निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

इलियट बीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ कवि और आलोचक थे। कॉलरिज के बाद इलियट का ही नाम आता है। इलियट ने स्वयं को क्लासिकवादी कहा है। क्लासिक से उनका मतलब था ‘परिपक्वता’ या ‘प्रौढ़ता’ । क्लासिकवाद के लिए उन्होंने मस्तिष्क की प्रौढ़ता, शरीर की प्रौढ़ता और भाषा की प्रौढ़ता को आवश्यक माना है। मस्तिष्क की प्रौढ़ता के लिए इतिहास का ज्ञान जरूरी है। शरीर की प्रौढ़ता से उनका अर्थ था ‘आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण’ और भाषा की प्रौढ़ता का अर्थ-‘अपने युग की भाषा का समुचित ज्ञान से है। अंग्रेजी साहित्यशास्त्र में इलियट द्वारा प्रतिपादित निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है जो परवर्ती विद्वानों के लिए विचार-विमर्श का विषय रहा है |

इलियट का जन्म सैन्ट लुई (अमेरिका) में 26 सितम्बर, 1888 को हुआ। विद्यार्थी जीवन में इलियट ने संस्कृत और फारसी भाषाओं का अध्ययन किया। सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों के कारण इलियट का युग कुंठा और निराशा का युग था। इलियट ने तो यह घोषणा भी कर दी कि मानव जाति सर्वनाश के कगार पर खड़ी है। यदि इसे न सुधारा गया तो उसका विनाश अवश्यम्भावी है। इलियट के चिंतन पर अरस्तू, रमी द गुरमो, टी. ई. हुलबे तथा ऐज़रा पाऊन्ड का प्रभाव देखा जा सकता है।

(1) परम्परा की परिकल्पना और वैयक्तिक प्रज्ञा

19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पाश्चात्य साहित्य जगत में स्वच्छन्दतावाद का बोलबाला रहा है, लेकिन भावनात्मकता और आत्माभिव्यंजना पर अधिक बल देने के कारण स्वच्छन्दतावाद का युग त्रुटिग्रस्त हो गया। उसमें अनेक कमियां चुकी थीं।

स्वच्छन्दतावाद के इस दीर्घकालीन आधिपत्य को इलियट ने नकार दिया। साथ ही उसके अस्वस्थ रूप का विरोध किया। इसके स्थान पर इलियट ने कॅलासिकवाद का समर्थन किया। For Lancelot Andrew’s रचना की भूमिका में इलियट ने स्वीकार किया कि वे साहित्य में एक परम्परावादी हैं, राजनीति में रॉयलिस्ट हैं तथा धर्म में ऐंग्लो-कैथलिक हैं।

स्वच्छन्दतावादी कवि काव्य परम्पराओं को नकारता हुआ भावोद्रेक को महत्त्व देता है। ऐसा कवि कल्पना शक्ति द्वारा अपने वैयक्तिक मस्तिष्क से काव्य रचना करता है। स्वच्छन्दतावादी कवि की कविता में व्यक्तिगत रुचि-अरुचि, राग-द्वेष आदि का वर्णन रहता है। इसका मतलब यह हुआ कि उस काव्य रचना में कवि के व्यक्तित्व का स्थान प्रमुख होता है। स्वच्छन्दतावाद में वैयक्तिक प्रतिभा या प्रज्ञा को अधिक महत्त्व दिया गया था।

स्वच्छन्दतावादी विचाराधारा का विरोध करता हुआ इलियट कहता है “कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता। वह केवल माध्यम होता है। इस माध्यम में ही अनेक प्रभाव और अनुभव होते हैं ।”

स्वच्छन्दतावादी सिद्धान्त ने काव्य सृजन के लिए परम्परागत प्रभावों से मुक्ति का आह्वान किया। इलियट ने ऐसे सभी सिद्धान्तों का खंडन
किया जो कलाकार के आत्म प्रकाशन सिद्धान्तों को मान्यता देते हैं। यही नहीं इलियट ने प्रभाववाद का भी विरोध किया |

मिडलिटन मरे’ जो 20वीं शताब्दी के प्रभाववादी आलोचक थे ; इलियट ने उसका भी विरोध किया। वैयक्तिकता का विरोध करके इलियट ने परम्परा के सिद्धान्त को प्रमुखता प्रदान की। इलियट ने नारा लगाया कि काव्य में परंपरा का प्रमुख स्थान है, क्योंकि कवि तो अभिव्यक्ति का केवल माध्यम मात्र है। इसलिए उन्होंने वैयक्तिक प्रतिभा के स्थान पर परंपरा को महत्त्व दिया। उनका विचार था कि मस्तिष्क सक्रिय शक्ति नहीं है। वह तो प्रभावों को ग्रहण करने वाली निष्क्रिय शक्ति है।

अतः काव्य में व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति न होकर व्यक्तित्व से पलायन होता है। परम्परा से उनका मतलब यह नहीं था कि हम पुरानी पीढ़ियों के काव्य का निष्क्रिय अनुसरण करें। परंपरा से उनका मतलब अतीत और वर्तमान दोनों रूपों को देखना था।

अपनी रचना After Strange God’s में वे लिखते हैं —

“परंपरा से तात्पर्य उन सभी रीति रिवाजों और धार्मिक कृत्यों से है जो एक समुदाय में रहने वाले एक स्थान के व्यक्तियों के रक्त संबंधी तत्त्वों को व्यक्त करते हैं।”

इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि परम्परा का संबंध संस्कृति से है जो अपने जातीय जीवन और साहित्य के श्रेष्ठ तत्त्वों को समेटती हुई आगे बढ़ती है। इसका मतलब यह हुआ कि परंपरा में अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों विद्यमान हैं।

इलियट के अनुसार परंपरा के ज्ञान से साहित्यकारों को निम्नलिखित लाभ होते हैं —

(क) उसे यह पता चल जाता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं करना है।

(ख) उसे यह भी पता चल जाता है कि उसकी रचना का मूल्य क्या है?

निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि परंपरा से इलियट का अर्थ रूढ़ियों का पालन नहीं था। उसका विचार था कि परंपरा का निर्माण अनेक युगों, कलाकृतियों और उनके समन्वित प्रभाव से होता है। एक सच्चे कवि का यह कर्त्तव्य बनता है कि वह उस प्रभाव को ग्रहण करे, आवश्यकता पड़ने पर उसमें परिवर्तन तथा परिवर्द्धन करे जिसके लिए उसे अपने व्यक्तित्व का त्याग भी करना पड़ सकता है।

इलियट स्पष्ट कहता है कि कवि की मौलिकता इसी बात में है कि वह अतीत को वर्तमान के सन्दर्भ में देखे। परंपरा का यह भी मतलब है कि कवि कला और काव्य की प्रमुख धारा का निर्वाह करे, क्योंकि पूर्ववर्ती काव्यधाराओं से परिचित होने के कारण कवि का ज्ञान क्षितिज विस्तृत हो जाता है। अतः परंपरा के लिए कवि को वैयक्तिक प्रज्ञा का बलिदान करना होगा।

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत (Impersonal theory of poetry)

पहले बताया जा चुका है कि इलियट एंजरा पाऊन्ड के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए थे। इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत पाउंड के विचारों से प्रभावित है | पाऊन्ड का विचार था कि कवि वैज्ञानिक के समान निर्वैयक्तिक और वस्तुनिष्ठ होता है। उसका काम आत्मनिरपेक्ष होता है। यह भी पहले बताया जा चुका है कि इलियट एक परंपरावादी आलोचक थे। उनका कहना था कि परंपरा के कारण कविता में आत्मनिष्ठ तत्त्व निहित हो जाता है और वस्तुनिष्ठ तत्त्व प्रमुख हो जाता है।

इसी सन्दर्भ में इलियट ने कला को निर्वैयक्तिक कहा। उनका विचार था कि कवि का मन काव्य की स्वतंत्र अवतारणा का एक माध्यम है। कवि मन में भाव और अनुभव स्वतंत्रतापूर्वक नए-नए रूप धारण करते रहते हैं। काव्य की प्रक्रिया पुनमरण नहीं, बल्कि एकाग्रता है। काव्य एकाग्रता का सहज प्रतिफलन है।

प्लेटिनम के तार, आक्सीजन तथा सल्फर डाइआक्सॉइड के मिश्रण का उदाहरण देते हुए वह कहते हैं — कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता, बल्कि वह विशिष्ट माध्यम मात्र है।

इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत इस तथ्य पर बल डालता है कि व्यक्तिगत भावों की अभिव्यक्ति कला नहीं है वरन उनसे पलायन कला है। कलाकार की प्रगति निरन्तर आत्मोसर्ग तथा व्यक्तित्व का निरन्तर त्याग है। इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत स्पष्टत: प्रकट करता है कि कवि कविता लिखता नहीं बल्कि कविता कवि के माध्यम से स्वयं कागज पर शब्द विधान के रूप में उतर आती है।

इलियट के आरंभिक विचार अस्पष्ट थे लेकिन आगे चलकर यीस्टस के काव्य पर आलोचना लिखते समय इलियट ने स्वीकार किया कि उसके विचार बदल गए हैं।

स्वयं वह कहते हैं — मैं उस समय अपनी बात ठीक से व्यक्त न कर सका।”

बाद में निर्वैयक्तिकता के बारे में इलियट ने जो विचार व्यक्त किए वे उनका निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत समझने में काफी सहायक हैं ।

उन्होंने निर्वैयक्तिकता के दो रूप माने हैं —

(क) एक वह जो कुशल शिल्पी मात्र के लिए प्राकृतिक होती है।

(ख) दूसरी वह है जो प्रौढ़ कलाकार के द्वारा अधिकाधिक उपलब्ध की जाती है। दूसरे प्रकार की निर्वैयक्तिकता उस प्रौढ़ कवि की होती है जो अपने उत्कट और व्यक्तिगत माध्यमों से सामान्य सत्य को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है।

ऊपर के उदाहरण को पढ़ने से यह पता चलता है कि उनके पहले मत से लोगों में यह भ्रम पैदा हो गया था कि वे कविता को कुशल शिल्प विधान मानते थे। लेकिन आगे चलकर इलियट के लिए निर्वैयक्तिकता का अर्थ केवल कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता नहीं है। आगे चलकर वे निर्वैयक्तिकता को प्रौढ़ कवि के अद्वितीय अनुभवों की सामान्य अभिव्यक्ति मानते हैं।

इलियट का यह मत था कि कवि अपने निजी भावों को इस प्रकार से अभिव्यक्त करता है कि वे भाव केवल उसके ही नहीं रहते बल्कि सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।

निर्वैयक्तिकता का अर्थ

इलियट की निर्वैयक्तिकता का अर्थ है — ‘कवि के व्यक्तिगत भावों की विशिष्टता का सामान्यीकरण।’ कवि के पास न केवल संवेदना होती है बल्कि वहन क्षमता भी होती है। वह अन्य लोगों की अनुभूतियों को अपने मन में बिठा लेता है और ये अनुभूतियाँ उसकी निजी अनुभूतियाँ बन जाती हैं। लेकिन जब वह इन अनुभूतियों को काव्य में व्यक्त करता है तो ये अनुभूतियाँ उसकी अपनी होती हुई भी सबकी अनुभूतियाँ बन जाती हैं।

सत्य तो यह कि इलियट काव्य में कवि के व्यक्तित्व के सर्वथा लोप के पक्षधर नहीं थे। वे चाहते थे कि कवि का व्यक्तित्व सर्वसामान्य के व्यक्तित्व तक विकसित हो । उनका विचार है कि कवि द्वारा निर्मित सम्पूर्ण काव्य पर उसके व्यक्तित्व की छाप हो।

कवि और कलाकृति परस्पर प्रभावित

इसी सन्दर्भ में इलियट ने भी कहा कि इस निर्वैयक्तिकता का यह अर्थ नहीं है कि कवि और उसकी काव्य रचना का कोई संबंध नहीं होता। सच्चाई तो यह है कि कवि और उसकी काव्य रचना एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। कविता कवि का सब कुछ लेकर बनती है। इलियट एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि केवल यह बात नहीं है कि कवि कविता का निर्माण करता है बल्कि कविता भी अपने तरीके से कवि को प्रभावित करती है।

इस सन्दर्भ में इलियट स्वयं लिखते हैं —

“अपने चरित्रों को कवि अपना अंश प्रदान करता है। वह उस पात्र के जीवन का बीज हो सकता है और साथ ही यदि कोई पात्र कवि को अपने में रमा लेने में समर्थ है तो वह अपने निर्माण के लिए कवि के व्यक्तित्व में निहित क्षमताओं को क्रियाशील बना देता है। मेरा विश्वास है कि कवि अपने पात्रों को अपना निजी अंश अवश्य देता है किन्तु मेरा यह भी विश्वास है कि अपने निर्मित पात्रों द्वारा स्वयं भी वह प्रभावित होता है।”

कविता के तीन स्वर

इसी सन्दर्भ में कवि कर्म का विश्लेषण करते हुए इलियट ने यह भी स्पष्ट किया कि कवि, प्रमाता (सहदय) तथा कविता के पात्र एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं और प्रभावित होते रहते हैं। कविता के तीन स्वर नामक विषय पर उसका भाषण इसी तथ्य को सिद्ध करता है। पहले स्वर में कवि स्वयं अपने से बात करता है, दूसरे स्वर में कवि पाठक ( प्रमाता ) से बात करता है और तीसरे स्वर में कवि पात्रों के माध्यम से बात करता है।

(i ) प्रथम स्वर की कविता

जब कवि अपने आप से बात करता है तो वह अपने भीतर के कुहासे को (भ्रान्तियों को) साफ करना चाहता है। कविता के निर्माण से पहले कवि की मनः स्थिति कुछ ऐसी होती है कि उसके मन में अनेक उद्गार, कुंठाएँ, संवेदनाएँ आदि उत्पन्न होती हैं। ये सभी तत्त्व अपना स्वाभाविक विकास चाहते हैं। कवि के मन में एक आँधी-सी उठती है और वह कहने के लिए तड़पने लगता है। जैसे-जैसे कविता शब्दों का रूप धारण करती है, वैसे-वैसे कवि के मन का झंझावत शांत होने लगता है।

अन्त में कविता की पूर्ति होने पर कवि को राहत महसूस होती है। उसे लगता है उसके मन पर पड़ा हुआ बोझ उतर गया है। पहले स्वर में कवि सम्प्रेषण नहीं करना चाहता। बल्कि वह तो मन पर लदे बोझ से हल्का होना चाहता है। हिन्दी की नई कविता प्रथम स्वर की कविता कही जा सकती है।

(ii) द्वितीय स्वर की कविता

कविता का दूसरा स्वर कवि और सहृदय के मध्य का स्वर है। कवि एक निश्चित उद्देश्य (सामाजिक या नैतिक) को लेकर ही काव्य रचना करता है। साहित्य और समाज की जो चर्चा की जाती है वह इलियट के दूसरे स्वर की ओर संकेत करती है। इलियट यह स्वीकार करता है कि कवि अपनी रचना के द्वारा किसी निश्चित उद्देश्य को पूरा करता है। इलियट का मानना है कि मानव समाज को एक उच्च भावभूमि तक ले जाना कविता का उद्देश्य है।

जीवन में जीवन की रंगीनियों के साथ-साथ जीवन की कड़वाहट भी है। जीवन के यथार्थ और सच्चाई से परिचित कराना भी कवि का उद्देश्य होता है। ये दूसरे स्वर की रचनाएँ किसी सामाजिक या नैतिक उद्देश्यों को लेकर लिखी जाती हैं।

(iii) तृतीय स्वर की कविता

तीसरे स्वर का संबंध नाटक के साथ है। इसमें कवि स्वयं बात न करके अपने पात्रों के माध्यम से बात करता है। वह पात्रों के द्वारा ही अपना मंतव्य व्यक्त करता है। आज के व्यस्त जीवन में आम पाठक के पास दूसरे के दुःख-दर्द को जानने या सुनने के लिए समय नहीं है। समाज के लगभग सभी लोग किसी न किसी समस्या अथवा दुःख-दर्द से ग्रसित हैं। यदि कवि अपना राग अलापने लगेगा, तो कोई भी उसे सुनना नहीं चाहेगा।

अतः यदि कवि को अपनी बात कहनी है तो इतनी कुशलता से कहेगा कि वह उसकी अपनी बात होते हुए भी सबकी लगने लगेगी। यही कवि कौशल की कसौटी है और यही उसकी सफलता का मापदंड है।

वस्तुनिष्ठ समीकरण का सिद्धान्त

इलियट ने निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत का प्रतिपादित करने के साथ-साथ वस्तुनिष्ठ समीकरण के नाम से एक नया सूत्र भी प्रदान किया।

कलात्मक दृष्टि से हैमलेट को एक असफल रचना माना गया
है। इसी का विश्लेषण करते हुए इलियट ने कहा —

“संवेगों को कला में अभिव्यक्त करने का एकमात्र तरीका है — वस्तुनिष्ठ समीकरण को प्राप्त करना। दूसरे शब्दों में वस्तुओं, स्थितियों, घटनाओं की श्रृंखला को इस ढंग से संयोजित करना कि वे विशिष्ट संवेगों से सम्बद्ध होकर अभिव्यक्त हो सके।”

इस कथन के आधार पर इलियट का कहना है कि कविता एक ऐसी वाचिक संरचना है जिनमें कवि के वे मनोवेग और मनोभाव समाहित हैं जिनको वह संतुष्ट करना चाहता है। इसके लिए वह कुछ विशेष परिस्थितियों, घटनाओं और मनःस्थिति को चुनता है। इन्हीं के माध्यम से वह अपनी बात कहता है।

वस्तुनिष्ठ समीकरण सिद्धान्त के सन्दर्भ में इलियट कहता है —

“कविता स्वतः पूर्ण समग्र इकाई है, इसका अपना अनुभव एवं अर्थ है, वह किसी अन्य अर्थ या अनुभव का सम्प्रेषण नहीं करती, उसमें विचार, ज्ञान, अतीत का विवेक और भावना परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।”

इलियट का यह सिद्धान्त कवि और कविता के परस्पर अविच्छिन्न संबंध का विरोध करता है। कविता की स्वतः पूर्ण सत्ता स्थापित करता है। इनके अनुसार वस्तुनिष्ठ समीकरण के द्वारा ही कवि अपने मन की बात कह पाता है। कवि जिन अमूर्त भावों को कविता में रखता है, उनकी अभिव्यक्ति के माध्यम मूर्त, प्रतीक और चिह्न होते हैं। कवि किसी वस्तु घटना आदि को देखता है या कोई मनः स्थिति विशेष को अनुभव करता है। लेकिन जब वह इनको अभिव्यक्त करना चाहता है तब वह वस्तुमूलक प्रतीकों का सहारा लेता है।

कवि का प्रयोजन यह है कि जिस वस्तु की घटना या स्थिति से अनुभूति हुई है अथवा जो भाव उसके मन में उत्पन्न हुए हैं, कवि के द्वारा वही भाव पाठक के मन में भी उत्पन्न हों यही कवि का उद्देश्य है ।

इस प्रकार स्पष्ट है कि जहाँ इलियट एक ओर अपने वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त द्वारा कविता की स्वतंत्र सत्ता स्थापित करता है वहाँ दूसरी और निर्वैयक्तिकता पर भी प्रकाश डालता है।

इलियट का यह वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त फ्रांस के प्रतीकवादी साहित्यकारों से काफी प्रभावित है। फ्रांसीसी प्रतीकवादी आलोचक भी कवि और कविता के अविच्छिन्न संबंध को स्वीकार नहीं करते। उनका विचार है कि कवि कविता के द्वारा भावों या मनोवेगों को अभिव्यक्त नहीं करना चाहता। वह तो उनको आहूत करता ।

इलियट का यह वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त भारतीय काव्य शास्त्र के साधारणीकरण सिद्धान्त के विभाव, अनुभाव आदि से बहुत मेल खाता है।

आचार्य शुक्ल ने तो विभाव विधान को काफी महत्त्व दिया है, क्योंकि विभाव विधान के द्वारा वस्तुनिष्ठता स्वयं उत्पन्न हो जाती है। जहाँ शुक्ल ने आश्रय के साथ पाठक के तादातम्य की बात की है वहाँ डॉ. नगेन्द्र का कहना है कि पाठक का तादात्म्य केवल कवि की अनुभूति से होता है। पाठक का तादात्म्य कवि की उस अनुभूति से होता है जो कविता में व्यक्त होती है।

संवेदनशीलता का असाहचर्य

इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत संवेदनशीलता के असाहचर्य (असम्बद्धता) को विशेष महत्त्व देता है। इसे वह Disassociation of sensibility कहता है। इलियट का कथन है कि जब किसी कवि के भाव और विचार में दरार पड़ जाती है अर्थात दोनों में समन्वय नहीं रहता तो काव्य का अपक्षय और पतन होता है।

प्रायः विचार बुद्धि से सम्बन्धित होते हैं और संवेदनशीलता या भाव हृदय से। लेकिन इलियट इससे सहमत नहीं। उसके मतानुसार कवि में ज्ञान और बुद्धि का भेद करना उचित नहीं है। कवि का व्यक्तित्व सृजनात्मक होता है। उसमें मन, इन्द्रिय, भाव, बुद्धि, हृदय आदि सभी परस्पर मिले रहते हैं। इनको अलग-अलग नहीं किया जा सकता और न ही इनके बारे में अलग-अलग सोचा जा सकता है। काव्य-रचना करते समय कवि इन्हें न तो अलग-अलग देखता है और न उनके बारे में अलग सोचता है।

इस सम्बन्ध में इलियट ने शेक्सपियर के काव्य का उदाहरण दिया है। शेक्सपियर के काव्य के उत्कर्ष का कारण है — भाव और विचार तथा हृदय और बुद्धि का श्रेष्ठ साहचर्य । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबन्धों के बारे में हम प्रायः कहते हैं कि उनके निबन्धों में हृदय और बुद्धि का मणिकांचन योग है। इसका मतलब यही है कि उनके निबन्ध साहित्य में हृदय और बुद्धि का श्रेष्ठ साहचर्य है। इसीलिए वे उच्च कोटि के निबन्धकार हैं।

लेकिन पाश्चात्य साहित्य जगत में 17वीं शताब्दी के अन्तिम भाग में भाव और विचार का यह साहचर्य खण्डित होने लगा। कहीं भाव का अत्यधिक आग्रह दिखाई देने लगा और कहीं विचार का अत्यधिक आग्रह कवि को व्याकुल करने लगा। इसका परिणाम यह हुआ कि कवियों की समन्वित संवेदना टूटने लगी। इसी को इलियट ने संवेदनशीलता का असाहचर्य कहा है। इसीलिए इस युग का साहित्य पाठक को वह आनन्द नहीं दे सका जो शेक्सपियर के साहित्य ने दिया।

“संवेदनशीलता के असाहचर्य’ सिद्धान्त के लिए इलियट ने फ्रांसीसी कवि तथा आलोचक गुर्मा से प्रेरणा प्राप्त की है। गुर्मा ने फ्रांस के प्रसिद्ध लेखक लॉफार्ज के सन्दर्भ में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। इलियट ने इस सिद्धान्त का प्रयोग साहित्य के लिए किया है।

इलियट का यह सिद्धान्त साहित्यालोचन के सन्दर्भ में विशेष महत्त्व रखता है। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखा होगा कि उनका यह सिद्धान्त किसी एक युग या काव्यधारा अथवा कवि विशेष पर लागू नहीं किया जा सकता। एक युग विशेष में ऐसे अनेक कवि होते हैं जिनमें भाव और विचार का साहचर्य अधिक भी हो सकता है और कम भी। ऐसा कोई मापदण्ड नहीं बनाया जा सकता जो यह सिद्ध कर सके कि कवि के भाव और विचार में सामंजस्य है या नहीं है। कवि भी एक सामाजिक प्राणी है। उसकी अनुभूतियाँ समाज तथा समाज की समस्याओं से प्रभावित होती हैं। संवेदनशीलता की स्थिति में कवि कभी-कभी इतना भावुक हो जाता है कि वह बुद्धि पक्ष की ओर समुचित ध्यान नहीं दे पाता। फिर हमें बर्ड्सवर्थ की काव्य सम्बन्धी इसकी परिभाषा को भी याद रखना चाहिए — “कविता बलवती भावनाओं का सहज उच्छलन होती है।” (Spontaneous overflow of powerful feelings.)

एक ही लेखक की विभिन्न रचनाओं में यह साहचर्य कम या अधिक हो सकता है। उनमें पूर्ण सामंजस्य की स्थिति सर्वत्र देखने को नहीं मिलती। फिर यह साहचर्य मानव जीवन में भी सम्भव नहीं है। अतः साहित्य में भी यह साहचर्य नहीं हो सकता। फिर भी काव्यानुशीलन तथा उसकी अनुशंसा की दृष्टि से इलियट का यह सिद्धान्त विशेष महत्त्व रखता है।

इलियट की देन

मूलतः इलियट आधुनिक युग के मान्यता प्राप्त कवि के रूप में विख्यात हैं। लेकिन आलोचना जगत में भी उनका स्थान सर्वोच्च है। आलोचक के रूप में उन्होंने न तो कोई अलग से स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा है और न ही किसी सम्प्रदाय की स्थापना की है। फिर भी आलोचना सम्बन्धी उनके विचार इतने महत्त्वपूर्ण तथा वैविध्य लिए हुए हैं कि यह निर्णय करना कठिन हो जाता है कि वे कवि के रूप में महान हैं या आलोचक के रूप में।

इलियट ने 1944 में यीटस पर जो भाषण दिया, वह उसके द्वारा प्रतिपादित निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत का संशोधित रूप प्रदान करता है | अब उन्होंने निर्वैयक्तिकता के दो रूप माने —

(1) कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता तथा (2) वास्तविक स्रष्टा निर्वैयक्तिकता। पहली का सम्बन्ध शिल्प के साथ है और दूसरी का सृजन से । उनका निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत भारतीय साधारणीकरण से बहुत कुछ मेल खाता है।

इसी प्रकार से वस्तुनिष्ठ समीकरण सिद्धान्त, काव्य और नैतिकता, संवेगों का असाहचर्य, काव्य-संगीत आदि विषयों से सम्बन्धित उनके विचार भी काफी मूल्यवान हैं । इलियट के विचार आज के साहित्य और साहित्यकारों के लिए काफी उपयोगी हैं। उनके चिन्तन में पाश्चात्य साहित्यशास्त्र के साथ-साथ भारतीय काव्य-सिद्धान्तों का मिश्रण एवं प्रभाव दिखाई देता है। निष्ठावान कवि एवं विचारकों के लिए उनका निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत आज भी मूल्यवान है |

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )