मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत
मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

मैथ्यू आर्नल्ड मूलतः एक कवि थे परन्तु बाद में वे आलोचक के रूप में विख्यात हुए । उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में समाज, शिक्षा, धर्म और साहित्य-संस्कृति के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित समस्याओं का विवेचन किया। उनका कहना था कि-साहित्य जीवन की आलोचना है। उनका विचार था कि जीवन से असम्बद्ध साहित्यिक सौन्दर्य की विवेचना व्यर्थ है। मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत साहित्य में राग-तत्त्व तथा बुद्धि-तत्त्व दोनों को बराबर स्थान देता है । जहाँ राग तत्त्व का सम्बन्ध कविता से है, वहाँ बुद्धि-तत्त्व का आलोचना से। इसीलिए उनका विचार था कि आलोचना का महत्त्व कविता से किसी भी प्रकार से कम नहीं है।

उन्होंने लोक-कल्याण के आदर्श को सामने रखकर रचनाओं की आलोचना की। उन्होंने यह भी कहा कि प्रत्येक कवि का मूल्यांकन किसी भी युग की साहित्यिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार होना चाहिए। उनका विचार था कि साहित्यकारों की रचनाओं में मार्गदर्शन करने की क्षमता होनी चाहिए |

(1) मैथ्यू आर्नल्ड का समय

आर्नल्ड का समय 19वीं शती का इंग्लैंड था। उस समय वैज्ञानिक एवं भौतिक विकास के कारण तत्कालीन समाज ‘संक्रान्ति के युग’ से गुजर रहा था। समाज में अत्यधिक असमानता एवं असन्तुलन उत्पन्न हो चुका था। तत्कालीन इंग्लैंड का समाज तीन वर्गों में बंट गया था। जहाँ उच्च वर्ग भौतिकतावादी जीवन जी रहा था, वहाँ मध्यम वर्ग क्षुद्र एवं स्वार्थी बन गया था। फलतः निम्न वर्ग में पाशविकता प्रवेश कर चुकी थी। प्रत्येक वर्ग परिष्कृत एवं स्वाभाविक जीवन पद्धति से वंचित हो चुका था। उन्होंने स्वयं एक स्थल पर लिखा है — “आज के युग में असीम विभ्रम फैला हुआ है। विविध परामर्श देने वाले असंख्य स्वर भ्रम में डाल देते हैं।”

अतः स्पष्ट है कि तत्कालीन ब्रिटिश जनता धन-सम्पत्ति के मोह में फँसी हुई थी। उस समय इंग्लैंड की सांस्कृतिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी। अंग्रेज जाति अपने धर्म और संस्कृति को भूलती जा रही थी। एक विद्वान आलोचक के शब्दों में — “आर्नल्ड के समय में इंग्लैंड की सांस्कृतिक स्थिति शोचनीय थी। उसे समाज के विकृत होने तथा टूट जाने की शंका थी। इसलिए उसने अपने समय के सांस्कृतिक संकट का विवेचन किया तथा संकट दूर करने के भी उपाय किए।”

(2) एक कवि तथा आलोचक के रूप में मैथ्यू आर्नल्ड

मैथ्यू आर्नल्ड का अंग्रेजी में प्रवेश एक कवि के रूप में हुआ। लेकिन आगे चलकर उनका आलोचक रूप ही मुखरित हुआ। उसने कहा कि — “काव्य और उससे जुड़े सभी प्रश्न मानव जीवन से सम्बद्ध हैं। मानव जीवन से परे हटकर न तो काव्य का अस्तित्व है और न ही उसकी आलोचना का।”

तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार आर्नल्ड के ये विचार काफी उपयोगी थे, क्योंकि उस समय धर्म और ज्ञान का संघर्ष अपनी चरम सीमा में पहुँच चुका था। विज्ञान की चकाचौंध के कारण संस्कृति, नैतिक मूल्य, धर्म आदि की अवहेलना हो रही थी। अतः इस पतनोन्मुख समाज का उद्धार करना आर्नल्ड की रचना विशेषत: आलोचना का एकमात्र उद्देश्य था। उन्होंने काव्य को जीवन से जोड़कर एक समृद्ध सांस्कृतिक परम्परा का विकास किया। वे चाहते थे कि काव्य जीवन को प्रभावित करे। उनका विचार था कि जीवन की गहराई से निकला काव्य न केवल समाज को प्रभावित करेगा, बल्कि उसे दिशा भी देगा। आर्नल्ड ने काव्य के स्वरूप, काव्य के प्रयोजन, विषय, काव्य और नैतिकता आदि विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है।

(3) आर्नल्ड और आलोचना

आर्नल्ड विक्टोरिया युग का महानतम आलोचक था। आलोचक के रूप में वह आधी शताब्दी तक समूचे अंग्रेजी साहित्य पर प्रभावशाली रहा। जिस प्रकार अरस्तू के काव्य सिद्धान्त 400 वर्षों तक प्रभावशाली रहे, उसी प्रकार आर्नल्ड के आलोचना सिद्धान्त 50 वर्षों तक अंग्रेजी साहित्य को प्रभावित करते रहे। आर्नल्ड ने केवल व्याख्यात्मक और सैद्धान्तिक आलोचना पद्धतियों का विकास किया बल्कि आलोचना के नए प्रतिमान स्थापित किए । आर्नल्ड के विचार में रचनात्मक साहित्य जीवन की आलोचना है। एक आलोचक के रूप में उसने आवश्यक समझा कि वह जीवन की आलोचना को समाज के सामने रखे और उसे संस्कृति से जोड़े। उनका विचार था कि एक आलोचक का यह कर्त्तव्य है कि वह संसार के श्रेष्ठ ज्ञान और विचारों को जाने तथा समझे। वह सर्वोत्तम ज्ञान और विचारों का लोगों में प्रसार करे ताकि समाज में सच्ची और नवीन भावनाएँ प्रसारित हो सकें।

आलोचक के गुण

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत अच्छे आलोचक में निम्नलिखित तीन गुण अनिवार्य मानता है —

(क) आलोचक को पढ़ना चाहिए, समझना चाहिए और वस्तुओं के यथार्थ रूप को देखना चाहिए।

(ख) एक आलोचक ने जो कुछ सीखा है वह उसे दूसरों तक पहुँचाए ताकि संसार में उत्तम भावनाओं की धारा प्रभावित हो और संसार में परिवर्तन आए। आलोचक का यह काम धर्म प्रचारक जैसा प्रभावपूर्ण और कर्मठता युक्त होना चाहिए।

(ग) एक आलोचक को रचनात्मक शक्ति की क्रियाशीलता के लिए उचित वातावरण तैयार करना चाहिए ताकि उसकी आलोचना समाज के लिए मंगलकारी हो सके।

संक्षेप में, वे यह कहना चाहते थे कि आलोचक का काम है कि रचनात्मक प्रतिभा के लिए उचित ऊपजाऊ भूमि तैयार करना जिस पर साहित्यकार सृजनात्मक साहित्य की फसल पैदा कर सके। इस सबका लक्ष्य समाज को पूर्णता की ओर ले जाना और संस्कृति का विकास करना था। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि आर्नल्ड स्वयं आलोचना के प्रचारक अधिक थे और आलोचक कम। विशेषकर ‘सैन्त व्यव’ ने स्वीकार किया कि आलोचक में जिज्ञासा भाव प्रधान होना चाहिए। साथ ही आलोचक को वस्तु और स्थिति देखनी चाहिए। लेकिन आर्नल्ड ने ऐसा नहीं किया। आर्नल्ड ने आलोचक के लिए निष्पक्ष होने पर भी बल दिया है। लेकिन आर्नल्ड का यह मत नहीं था कि आलोचक पूर्वाग्रह-मुक्त और तटस्थ होकर रचना का मूल्यांकन करे। आर्नल्ड ने निष्पक्ष शब्द को अपने विचारों के अनुसार अर्थ प्रदान किया।

‘निष्पक्ष’ से उसका मतलब था कि आलोचक उन बातों से मुक्त हो, जो बौद्धिक और नैतिकतापूर्ण बातों में बाधक हैं। आलोचक का फैसला असभ्य तथा अभिजात्य दोनों के पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए । कारण यह है कि गंभीर विचार और ज्ञान इन दोनों की पहुँच से बाहर है। पुनः आलोचक को जन-साधारण की महत्ता से मुक्त होना चाहिए। उसे संतुष्ट मध्य वर्ग के झूठे विचारों से भी बचना चाहिए। कारण यह है कि इस वर्ग के लोग रूढ़िवादी और धर्मान्ध होते हैं। ये लोग व्यापार, धन संग्रह और भोग विलास में लीन रहते हैं। अतः निष्पक्ष रहने का मतलब है – असत्य और अर्थसत्य से दूर रहना। उन सभी बातों से दूर रहना जो नगरों के यांत्रिक जीवन से जुड़ी होती हैं और आध्यात्मिक मूल्यों की अवहेलना करती हैं।

संक्षेप में वही आलोचना निष्पक्ष है, जो सांस्कृतिक सम्पूर्णता की ओर प्रयत्नशील रहती है और जीवन की रुचि तथा सामान्य रुचियों की ओर ध्यान नहीं देती।

(4) आलोचक का कर्त्तव्य

आर्नल्ड का कहना था कि आलोचक का यह भी कर्त्तव्य है कि वह कवि और कविता के लिए उचित भूमि तैयार करे। वे कहते हैं — “The elements with which the creative power works are ideas; The best ideas on every matter which literature preaches, current at the time.”

अर्थात सृजनात्मक साहित्य जिन तथ्यों पर आधारित होता है वे विचार होते हैं। ये विचार अपने समय के सर्वश्रेष्ठ विचार होते हैं और एक सच्चा आलोचक ही इन्हें कवि को दे सकता है। कवि का काम तो केवल आलोचक द्वारा खोजे गए और प्रतिपादित किए गए विचारों का संश्लेषण करना है।

कुछ हद तक आर्नल्ड का यह मत ठीक है कि एक सफल आलोचक सृजनात्मक साहित्य के लिए ऊपजाऊ भूमि तैयार करता है, लेकिन
यह कहना गलत है कि यह कार्य केवल आलोचक करता है। सच्चाई तो यह है कि आर्नल्ड ने आलोचक को अनावश्यक महत्त्व प्रदान किया।

एक विद्वान आलोचक के शब्दों में — “यह सत्य है कि महान आलोचक भौतिक जीवन को यांत्रिक जीवन से मुक्त करता है, ज्ञान का अर्जन ज्ञान के लिए करता है, विचारों को उनके माधुर्य और आलोक के लिए चाहता है, सर्वश्रेष्ठ विचारों का प्रचार करता है, जीवन में उन विचारों को रूपांतरित का का प्रयास करता है, अपने विचारों को संसार तक पहुँचाता है। फिर भी उसे उतना महत्त्व नहीं देना चाहिए, जितना आर्नल्ड ने दिया है।”

आलोचकों के प्रकार्यों की चर्चा करते हुए आर्नल्ड कहते हैं कि आलोचकों को महान कविता के लक्षण बताने में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। इससे तो बेहतर होगा कि वह महान कविता के उदाहरण पढ़ें और जो गुण उन्हें वहाँ मिलें उन्हें महान कविता की कसौटी बनाएँ। ऐसा करने से आलोचक महान कविता और साधारण कविता के अतंर को समझ जाएगा। काफी अध्ययन के बाद आलोचक कविता के ऐसे स्थलों को चुनता है जिनमें उदात्त कविता का चमत्कार है। ये स्थल दूसरी कविताओं के जाँच करने में काम आएँगे |

इस प्रकार आर्नल्ड एक महान कविता में विषय-वस्तु की सत्यता, भावों की गंभीरता, शैलीगत सुंदरता तथा उदात्तता को अनिवार्य मानता है। इन गुणों से युक्त कविता पाठक को आह्वाद प्रदान करती है। उसके ध्यान को तत्काल आकर्षित करती है और पाठक को इतना मुग्ध कर देती है कि वह उसे कभी भूलता ही नहीं।

(5) मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत : कुछ त्रुटियाँ

आर्नल्ड के आलोचना सिद्धान्तों की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि वह नैतिक मूल्यों पर अमर्यादित बल देता है। इसका परिणाम यह होता है कि वह कभी-कभी काव्य की सामान्य पंक्तियों को भी आदर्श काव्य मान लेता है। इससे उनकी आलोचना पूर्वाग्रह के कारण निकृष्ट और पक्षपातपूर्ण हो जाती है। काव्य का मूल्यांकन करने के लिए आर्नल्ड ने दो कवियों के काव्यों के काव्यांशों की तुलना करने का सुझाव दिया है। लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि इससे सम्पूर्ण कृति का मूल्यांकन नहीं हो सकता। आलोचना की तुलनात्मक पद्धति सदैव उपयोगी हो, यह आवश्यक नहीं |

ऐतिहासिक, वैयक्तिक और अनुभवात्मक मूल्यांकन में आर्नल्ड ने सर्वाधिक महत्त्व अनुभवात्मक मूल्यांकन को दिया है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि किसी काव्य का ऐतिहासिक मूल्य होते हुए भी उसमें दोष हो सकते हैं। यदि वह रचना साहित्य के विकास में उपयोगी है और जीवन की व्याख्या करती है तो हमें उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। लेकिन यह सही नहीं है। आलोचक को यह देखना चाहिए कि काव्य की वास्तविक कसौटी पर वह रचना खरी उतरती है या नहीं।

उसी प्रकार से आर्नल्ड ने वैयक्तिक मूल्यों को उतना महत्त्व नहीं दिया जितना उचित था। वैयक्तिक मूल्यांकन में कुछ त्रुटियाँ हो सकती हैं लेकिन उसका पूर्णतः बहिष्कार करना अनुचित है।

आर्नल्ड का यह कहना भी उचित प्रतीत नहीं होता कि आलोचक एक महान काव्य की प्रशंसा करे और द्वितीय श्रेणी की रचना की ओर ध्यान न दे। इस संबंध में स्कार्ट जेम्स का कथन है कि सभी पर्वत श्रेणियाँ अल्पस नहीं होतीं। उनका कहने का भाव यह था कि यदि हम साधारण कोटि की रचनाओं की अवहेलना करते रहेंगे तो वे उच्च कोटि की रचनाएँ कभी नहीं बन सकेंगी। इसलिए सामान्य प्रतिभा वाले नवोदित साहित्यकारों की रचनाओं का मूल्यांकन होना भी आवश्यक है |

(6) आलोचना क्षेत्र में मैथ्यू अर्नाल्ड की देन

आर्नल्ड अपने समय का एक समर्थ कवि एवं आलोचक है। वह अपने युग की परिस्थितियों से पूर्णतः प्रभावित था। उसने कविता में मिथ्यात्मकता , आडम्बर- प्रियता और छद्म के विरुद्ध आवाज बुलंद की। यही नहीं उसने कविता में सत्य, उदात्त विचार, गरिमा आदि सद्गुणों की स्थापना भी की। आर्नोल्ड ने आलोचना की परिभाषा देते हुए आलोचना के प्रकार्य भी बताए। उसने अपने समय के कवियों और आलोचकों को संदेश दिया कि वे अतिवादिता, आडम्बर और अर्धसत्य की अवहेलना करें और केवल सत्य को ही ग्रहण करें।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत साहित्य को जीवन की अभिव्यक्ति और प्रेरक मानता है | विशुद्ध आलोचना सिद्धांत न होते हुए भी मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत आलोचना जगत में सदैव उपयोगी रहेगा |

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