रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ

अलंकार सिद्धांत के पश्चात रीति सिद्धांत ( Riti Siddhant ) भारतीय काव्यशास्त्र की एक महत्वपूर्ण देन कही जा सकती है | रीति सिद्धांत का प्रवर्तन अलंकारवादी सिद्धांत की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप माना जाता है |

रीति सिद्धांत के प्रवर्तक श्रेय आचार्य वामन माने जाते हैं जिन्होंने अपनी रचना ‘काव्यालंकारसूत्रवृत्ति’ में इसका विस्तृत विवेचन किया है | वामन प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ ( रीति काव्य की आत्मा है ) कहकर रीति को गौरव प्रदान किया | उन्होंने ही सर्वप्रथम ‘रीति‘ शब्द की परिभाषा दी |

रीति : अर्थ एवं स्वरूप ( Reeti : Arth Evam Swaroop )

रीति‘ का कोशगत अर्थ है – पद्धति, प्रणाली, मार्ग आदि | ‘शैली‘ को भी ‘रीति‘ का पर्याय माना जाता है | ‘रीति’ का व्युत्पत्तिपरक अर्थ गति या मार्ग बताया गया है |

भोजराज अपनी रचना ‘सरस्वतीकंठाभरण’ में लिखते हैं — “रीङ गताविति धातो: सा व्युपत्त्या रीतिरूच्यते |”

रीति‘ साहित्य को एक सुनिश्चित और व्यवस्थित मार्ग की ओर गतिशील करती है और काव्य-रचना को सौंदर्य प्रदान करती है | प्रत्येक साहित्यकार की अपनी रचना-प्रणाली होती है | कोई सीधे-सादे शब्दों में गूढ़ भावों को अभिव्यक्त कर जाता है तो कोई सूक्ष्म प्रतीकों और क्लिष्ट शब्दों के माध्यम से भावाभिव्यक्ति करता है | यही कारण है कि एक ही भाव को विभिन्न व्यक्ति अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत करते हैं और उनका अपना-अपना आकर्षण व प्रभाव होता है | यही रचना-प्रणाली रीति कहलाती है |

रीति सिद्धांत ( Reeti Siddhant ) के प्रवर्तक आचार्य वामन लिखते हैं — विशिष्ट प्रकार की पद-रचना ही रीति है | यहाँ पद-रचना से अभिप्राय पदों की संघटना से है | जिस प्रकार ईश्वर ने एक कलाकार की भांति मनुष्य के शरीर की संघटना की है ठीक उसी प्रकार से कवि भी निर्दोष काव्य-रचना का प्रयास करता है और उसके सभी पदों को उचित स्थान पर सजाता है | इसका यह अर्थ हुआ कि विशिष्ट पद-रचना का संबंध गुणों से है | वामन गुणों को रीति का प्राण मानते हैं |

संक्षेप में रीति वह विशिष्ट पद-रचना है जिसमें काव्योचित गुणों की स्थिति अनिवार्य रूप से होती है |

वामन पूर्व रीति-संबंधी स्थापनाएँ

यह सही है कि आचार्य वामन ने रीति सिद्धांत का प्रवर्तन किया परंतु आचार्य वामन से पूर्व अनेक संस्कृत आचार्यों ने रीति के संबंध में अपनी स्थापनाएँ प्रस्तुत की |

(1) भरत — सर्वप्रथम आचार्य भरत मुनि ने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र‘ में गुणों की चर्चा करते हुए वृत्तियों और प्रवृत्तियों का उल्लेख किया | उन्होंने चार वृत्तियों – (क ) सात्वती, (ख ) कैशिकी, (ग ) आरभटी, (घ ) भारती तथा चार प्रवृत्तियों – (क ) अवन्ती, (ख ) दक्षिणात्य, ( ग ) पांचाली, (घ ) उड्रमागधी का उल्लेख किया |

प्रवृत्ति की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं — “पृथ्वी के नाना देशों की वेशभूषा तथा आचार सूचक वृत्ति ही प्रवृत्ति है |” परंतु यह रीति से सर्वथा भिन्न है |

(2) बाणभट्ट — बाणभट्ट ने ‘हर्षचरित’ में देश के चार भागों में चार प्रकार की शैलियों के प्रचलित होने का उल्लेख किया है | वे चारों शैलियों के प्रयोग को उत्तम मानते हैं | ये चार शैलियाँ हैं – अर्थ सौंदर्य, शब्द सौंदर्य, अलंकार सौंदर्य तथा अक्षरबंध सौंदर्य |

(3) भामह — बाणभट्ट के पश्चात भामह ने रीतियों का सैद्धांतिक विवेचन किया है | भामह ने ‘रीति‘ के लिए ‘काव्य‘ शब्द का प्रयोग किया और काव्य भेदों के रूप में वैदर्भी और गौड़ी की चर्चा की | भामह के काल में वैदर्भी रीति को श्रेष्ठ माना जाता था | भामह ने कहा कि रीति चाहे वैदर्भी हो या गौड़ी परंतु अलंकारों से हीन होने पर दोनों व्यर्थ हैं |

(4) दण्डी — भामह के पश्चात दंडी ने भी रीति का उल्लेख किया | दंडी ने रीति के स्थान पर ‘मार्ग‘ शब्द का प्रयोग किया | दंडी अपनी पुस्तक ‘काव्यादर्श‘ में लिखते हैं — “वाणी के अनेक मार्ग हैं और उनमें परस्पर अनेक भेद हैं | इनमें वैदर्भी और गौड़ी स्पष्ट भेद के कारण अलग दिखाई देती हैं |”

दण्डी के अनुसार रुचि-भेद के कारण प्रत्येक कवि का मार्ग भिन्न होता है | इसलिए विभिन्न कवियों की विभिन्न शैलियाँ होती हैं | दंडी ने यह भी कहा कि जो दूसरे के मार्ग का अनुसरण करता है, वह अपनी शैली या रीति का अनुसरण नहीं कर सकता ; अतः वह अंधा है | दंडी की देन यह है कि उन्होंने रीतियों की संख्या कवि रुचिगत भेद के आधार पर अनेक मानी है | दूसरा ; दण्डी ने रीति और गुण के संबंधों को नियमबद्ध करते हुए गुणों की दृष्टि से गौड़ी की अपेक्षा वैदर्भी को श्रेष्ठ माना |

रीति सिद्धांत के समर्थक आचार्य ( Riti Siddhant Ke Samarthak Aacharya )

(1) वामन — रीति सिद्धांत का प्रवर्तक ( Riti Siddhant Ka Pravartak ) आचार्य वामन को माना जाता है | आचार्य वामन ने पहली बार ‘रीति‘ शब्द का प्रयोग कर ‘रीति‘ शब्द की परिभाषा दी | वामन लिखते हैं — “विशिष्टा पदरचना रीति: अर्थात् विशिष्ट पद रचना ही रीति है |”

वामन से पूर्व केवल दो रीतियाँ प्रचलित थी – वैदर्भी और गौड़ी | परंतु वामन ने इन दोनों के मध्य ‘पांचाली‘ की उद्भावना की | इस प्रकार आचार्य वामन रीतियों की संख्या तीन मानते हैं | तीनों रीतियों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करते हुए आचार्य वामन ने वैदर्भी रीति में दस गुण माने हैं | वैदर्भी रीति को श्रेष्ठ मानते हुए उन्होंने इसे ‘समग्रगुण भूषिता: रीति’ कहा | वैदर्भी रीति के संबंध में आचार्य वामन ने कहा — “वैदर्भी रीति समस्त गुणों से गुम्फित, दोषों से सर्वथा रहित और वीणा के स्वरों जैसी मधुर होती है |” गौड़ी रीति में उन्होंने दो गुण माने हैं – ओज और कान्ति | उन्होंने पांचाली में माधुर्य और सुकुमार्य, दो गुण माने हैं |

आचार्य वामन ने गुणों के दो भेद किए हैं – शब्द गुण और अर्थ गुण |रस, अलंकार आदि को भी उन्होंने गुणों के अंतर्गत ले लिया |

आचार्य वामन ने रीति को ‘रीतिरात्मा काव्यस्य’ ( रीति काव्य की आत्मा है ) कहा, जो रीति के संबंध में उनकी सबसे बड़ी देन कही जा सकती है |

(2) रुद्रट — वामन के पश्चात रूद्रट ने रीति का विवेचन किया | रूद्रट ने लाटी नाम की एक नवीन रीति की मौलिक उदभावना की तथा रीतियों की संख्या चार पहुँचा दी | रूद्रट ने समास के आधार पर रीतियों का वर्गीकरण किया | उनके अनुसार — “वैदर्भी में समासों का अभाव होता है, पांचाली में अल्पमात्रा में समास होते हैं, लाटी में मध्य श्रेणी के तथा गौड़ी में समासों की बहुलता होती है |”

रुद्रट ने रीति का संबंध है रस से जोड़ा और रसानुकूल रीति-योजना पर बल दिया | उनका मानना था कि वैदर्भी और पांचाली का प्रयोग अद्भुत और भयानक रसों में करना चाहिए तथा लाटी और गौड़ी का प्रयोग रौद्र रस में करना चाहिए |

रसवादी व ध्वनिवादी आचार्यों के रीति-संबंधी मत

(1) आनन्दवर्धन — ध्वनिवादी आचार्य आनंदवर्धन ने रीति को ‘पद-संघटना’ कहा | उनके अनुसार ‘यथोचित पद रचना का नाम रीति है’ |

समासों को आधार बनाकर आनंदवर्धन ने रीति के तीन भेद माने – असमासा, मध्यम समासा, दीर्घा समासा |

(2) राजशेखर — राजशेखर रीति को परिभाषित करते हुए कहते हैं “वचनविन्यासक्रमो रीति: अर्थात् वचन विन्यास का क्रम ही रीति है |”

राजशेखर ने समास के साथ अनुप्रास को भी रीति का मूल आधार मानते हुए तीन प्रकार की कृतियाँ मानी – वैदर्भी योग वृत्ति, पांचाली उपचार वृत्ति तथा गौड़ीय योग वृत्ति |

(3) विश्वनाथ — आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रंथ ‘साहित्यदर्पण‘ में रीति की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी है — “पद संघटना रीति: अंगसंस्थाविशेषवत् उपकर्त्री रसादीनाम | अर्थात् जिस प्रकार सुनियोजित और सुसंगठित सुंदरी के अंग प्रिय लगते हैं, उसी प्रकार से पद संघटना रीति भी काव्य को सुंदरता प्रदान करती है |”

(4) आचार्य मम्मट — आचार्य मम्मट ने आनंदवर्धन का अनुसरण करते हुए अपने ग्रंथ ‘काव्यप्रकाश‘ में रीति पर प्रकाश डाला | उन्होंने विशेष प्रकार की पद रचना रीति के लिए प्रसाद गुण की आवश्यकता पर बल दिया |

(5) आचार्य कुंतक — आचार्य कुंतक ने रीति के लिए ‘मार्ग‘ शब्द का प्रयोग किया | आचार्य कुंतक की महत्वपूर्ण देन यह थी कि उन्होंने प्रादेशिकता के आधार पर रीतियों के विभाजन को अनुचित माना | उन्होंने कहा कि कवि स्वभाव के अनुसार ही अपने मार्ग अर्थात रीति का अनुसरण करते हैं | क्योंकि सभी कवियों का स्वाभाव अलग प्रकार का होता है ; अतः मार्ग भी अनेक प्रकार के हो सकते हैं | फिर भी आचार्य कुंतक ने तीन प्रकार के मार्ग बताए हैं – (क ) सुकुमार मार्ग, (ख ) विचित्र मार्ग तथा ( ग ) मध्यम मार्ग |

आचार्य कुंतक के अनुसार सुकुमार मार्ग के कवि प्रतिभासंपन्न होते हैं | उनकी कविताओं में अलंकार प्रयोग सहज, स्वाभाविक एवं अनायास होता है | आचार्य कुंतक ने सुकुमार मार्ग को सर्वश्रेष्ठ माना है | विचित्र मार्ग में अलंकारों की अधिकता होती है जबकि मध्यम मार्ग में सुकुमार मार्ग और विचित्र मार्ग दोनों की विशेषताएँ होती हैं |

(6) भोजराज — रीति सिद्धांत का विवेचन करने वाले अंतिम आचार्य भोजराज हैं | इन्होंने समास को आधार बनाकर रीतियों का विवेचन किया | इनके अनुसार वैदर्भी रीति में समास नहीं होते तथा श्लेष आदि सभी गुण होते हैं | पांचाली में पाँच-छह पदों के समास होते हैं | यह ओज और कांति गुणों से रहित होती है | इसमें मधुर और सुकुमार गुण होते हैं | गौड़ी रीति में समासों की भरमार होती है | इसमें ओज और कान्ति गुण होते हैं |

इसके अतिरिक्त भोजराज की मौलिक उद्भावना यह रही कि उन्होंने पांचाली और वैदर्भी के बीच ‘अवंतिका‘ नाम की एक नई रीति को माना | इसके अतिरिक्त उन्होंने सभी रीतियों से मिश्रित एक ‘लाटी‘ रीति बनाई | पूर्व प्रचलित सभी रीतियों का निर्वाहन न होने पर उन्होंने एक नई रीति ‘मागधी‘ की कल्पना की | इस प्रकार उनकी दृष्टि में रीतियों की संख्या छह है – वैदर्भी, अवंतिका, पांचाली, लाटी, मागधी और गौड़ी |

रीतिकालीन कवियों के रीति-संबंधी विचार

रीतिकालीन कवियों ने व्यवहारिक रूप में रीति को अपनाया परंतु सैद्धांतिक रूप से उसका विवेचन नहीं किया | रीतिकालीन कवियों के रीति-संबंधी विचार निम्नलिखित हैं —

(1) चिंतामणि — चिंतामणि ने रीति को काव्य का स्वाभाव माना तथा साथ ही यह भी कहा कि रीति और वृत्ति में कोई भेद नहीं |

“बरनौ रीति सुभाव ज्यों वृत्ति वृत्ति-सी मित्त |”

(2) कुलपति — कुलपति ने रीति का स्वतंत्र वर्णन नहीं किया लेकिन उसके मूल तत्व गुणों और वृत्तियों का वर्णन अवश्य किया | आचार्य मम्मट से प्रभावित होने के कारण कुलपति ने तीनों वृत्तियों को रीति के साथ जोड़ दिया | वे कहते हैं —

“वैदर्भी गौड़ी कहत पुनि पांचाली जानि |

इनहीं सौं कोई कवी बरतन रीति बखानि ||”

(3) देवदत्त — देवदत्त ने रीति को काव्य का द्वार कहते हुए कहा है —

“ताते पहिले बरनिए काव्य द्वार रस रीति ||”

उनके कहने का तात्पर्य यह है कि रीति रसाभिव्यक्ति का माध्यम है |

(4) सूरतिमिश्र — सूरतिमिश्र ने रीति को काव्य का आवश्यक अंग माना है और कहा है कि एक कवि का वर्णन अलौकिक रीति के कारण ही मनोरंजक व आकर्षक बनता है —

” बरनन मन-रंजन जहाँ रीति अलौकिक होइ |”

(5) भिखारीदास — भिखारीदास ने गुणों का वर्णन स्वतंत्र रूप से किया है | उन्होंने वृत्तियों को रीति मानकर उनका वर्णन मम्मट के अनुकरण पर किया है —

“मिले बरन माधुर्य के उपनागरिका नित्ति |

परुषा ओज प्रसाद के मिले कोमला वृत्ति ||”

अतः स्पष्ट है कि रीति सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है | रीति के लिए पद्धति, मार्ग, वीथि, पंथ, शैली आदि शब्दों का प्रयोग होता है | आचार्य वामन के अनुसार एक विशिष्ट पद रचना का नाम ही रीति है | यहाँ पद-रचना से तात्पर्य पदों की संघटना से है | वस्तुतः रीति विशिष्ट पद रचना है जिसमें काव्योचित गुणों की उपस्थिति अनिवार्य रूप से होती है | उन्होंने रीति को काव्यात्मा कहकर काव्य में रीति को सर्वाधिक महत्व प्रदान किया | आचार्य वामन के पश्चात् रुद्रट , आनंदवर्धन, राजशेखर, कुंतक और भोजराज आदि आचार्यों के रीति-संबंधी मत यद्यपि वामन से कुछ भिन्न हैं परन्तु सभी आचार्य रीति के महत्त्व को स्वीकार करते हैं |

यह भी देखें

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

काव्यात्मा संबंधी विचार

महाकाव्य : अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं ( तत्त्व ) व स्वरूप ( Mahakavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

खंडकाव्य : अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं ( तत्त्व ) व स्वरूप ( Khandkavya : Arth, Paribhasa, Visheshtayen V Swaroop )

गीतिकाव्य : अर्थ, परिभाषा, प्रवृत्तियाँ /विशेषताएँ व स्वरूप ( Gitikavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

23 thoughts on “रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ”

  1. सर, मैं MA final की विद्यार्थी हूँ। सर भारतीय साहित्य syllabus ka नोट्स बनाये सर ताकि पढ़ने में आसानी हो।

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