कर्म कर्म जपहु रे भाई

आजकल चौबे जी हर पल आध्यात्मिकता के रंग में रंगे नज़र आते हैं ,पहनावा भी काफ़ी हद तक आध्यात्मिक हो चला है । भगवदगीता से बहुत अधिक प्रभावित हैं यूँ कहिए कि उनका पूरा जीवन ही गीतामय हो गया है वैसे तो अपनेआध्यात्मिक व्यवहार के कारण वे आसपास के कई गाँवों में विख्यात हैं परंतु आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि वे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक भी हैं । जब वे कक्षा में पढ़ा रहे होते हैं एक बार किसी भी व्यक्ति को यह भ्रम हो सकता है कि कहीं आस्था या संस्कार जैसे किसी टीवी चेनल के लिए किसी धार्मिक कार्यक्रम की रिकोर्डिंग तो नहीं हो रही या किसी महात्मा को विद्यार्थियों के नैतिक संवर्धन हेतु विशेष रूप से विद्यालय में आमंत्रित तो नहीं किया गया ।

 विषय- उपविषय कुछ भी क्यों न हो पढाते समय वे भगवदगीता का कोई ना कोई प्रसंग बीच में ले ही आते हैं । इस बाबत पूछने पर एक स्वचालित यंत्र की भाँति बड़े ही दार्शनिक अन्दाज़ में कहते हैं – “भगवदगीता की भावभूमि है ही इतनी विस्तीर्ण की जीवन का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं ।” उनके इस उत्तर को सुनकर सब उनके सामने नतमस्तक हो जाते हैं ।

तर्क अपने आप में किसी प्रमाण से कम नहीं होता । नकारात्मक व निरर्थक बातों को तो छोड़िए सकारात्मक व सार्थक बातें भी तर्क के संबल से ही औचित्य पाती हैं और अपने द्वारा किए गए किसी कार्य को ( भले ही वह अनुचित हो ) किसी धार्मिक प्रसंग से जोड़ देना किसी संवैधानिक स्वीकृति से कम नहीं ।

एक दिन चौबे जी स्कूल में आते ही प्रधानाचार्य दुबे जी से बोले -“गीता जयंती पर आयोजित एक कार्यक्रम में उन्हें विशेष तौर पर आमंत्रित किया गया है ; मजबूरन उन्हें जाना पड़ेगा और कल एक गौशाला का उद्घाटन भी है वहाँ का प्रबंध भी मुझे ही देखना होगा …….. ।”

चौबे जी द्वारा उच्चरित “मजबूरन” शब्द दुबे जी के मन में खटक सा गया क्योंकि चौबे जी धार्मिक कार्यों में बढ़चढ़ कर भाग लेने की अपनी प्रवृत्ति के कारण इतना अधिक विख्यात हो चुके हैं की स्कूल में बिताया गया एक छोटा सा पल भी ( विशेषत: कक्ष-कक्ष में ) उनके लिए मजबूरी हो सकता है परंतु स्कूल समय में किसी धर्मस्थल पर आयोजित धार्मिक कार्यक्रम में बिताए गए पलों को वे सर्वाधिक सुखदायी, फलदायी व मोक्षदायी मानते हैं ।

अपने मन के भावों को मन में ही दबाते हुए दुबे जी बोले -“भगवान की मोक्षदायी वाणी सुनना परम सौभाग्य से सम्भव होता है ;ये दुर्लभ क्षण हर किसी को प्राप्य नहीं और यह भी सत्य है कि इस परिवर्तनशील संसार में अन्य वस्तुओं की भाँति सौभाग्य भी स्थायी नहीं इस के आसपास ही कहीं विपक्षी-दल  की भाँति दुर्भाग्य की छाया मँडराती रहती है जो अनुकूल परिस्थितियाँ मिलते ही पद-च्युत कर स्वयं सत्तासीन हो सकती है। यह भी सम्भव है कि कोई बढ़े-पेट , बढ़े-केश , बढ़ी-दाढ़ी , तिलकधारी महापंडित किसी धनी यजमान से दान- दक्षिणा ले विधि के विधान में संशोधन कर उसके दुर्भाग्य को आपके सौभाग्य से प्रतिस्थापित कर दे ।अतः विलम्ब मत कीजिय , शीघ्र जाइए ।”

ऐसा सुनते ही चौबे जी कर्म का संदेश लेने कर्म-अवकाश लेकर तुरंत चल पड़े । कुछ इसी प्रकार के अपरिहार्य कारणों से लगातार टलता आ रहा टेस्ट एक बार फिर टल गया और बच्चे इस छोटी सी बात पर मन ही मन चौबे जी को भला -बुरा कहने लगे । नादान हैं , नहीं समझते की पढ़ना – लिखना तो तो रोज़ का क्रम है परंतु इस प्रकार के दुर्लभ पल जीवन में कम ही आते हैं । वैसे चौबे जी इस प्रकार के पुण्य कार्य करने के लिए अक्सर ऑन ड्यूटी ही जाया करते हैं परंतु पिछले एक सप्ताह में चार दिन ऑन ड्यूटी रहने के कारण उनकी आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी या शायद उनके उच्च अधिकारियों की आत्मा अभी इतनी महान नहीं हुई कि गीता, वेदों , पुराणों व अन्य धार्मिक ग्रंथों के व्याख्यान को कर्त्तव्य-निर्वहन व ईमानदार दिनचर्या की अपेक्षा अधिक महत्त्व दे सकें ।

आठ- दस अवकाश प्रति माह लेने के उपरांत भी इनके द्वारा लिए गए अवकाशों की संख्या साल भर में लिए जाने वाले अधिकतम अवकाशों की संख्या को कभी नहीं छू पाती और दिसम्बर माह में ख़ूब अवकाश लेकर धर्म- चर्चा , भारत -माता वंदना जैसे अनेक महान कार्य करने के उपरांत भी अपने एक – दो अवकाश स्कूल को समर्पित कर अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा को सत्यापित कर जाते हैं ।

वैसे तो चौबे जी एक साधारण से स्कूल मास्टर हैं परन्तु शहर के लोग उन्हें एक प्रतिष्ठित शख़्सियत मानते हैं | उन्होंने यह इमेज़ सफ़ेद कुर्ता- पजामा और भगवा वस्त्र पहने लोगों के साथ रात-दिन घूमकर बनाई है |

चौबे जी को तो छोड़िए , बड़े- बड़े नेता- अभिनेता , उद्योगपति भी भगवा संस्कृति में रंगते जा रहे हैं । भगवा रंग कुछ इस तरह महिमामंडित हो रहा है कि ख़ून से सने वस्त्र भी लोगों को भगवा नज़र आने लगे हैं । बस उन वस्त्रधारी लोगों के मुख से ईश्वर- स्तुति मंत्रों का उच्चारण होना चाहिए । जल्दी ही उनमें से कुछ तो केंद्रीय व प्रांतीय विधानमंडलों की शोभा बढ़ाते नज़र आते हैं । कुछ उन गुरुओं के भी गुरु अर्थात महागुरु होते हैं जो राजनीति और सत्ता को धर्म का शत्रु मानते हैं लेकिन कुछ नेताओं पर अपना आशीर्वाद बनाए रखते हैं बदले में वे नेता अपनी सफलताओं व उपलब्धियों का सारा श्रेय इन महागुरुओं के आशीर्वाद को देकर उनके साईं कृपा यंत्र ,हनुमान पीड़ानिवारक माला ,धनलक्ष्मी यंत्र जैसे दु:खमोचक , पापमोचक समृद्धिदायक यंत्रों की वैधता व उपयोगिता सिद्ध करते हैं । इससे इन महागुरुओं को विशाल अनुयायी वर्ग मिल जाता है ताकि वे उनके दुखों का निवारण कर जनसेवा का पुण्य कमा सकें और दूसरी तरफ़ नेताओं को व्यापक जनमत मिलता है ताकि वे जन-कल्याण के लिए बेरोकटोक कल्याणकारी नीतियाँ बना सकें । यह पारस्परिक सहभागिता का सर्वोत्तम उदाहरण है । इस पारस्परिक सहयोग के कारण समृद्धि  भी आती है , दुःख निवारण भी होता है और कल्याण भी परंतु “किसका ?” यह प्रश्न अधिक महत्त्व नहीं रखता ;कल्याण किसी का भी हो विकास का द्योतक है और अंतत:यही महत्त्वपूर्ण है। कर्म से अछूते रहकर भी कर्म का राग अलापने की जिस जुगाडू साधना में ये महागुरु सिद्धि प्राप्त किये होते हैं वह हर किसी के बूते की बात नहीं या यूँ कहिये कि इस प्रकार के सिद्ध पुरुष इस धरा पर कम ही होते हैं | कम ही सही लेकिन समय समय पर इस प्रकार के महात्मा इस धरा पर अवतरित होते रहे हैं | इसे कलयुग का प्रताप कहिये ,अनुकूल परिस्थितियाँ या समय की मांग कि वर्तमान समय में इस कला में प्रवीण व्यक्ति बहुतायत में हैं और खूब फल -फूल रहे हैं | परिणामत; आज कर्म का सन्देश लेने वालों और कर्म का राग अलापने वाली पुण्यात्माओं की भारत में कमी नहीं है |

चौबे जी भी एक ऐसी ही पुण्यात्मा है जो हर पल कर्म -चर्चा के लिए तत्पर रहती है | सोचता हूँ कि अगर सभी भारतीयों का साक्षात्कार चौबे जी जैसे महानुभावों से होता रहा तो जल्दी ही सम्पूर्ण भारत में आध्यात्मिकता की धारा बहने लगेगी | वैसे बहने लगेगी क्या , बह रही है यूं कहिये कि बाढ़ आ रही है | सैंकड़ों टीवी चैनेलों पर सैंकड़ों बाबा जी अपने हजारों -लाखों अनुयायियों को चौबीसों घंटे धर्म के गूढ़ रहस्य बता कर उनके जीवन को सार्थक बना रहे हैं | हिन्दू धर्म व अनियंत्रित परमाणु विखंडन की भांति निरंतर बढ़ रही इसकी असंख्य शाखाओं के अतिरिक्त मुस्लिम ,सिख ,इसाई ,पारसी और बौद्ध -जैन गुरु भी इस दिशा में महती भूमिका निभा रहे हैं | आज हजारों कथावाचकों ,धर्मगुरुओं व करोड़ों भक्तों का जनसमूह बड़ी निष्ठा से कर्म का सन्देश इस धरा पर प्रवाहित कर रहा है | जनमानस में बीजमन्त्र बनकर यह वाक्य गूँज  रहा है -“कर्म पर ही मानव का अधिकार है ,कर्म से ही सभी  लक्ष्यों की पूर्ति होती है ।”

मुझ जैसे नादान व्यक्तियों  के मन में यह संशय अवश्य उत्पन्न हो सकता है कि कर्म करने से ही सब कुछ होता तो दिन भर सड़कों पर काम करते लोग व तपती दुपहरी में  खपते मज़दूर-किसान करोड़पति बन गए होते । हाँ ;कर्म-कर्म कहने से ऐसा चमत्कार शायद अवश्य हो जाता हो ,तब मन की इच्छाएँ शायद अवश्य पूरी हो जाती हों जैसे इन धर्मगुरुओं की हो गई । आज सभी धर्मगुरु अरबों में खेल रहे हैं । यह सब कर्म का ही तो फल है । परंतु कर्म करने की अपेक्षा कर्म-कर्म कहने से अधिक फलदायी परिणाम मिलते हैं । क्यों न हो आख़िर कर्म करना स्वार्थ है और कर्म-कर्म कहकर कर्म का संदेश प्रवाहित करना परमार्थ ; और परमार्थ स्वार्थ की अपेक्षा अधिक फलदायी होगा ही । कर्म -कर्म मंत्र का जाप करने से भाग्य के बन्द कपाट खुल जाते हैं । तब चूरण व कैंडी बेच कर भी आप धनकुबेर बन सकते हैं । इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि कर्मवीर व्यक्ति हमेशा कर्म -प्रचारक व्यक्ति के अधीनस्थ रहे हैं ।

कर्म का महत्त्व इससे भी प्रतिपादित होता है कि इस शुभ्र संदेश के प्रचार हेतु आयोजित धार्मिक समागमों में एकत्रित होने वाले श्रद्धालु भी करोड़पति न सही इतने धनी अवश्य होते हैं कि बिना कर्म किए जीवन भर कर्म का प्रचार कर सकें ।

इन धार्मिक समागमों में कर्म का सन्देश सुनने वाली महंगे ब्रांडेड वस्त्र, विदेशी सौंदर्य प्रसाधनों व आभूषणों से सुसज्जित ललनाएँ स्वयं तो सब सुख भोगती ही हैं वरन उनके निकट सम्बन्धी भी इन धार्मिक समागमों का पुण्य पा जाते  हैं ;पति पदोन्नात हो जाते हैं, पुत्र प्रतिष्ठित पदों पर सुशोभित हो जाते हैं और स्वयं किसी महिला – संगठन की अध्यक्ष बन धन – मान पाती हैं ।

हालाँकि चौबे जी भी धार्मिक – समागमों के पुण्य से यह सब कुछ पा चुके हैं और परिवार के सभी सदस्य सफलतापूर्वक इस पुण्य-कर्म में अवतरित हो चुके हैं परंतु फिर भी गीता के “कर्म-कर्म ” मंत्र का जाप बड़ी निष्ठा से करते हैं और गीता-मनीषी बनने की ओर अग्रसर हैं ।

उनकी कार विद्यालय के दरवाज़े की ओर बढ़ रही थी और  प्रधानचार्य दुबे जी उनकी भाँति इस  अतुलित फलदायी क्षेत्र में कूदने को लालायित उनकी तरफ़ ललचाई नज़रों से देख रहे थे ।

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