काव्य हेतु : अर्थ, परिभाषा, स्वरूप और प्रासंगिकता या महत्त्व ( Kavya Hetu : Arth, Paribhasha V Swaroop )

काव्य-हेतु का अर्थ ( Kavya Hetu Ka Arth )

सामान्यत: उन तत्वों को जो काव्य-रचना के मूल कारण होते हैं, काव्य हेतु कहा जाता है | इनको निमित्त कारण भी कहते हैं | निमित्त कारण उन कारणों को कहते हैं जो काव्य-रचना के निमित्त होते हैं अर्थात जिनके बिना काव्य रचना नहीं हो सकती |

काव्य-हेतु और काव्य-प्रयोजन में अंतर ( Kavya Hetu Aur Kavya Prayojan Me Antar )

यहां यह जानना प्रासंगिक होगा कि काव्य-हेतु और काव्य-प्रयोजन में क्या अंतर है | काव्य-प्रयोजन काव्य रचना के पश्चात प्राप्त फल होता है | इन्हें प्रेरक तत्व भी कहते हैं | निमित्त कारण उन कारणों को कहते हैं जो काव्य रचना करने का निमित्त होते हैं अर्थात जिनकी सहायता के बिना काव्य-रचना संभव नहीं | काव्य-हेतु की सहायता से ही कवि काव्य-रचना में सफलता प्राप्त करता है |

संक्षिप्तत: हम कह सकते हैं कि काव्य-हेतु काव्य-रचना के मूल कारण हैं | यदि किसी कवि में यह मूल कारण – प्रतिभा, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास हैं तो उसकी काव्य-रचना श्रेष्ठ कही जाएगी जबकि काव्य-प्रयोजन से अभिप्राय काव्य लिखने या पढ़ने का उद्देश्य अथवा उससे प्राप्त फल है |

(क ) काव्य-हेतु के संबंध में संस्कृत आचार्यों के मत

🔹 संस्कृत काव्यशास्त्र में सर्वप्रथम आचार्य भामह ने काव्य हेतुओं का स्पष्ट विवेचन किया | भामह ने काव्य के तीन हेतु स्वीकार किए हैं :- 1. प्रतिभा, 2. व्युत्पत्ति तथा अभ्यास |

1. प्रतिभा – यह प्रकृति प्रदत्त योग्यता है |

2. व्युत्पत्ति – इसके अंतर्गत शब्द शास्त्र और पद शास्त्र ज्ञान आते हैं |

3. अभ्यास – बार-बार अभ्यास से काव्य-रचना में निखार आता है |

🔹 आचार्य दंडी ने प्रतिभा को काव्य का मूल हेतु माना है | उन्होंने व्युत्पत्ति अर्थात शास्त्र-ज्ञान तथा अभ्यास को भी आवश्यक माना है |

वे लिखते हैं : –

नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम् |

अमंदश्चाभियोगोस्या: कारणं काव्यसम्पद: ||

स्वाभाविक प्रतिभा, निर्मल शास्त्र ज्ञान तथा अनवरत अभ्यास काव्य रूपी संपत्ति के कारण ( हेतु ) हैं |

🔹 आचार्य वामन ने काव्य-हेतुओं में लोक, विद्या तथा प्रकीर्ण की चर्चा की है | उन्होंने प्रकीर्ण के छह भेद किए हैं –

(1) लक्ष्य तत्व अर्थात अन्य कवियों की रचनाओं का ज्ञान |

(2) अभियोग अर्थात काव्य रचना का प्रयत्न अर्थात अभ्यास |

(3) वृद्ध-सेवा अर्थात ज्ञान-वृद्धों की सेवा करके उनसे शिक्षा प्राप्त करना |

(4) अवेक्षण अर्थात काव्य-रचना करते समय उचित शब्दों का चयन करना |

(5) प्रतिभा अर्थात ईश्वर या प्रकृति प्रदत्त योग्यता |

(6) अवधान अर्थात चित्त की एकाग्रता |

इस प्रकार आचार्य वामन ने प्रतिभा की अपेक्षा व्युत्पत्ति और अभ्यास को अधिक महत्व दिया है |

🔹 आचार्य रूद्रट ने काव्य के तीन हेतु स्वीकार किए हैं – शक्ति, व्युत्पत्ति तथा अभ्यास |

(1) ‘शक्ति’ से उनका अभिप्राय प्रतिभा से था इसके उन्होंने दो भेद किए हैं – सहजा प्रतिभा अर्थात जन्मजात प्रतिभा और उत्पाद्या अर्थात अर्जित या श्रमजात प्रतिभा |

🔹 ‘ध्वन्यालोक’ के रचयिता आचार्य आनंदवर्धन ने भी काव्य-हेतुओं की चर्चा की है | उन्होंने प्रतिभा और विपत्ति का उल्लेख किया है | वे प्रतिभा को प्रमुख मानते हैं | उनका कहना है – “व्युत्पत्ति के अभाव का दोष प्रतिभा द्वारा ढका जाता है परंतु प्रतिभा के अभाव का दोष व्युत्पत्ति नहीं ढक सकती |”

🔹 राजशेखर भी काव्य-हेतु पर चर्चा करते हैं | वे शक्ति और प्रतिभा को अलग-अलग मानते हैं | वे प्रतिभा की तुलना में शक्ति को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं | साथ ही उन्होंने बुद्धि के तीन प्रकार माने हैं – स्मृति, मति तथा प्रज्ञा | उनके अनुसार स्मृति अतीत का स्मरण कराती है ; मति वर्तमान स्थिति में मंत्रणा या निर्देशन करती है तथा प्रज्ञा भविष्य की संभावनाओं को अभिव्यक्त करती है |

राजशेखर ने काव्य का मूल हेतु शक्ति को माना है | उनके अनुसार प्रतिभा और व्युत्पत्ति उसकी वृद्धि करते हैं | शक्ति ही काव्य-कर्त्ता है | प्रतिभा और व्युत्पत्ति कर्म हैं | राजशेखर यह कहना चाहते थे कि प्रतिभा और व्युत्पत्ति शक्ति से उत्पन्न होते हैं | जिन कवियों में प्रतिभा होती है वह न देखते हुए भी अर्थों को प्रत्यक्ष रूप में देख लेते हैं | वे रूप-रंग का ऐसा सुंदर वर्णन करते हैं कि आंखों वाले कवि भी उनके सामने लज्जित हो जाते हैं | इस संदर्भ में कविवर सूरदास का उदाहरण दिया जा सकता है जो जन्मांध होते हुए भी सुंदर काव्य रचना करने में सफल रहे हैं |

राजशेखर ने प्रतिभा के दो प्रकार माने हैं – कारयित्री प्रतिभा और भावयित्री प्रतिभा | कारयित्री प्रतिभा का संबंध कवि से है तथा भावयित्री प्रतिभा का संबंध सहृदय से है | कवि कारयित्री प्रतिभा द्वारा काव्य-रचना करता है और सहृदय पाठक भावयित्री प्रतिभा द्वारा कवि-रचित काव्य का आनंद प्राप्त करता है |

राजशेखर ने कवि ( कारयित्री प्रतिभा ) के तीन प्रकार माने हैं – सारस्वत, आभ्यासिक तथा औपदेशिक |

सारस्वत वे कवि होते हैं जिनकी प्रतिभा बिना किसी प्रयत्न के स्फुरित होती है |

आभ्यासिक कवियों में प्रतिभा तो जन्मजात रूप से विद्यमान होती है परन्तु अभ्यास से ही वह स्फुरित होती है |

औपदेशिक कवियों कि वाणी उपदेश से अभिव्यक्ति होती है |

राजशेखर ने भावयित्री के भी दो भेद माने हैं – सतृणाभ्यहारी तथा अरोचकी |

सतृणाभ्यहारी का अर्थ है – तिनकों को न बचाते हुए सब कुछ खा जाना | इस प्रतिभा वाला व्यक्ति जो कुछ भी लिखता है उसे काव्य मान बैठता है |

अरोचकी प्रतिभा का संबंध अरोचक रोग से है जिसमें भोजन स्वादिष्ट नहीं लगता | काव्य रचना के लिए यह लाभकारी होता है | क्योंकि इसके माध्यम से कवि अपने काव्य को शुद्ध करता है और उसके द्वारा रचित काव्य रचना श्रेष्ठ सिद्ध होती है |

🔹 आचार्य मम्मट ने भी शक्ति ( प्रतिभा ), व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को काव्य-हेतु माना है | आचार्य मम्मट यद्यपि प्रतिभा को अधिक महत्व देते हैं लेकिन प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को समन्वित रूप में काव्य-हेतु मानते हैं |

🔹 आचार्य हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का मूल-हेतु मानते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास को प्रतिभा का परिष्कारक कारक माना है |

🔹 आचार्य जगन्नाथ भी प्रतिभा को ही काव्य का मूल हेतु मानते हैं | उन्होंने व्युत्पत्ति और अभ्यास को प्रतिभा के कारण माना है |

(ख ) काव्य-हेतु के संबंध में रीतिकालीन आचार्यों के मत

काव्य-हेतुओं के सम्बन्ध में रीतिकालीनआचार्यों ने प्राय: संस्कृत आचार्यों का अनुसरण किया है |

🔹 श्रीपति ने शक्ति, निपुणता तथा अभ्यास को काव्य हेतु माना है | वे कहते हैं –

“शक्ति निपुणता लोकमत वितपत्ति अरु अभ्यास |”

श्रीपति ने ‘शक्ति’ का प्रयोग ‘प्रतिभा’ के लिए किया है | उनके अनुसार यह प्रतिभा पुण्यों के प्रताप से ही प्राप्त होती है | प्रतिभा के बिना लिखा गया काव्य कवियों के उपहास का विषय बनता है |

🔹 भिखारीदास ने शक्ति ( प्रतिभा ), काव्य-शिक्षा ( व्युत्पत्ति ) तथा अनुभव ( अभ्यास ) तीनों को समान रूप से काव्य हेतु स्वीकार किया है | उन्होंने रथ के दोनों पहियों का उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों समन्वित रूप से काव्य के हेतु हैं |

🔹 सोमनाथ ने श्रवण, अभ्यास और गुरु-कृपा को काव्य का हेतु माना है | वे श्रवण का अर्थ व्युत्पत्ति से तथा गुरु-कृपा का अर्थ दैवी प्रतिभा से लेते हैं |

(ग ) काव्य-हेतु के संबंध में आधुनिक हिंदी विद्वानों के मत

काव्य हेतु के संबंध में आधुनिक हिंदी विद्वानों का मत भी संस्कृत आचार्यों और रीतिकालीन आचार्यों से अधिक पृथक नहीं है | कुछ आधुनिक हिंदी विद्वानों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के लिए कुछ अलग शब्दों का प्रयोग अवश्य किया है लेकिन मूल रूप से आधुनिक हिंदी विद्वान भी इन तीनों काव्य हेतुओं को ही स्वीकार करते हैं |

🔹 डॉ भागीरथ मिश्र के अनुसार – “कवि की सामाजिक, पारिवारिक या वैयक्तिक परिस्थितियां तो उसकी प्रकृति हैं जिससे उसे काव्य-रचना की प्रेरणा प्राप्त होती है और जिसके अभाव में या तो काव्य-रचना बिल्कुल नहीं होती अथवा होती भी है तो किसी अन्य रूप में |”

🔹 डॉक्टर गोविंद त्रिगुणायत के अनुसार – ” मेरी समझ में काव्य की जनयित्री मनुष्य की प्राण भूत विशेषता उसकी मन की प्रवृत्ति है ; इस प्रवृत्ति ने ही पशु और मनुष्य में भेद स्थापित कर रखा है |”

यहां ‘मननशीलता’ का अर्थ अभ्यास और व्युत्पत्ति लिया जा सकता है परंतु डॉ त्रिगुणायत ने प्रतिभा का कोई उल्लेख नहीं किया |

◼️ निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास काव्य के मूल हेतु हैं | इन तीनों के समन्वित रूप से ही सुंदर काव्य-रचना हो सकती है | यही कारण है कि सभी आचार्यों ने तीनों का किसी न किसी रूप में उल्लेख अवश्य किया है | एक सफल कवि के लिए तीनों आवश्यक हैं | यह सही है कि कुछ विद्वान प्रतिभा का उल्लेख न करके अभ्यास और व्युत्पत्ति का उल्लेख काव्य-हेतु के रूप में अवश्य करते हैं लेकिन कहीं ना कहीं जागृत अवस्था में न सही सुप्त अवस्था में ही सही कवि में काव्य-रचना का प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुण आवश्यक होता है जिसे प्रतिभा कहा जाता है | वस्तुतः प्रतिभा ही काव्य का मुख्य कारण है | शेष व्युत्पत्ति और अभ्यास गौण कारण हैं | प्रतिभा के बिना काव्य रचना नहीं हो सकती शेष दो कारणों के बिना काव्य रचना हो सकती है | व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा-संपन्न कवि की काव्य-रचना को उत्कृष्ट अवश्य बनाते हैं |

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