्ष के परिणाम ( Consequences of Tripartite Struggle )

कन्नौज के लिए लगभग 150 वर्ष चलने वाला यह लम्बा संघर्ष, जिसे हम कन्नौज पर वर्चस्व की लड़ाई कह सकते हैं, आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर शुरू हुआ। यह संघर्ष अन्तिम रूप से किसी निर्णायक स्थिति को प्राप्त न कर सका। तीनों ही राजवंशों ने अपनी पूरी ताकत इस संघर्ष में झोंक के बावजूद कोई भी वंश अन्तिम तौर पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध न कर सका। यह ठीक है कि कन्नौज पर अधिकतर समय प्रतिहारों का आधिपत्य रहा किन्तु पाल तथा राष्ट्रकूट उन्हें लगातार चुनौती देते रहे। प्रतिहारों ने जब भी उत्तरी भारत पर अपनी पकड़ मजबूत की तभी राष्ट्रकूटों ने उनके इस आधिपत्य को तोड़ने का प्रयत्न किया। राष्ट्रकूटों के लिए सुदूर दक्षिण से आकर उत्तरी भारत पर शासन करना सम्भव नहीं था। किन्तु वे यहाँ अपनी उपस्थिति दर्ज कराने तथा यहाँ से धन लूटकर ले जाने में सफल रहे।

त्रिपक्षीय संघर्ष के इस लंबे संघर्ष में यह तीनों राजवंश इतने कमजोर हो गए कि अपने-अपने प्रदेशों को भी नियंत्रण में न रख सके इनकी आंतरिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई | प्रतिहार साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विखंडित हो गया | दूसरी तरफ राष्ट्रकूटों का स्थान भी धीरे-धीरे चालुक्यों ने ले लिया | बंगाल में पाल वंश पूरी तरह से शक्तिहीन हो गया और उसका स्थान सेन वंश ने ले लिया | इस प्रकार आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर शुरू हुआ यह संघर्ष तीनों ही शक्तियों के लिए अत्यंत विनाशकारी सिद्ध हुआ |

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