विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का आधुनिक पाश्चात्य काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान है | उसने उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में नव्यशास्त्रवाद (Neoclassicism) से सम्बन्ध विच्छेद करके एक सर्वथा नवीन विचारधारा को जन्म दिया।

विलियम वर्ड्सवर्थ के इन विचारों को पाश्चात्य काव्यशास्त्र में स्वच्छंदतावाद के नाम से जाना जाता है | उनके विचार उनके
प्रसिद्ध काव्य-संग्रह Lyrical Ballads के द्वितीय संस्करण की भूमिका में प्राप्त होते हैं। इस भूमिका में उन्होंने कवि तथा उसकी काव्य-भाषा के बारे में अपने मौलिक विचार प्रकट किए। उन्होंने 18वीं शताब्दी की काव्य-शैली को अस्वीकार करते हुए काव्य-भाषा के बारे में मौलिक विचार प्रकट किए। उन्होंने काव्य भाषा में जनभाषा को महत्व दिया और अनावश्यक अलंकरण को त्याज्य माना | उनका विचार था कि कविता की भाषा और जनसाधारण की भाषा में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए।

कविता की परिभाषा देते हुए विलियम वर्ड्सवर्थ कहता है —

“All good poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings” अर्थात् कविता मानव-मन की बलवती भावनाओं का सहज उच्छलन है |

‘लिरिकल बैलेड्स‘ की इस भूमिका में दिए गए उनके विचार अन्तिम नहीं माने जा सकते। कारण यह कि आगे चलकर उनके विचारों में काफी परिवर्तन एवं परिवर्द्धन देखने को मिलता है। उनके भाषा संबंधी सिद्धांत को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है —

(1) वर्ड्सवर्थ पूर्व स्थिति

वर्ड्सवर्थ से पूर्व दान्ते ने काव्य की भावनाओं को सहज उच्छलन नहीं माना था। उनका विचार था कि काव्य की भावनाएँ श्रमसाध्य तथा अभ्यास के फलस्वरूप ही प्रकट होती हैं। उन्होंने जन-भाषा के स्थान पर साहित्यिक भाषा को महत्त्व दिया था। दान्ते का यह भी विचार था कि भाषा तो केवल विचारों को अभिव्यक्त करने का माध्यम मात्र है। विचार ही महत्त्वपूर्ण हैं, भाषा नहीं। भाषा का ऐसा ही उपयोग है जैसा एक सैनिक के लिए घोड़े का उपयोग होता है। वे कहते हैं —

“The best soldiers should have the best horses and in like manner the best speech is that which is suited to the best thought.”

दान्ते के विचारों से प्रभावित होकर 18वीं सदी तक कवि लोग प्रायः कृत्रिम एवं आडम्बरपूर्ण भाषा का प्रयोग ही करते रहे। वर्ड्सवर्थ ने ही इस परम्परा का विरोध किया और स्वच्छन्द तथा जन-साधारण की भाषा के प्रयोग पर बल दिया। इसलिए वर्ड्सवर्थ का काव्य-भाषा सिद्धान्त काव्य जगत में विशेष महत्त्व रखता है |

(2) काव्य गुण सम्बन्धी विचार

वर्ड्सवर्थ से पहले ही ब्लेक ने कलावादिता ( कृत्रिम अलंकरण ) को त्याग दिया और काव्य में भावावेग और जीवनोत्साह को महत्ता प्रदान की। उसने हृदयगत प्रेरणा तथा कल्पना की सूक्ष्म दृष्टि को अधिक महत्त्व प्रदान किया।

वर्ड्सवर्थ ने ब्लेक के ही मत का समर्थन करते हुए कहा —

“काव्य के द्वारा पाठक का मस्तिष्क आवश्यक रूप से कुछ अंश में प्रबुद्ध होना चाहिए और उसके भाव सशक्त और शुद्ध बनाए जाने चाहिएँ।”

साथ ही वर्ड्सवर्थ ने भावना को विशेष महत्त्व प्रदान किया, क्योंकि भावना ही कार्य और स्थिति का मूल्यांकन करती है। उनका विचार था कि भावनाओं को महत्त्व देने से सामान्य जीवन की सहज घटनाओं का चयन किया जा सकता है।

विलियम वर्ड्सवर्थ सहजता पर विशेष बल देते हैं। उनका विचार था कि जब कवि काव्य-रचना करता है उस समय उसमें सहज भावावेग होता है। इससे पूर्व कवि का मन गहन चिन्तन और मनन कर चुका होता है। उसकी वृत्तियाँ मंगलकारी (सद्) बन जाती हैं। भावावेग के समय जो सौन्दर्य-रत्न कवि को प्राप्त हो जाते हैं, वह उन्हीं को काव्य में समाविष्ट कर लेता है। बाकी वह कितने सौन्दर्य रत्न बटोर पाता है, यह सब कवि की अपनी कौशल-क्षमता पर निर्भर करता है।

संक्षेप में काव्य गुणों में वर्ड्सवर्थ ने सूक्ष्म-निरीक्षण, संवेदनशीलता, कल्पना, चिन्तन, पुनःनिरीक्षण आदि को आवश्यक माना है।

वर्ड्सवर्थ ने आरम्भ में काव्य के भावों के सहज उच्छलन पर बल दिया और साधारण काव्य शैली को अपनाया, लेकिन बाद में उन्होंने मनन, परीक्षण को आवश्यक मानते हुए कला-सौन्दर्य को काव्य का अनिवार्य गुण घोषित किया।

(3) काव्य भाषा एवं शैली सम्बन्धी विचार

पहले बताया जा चुका है कि अठारहवीं शताब्दी के अन्त में जॉन ड्राइडन द्वारा मान्य तथा प्रचलित काव्य शैली रूढ़ मानी जाने लगी थी। जहाँ तक वर्ड्सवर्थ का प्रश्न है वे काव्य शैली को अनुपयोगी मानते थे। उन्हें लगा कि परम्परागत शैली विकृत, कृत्रिम और बोझिल है। टी.एस. इलियट और एजरा पाऊन्ड दोनों ने सामान्य बोलचाल की भाषा को अधिक उपयोगी माना है।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने इन्हीं दोनों का समर्थन करते हुए कहा कि उसकी अपनी भाषा-शैली अधिक प्राकृतिक और स्वाभाविक है। वर्ड्सवर्थ से पूर्व भाषा-शैली के कुछ नियम बनाए जा चुके थे। उस भाषा-शैली में अनाकर्षक तथा साधारण शब्दों का बहिष्कार किया गया था तथा विशेष अलंकरणयुक्त कालिष्ट शब्दों के प्रयोग पर बल दिया गया था |

इसके विपरीत वर्ड्सवर्थ ने विशेष काव्यगत युक्तियों, मानवीकरण, वक्रोक्ति, विपर्यय तथा वैषम्य आदि का बहिष्कार किया। वे वस्तु परिगणन प्रणाली के भी विरोधी थे। उन्होंने यह भी कहा कि पौराणिक दंत कथाओं तथा भावाभास आदि को बलपूर्वक काव्य भाषा में नहीं ठूँसा जाना चाहिए। यही नहीं, उन्होंने शैलीगत विलक्षणता, अस्वाभाविक कल्पना, अतिशयोक्ति, शाब्दिक चमत्कार, अस्पष्टता आदि का भी विरोध किया।

‘स्कार्ट जेम्स’ ने उनके बारे में लिखा है —

“Disgusted by the gaudiness and insane phraseology of many modern writers, he castigates poets who separate themselves from the sympathies of men and indulge inarbitrary and capricious habits of expression.”

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ‘कॉलरिज‘ ने वर्ड्सवर्थ की काव्य भाषा सम्बन्धी मान्यताओं की कटु आलोचना की जिसका कारण यह है कि भाषा-शैली के बारे में उन्होंने जो आपत्तियाँ उठाई हैं, उन्हीं काव्य
युक्तियों का उपयोग किया है। कही-कहीं तो वर्ड्सवर्थ की वाक्य रचना काफी उलझी हुई है। कछ स्थलों पर वे पुस्तकीय शब्दावली तथा भावाभास का प्रयोग करते हैं।

अठारहवीं शताब्दी की काव्यभाषा के समान उनकी अपनी काव्य भाषा में अनेक स्थलों पर वक्रोक्ति का प्रयोग देखने को मिल जाता है। उनकी वाक्य रचना कहीं-कहीं बड़ी दुरूह है। पुनः वे वास्तविक रूपक और कृत्रिम रूपक के प्रयोग में भेद नहीं कर सके।

कॉलरिज ने वर्ड्सवर्थ की काव्य भाषा संबंधी सिद्धांत पर दो आक्षेप लगाए —

(क) भाषा संबंधी वर्ड्सवर्थ का नियम केवल काव्य के कुछ विशिष्ट वर्गों पर ही लागू हो सकता है |

(ख) भले ही इस नियम का पालन कुछ कविताओं में हो सके, कुल मिलाकर यह नियम यदि हानिकारक न भी हो तो भी निरर्थक है। अतः इसके पालन की आवश्यकता नहीं है।

इन आपत्तियों के बावजूद वर्ड्सवर्थ ने काव्य में कृत्रिमता की बजाय सरल भाषा के प्रयोग का पक्ष लिया। जहाँ ‘दान्ते’ जैसे कवि ने ग्राम्य भाषा से दूर रहने की बात कही थी वहाँ वर्ड्सवर्थ सरल भाषा का समर्थन करते हुए कहते हैं कि कवियों को ग्रामीण जीवन से विषय का चयन करना चाहिए।

वे कहते हैं —

“He should keep the reader in the company of flesh and blood.”

पुनः विलियम वर्ड्सवर्थ गद्य और पद्य की भाषा में विशेष अंतर स्वीकार नहीं करते। दोनों में से वे गद्य की भाषा को महत्त्व देते हैं |

वे लिखते हैं —

“….. That language of prose may yet be well adopted to poetry…..and that a large portion of the language of very good poem can in no respect differ from that of good prose”.

गद्य भाषा के समर्थन में उन्होंने यह भी तर्क दिया कि उन दोनों भाषाओं को अभिव्यंजना करने वाली तथा दोनों को ग्रहण करने वाली ध्वनियाँ एक ही हैं। दोनों की राग और रुचि भी समान होती है। अतः गद्य और पद्य दोनों की भाषाओं में कोई विशेष अंतर नहीं है।

(4) जन-साधारण की भाषा के प्रयोग पर बल

वर्ड्सवर्थ अपने काव्य भाषा संबंधी सिद्धांत के अनुसार जन-साधारण की भाषा के प्रयोग पर बल देते हैं। परन्तु जन-साधारण की भाषा है क्या, इसके बारे में उन्होंने समुचित प्रकाश नहीं डाला। प्रश्न उठता है कि क्या वर्ड्सवर्थ ने ग्राम्य भाषा के प्रयोग पर बल दिया? हो सकता है कि आरंभ में उनका यही विचार रहा हो। लेकिन आगे चलकर उनका यह विचार बदल गया। वर्ड्सवर्थ ने इस बात को स्वयं महसूस किया कि काव्य भाषा के बारे में उनके जो विचार थे वे उनकी काव्य रचनाओं से मेल नहीं खाते। उन्होंने ग्राम्य भाषा में सुधार और परिवर्तन की बात भी कही है।

भाषा के बारे में उन्होंने कहा है कि काव्य में ‘selection of the real language of men’ होनी चाहिए अर्थात् मनुष्यों की वास्तविक भाषा में से भी चुनाव होना चाहिए।

इसका स्पष्ट मतलब है कि वे ग्राम्य भाषा के यथावत प्रयोग के विरुद्ध थे। इतना निश्चित है कि वे चाहते थे कि भाषा सरल, सीधी और आडम्बरहीन होनी चाहिए। जब वे भाषा में चुनाव की बात कहते हैं तो उनका यह मतलब निकलता है कि जनभाषा का प्रयोग करते समय जानभाषा में से भी अधिक प्रभावी और आकर्षक भाषा का चयन किया जा सकता है | उनका यह मत पहली दृष्टि में आलोचकों को एक दूसरे के विपरीत लग सकता है लेकिन उनके कहने का मंतव्य स्पष्ट है जिसमें वे कृत्रिम भाषा के स्थान पर स्वाभाविक जनभाषा के प्रयोग को महत्व देते हैं |

वे कहते हैं —

“भाषा ऐसी होनी चाहिए जो सभी की समझ में आ जाए, हृदय के तीव्र भावावेग को अभिव्यक्त करने में समर्थ हो तथा जिसमें आडम्बर और कृत्रिमता न हो।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्ड्सवर्थ के भाषा संबंधी विचार उनके काव्य संबंधी विचारों से सर्वथा सुसम्बद्ध हैं। उन्होंने यह स्वीकार किया कि सही और विवेकपूर्ण चुनाव से भाषा गरिमायुक्त, सजीव और प्राणवान बन जाती है। उनका यह भी विचार था कि भावों की तीव्रता के समय काव्य भाषा स्वतः अलंकृत हो जाती है। अलंकृत होते हुए भी वह भाषा कृत्रिम नहीं होती |

उन्होंने रूपक का संबंध तीव्र भावावेग से जोड़ा तथा काव्य में उसे ग्रहण करने की वकालत की। अन्त में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मनुष्य की सच्ची भाषा वह होती है जिसका प्रयोग वह भावावेग में करता है।

वर्ड्सवर्थ उसी कविता को महान मानता है जो तीव्र भावावेग में लिखी गई हो जिसमें उक्त रूपक शैली का प्रयोग हो। उसने स्वयं ग्राम्य गीत और आख्यान छंद में काव्य रचना की थी। भाषा की सरलता और साधारणता के कारण वर्ड्सवर्थ ने वर्जिल, होरेस, मिल्टन तथा स्पैन्सर आदि को महान् कवि घोषित किया है। वस्तुतः वर्ड्सवर्थ के भाषा-संबंधी विचार मौलिक तथा व्यावहारिक कहे जा सकते हैं। वस्तुत: वही कवि सफल कहा जा सकता है जो आम आदमी की समस्याओं तथा अनुभूतियों को सहज तथा सरल भाषा में व्यक्त कर पाता है। वागाड़म्बर निश्चय से भाषा को दुरुह बना देता है। कबीर, तुलसीदास, सूरदास आदि हिन्दी कवि इसलिए लोकप्रिय कवि कहे जाते हैं, क्योंकि उन्होंने अपने काव्य में जन-साधारण की भाषा का प्रयोग किया है।

(5) भाषा में छन्द प्रयोग

वर्ड्सवर्थ ने भाषा में छंद प्रयोगों को आवश्यक माना है। उनका विचार था कि छंद के कारण ही कवि एक विशेष प्रकार की भाषा का प्रयोग करता है। जिस प्रकार वर्ड्सवर्थ ने भाषा चुनाव पर बल दिया, उसी प्रकार उन्होंने छंदों के चुनाव पर भी बल दिया। लेकिन वे मनमाने छंद प्रयोग के विरुद्ध थे। उनका विचार था कि छंद प्रयोग उपयुक्त, नियमित और एकविद होना चाहिए। यद्यपि वर्ड्सवर्थ ने छंद को कविता के लिए अनिवार्य घोषित नहीं किया, लेकिन वे छंद के महत्त्व, शक्ति और प्रभाव से सर्वथा परिचित थे। उनका विचार था कि करुण स्थिति और भावावेग का जितना सफल वर्णन छंद में हो सकता है, उतना गद्य में नहीं हो सकता।

यद्यपि वर्ड्सवर्थ भाषा संबंधी और छंद संबंधी अनेक मौलिक और उपयोगी उदभावनाएं करते हैं तथापि उनकी भाषा संबंधी और छंद संबंधी सभी मान्यताओं को ज्यों-का-त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि अनेक परवर्ती पाश्चात्य विचारकों ने उनकी मान्यताओं का खंडन किया | उनके अपने मित्र और सहलेखक कॉलरिज ने उनकी मान्यताओं का विरोध किया।

वस्तुत: भाषा का प्रश्न बड़ा जटिल और गंभीर है। भाषा का कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन सकता, क्योंकि प्रत्येक कवि की भाषा और शैली उसके व्यक्तित्व और रुचि के अनुसार होती है।

(6) वर्ड्सवर्थ के काव्य-भाषा सिद्धांत का मूल्यांकन

अनेक त्रुटियां होने पर भी वर्ड्सवर्थ के भाषा संबंधी विचारों की अवहेलना नहीं की जा सकती। वस्तुत: उनका मुख्य उद्देश्य कृत्रिम भाषा का बहिष्कार करना तथा विषयनुकूल सहज भाषा के महत्त्व को प्रतिपादित करना था |

एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में —

“वर्ड्सवर्थ ने कविता को कृत्रिमता और वागाडम्बर की सीमित परिधि से निकाल कर भावोच्छवासों की विशद् भूमि पर ला खड़ा किया और उसमें भावों की प्रतिष्ठा की। भले ही वे स्वयं सामान्य और ग्रामीण भाषा का प्रयोग न कर सके हों, फिर भी उन्होंने व्यावहारिक भाषा पर तो बल दिया ही।”

संक्षेप में वर्ड्सवर्थ के काव्य-भाषा सिद्धांत की देन को निम्नलिखित बिंदुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है —

(क) वर्ड्सवर्थ ने काव्य निर्माण की प्रक्रिया के आधार पर काव्य का विवेचन किया।

(ख) उन्होंने काव्य में भाव तत्त्व को महत्त्व प्रदान किया।

(ग) उन्होंने 18वीं शताब्दी की कृत्रिम और वागण्डम्बर युक्त अलंकृत भाषा का खंडन किया और सामान्य लोगों की भाषा को महत्त्व दिया।

संक्षिप्तत: उनका काव्य भाषा संबंधी सिद्धांत परवर्ती कवियों को भाषा के विषय में सचेत करता है और उन्हें व्यर्थ के अलंकरण से बचते हुए स्वाभाविक भाषा में भावों की सहज अभिव्यक्ति के लिए प्रेरित करता है |

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

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लोंजाइन्स का उदात्त सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप