सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला

सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला

सल्तनत काल में सांस्कृतिक दृष्टि से भी अनेक परिवर्तन हुए | यह परिवर्तन सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ | दिल्ली के सुल्तानों ने कला और स्थापत्य कला के क्षेत्र में विशेष रूचि दिखाई | सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला के विकास का वर्णन इस प्रकार है —

सल्तनत काल में कला का विकास

सल्तनत काल में चित्रकला, संगीत कला व नृत्य कला का उल्लेखनीय विकास हुआ | भले ही इस्लाम धर्म की परम्पराओं व मान्यताओं के अनुसार इन परिवर्तनों को सम्मानजनक नहीं माना जाता। लेकिन धर्म की सीमाओं को त्यागकर भारतीय संस्कृति के विकास के रूप में अपनी पहचान बनाने में ये काल महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ |

(1) चित्रकला का विकास

इस्लाम में किसी जीवित प्राणी के चित्र बनाना निषेध माना जाता है। इसलिए यह माना जाता रहा कि दिल्ली सल्तनत के सुलतानों के धार्मिक दृष्टिकोण के कारण चित्रकला का पतन हुआ। 1947 ई० में ‘जर्नल आफ द इण्डियन सोसाइटी आफ, ओरिएण्टल आर्ट’ में हरमन गोटज का एक विशेष लेख छपा। इस लेख में प्रारम्भिक मुस्लिम कला शैलियों का उल्लेख करते हुए सल्तनत कालीन चित्रकला के बारे में बताया गया था। इसके बाद बैहाकी द्वारा सल्तनत कालीन चित्रकला के बारे में शोध करके कुछ निष्कर्ष निकालेगए | जिससे पूर्व स्थापित धारणा समाप्त होने लगी और चित्रकला का विकास होने लगा।

तत्कालीन साहित्यिक स्रोतों व पुरातात्विक सामग्री से भी सल्तनत काल में चित्रकला के विकास की पुष्टि होती है। इनसे पता चलता है कि इस काल में नीति चित्र, लघुचित्र व चित्राँकित पांडुलिपियाँ तैयार होती थीं।

तातऊद्दीन रजा व इसामी के लेखों में इस बात का उल्लेख है कि इल्तुतमिश के समय में ही चित्रकला का प्रचलन प्रारम्भ हो गया था। इल्तुतमिश के काल में चीनी चित्रकार दिल्ली आए थे। इनको सुलतान द्वारा उचित सम्मान व संरक्षण दिया गया था। समकालीन फारसी
व हिन्दी साहित्य में अलाऊद्दीन खलजी के काल में नीति चित्रों व कपड़े पर बने चित्रों का उल्लेख है। इससे यह जानकारी मिलती है कि महल के निजी कक्षों की दीवारों को सुन्दर भित्ति चित्रों से सजाया जाता था। कपड़े पर भी कसीदे के माध्यम से सुन्दर चित्र बनाए जाते थे।

सल्तनत काल में चित्रकला का सर्वाधिक विकास फिरोज़ तुगलक के काल में हुआ | अफ़ीफ़ ने ‘तारिख-ए-फिरोजशाही’ में लिखा है — “सुलतानों में यह रिवाज है कि वे अपने आराम गृहों को चित्रों की दीर्घाओं से सुसज्जित करते हैं।”

फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल के भित्ति चित्रों के उदाहरण चम्पानेर, सरहिंद व मखदुमवली से मिलते हैं। इन मस्जिदों व स्मारकों को सुन्दर बेल-बूटों से सजाया गया था।

चित्रकला के क्षेत्र में जहाँ भिति चित्रों के माध्यम से विकास हुआ, वहीं पांडुलिपियों पर भी चित्रों को अंकित किया गया। इस माध्यम से कला का विकास सल्तनत के अतिरिक्त मांडू, जौनपुर व बंगाल में हुआ। इन पांडुलिपियों में ताड़ के पत्तों व कागज पर सुंदर चित्र बनाए गए। पुस्तकों के किनारों को रंगों की सहायता से सजाया गया। इस काल की प्रमुख पांडुलिपियाँ जो चित्रित थी उनमें खम्सा, शाहनामा, मथनवी, नियामतनामा, लोह चंदा, गीत-गोबिन्द, भागवत पुराण व राग माला प्रमुख है। इन पुस्तकों में चित्रों के माध्यम से विभिन्न दृश्यों को दर्शाया गया है जिससे विषय-वस्तु स्पष्ट होती है। नटराज की मूर्तियों को भी इन ग्रन्थों में जगह दी गई है।

(2) संगीत का विकास

चित्रकला की भाँति इस्लाम में संगीत कला भी निषेध है। निषेध होने के उपरान्त भी यह सल्तनत काल में काफी विकसित हुआ। संगीत के विकास में सूफी सन्तों, हिन्दू सन्तों एवं राजदरबार की भूमिका प्रमुख रही। इस काल में उत्तरी भारत व दक्षिण भारत में संगीत की दो विभिन्न धाराओं का विकास हुआ। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि कुरान की पाबंदियों के कारण अधिकतर सुलतान संगीत पसन्द नहीं करते थे, परन्तु फिर भी कई सुलतानों व उनके परिवार के सदस्यों ने इसे संरक्षण दिया। इसमें बलबन, उसका पुत्र बुगरां खाँ, अलाऊद्दीन खलजी व मुहम्मद तुगलक का नाम आता है।

सल्तनत कालीन संगीत परम्परा के आदि संस्थापक के रूप में अमीर खुसरों को जाना जाता है। वह अपने समय का भारत का सबसे महान संगीतज्ञ था। उसने ऐमान, घोरा, सनम, तिलक, साजगिरी व सरपाज इत्यादि रागों का प्रचलन किया। इसी कारण उसे नायक व ‘तोता ए हिंद’ की उपाधि दी गई। वह भारतीय संगीत से प्रभावित था। उसने भारतीय रागों को बारह भागों में विभाजित किया। स्वरों का नाम भी ईरानी नामों के आधार पर किया। अमीर खुसरो को तबला व सितार का आविष्कारक भी माना जाता है लेकिन कुछ इतिहासकार इस पर आपत्ति भी करते हैं। कव्वाली की शुरुआत भी अमीर खुसरो के द्वारा मानी जाती है। अमीर खुसरो के अतिरिक्त एक अन्य संगीतज्ञ गोपाल था। जिसे अलाऊद्दीन खलजी ने संरक्षण दिया। संगीत के विकास में फिरोज़ तुगलक का नाम अन्य शासकों की तुलना में अधिक विख्यात है। फिरोज़ तुगलक के समय वाद्य यन्त्रों व संगीत में तुर्क व भारतीय क्षेत्रों के एकीकरण की प्रक्रिया चलती रही। उसने ‘राग दर्पण’ नामक गीत ग्रन्थ का फारसी में अनुवाद करवाया। जौनपुर व ग्वालियर उसके समय में ही संगीत के केन्द्र के रूप में विख्यात होने लगे थे। जिसकी पूर्णता शर्की शासकों के काल में हुई। हसनशाह शर्की ने राग ख्याल दिया व संगीत शिरोमणी ग्रन्थ की रचना की। हसन-ए-देहलवी को उसकी गज़लों के कारण ‘भारत का सीदी’ कहा जाता था। मालवा का बाजबहादुर तथा ग्वालियर का मानसिंह संगीत क्षेत्र की महान् हस्तियाँ मानी जाती थीं। चिन्तामणी को बिहारी बुलबुल’ की उपाधि से नवाजा गया। मुहम्मद तुगलक का संगीत प्रेम उसके समूह के 1200 गायकों से पता चलता है। सूफी सन्तों का योगदान गजलों व कव्वालियों में अधिक रहा। हिन्दू सन्तों में चैतन्य का नाम आता है, उसने कीर्तन शैली को बढ़ावा दिया। यह शैली उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हुई।

(3) नृत्य कला का विकास

सल्तनतकाल में नृत्य कला का विकास राजदरबार में कम तथा बाहर अधिक हुआ। यही कारण है यह कला प्रथम दो कलाओं की तुलना में कम विकसित हो पाई। कुछ शाही दरबार व अमीरों ने नृत्यकारों को संरक्षण दिया। जिससे यह कला दरबार में संरक्षण पाने लगी । सल्तनत काल में कुछ सुल्तानों के दरबार में नृत्यांगनाएँ रखी जाती थीं। इनका मुख्य उद्देश्य शाही परिवार व अमीर वर्ग का मनोरंजन करना था।

नृत्य के क्षेत्र में इस काल में दक्षिण भारत ने अधिक उन्नति की। यहाँ पर नृत्य की कई शैलियों का विकास भी हुआ। नई शैलियों में भरतनाट्यम, मौहनीअट्टम व कथकली थी। उड़ीसा के मन्दिरों में देवदासियों के द्वारा नृत्य किया जाता था उससे ओडिसी शैली का विकास हुआ | देवदासियों के अतिरिक्त नृत्य में सामान्य दासियाँ भी भाग लिया करती थीं। इस समय नटराज की छवि भी पहले से अधिक प्रचलित हुई इसे भगवान शिव के प्रतीक के रूप में जाना जाता था। इस कला के विकास के साथ नाटक व वाकनाटक भी पहले की तुलना में अधिक विकसित हुए। दरबार के सन्दर्भ में नृत्य का सर्वाधिक प्रचलन बलबन के उत्तराधिकारियों के काल में हुआ |

अफगानों की इस क्षेत्र में भूमिका नहीं के बराबर थी। इस काल में नृत्यांगनाओं की छवि अच्छी नहीं मानी जाती थी।

सल्तनत काल में स्थापत्य कला का विकास ( Development in Architecture in Sultanate Period )

सल्तनत काल में स्थापत्य कला के क्षेत्र में भी बड़ी तेजी से विकास हुआ। इससे पहले भी भारत भवन निर्माण कला काफी विकसित थी। भारत में बड़े-बड़े सुन्दर भवन, मन्दिर, आवास, राजमहल व किले थे। इनको देखकर ये शासक प्रभावित हुए। फलतः उन्होंने इस क्षेत्र में कार्य करना अनिवार्य समझा। उनके द्वारा स्थापत्य कला के रूप में अनेक भवनों का निर्माण करवाया गया। इस काल में भवन निर्माण क्षेत्र में कुछ बदलाव आए तथा नई शैली का विकास हुआ।

सल्तनतकालीन स्थापत्य कला को दो बिंदुओं में समझा जा सकता है —

(क ) सल्तनतकाल में स्थापत्य कला में बदलाव (Change in Architecture)

(ख ) दिल्ली सल्तनत के प्रमुख भवन (Main Buildings of the Delhi Sultanate)

(क ) सल्तनतकाल में स्थापत्य कला में बदलाव (Change in Architecture)

सल्तनतकालीन वास्तुकला में परम्परागत भारतीय तथा इस्लामिक वास्तुकला का मिश्रण था। इसलिए इस नई विकसित कला को इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला (स्थापत्य कला) कहा जाता है। वैसे तो सातवीं शताब्दी में ही भारतीय स्थापत्य पर इस्लामिक प्रभाव दिखाई देने लगा था परन्तु यह सल्तनत की स्थापना के बाद अधिक स्पष्ट हुआ ।

सल्तनतकालीन स्थापत्य कला (वास्तुकला) की कुछ विशेषताएँ इस प्रकार हैं —

(A) सल्तनत की स्थापना से भारतीय वास्तुकला में सर्वप्रथम शैली के आधार पर बदलाव आया। भारत की परम्परागत शैली को स्थानीय शैली कहा जाता था। इस स्थानीय शैली में ‘शहतीरी शिल्प कला’ का प्रचुर प्रयोग होता था। इसमें तिरछी व खड़ी रेखाएँ भवनों में बनाई जाती थीं। इसके लिए स्तम्भों को खड़ा करके कड़ियों इत्यादि का सहारा देकर प्रकोष्ठों की सहायता से इसे तैयार किया जाता था। अब इसमें नए प्रयोग मेहराब व गुब्बद का प्रयोग था। जिसके तहत अब किसी लकड़ी इत्यादि का प्रयोग बीच में सहारे के लिए नहीं किया जाता था।

(B) स्थानीय शिल्प की दूसरी विशेषता धार्मिक मौलिकता थी। जिसके तहत किसी भवन को बनाते हुए पदम चक्र एवं स्वास्तिक का निशान अंकित होता था। इसे हिन्दू वास्तुकला की लोक शैली कहा जाता था। सल्तनतकाल में जितने भी भवन बने, उनमें ये दोनों तत्त्व कहीं भी दिखाई नहीं दिए।

(C) तीसरा परिवर्तन भवनों की सजावट के सन्दर्भ में था। इस्लाम में जीवित वस्तुओं का चित्रण निषेध था। इसलिए भवनों को लिखावट व ज्यामितीय आकृतियों से सजाया जाने लगा।

(D) तुर्की की वास्तुकला शैली अरबी थी, परन्तु अब जिस कला शैली का प्रयोग हुआ उसे ‘अरबस्क’ कहा जाता था। इसमें भारतीय वास्तुकला एवं अलंकरण का इस्लामिक कला पर प्रभाव साफ दिखाई देता है।

(E) नई विकसित शैली पर ईरानी व अरबी प्रभाव तो था ही कहीं-कहीं सुलतानों का व्यक्तिगत रुझान व धर्म का प्रभाव अन्य तत्त्वों से अधिक भारी प्रतीत होता है। जैसा कि कश्मीर क्षेत्र में इसमें लकड़ी के भवनों का निर्माण अधिक हुआ।

(ख ) दिल्ली सल्तनत के प्रमुख भवन (Main Buildings of the Delhi Sultanate)

सल्तनत की स्थापना के साथ ही भारत में भवन-निर्माण प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। इस काल की भकन-निर्माण कला में विभिन्न वंशों के शासकों की भूमिका रही। अतः हम इसे विभिन्न वंशों के आधार पर सल्तनतकाल के भवनों का परिचय देंगें —

(A ) मामुलक शासकों के भवन (1206-1290 ई०)

मामुलक दिल्ली सल्तनत का पहला वंश था। इसके प्रारम्भिक दिनों में ही वास्तुकला के क्षेत्र में नए प्रयोग होने लगे थे। दिल्ली सल्तनत के काल का पहला भवन ‘कुब्बत-उल-इस्लाम’ था। इसका निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली में रायपिथोरा के किले में करवाया था। यह भारत में निर्मित तुर्क-मस्जिद थी। इसका निर्माण विष्णु मन्दिर के स्थान पर करवाया गया था। कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा ही निर्मित एक प्रमुख भवन अजमेर में बनाया गया। इसे अढाई दिन का झोंपड़ा’ कहा जाता है। कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही तीसरी एवं सबसे महान भवन की आधारशिला रखी। यह भवन आज भी ‘कुतुबमीनार’ के नाम से जाना जाता है। यह भवन उसने अपने गुरु सूफी सन्त कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में प्रारम्भ किया था। यह 1232 ई० में बनकर तैयार हुआ। इसे इल्तुतमिश ने तैयार करवाया। प्रारम्भ में यह भवन चार मंजिला था, परन्तु फिरोज तुगलक के काल में आकाशीय बिजली गिरने से उपरी छत गिर गई थी। उसने इसका पुर्ननिर्माण करवाया तथा ऊपरी मंजिल का आकार छोटा करके इसे दो हिस्सों में विभाजित कर दिया। अब यह पाँच मंजिला है। इसे विजय
स्तम्भ का नाम भी दिया जाता है। भवन निर्माण के क्षेत्र में इल्तुतमिश को मकबरा निर्माण शैली का संस्थापक कहा जाता है। उसने सुलतान गढ़ी में एक मकबरे का निर्माण करवाया। यह सल्तनत काल में निर्मित प्रथम मकबरा है। उसने बदायूं में एक मस्जिद का निर्माण भी करवाया। इन भवनों का निर्माण स्थानीय कारीगरों ने पत्थरों के प्रयोग से किया।

बलबन ने अपना मकबरा व लाल महल निर्मित करवाया गया। बलबन के मकबरे में बड़ी-बड़ी गुम्बदों को बनाया गया है। इसमें मेहराबों को भी वैज्ञानिक विधि व निश्चित क्रम के अनुरूप बनाया गया है। शुद्ध इस्लामी पद्धति से निर्मित यह भारत का प्रथम मकबरा है जो इस्लामी कला का श्रेष्ठ उदाहरण भी है। इस काल के भवनों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं।

(B) खिलज़ी शासकों के भवन (1290-1320 ई०)

खिलजी काल में भी स्थापत्य कला ने काफी विकास किया। अलाऊद्दीन खलज़ी ने अपनी राजधानी सीरी बनाई। इसके लिए कुतुबमीनार के पास नए भवनों का निर्माण करवाया गया। इसके समय का सबसे बेहतरीन स्मारक इलाही दरवाजा (अलाई-दरवाजा) है। सर जॉन मार्शल ने अलाई दरवाजे के बारे में लिखा है — “यह दरवाजा इस्लामी स्थापत्य कला के खजाने का सबसे सुन्दर हीरा है।”

अलाऊद्दीन खिलजी ने सुन्दर दुर्ग, मस्जिदें और तालाब भी बनवाए। हजार स्तम्भों का किला, होज-ए-खास तथा निजामुद्दीन ओलिया की दरगाह का जमातखाना अलाऊद्दीन खलजी द्वारा निर्मित हैं ।

(C) तुगलक शासकों द्वारा निर्मित भवन (1320-1414 ई०)

तुगलक शासकों द्वारा भी वास्तुकला के क्षेत्र में बहुत-से सुन्दर भवनों का निर्माण करवाया गया। ग्यासुद्दीन तुगलक ने दिल्ली के पास एक नए नगर तुगलकाबाद की स्थापना की। यह स्थान इस वंश की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र बना। तुगलकाबाद में ग्यासुद्दीन द्वारा निर्मित भवन संख्या में अधिक परन्तु देखने में साधारण हैं |

मुहम्मद तुगलक ने दौलताबाद में नए भवनों का निर्माण करवाया । दौलताबाद के शाही महल की खास बात यह थी कि यह चट्टान को काटकर बनाया गया था। चट्टान कटाई के दौरान दीवारों पर तराशी गई अलंकरण सामग्री इसकी सुन्दरता बढाती है | जहांपनाह नगर की स्थापना कर उसने इसमें कई भवनों का निर्माण करवाया परन्तु अभी उसके अवशेष भी नहीं मिलते |

भवन-निर्माण के क्षेत्र में फिरोज तुगलक का योगदान अन्य शासकों की अधिक है। उसने दिल्ली से कुछ दूरी पर फिरोजाबाद नगर की स्थापना की जिसे आजकल फिरोजशाह कोटला के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर उसने एक सुन्दर महल का निर्माण करवाया। इस महल में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया था। फिरोज तुगलक ने हिसार-ए -फिरोजा, फतेहाबाद व जौनपुर जैसे नगरों की स्थापना की। इन नव-निर्मित नगरों में उसके द्वारा निर्मित किले आज भी देखे जा सकते हैं। फिरोज़ तुगलक ने ही दिल्ली में अपने वजीर तेलेगानी का मकबरा बनवाया। यह सल्तनत काल में निर्मित प्रथम अष्ट-भुजाकार मकबरा है।

फिरोज़ तुगलक ने चार मस्जिद, तीन महल, दो सौ सरायों, एक सौ पुल, एक सौ मकबरे, दस स्नान-गृह, दस स्तम्भ व कई अस्पताल भी बनवाए।

तुगलक स्थापत्य कला की विशेषता सलामी पद्धति पर आधारित
ढलवां दीवारें हैं। तुगलक स्थापत्य कला की विशेष बात इसकी सादगी थी। इसमें पूर्ववर्ती शासकों की तरह शान-शौकत व चमक-दमक नहीं थी।
इन्होंने छोटे व मंहगे पत्थरों के स्थान पर सस्ते, बड़े व मटमैले पत्थरों का प्रयोग किया है।

(D) सैयद व लोधी वंश के भवन (1414-1526 ई०)

तुगलक वंश के अंतिम दिनों में 1398 ई० में तैमूर के आक्रमण भारत की राजनीतिक अवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। इसका प्रभाव स्थापत्य कला पर भी देखा जा सकता है। आर्थिक दृष्टि से राज्य की स्थिति बहुत कमजोर हो चुकी थी।

सैयद शासकों के काल में मुबारक शाह व मुहम्मद शाह के मकबरे मुख्य हैं। इनके निर्माण में किसी तरह का नया प्रयोग नहीं किया गया, परन्तु तुगलकों की भाँति सादगी पूर्ण भी नहीं हैं।

लोधी शासकों का काल मकबरों का काल कहा जाता है। क्योंकि इस काल में बनने वाली लगभग सभी इमारतें मकबरे के रूप में थी |
सिकन्दर लोधी का मकबरा था सबसे प्रमुख था | अन्य मकबरों में बड़े खाँ का मकबरा, छोटे खाँ का मकबरा , बड़ा गुम्बद, दादी का गुम्बद, पोली का गुम्बद मुख्य है। मोठ की मस्जिद का निर्माण भी इस काल में हुआ।

लोधी कालीन मकबरों को दो भागों में विभाजित किया जाता है — सुल्तानों द्वारा निर्मित अष्टभुजी मकबरे तथा लोधी अमीरों द्वारा निर्मित चतुर्भुजी मकबरे।सिकन्दर लोधी ने मकबरों में एक के स्थान पर दो गुम्बदों का निर्माण प्रारम्भ किया। इसकी नकल अन्य लोधी अमीरों ने भी अपने द्वारा निर्मित मक़बरों में किया |

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सल्तनतकालीन कला और स्थापत्य कला अत्यंत विकसित थी | इस काल में चित्रकला, संगीत, नृत्य एवं स्थापत्य कला में महत्त्वपूर्ण विकास हुआ। मुगलों काल में भी इनकी कला व स्थापत्य कला की छाप दिखाई देती है |

यह भी देखें

सल्तनत काल / Saltnat Kaal ( 1206 ईo – 1526 ईo )

गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल

गुप्त वंश ( Gupta Dynasty )

मुगल वंश / Mughal Vansh ( 1526 ई o से 1857 ईo )

वैदिक काल ( Vaidik Period )

सिंधु घाटी की सभ्यता ( Indus Valley Civilization )

महात्मा बुद्ध एवं बौद्ध धर्म ( Mahatma Buddha Evam Bauddh Dharma )

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