मार्क्सवादी आलोचना ( Marxist Criticism )

मार्क्सवादी आलोचना

कार्ल मार्क्स ने जो सिद्धांत दिया उसका राजनीति के साथ-साथ साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा | मूलत: कार्ल मार्क्स का सिद्धांत अर्थवादी है | इसलिए कुछ आलोचक मानते हैं कि मार्क्सवाद का साहित्य से कोई संबंध नहीं | लेकिन यह तर्कसंगत नहीं है क्योंकि साहित्य जीवन की ही अभिव्यक्ति है | दूसरे, मार्क्स ने भौतिकवादी सिद्धांत की प्रतिष्ठा के साथ-साथ राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था, धर्म आदि सभी के बारे में व्यापक चिंतन किया | यही नहीं उन्होंने साहित्य के बारे में भी अपना व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया | उनका सिद्धांत सर्वथा मौलिक, व्यावहारिक एवं वास्तविकता से जुड़ा हुआ है | यही कारण है कि मार्क्स के पश्चात प्रायः सभी साहित्य समीक्षकों ने मार्क्सवादी आलोचना ( Marxist Criticism ) पद्धति को अपनाया |

मार्क्सवादी आलोचना (समीक्षा ) सिद्धान्त

आज जिसे प्रगतिवादी समीक्षा कहा जाता है वह कार्ल मार्क्स से पूर्व भी थी। बेलिस्की, हर्जन, चर्नी-शेब्सकी, दो ब्राल्यूबीव आदि चिन्तकों ने इस दिशा में कुछ कार्य किया था। लेकिन इन विद्वानों के विचार व्यवस्थित एवं सुनियोजित नहीं थे। ‘मार्क्सवाद’ के जनक कार्ल मार्क्स ने इस विचारधारा को पल्लवित किया। एंगिल्स उनके सिद्धान्तों का प्रमुख व्याख्याता था। उसने विस्तारपूर्वक मार्क्सवाद की विवेचना की। यद्यपि कार्ल मार्क्स का पर्याप्त साहित्य उपलब्ध हो जाता है। लेकिन समीक्षा-सिद्धान्त पर उनकी कृति प्राप्त नहीं होती।

उनका साहित्य मूलतः आर्थिक विषमताओं से ही सम्बन्धित है। फिर भी उन्होंने अपनी रचनाओं में कुछ स्थलों पर साहित्य के बारे में भी विचार व्यक्त किए हैं। यूं तो मार्क्सवादी चिन्तन बहुत व्यापक है तथा राजनीति के क्षेत्र में उसका अत्यधिक महत्त्व भी है लेकिन साहित्यिक समीक्षा के लिए उसका संक्षिप्त परिचय ही उपयोगी होगा।

डॉ. सत्यदेव मिश्र ने उसे चार भागों में विभक्त किया है —

(क) द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism)

(ख) इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या (या ऐतिहासिक भौतिकवाद)
(Materialistic Interpretation of History)

(ग) वर्ग-सघर्ष का सिद्धान्त (Theory of Class Struggle)

(घ) अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त (Theory of Surplus Value)

मार्क्सवादी आलोचना पद्धति से प्रथम दो सिद्धान्तों का ही सम्बन्ध है। अतः यहाँ इन दोनों का विवेचन करना है उचित होगा |

द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Dialectical Materialism)

यह शब्द द्वन्द्व और भौतिकवाद के मिलने से बना है। इसमें विज्ञान के आधार पदार्थ की विकास प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है। हीगल ने प्राणी के विकास की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए स्थिति, प्रक्रिया तथा समन्वय का वर्णन किया है।

एंगिल्स ने एक उदाहरण देकर इसकी व्याख्या की है। मिट्टी में बीज को बोना, उसका अंकुरित होना और फिर पक कर पुनः बीज बनना-यह प्रक्रिया निरन्तर होती रहती है। बीज एक स्थिति (Thesis) है। बीज अनेक विपरीत परिस्थितियों से संघर्ष करता है और अंकुरित होकर पौधे का रूप धारण करता है। पौधे के रूप में बदलना ही प्रक्रिया (Anti-Thesis) है। पौधे पर फल लगना, पक कर बीज बनना समन्वय (synthesis) कहा जाएगा।

डॉ. सत्यदेव मिश्र का कहना है — “मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार जगत की सभी वस्तुएँ तथा घटनाएँ अपने आभ्यान्तर विरोध और संघर्ष के कारण द्वन्द्ववादी प्रक्रिया के आधार पर अनवरत रूप से परिवर्तनगामी और विकासोन्मुख रहती हैं।”

अन्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि संसार की उत्पत्ति एवं विकास भौतिक शक्तियों के संघर्ष से होता है। दो वस्तुओं के संघर्ष के फलस्वरूप तीसरी वस्तु की उत्पत्ति होती है। यह क्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस विकास क्रम में योग्यतम की सत्ता बनी रहती है। अतः मार्क्स इस सृष्टि की उत्पत्ति और विकास के पीछे किसी आध्यात्मिक शक्ति को स्वीकार नहीं करता। उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति नहीं, अपितु इसका उत्तरोत्तर विकास हुआ है। यह भौतिक संसार अपने विकास का कारण स्वयं है। इसीलिए मार्क्स आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक आदि में विश्वास नहीं करता |

ऐतिहासिक भौतिकवाद (Materialistic Interpretation of History)

आत्मवादी दर्शन का कहना है कि चेतना के निरन्तर विकास के कारण ही मानव संस्कृति का विकास हो रहा है। इसे इतिहास दर्शन की आदर्शवादी व्याख्या कहते हैं। अन्य शब्दों में हम इसे आध्यात्मिक विकासवाद का सिद्धान्त कह सकते हैं।

होगेल ने इसी मान्यता का समर्थन किया था। लेकिन इसके विरोध में भौतिकवादी सिद्धान्त का जन्म हुआ। इसने अगोचर, सूक्ष्म आत्मतत्व को नकारते हुए गोचर, स्थूल को स्वीकार किया। साथ ही आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर ऐतिहासिक विकास प्रक्रिया को बल प्रदान किया। इसके मूल में संघर्ष को महत्त्व देकर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या की गई।

इस सिद्धान्त की प्रमुख मान्यताएँ इस प्रकार से हैं —

(क) संघर्ष की प्रक्रिया और विकास

मार्क्स के अनुसार इतिहास का विकास न तो सहज होता है और न ही शांत | यह विकास संघर्ष पर आधारित है | यह संघर्ष शांत भी हो सकता है और उग्र भी |

यह संघर्ष क्रान्ति का रूप धारण कर लेता है। इस संघर्ष का कोई विषय अथवा सिद्धान्त नहीं है। इतिहास के विकास की प्रक्रिया राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, दार्शनिक आदि में से किसी भी प्रकार की हो सके है। एंगिल्स ने मार्क्स के सिद्धान्तों की समुचित व्याख्या की है। वे कहते हैं — “मार्क्स का एक महान-इतिहास में विकास के नियम की खोज था | उसने अब तक की विचारधाराओं के झाड़-झंखाड़ में छिपे हुए सरल तथ्य का पता लगाया था कि मनुष्य जाति को राजनीति , विज्ञान, धर्म आदि का विकास करने से पहले खाने-पीने की, निवास और कपड़ों की आवश्यकता है | अतः एक निश्चित समय में एक निश्चित जाति में जीवन-निर्वाह के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन एवं आर्थिक विकास की मात्रा एक ऐसी नींव होती है जिस पर जाति की राज्य-विषयक संस्थाएँ, कानूनी विचार, कला तथा धार्मिक विचार आधारित होते हैं। अतः इसी दृष्टि से उन सब वस्तुओं की व्याख्या की जानी चाहिए।”

(ख) आर्थिक नियन्त्रण की समस्या

मार्क्स द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि समाज की सम्पूर्ण व्यवस्था
और विकास प्रक्रिया आर्थिक स्थिति द्वारा निर्धारित होती है। कारण यह है कि अर्थ ही उत्पादन का साधन तथा वितरण का आधार है। भोजन आदमी के लिए सर्वाधिक महत्त्व रखता है। इसलिए भोजन उत्पादन को अधिक महत्त्व दिया जाता है। अर्थ उत्पादन के सभी साधनों तथा वितरण पर नियन्त्रण रखता है। इसलिए पूँजीपति इन साधनों पर एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं। इसका परिणाम होता है संघर्ष और उससे पैदा होता है, सामाजिक असन्तोष । संक्षेप में अर्थ या उस पर एकाधिकार रखने वाला वर्ग समुचित राज्य व्यवस्था, नियम, कानून, सामाजिक और नैतिक मान्यताएँ यहाँ तक की धर्म पर भी अपना अधिकार कर लेता है।

आर्थिक कारणों के आधार पर मानव इतिहास के पाँच भाग किए गये हैं — (a) आदिम साम्यवादी, (b) दास पद्धति-काल, (c) सामन्तवादी व्यवस्था, (d) पूँजीपति पद्धति, (e) साम्यवाद।

मार्क्स के अनुसार पहले तीन युग समाप्त हो गए हैं। सम्प्रति पूँजीवादी युग चल रहा है। कार्लमार्क्स का विचार था कि आने वाले काल में साम्यवाद का बोल-बाला रहेगा।

(ग) आर्थिक नियन्त्रण की जटिल समस्या

कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) ने यह भी स्वीकार किया कि आर्थिक नियन्त्रण के कारण विकास की प्रक्रिया इतनी सरल नहीं है। जहाँ तक राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों का संबंध है आर्थिक प्रक्रिया को समझा जा सकता है। लेकिन धर्म तथा साहित्य के क्षेत्र में इसे समझना कठिन है। इन दोनों को लेकर आर्थिक नियन्त्रण का अध्ययन करते समय हमें सावधानी बरतनी चाहिए।

(घ) आर्थिक नियन्त्रण का प्रभाव

कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) का यह भी विचार है कि जैसी हमारी अर्थव्यवस्था होगी वैसे ही दर्शन, संस्कृति और धार्मिक संस्कार होंगे। कारण यह है कि आर्थिक व्यवस्था मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित करती है। उदाहरण के रूप में हम सामंतवाद, पूँजीवाद, साम्यवाद को ले सकते हैं। ये सभी अलग-अलग व्यवस्थाएँ हैं तथा इनके चिन्तन भी अलग-अलग हैं। इसलिए इनके कारण संस्कृति और साहित्य के रूप भी. अलग-अलग होंगे।

(ङ) पूंजी के केन्द्रीयकरण की समस्या

मार्क्स ( Karl Marx ) का यह भी कहना है कि पूंजी की एक सहज वृत्ति है कि वह अधिक हाथों से कम हाथों में इकट्ठी हो जाती है, अर्थात धीरे-धीरे पूंजीपति धन का संग्रह करता चला जाता है। इससे समाज में वर्ग भेद उत्पन्न हो जाता है। एक होता है – पूंजीपति वर्ग दूसरा होता है पूंजीहीन वर्ग। क्योंकि उत्पादन के सारे साधन पूंजी पर केन्द्रित होते हैं, अतः पूंजीपति वर्ग उत्पादक वर्ग कहा जाता है। पूंजीहीन अर्थात सर्वहारा वर्ग को श्रमिक वर्ग कहते हैं। उत्पादन के सारे स्रोत पूंजीवादियों के हाथों में सीमित होते हैं, इसलिए वर्ग-संघर्ष को जन्म मिलता है। पूंजी के केन्द्रीयकरण के कारण आर्थिक विषमता उत्पन्न होने लगती है। यह विषमता ही वर्ग-संघर्ष का कारण बनती है। मार्क्स ने इसके लिए क्रांति का आह्वान किया है। उनका विचार है कि सर्वहारा वर्ग अपनी जन शक्ति और संगठन शक्ति के द्वारा पूंजीपतियों तथा उनकी क्रूर व्यवस्था को नष्ट कर सकता है।

(च) जन-कल्याण की भावना

मार्क्सवाद ( Marxism ) का परम लक्ष्य जन-कल्याण है। उनका विचार है कि संसार में मार्क्सवाद ही एक ऐसा सिद्धान्त है जो समूची मानव जाति का कल्याण कर सकता है। संसार में समस्याओं की जड़ वर्ग-संघर्ष है। यदि पूंजीपतियों और सर्वहारा वर्ग में विषमता ही न रहे तो फिर ये वर्ग-संघर्ष ही नहीं रहेगा। इसके लिए मार्क्सवादी साम्यवाद का नारा लगाते हैं। उनका तो यह भी कहना है कि समाज ही व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रदान करता है | अतः समाज के सामने व्यक्ति का महत्त्व गौण है। ऐतिहासिक भौतिकवाद के बारे में ‘एंगिल्स के अनुसार — “इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के अनुसार इतिहास में अन्तिम रूप से निर्णायक प्रभाव रखने वाला तत्त्व उत्पादन है। मार्क्स ने और मैंने इससे अलग कुछ नहीं कहा है, परन्तु जब कोई इस कथन को विकृत करके यह कहने लगे कि आर्थिक तत्त्व ही एकमात्र तत्त्व है, तो ऐसा कहना पूर्णतः निरर्थक और बढ़ँगा होगा।”

(छ) मार्क्सवादी दृष्टि से साहित्य का विवेचन

मार्क्स ( Marx ) के इस चिन्तन को सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत करने का श्रेय कॉडवेल्स को जाता है। मार्क्स ( Marx ) के विचारों का अनुसरण करते हुए उन्होंने लिखा है कि साहित्य और जीवन का जो घनिष्ठ संबंध है वह अर्थव्यवस्था पर निर्भर करता है। साहित्य सामाजिक जीवन से अनुप्रेरित है और सामाजिक जीवन हमेशा आर्थिक स्थिति से प्रभावित होता है। इस प्रकार मनुष्य की समूची जीवन व्यवस्था और उनकी साहित्य संबंधी धारणाएँ आर्थिक ढांचे पर निर्भर करती हैं। उनका विचार है कि मानव के विकास में कला तथा साहित्य दोनों सहायक हैं। साहित्य समाज और मानव जीवन में पारस्परिक सहयोग की भावना उत्पन्न करता है और यही उसका लक्ष्य होना चाहिए। अपने आप में साहित्य की कोई उपयोगिता नहीं है। समाज के लिए उसका उपयोग है तथा समाज के लिए ही कला का महत्त्व है। मार्क्स ( Marx ) ने यह विचारधारा साम्यवाद के आधार पर अभिव्यक्त की है। प्राचीन काल से ही साहित्य में साम्यवादी भावना रही है। कला ही मानव जीवन में समन्वय लाती है। जब-जब सामाजिक व्यवस्था में विकार उत्पन्न हुए, तब-तब कला या साहित्य जन साधारण की वस्तु न रहकर शासक वर्ग के हाथों की कठपुतली बनता चला गया | इसी प्रकार साहित्य भी शासक वर्ग की इच्छाओं का दास बनता चला गया। बाद में पूंजीवादी युग आया और पूंजीवादियों ने भी साहित्य को अपने इशारों पर नचाना शुरू कर दिया। आगे चलकर समाज के दो वर्ग बन गए – शोषक वर्ग तथा शोषित वर्ग।

कार्ल मार्क्स ( Karl Marx ) ने यह भी घोषणा की कि पहले साहित्य लोकमंगल तथा मानव की स्वतंत्रता के लिए लिखा जाता था। लेकिन कालांतर में साहित्य शोषक वर्ग का अस्त्र बन गया और वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए साहित्य का दुरुपयोग करने लगे। मार्क्स ( Marx ) पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि अर्थ अर्थात पूंजी का मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। क्योंकि समाज की आर्थिक व्यवस्था के अनुसार ही साहित्य की रूपरेखा तैयार होती है, इसलिए शोषक वर्ग अपनी धन शक्ति से निर्धन साहित्यकारों को खरीद लेता है। रीतिकाल के दरबारी कवि इसी मान्यता को सिद्ध करते हैं। साहित्यकार दास बनकर धनिकों का प्रचार-प्रसार करते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं और हर प्रकार से समर्थन करते हैं। पूंजीपति वर्ग शोषित वर्ग को उनके अधिकार से वंचित रखने के लिए उन्हीं साहित्यकारों के माध्यम से संतोष का उपदेश देने लगते हैं।

मार्क्सवादी आलोचना सिद्धांत की सीमाएँ

अब प्रश्न यह पैदा होता है कि मार्क्सवादी समीक्षा सिद्धांत क्या सचमुच साहित्य का मूल्यांकन कर सकता है? यहाँ विचारणीय प्रश्न है कि मार्क्स यह दृष्टिकोण व्यावहारिक अधिक है, क्योंकि उन्होंने प्रत्येक कार्य को आर्थिक दृष्टि से देखकर उसका मूल्यांकन किया है। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि अर्थ की प्रधानता तो प्रत्येक युग में रही है और साहित्यकार को अपने परिश्रम के अनुसार फल नहीं मिला है। बल्कि उसकी गणना भी शोषित वर्ग में ही की जानी चाहिए। परन्तु इसका मतलब हम यह नहीं लगा सकते कि प्रत्येक साहित्यकार शोषक वर्ग का दास बन गया है या वह बिकाऊ है। मार्क्स का यह दृष्टिकोण एकांगी है। सर्वांगीण रूप से विवेचन करने पर हम कह सकते हैं कि साहित्य का उद्देश्य तो आनन्द प्रदान करना है। फिर भी साहित्य का अपना क्षेत्र है और जीवन से सम्बद्ध होने के कारण वह अर्थ से भी जुड़ा हुआ है। आज मार्क्सवादी दृष्टिकोण को देखकर मार्क्सवादी आलोचना ( Marxist Criticism ) पद्धति विकसित हो चुकी है। अनेक आलोचकों ने इसी आधार पर साहित्यिक रचनाओं का मूल्यांकन करने का प्रयास किया। लेकिन निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि मार्क्स ( Marx ) की यह दृष्टि एकांगी होने के साथ-साथ वस्तुपरक बनकर रह गई है |

मार्क्सवाद की देन

मार्क्सवादी ( Marxist ) विचारधारा की प्रथम देन तो यह है कि वह साहित्य को जन जीवन के निकट लाने में सफल हुआ है। इसका कारण यह है कि मार्क्सवादी विचारधारा का केन्द्र मानव है। उसी की स्वतन्त्रता और कल्याण के लिए मार्क्सवाद संघर्ष करता है। वह मानव का यथातथ्य चित्र अंकन करना चाहता है। वह, मनुष्य को उसके दुःख-सुख तथा हार जीत से परिचित कराता है। मार्क्सवाद ने काव्यकला और मानव के संबंधों पर प्रकाश डाला है। मार्क्सवाद ने यह सिद्ध किया है कि कला जन साधारण से सम्बद्ध है। जब-जब साहित्य का संबंध है जनसाधारण से टूटता है तब-तब उसका पतन होने लगता है | दूसरा मार्क्सवाद ( Marxism ) ने विषय-वस्तु को महत्व दिया | उसने रूपवादी सिद्धांत की कड़ी आलोचना की जिसमें केवल अभिव्यक्ति माध्यम के आकर्षण पर बल दिया गया था | मार्क्सवाद ( Marxism ) स्पष्ट रूप से कहता है कि महलों में बैठकर लिखी गई कविता खोखली होती है क्योंकि वह यथार्थ से दूर होती है |

संक्षेप में कहा जा सकता है कि मार्क्सवादी आलोचना ( Marxist Criticism ) सिद्धांत आलोचना के क्षेत्र में विशिष्ट स्थान रखता है | अधिकांश आलोचक इस समीक्षा पद्धति से न्यूनाधिक प्रभावित हैं | इसने जहाँ समाजवादी आलोचना ( Socialist Criticism ) पद्धति को बल प्रदान किया वहीं शास्त्रीय आलोचना पद्धति को नया रूप प्रदान किया | पाश्चात्य आलोचना जगत में जॉर्ज ल्यूकस, काडवैल, रॉल्फ फॉक्स, निकेल गोल्ड आदि अनेक मार्क्सवादी आलोचक हुए हैं | हिंदी आलोचना के क्षेत्र में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉo रामविलास शर्मा आदि मार्क्सवादी आलोचकों का नाम उल्लेखनीय है | डॉo रामविलास शर्मा का विचार है — “साहित्यकार को ध्यान रखना चाहिए कि वह सर्वहारा का सहयोगी साहित्य निर्मित करें |”

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

रूपवाद ( Formalism )

अभिव्यंजनावाद

स्वच्छन्दतावाद ( Romanticism )

अभिजात्यवाद ( Classicism )

व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )

आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

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