क्रोचे का अभिव्यंजनावाद ( Expressionism )

पाश्चात्य काव्यशास्त्र में स्वछंदतावाद के बाद अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) का अभ्युदय हुआ | अभिव्यंजनावाद का प्रवर्तन इटली के निवासी बेनेदेतो क्रोचे ने किया | क्रोचे का समय 1866 से 1952 है | उसने अपनी पुस्तक ‘एस्थैटिक्स‘ में अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) से सम्बंधित अपने विचार प्रस्तुत किए | उसने केवल साहित्य ही नहीं बल्कि सभी ललित कलाओं पर अपने सिद्धांत को लागू किया |

स्वच्छंदतावाद ( Romanticism ) के दौर में नवीनता पर अधिक बल देने के कारण व्यक्तिवाद को जन्म मिला जिसके पश्चात कला के क्षेत्र में ‘कला जीवन के लिए’ से ‘कला कला के लिए‘ सिद्धांत का प्रवर्तन हुआ | ‘कला कला के लिए’ मानने वालों का यह विचार था कि कलाकार आत्मा के प्रकाश से सत्य को देखता है और उसे ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है | इसी पृष्ठभूमि के आधार पर क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) सिद्धांत को विकसित किया |

क्रोचे ने कला को भाव रूप न मानकर ज्ञान रूप माना है | उसके अनुसार कला का मुख्य आधार सहजानुभूति है जो ज्ञान का ही एक अंग है |

क्रोचे मूलत: एक सौंदर्यशास्त्री था | वह आलोचनाशास्त्र को भी सौंदर्यशास्त्र का एक अंग मानता था | उसके अनुसार आलोचना सौंदर्यशास्त्र का व्यावहारिक रूप है |

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद संबंधी विचार

क्रोचे अपनी पुस्तक ‘एस्थैटिक्स‘ में अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) संबंधी अपने विचार प्रस्तुत करता है | क्रोचे के अनुसार हमें आत्मा से व्यवहारिक और सैद्धांतिक दो प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति होती है | व्यवहारिक ज्ञान में आर्थिक गतिविधियों संबंधी उपयोगी ज्ञान तथा नैतिक मूल्यों संबंधी ज्ञान की प्राप्ति होती है | सैद्धांतिक ज्ञान को दो भागों में बांटा जा सकता है – (1) तार्किक ज्ञान जैसे दर्शनशास्त्र और (2) सहज ज्ञान जैसे साहित्यिक कल्पना |

(1) तार्किक ज्ञान — तार्किक ज्ञान बुद्धि द्वारा प्राप्त होता है | इससे सामान्य विचारों का बोध होता है | यह विज्ञान और दर्शन को जन्म देता है |

(2) सहज ज्ञान — क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) का संबंध सहज ज्ञान से माना है | सहज ज्ञान एक प्रकार की अलौकिक शक्ति है जो किसी अमूर्त भावना या विचार को साकार रूप प्रदान कर देती है | यह कल्पना से उत्पन्न होता है | यह कल्पना की सहायता से वस्तुओं के विंबो एवं भावनाओं का निर्माण करता है |

सहज ज्ञान का अर्थ

क्रोचे ने अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) को सहज ज्ञान या सहजानुभूति कहा है | क्रोचे के अनुसार जब बुद्धि का क्षेत्र समाप्त हो जाता है तब सहजानुभूति अपना कार्य करती है | सहज ज्ञान ( स्वयं प्रकाश ज्ञान ) वह शक्ति है जो उन विचारों और अमूर्त वस्तुओं को हमारे मस्तिष्क में बिंब रूप में अंकित करती है जो बुद्धि और तर्क से परे होते हैं |

अभिव्यंजनावाद की तीन अवस्थाएँ ( Three Stages of Expressionism )

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की तीन अवस्थाएं स्वीकार की गई हैं —

(1) प्रथम अवस्था में क्रोचे सहज ज्ञान को प्रभाव और संवेदन से अलग मानता है | क्रोचे अनुसार जब हम किसी वस्तु की प्रत्यक्ष अनुभूति या संवेदना प्राप्त करते हैं तब हमारा अंतर्मन उसमें सहयोग नहीं करता | मानव मन उसे महसूस अवश्य करता है किंतु उसे उत्पन्न नहीं करता | इस अवस्था में संवेदन केवल एन्द्रिय संपर्क की परिणति होता है | मनुष्य के मन में उस इंद्रिय संपर्क का कोई स्पष्ट भाव उभर कर नहीं आता और न ही कोई निश्चित रूप-रेखा प्रकट होती है |

(2) दूसरी अवस्था में अंतर्मन प्रभावों और संवेगों को अंतर्मन में खपा कर एक कर लेता है | पहली अवस्था के संवेदन अभिव्यंजना की सामग्री कही जा सकती है क्योंकि इन्हीं संवेदनों से बिंबो की सृष्टि होती है | दूसरी अवस्था में प्रकृति-प्रदत्त अनुभव आत्मानुभूति बन जाते हैं और कल्पना के सृष्टि में परिवर्तित हो जाते हैं |

इसके लिए एक चित्रकार का उदाहरण दिया जा सकता है। चित्रकार पहले वस्तु विशेष की झलक मात्र देखता है। लेकिन जब वह उसका पूर्ण प्रत्यक्षीकरण कर लेता है, उसे अन्तर्मन में पूरी तरह अभिव्यक्त कर लेता है तब उसे सहज ज्ञान की अनुभूति होती है।

इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए एक विद्वान् कहता है —“क्रोचे सहजानुभूति को आन्तरिक अभिव्यंजना या आन्तरिक रूप रचना मानते हैं, जो सौन्दर्य तत्त्व को जन्म देती है जो संवेदनों को अपने में खपाकर तथा उनके साथ एकाकार मूर्तरूप प्राप्त कर लेती है।”

(3) तीसरी अवस्था — क्रोचे मूलतः सहजानुभूति को आत्मा की एक अभिव्यंजनात्मक प्रक्रिया ( Expressionism Process ) मानते हैं। किसी स्थिति या घटना को देखने से चित्रकार के अन्तर्मन में विभिन्न प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं। पहले तो चित्रकार उन भावों या संवेगों पर विवेकपूर्ण अंकुश लगाए रहता है। दो में वह उन भावों और संवेगों के रूप में पड़े प्रभावों को बिम्बों में बाँधकर अभिव्यक्त करता है। उस तरह से वह मन पर पड़े बोझ से स्वतंत्र हो जाता है। क्रोचे इस सहजानुभूति को अन्तर्मन की क्रिया मानता है, इसे आन्तरिक अभिव्यंजना कहता है जो कि अमूर्त होती है और यही सौन्दर्य को जन्म देती है। यह अभिव्यंजना आन्तरिक होती है न कि बाह्य । यह मन के भीतर होती है न कि बाहर, चित्रफलक पत्र या कागज़ पर । यही आन्तरिक अभिव्यक्ति या अभिव्यंजना ही सच्ची कला है।

एक उदाहरण द्वारा इसे समझाया जा सकता है। कल्पना करो कि किसी कवि ने एक दुबले-पतले भिखारी को घर-घर जाकर भीख मांगते हुए देखा। उसका पेट और पीठ मिलकर एक हो गए हैं। उसे देखकर कवि का अन्तर्मन द्रवित हो उठा। स्वभावतः उसका कवि हृदय कराह उठा। उसने अपनी कविता में उस असहाय, निर्बल और दुःखी भिखारी के दुःख को साकार कर दिया। इस संबंध में दो विचार हमारे सामने आते हैं। पहला तो यह कि कवि बाह्य घटना का ज्यों-का-त्यों चित्रण कर दे। दूसरा यह कि उस गरीब भिखारी को देखकर कवि अपने अन्तर्मन में अनुभव करे और उस पीड़ा को शब्दों में बांधकर अभिव्यक्त कर दे। पहली स्थिति में कवि ने बाहर की घटना का वर्णन मात्र किया है। लेकिन दूसरी स्थिति में उसने अपने भीतर की पीड़ा को साकार रूप दिया ; अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) का संबंध दूसरी स्थिति से है जिसमें कवि ने अपने अन्तर्मन की पीड़ा-प्रभाव आदि का संवेदनशील वर्णन किया।

विषय वस्तु का चुनाव महत्त्वहीन

सौन्दर्य के बारे में चर्चा करते हुए क्रोचे कहता है कि कलाकार की अन्तर्दृष्टि जिस प्रकार की होगी उसी प्रकार की कला होगी। कला की सुन्दरता-असुन्दरता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि बाहरी जगत में जो सुन्दर या असुन्दर है उसके अनुकरण मात्र से ही कला में सुन्दरता या असुन्दरता आ सकती है। कला की उत्कृष्टता का आधार तो कल्पना शक्ति की सहायता से अपने को मूर्त रूप देने में विद्यमान है। विषयवस्तु सबके पास वही होती है। सौन्दर्यानुभूति के लिए कवि या कलाकार के मन पर उस वस्तु का प्रभाव आवश्यक है। अतः काव्य में विषय-वस्तु के चुनाव का कोई महत्त्व नहीं। कवि या कलाकार अपने मानस में अनुभूति के लिए जब शब्द प्राप्त कर लेता है तो समझना चाहिए, उसे अभिव्यंजना उत्पन्न हो गई है।

क्रोचे सहजानुभूति को शब्दों अथवा रेखाओं द्वारा अभिव्यक्त करना जरूरी नहीं मानता, क्योंकि सहजानुभूति तो पूर्णतः आन्तरिक प्रक्रिया है। कलाकार की कलाकार के रूप में स्थिति केवल उन क्षणों में होती है जब वह अपने आपको प्रेरणा के क्षणों में पाता है और वह यह अनुभव करता है कि विषय के साथ उसका तदाकार हो गया है।

बाह्य अभिव्यक्ति मात्र स्मृति के लिए सहायक

क्रोचे बाह्य अभिव्यक्ति को कला नहीं मानता। क्रोचे बाह्य प्रकाशन को केवल सहायक साधन मात्र मानता है। कलाकार बाह्य प्रकाशन का सहारा इसलिए लेता है, क्योंकि वह अपनी कला को उपभोग के योग्य और सहृदय संवेदी बनाना चाहता है। अभिव्यंजना तब तक है जब तक कलाकार ने अपने मन में किसी मूर्ति की स्पष्ट भावना ग्रहण कर ली हो। इसके पश्चात् तो अभिव्यंजना का कार्य समाप्त हो जाता है। सहजानुभूति तथा अभिव्यंजना को शब्दों द्वारा व्यक्त करना या चित्र फलक पर अंकित करना अतिरिक्त क्रिया है जो आवश्यक नहीं है ; वास्तविक कार्य मानसिक या आंतरिक है |

कलाकार संवेदना की सहजानुभूति के काल में ही कलाकार है। इस काल में वह विषय के साथ तदाकार हो जाता है। परन्तु जब वह इस तदाकारिता को शब्दों अथवा रेखाओं के द्वारा कलाकृति का रूप देता है तब कलाकार नहीं रहता।

क्रोचे स्पष्ट कहता है — “When the compositions begins inspritition is already on thed ecline.”

बाह्य अभिव्यक्ति यथा चित्र, मूर्ति या कविता को क्रोचे स्मृति की सहायक (Aid to Memory) वस्तु कहता है। इसके द्वारा कलाकार अपनी सहजानुभूति को पुनः प्रस्तुत करता है। बाह्य अभिव्यक्ति व्यावहारिक उपयोगिता के लिए है। उसके द्वारा कवि अपनी अनुभूति को अपने लिए और दूसरों के लिए चिरकाल तक सुरक्षित रख सकता है। लेकिन सौन्दर्य की अभिव्यंजना अर्थात सहजानुभूति एक आन्तरिक प्रक्रिया है। कला का आनन्द सफल अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्ममुक्ति का आनन्द है। सफल अभिव्यक्ति में ही सौन्दर्य का निवास है। यदि अभिव्यक्ति सफल नहीं है तो अभिव्यंजना भी सफल नहीं है।

क्रोचे के उपर्युक्त विवेचन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं —

(1) कला, अभिव्यंजना, सहजानुभूति आदि सभी पर्यायवाची शब्द हैं।

(2) अभिव्यंजना बाह्य न होकर आन्तरिक होती है। अतः काव्य या कला एक अध्यात्मिक प्रक्रिया है।

(3) बाह्य अभिव्यक्ति के माध्यम से कलाकार अपनी अनुभूति को अपने लिए और दूसरों के लिए सुरक्षित बनाता है। वह स्मृति के लिए सहायक ( Aid to Memory ) है।

(4) असफल अभिव्यंजना नाम की कोई वस्तु नहीं है।

(5) कलाकार के मन पर अगर बिम्ब अंकित हो गया है तो उसके लिए सुंदर-असुंदर का कोई भेद नहीं रहता।

(6) रूप ही सौन्दर्य और अभिव्यंजना का आधार है।

(7) कल्पना सौन्दर्यानुभूति का अनिवार्य तत्त्व है।

(8) काव्य लेखन अथवा कला सृजन की प्रक्रिया के चार चरण हैं — (क) अरूप संवेदन, (ख) कल्पना शक्ति द्वारा अरूप संवेदनों की आन्तरिक व्यवस्था।, (ग) सफल अभिव्यंजना और उससे उत्पन्न आनन्दानुभूति, (घ) आन्तरिक अभिव्यंजना का शब्दों अथवा रेखाओं द्वारा मूर्तिकरण।

अभिव्यंजनावाद की आलोचना

क्रोचे के सिद्धान्त के बारे में पहली आपत्ति यह उठाई जाती है कि वह बाह्य अभिव्यंजना को आवश्यक नहीं मानता जिससे कलाकार को ऐसी स्वच्छन्दता मिल पाती है जो अराजकता को जन्म दे सकती है।

क्रोचे का कथन है कि प्रत्येक वस्तु कवि या कलाकार के मस्तिष्क में घटित होती है। वह अभिव्यंजना को आन्तरिक मानता है। जो पदार्थ मूर्तिमान होते हैं, वे केवल उसी के लिए होते हैं। ऐसी स्थिति में सहृदय कवि की कृति का भावन कैसे करेगा और आलोचक उसका मूल्यांकन कैसे करेगा? बाह्य कलाकृति के अभाव में तो कोई भी दंभी व्यक्ति स्वयं को कवि कह सकता है।

क्रोचे एक तरफ तो यह कहता है कि कला सहजानुभूति है और यह सहजानुभूति वैयक्तिक होती है और इस वैयक्तिक अनुभूति का पुनर्भाव नहीं हो सकता। दूसरी तरफ वह यह कहता है कि सुन्दर बाह्य कलाकृति के द्वारा सहृदय भी सहजानुभूति प्राप्त कर सकता है जो कि उस कलाकार की होती है। इस प्रकार क्रोचे के कथन में विरोधाभास दिखाई देता है।

पुनः क्रोचे का यह कहना कि सहजानुभूति तब तक है जब तक अन्तर्मन में है। लेखनी की कूची हाथ में लेते ही वह सहजानुभूति समाप्त हो जाती है। क्रोचे का यह विचार सामान्य पाठक की समझ में नहीं आता।

क्रोचे के अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) का संबंध अमूर्त सौन्दर्य से है, जबकि कला का क्षेत्र मूर्त होता है। कलाकार या कवि अपनी कला आदि की अभिव्यक्ति मूर्त रूप में ही करता है। अतः यह अमूर्त व्यंजना पाठक की पहुँच से बाहर है। यदि क्रोचे की सहजानुभूति की बात को मान भी लिया जाए तो इसके अनेक दुष्परिणाम निकल सकते हैं, क्योंकि विषयवस्तु के चुनाव के बारे में क्रोचे स्पष्ट करता है कि विषयवस्तु का कोई महत्त्व नहीं होता। इससे तो साहित्य और कला के क्षेत्र में विकृति, अपरूपता और विक्षिप्तता उत्पन्न हो जाएगी।

क्रोचे का यह मत भी स्वीकार्य नहीं है कि बाह्य कलाकृति विशुद्ध नहीं होती। क्रोचे का अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) चिन्तन में जितना सुंदर है व्यावहारिक रूप में उतना ही विवादास्पद है।

सामान्यत: कलकृति या अभिव्यक्ति सौंदर्य की वस्तु होती है परंतु क्रोचे का अभिव्यंजनावाद इसका विरोध करता है | क्रोचे के अनुसार कला की अभिव्यंजना तब तक है जब तक वह आंतरिक है बाहर आते ही कला नष्ट हो जाती है | क्रोचे द्वारा अभिव्यंजना या सहजानुभूति को वैयक्तिक मानना भी दोषपूर्ण है ; ऐसा होने पर सहृदय उसका आनन्द कैसे ले पायेगा |

क्रोचे का अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) अंतर्मन पर आधारित है जबकि कला जीवन की अभिव्यक्ति मानी जाती है | इसके अतिरिक्त पर अभिव्यंजनावाद के अनुसार कला में विषय वस्तु को महत्व न देना ही अटपटा प्रतीत होता है |

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि क्रोचे का अभिव्यंजनावाद ( Expressionism ) दर्शन के क्षेत्र में एक विशिष्ट वाद या सिद्धांत होते हुए भी कला या साहित्य के क्षेत्र में पूर्णत: मान्य नहीं है |

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )

अभिजात्यवाद ( Classicism )

स्वच्छन्दतावाद ( Romanticism )

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

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