अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ

अलंकार सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र में सर्वाधिक प्राचीन सिद्धांत है | प्रत्येक आचार्य ने अलंकारों को किसी न किसी रूप में महत्व दिया है | अलंकार सिद्धांत के प्रतिपादक भामह माने जाते हैं परंतु भामह के अतिरिक्त दंडी, उद्भट तथा रूद्रट ने भी अलंकारों की अनिवार्यता का जोरदार समर्थन किया है | अलंकार सिद्धांत के विषय में अनेक विद्वानों ने अपनी अपनी मान्यताएं प्रस्तुत की हैं ; अतः कुछ आलोचक अलंकार सिद्धांत को अलंकार-सिद्धांत न मानकर अलंकार-संप्रदाय ( Alankar Sampradaya ) मानते हैं |

अलंकार का पूर्व इतिहास ( Alankar Ka Purv Itihaas )

आचार्य भरत मुनि ने अपने ‘नाट्यशास्त्र‘ में अलंकारों की चर्चा की है | लेकिन रसवादी आचार्य होने के कारण उन्होंने अलंकारों को अधिक महत्व नहीं दिया | आचार्य भरत से पूर्व ही प्रचेतायन नामक विद्वान अनुप्रास अलंकार, शेष श्लेष अलंकार, औपकायन उपमा अलंकार, पराशर अतिशयोक्ति तथा चित्रांगदा यमक अलंकार की विवेचना कर चुके थे |

सच तो यह है कि काव्यशास्त्र के प्रवर्तन से पहले ही अलंकारों का प्रयोग होने लगा था | ‘निरुक्त‘ और ‘निघंटु‘ जैसी रचनाओं में अलंकार-प्रयोग दिखाई देता है | ‘निघंटु‘ में वैदिक उपमा का अध्ययन करके उसके बारे में भेद बताए गए हैं | ‘निरुक्त’ के रचयिता यास्क ने अपने व्याख्यान में वेदों से उपमाओं के उदाहरण दिए हैं | प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि ने भी उपमेय, उपमान, सामान्य धर्म और वाचक शब्दों का उल्लेख करके उपमा अलंकार का विवेचन किया है | रुद्रदमन के प्राचीन शिलालेख में भी अलंकार प्रयोग मिलता है | अतः स्पष्ट है कि अलंकार सिद्धांत के प्रवर्तन से पूर्व ही अलंकारों की एक लंबी परंपरा मिलती है |

अलंकार का अर्थ एवं स्वरूप ( Alankar Ka Arth Avam Swaroop )

काव्य या साहित्य में सौंदर्य का समावेश करने वाला तत्व ही अलंकार है | यहाँ अलंकार के व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ को जानना नितांत आवश्यक होगा | अलंकार शब्द ‘कृ’ धातु में ‘अलम्’ उपसर्ग और ‘घञ्’ प्रत्यय जुड़ने से बना है | ‘अलम्‘ का अर्थ है – परिपूर्ण करना अथवा योग्य बनाना | अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की जाती है – “अलंकरोति इति अलंकार: अर्थात जो अलंकृत करता है वही अलंकार है |” दूसरी व्युत्पत्ति है – “अलंक्रियतेsनेन इति अलंकार: अर्थात जिसके द्वारा अलंकृत किया जाता है, उसे अलंकार कहते हैं |”

दोनों व्युत्पत्तियों से स्पष्ट होता है कि काव्य का शोभाकारक तत्व ही अलंकार है | वस्तुतः अलंकार काव्य को चरम सौंदर्य प्रदान करता है |

अलंकारवादी आचार्य व उनकी अलंकार-संबंधी स्थापनाएँ व मान्यताएँ

(1) भरत मुनि — आचार्य भरत ने अपनी रचना ‘नाट्यशास्त्र’ में उपमा, रूपक, दीपक और यमक चार अलंकारों का प्रयोग किया है | वह मूलतः रसवादी आचार्य थे ; अतः उन्होंने अलंकारों का प्रयोग रस पर आश्रित माना |

(2) भामह — भामह ( छठी सदी ) को अलंकार सिद्धांत का प्रवर्तक माना जाता है | उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘काव्यालंकार‘ में अलंकार सिद्धांत का प्रतिपादन किया | भामह ने अलंकार को काव्य का अनिवार्य तत्व माना है | उन्होंने 37 अलंकारों का निरूपण किया | भामह के अनुसार — “शब्द तथा अर्थ की वक्रतामय उक्ति ही अलंकार है |” उनके अनुसार वक्रता से ही शब्द तथा अर्थ चमत्कृत होते हैं | वक्रताहीन उक्ति मात्र वार्ता बनकर रह जाती है | वक्रोक्ति की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं — “सामान्य लोक प्रचलन का अतिक्रमण करने वाला वचन ही वक्रोक्ति है |”

भामह काव्य को परिभाषित करते हुए “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्” ( शब्द और अर्थ के सहित भाव ही काव्य है ) अवश्य कहते हैं लेकिन यह भी मानते हैं कि शब्दालंकार तथा अर्थालंकार ही काव्य का निर्माण करते हैं |

काव्य में रीति के प्रयोग के संबंध में उनका विचार था कि रीति चाहे वैदर्भी हो या गौड़ीय लेकिन अलंकार के बिना उसका कोई महत्व नहीं |

यही नहीं भामह ने गुणों को भी अलंकाराश्रित माना है | संक्षेप में भामह की दृष्टि में काव्य का सौंदर्य उक्ति-वैचित्र्य में है |

(3) दण्डी — अलंकार संप्रदाय के दूसरे महान समर्थक आचार्य दंडी हैं | भामह ने जहाँ शब्द और अर्थ के सहित भाव को काव्य मानकर शब्दालंकारों और अर्थालंकारों को समान महत्व प्रदान दिया है वहीं दंडी ने ‘इष्टार्थमयी पदावली’ को काव्य कहकर केवल शब्द को महत्व दिया है | भामह ने गुणों की अपेक्षा अलंकारों को अधिक महत्व दिया और अलंकारों के कारण ही गुण का उत्कर्ष स्वीकार किया लेकिन दंडी ने गुणों को निरपेक्ष तथा स्वतंत्र और काव्य की आत्मा के रूप में स्वीकार करते हुए अलंकारों को भी महत्व दिया | उन्होंने गुणों को अलंकाराश्रित नहीं माना |

आचार्य दंडी ने अपने ग्रंथ ‘काव्यादर्श’ में अलंकार की परिभाषा देते हुए कहा है — “काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकरान् प्रचक्षते अर्थात् काव्या का शोभाकारक धर्म ही अलंकार है |”

इस प्रकार आचार्य दंडी काव्य के सभी उपयोगी और शोभाकारक तत्त्वों को अलंकार मानते हैं | उनके अनुसार अलंकारों की संख्या अपार और निरंतर संवर्धनशील है |

आचार्य दंडी ने रस को भी अलंकार में शामिल कर लिया है | यही नहीं वे भक्ति आदि भावों को भी अलंकार मानते हैं |

(4) उद्भट — आचार्य दंडी के पश्चात आचार्य उद्भट ( नौवीं सदी ) ने अलंकारों के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किए | उद्भट ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार सार संग्रह’ में भामह और दंडी के विचारों का समन्वय प्रस्तुत किया | उन्होंने गुण और अलंकार दोनों को समान रूप से सौंदर्य के कारक माना | पुनः उन्होंने श्रृंगार रस के उदय की स्थिति में गुण तथा अलंकार को रसवत अलंकार में मिला दिया |

(5) रुद्रट — रूद्रट भी अलंकारवादी आचार्य थे | इन्होंने अपने ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ में अलंकारों को महत्व प्रदान करते हुए कहा कि अलंकार शब्द और अर्थ को शोभा प्रदान करते हैं | अलंकार की परिभाषा देते हुए वे कहते हैं — “कवि प्रतिभा से उद्भूत अभिधान या कथन विशेष का नाम अलंकार है |”

रुद्रट ने काव्य में रस और अलंकार दोनों को पृथक तथा स्वतंत्र मानते हुए दोनों को समान महत्व प्रदान किया |

(6) वामन — वामन मूलत: गुणवादी आचार्य हैं | उन्होंने रीति सिद्धांत का प्रवर्तन किया | लेकिन फिर भी काव्य में अलंकारों को महत्व प्रदान करते हुए उन्होंने कहा कि ‘अलंकार एव काव्यम्’ अर्थात अलंकार ही काव्य है |

वामन ने अलंकार शब्द का अर्थ ‘सौंदर्य‘ माना है | काव्य में यह सौंदर्य दोषों के त्याग तथा गुणों व अलंकारों के ग्रहण से उत्पन्न होता है | उन्होंने गुण और अलंकार दोनों को समान महत्व देते हुए कहा — “गुण काव्य की शोभा को उत्पन्न करते हैं और अलंकार उस शोभा की वृद्धि करते हैं |” इस प्रकार दंडी की भांति उन्होंने गुण तथा अलंकार दोनों की ही निरपेक्ष तथा स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की |

इसके अतिरिक्त अलंकारवादी परंपरा में रूय्यक, जयदेव, अप्पय दीक्षित आदि के नाम भी उल्लेखनीय हैं | जयदेव ने प्रबल शब्दों में अलंकारों का समर्थन करते हुए कहा है — “अलंकारहीन काव्य और ठंडी अग्नि एक ही कोटि की हैं जिन्हें कोई पागल ही सत्य मान सकता है |”

हिंदी के रीतिकालीन आचार्य

हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने भी अलंकारों को महत्व प्रदान किया है परंतु इन कवियों के विचार प्रायः संस्कृत आचार्यों का अनुकरण मात्र प्रतीत होते हैं | रीतिकालीन कवियों का काव्य में अलंकारों के प्रति एक विशेष मोह था | यही कारण है कि रीतिकाल में अनेक नए अलंकारों की उद्भावना हुई |

(1) केशवदास ने अलंकारों के महत्व को उजागर करते हुए कहा है — “भूषण बिनु न बिराजई, कविता बनिता मित |”

(2) कवि देव भी अलंकारों को महत्व देते हुए कहते हैं — “कविता कामिनी अलंकार पहिने अद्भुत रूप लखावति |”

(3) कवि दूलह भी केशवदास की भाँति मानते हैं कि बिना अलंकारों के कविता शोभा नहीं पाती — “बिन भूषन नहीं भूषई कविता |”

आधुनिककालीन विद्वानों के अलंकार विषयक मत

अनेक आधुनिक विद्वानों ने भी अलंकारों के विषय में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं | कुछ आधुनिक विद्वानों के कथन विशेष उल्लेखनीय हैं जिनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है —

(1) आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार — “भावों का उत्कर्ष दिखाने और वस्तुओं के रूप-गुण और क्रिया का तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति की अलंकार है |”

‘कभी-कभी’ शब्दों के प्रयोग से लगता है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल अलंकारों को महत्वपूर्ण मानते हुए भी काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं मानते थे |

(2) डॉ श्यामसुंदर दास के अनुसार — “जिस प्रकार आभूषण शरीर की शोभा को बढ़ाते हैं उसी प्रकार अलंकार भाषा के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं |”

(3) सुमित्रानंदन पंत अलंकारों को केवल सौंदर्यवर्धक न मानकर भाव के साथ जोड़ते हैं — “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभिव्यक्ति के विशेष द्वार हैं |”

अपनी एक कविता में वे कहते हैं —

“तुम वहन करो जनमन में मेरे विचार |

वाणी मेरी क्या तुम्हें चाहिए अलंकार |”

(4) रामधारी सिंह दिनकर जी अलंकारों के विषय में कहते हैं — “मैं अलंकारों के महत्व को भूल नहीं सकता, किसी प्रकार भी उनका अनादर नहीं कर सकता क्योंकि अलंकारों ने काव्य-कौशल के बहुत से ऐसे भेद खोले हैं जो अन्यथा अविश्लिष्ट रह जाते |”

अलंकार-सिद्धांत का खंडन ( Alankar Siddhant Ka Khandan )

भामह ने अलंकार सिद्धांत का प्रतिपादन किया | दंडी, उद्भट और रुद्रट आदि आचार्यों ने अलंकार सिद्धांत का पुरजोर समर्थन किया | लेकिन आगे चलकर ध्वनिवादी तथा रसवादी आचार्यों ने इसका खंडन कर दिया | दंडी ने जहां अलंकारों को काव्य की शोभा उत्पन्न करने वाला धर्म कहा, वहीं वामन ने इसका खंडन करते हुए गुणों को काव्य की शोभा उत्पन्न करने वाला धर्म कहा |

अलंकार सिद्धांत का खंडन करने वाले कुछ आचार्यों का वर्णन इस प्रकार है —

(1) आनन्दवर्धन — आनंदवर्धन ध्वनिवादी आचार्य थे | इन्होने ‘ध्वन्यालोक’ की रचना की | अलंकार के विषय में उन्होंने कहा है कि अलंकारों की स्थिति शरीर पर धारण किए गए कटक, कुंडल आदि शोभाकारक आभूषणों के समान है | इस प्रकार उन्होंने अलंकारों को काव्य की आत्मा और शरीर मानने से इनकार कर दिया |

(2) अभिनवगुप्त — अभिनवगुप्त भी ध्वनिवादी आचार्य थे | उन्होंने ‘अभिनव भारती’ की रचना की | उन्होंने अलंकारों को काव्य का केवल बाह्य पक्ष माना है | रस, भाव रहित अलंकार-प्रयोग को वे आभूषणों से सुसज्जित शव के समान अनुपयोगी मानते थे |

(3) कुंतक — कुंतक ने अलंकारों के दो रूप स्वीकार किए हैं |साधारण चमत्कार उत्पादक अलंकार जैसे उपमा, रूपक आदि और रसवत् अलंकार जो अतिशय सरसता प्रदान करते हैं | रसवत् अलंकार को कुंतक ने सभी अलंकारों का मूल तथा काव्यजीवित तत्व माना है |

(4) महिमभट्ट — महिमभट्ट ने अलंकारों की अपेक्षा रस को अधिक महत्व प्रदान किया | उन्होंने रस को अलंकारों तथा गुणों के सौंदर्य का हेतु माना |

(5) क्षेमेन्द्र — क्षेमेंद्र ने भी अलंकारों को केवल बाह्य शोभा का विधायक माना है | उन्होंने औचित्य को काव्य का जीवन मानते हुए उसे रससिद्ध कहा है |

(6) मम्मट — आचार्य मम्मट ने अपनी रचना ‘काव्यप्रकाश’ में अलंकारों की अनिवार्यता का खंडन करते हुए कहा है — “तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि | अर्थात् निर्दोष, गुण-युक्त, अलंकार-युक्त या अलंकार-रहित शब्दार्थ काव्य है |” इस प्रकार आचार्य मम्मट ने काव्य में अलंकार-प्रयोग को सर्वथा ऐच्छिक बना दिया |

(7 ) विश्वनाथ — आचार्य विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं | उन्होंने अलंकारों को काव्य का अनिवार्य तत्व नहीं माना | उनके अनुसार हार आदि के समान शोभा में अतिशयता लाने वाले तथा रस के उपकारक शब्दार्थ के अस्थिर धर्मों का नाम अलंकार है |

इसी प्रकार पंडित जगन्नाथ भी रस को काव्य का मूल तत्व नहीं मानते | वे अलंकारों को केवल साधन मात्र मानते हैं ; साध्य नहीं |

अलंकारों का महत्त्व ( Alankaron Ka Mahatva )

यह सही है कि काव्य का मुख्य उद्देश्य भाव-संप्रेषण है लेकिन यह भाव-संप्रेषण रुचिकर एवं प्रभावशाली होना चाहिए | साधारण बात भी यदि रुचिकर एवं आकर्षक ढंग से कही जाए तो वह चिरस्थायी प्रभाव छोड़ती है | यही कारण है कि अलंकार सिद्धांत का खंडन करने वाले आचार्य भी अलंकारों के महत्व को स्वीकार करते हैं |

प्रसिद्ध छायावादी कवि सुमित्रानंदन पंत जी अलंकारों के महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं — “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं है यह भाव की अभिव्यक्ति के लिए विशेष द्वार हैं |”

उपर्युक्त पंक्तियों में जहाँ पंत जी एक तरफ काव्य में भाव-संप्रेषण को काव्य का मूल उद्देश्य मानते हैं, वहीं दूसरी ओर अलंकारों को भाव-संप्रेषण का एक महत्वपूर्ण साधन मानकर अलंकारों का महत्त्व स्वीकारते हैं |

पंत जी के अतिरिक्त आधुनिक हिंदी विद्वानों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बाबू श्यामसुंदर दास, डॉ गुलाब राय, रामधारी सिंह दिनकर आदि ने भी अलंकारों के महत्व पर प्रकाश डाला है | रीतिकालीन कवियों के लिए तो अलंकार साध्य ही बन गए हैं |

अलंकार के व्युत्पत्ति-लभ्य अर्थ से भी पता चलता है कि काव्य को या सौंदर्य को पूर्णता प्रदान करने वाला तत्व अलंकार है | अतः स्पष्ट है कि अलंकार केवल काव्य का अलंकरण ही नहीं करता बल्कि रस, भावादि को भी पूर्णता प्रदान करता है |

अलंकारों के काव्य में स्थान और महत्व को रेखांकित करते हुए भोजराज कहते हैं — “जिस प्रकार अंजन की कालिमा दीर्घ नेत्रों में शोभित होती है, मुक्ताहार उन्नत और पीन पयधरों पर शोभा देता है ; उसी प्रकार अलंकार की शोभा भी सुंदर भावाभिव्यक्ति में सहायक होने पर होती है |”

अतः स्पष्ट है कि अलंकारों का काव्य में एक महत्वपूर्ण स्थान है | अलंकार काव्य में रस व भाव को सौंदर्य, आकर्षण व पूर्णता प्रदान करते हैं | भावाभिव्यक्ति में सहायक होने पर ही अलंकार अपनी सार्थकता सिद्ध करते हैं |

यह भी देखें

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

काव्यात्मा संबंधी विचार

महाकाव्य : अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं ( तत्त्व ) व स्वरूप ( Mahakavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

खंडकाव्य : अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं ( तत्त्व ) व स्वरूप ( Khandkavya : Arth, Paribhasa, Visheshtayen V Swaroop )

गीतिकाव्य : अर्थ, परिभाषा, प्रवृत्तियाँ /विशेषताएँ व स्वरूप ( Gitikavya : Arth, Paribhasha, Visheshtayen V Swaroop )

काव्य-प्रयोजन : अर्थ, परिभाषा, स्वरूप ( Kavya Prayojan : Arth, Paribhasha, Swaroop )

काव्य हेतु : अर्थ, परिभाषा, स्वरूप और प्रासंगिकता या महत्त्व ( Kavya Hetu : Arth, Paribhasha V Swaroop )

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