लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

पाश्चात्य काव्यशास्त्र में प्लेटो तथा अरस्तू के पश्चात लोंजाइनस एक महत्वपूर्ण काव्यशास्त्री हुए हैं | लोंजाइनस ने अपनी काव्य संबंधी अवधारणा अपनी पुस्तक पेरिइप्सुस में प्रस्तुत की है | बहुत लंबे समय तक यह पुस्तक अंधकार के गर्त में रही | आरंभ में इसके केवल कुछ अंश प्राप्त हुए ; 1554 ईस्वी में इस ग्रंथ की पूर्ण प्रति प्राप्त हुई | इसके पश्चात इस पुस्तक के लेखक को लेकर भी विद्वानों में मतभेद बना रहा |

लेकिन आधुनिक शोध के अनुसार पेरिइप्सुस कालेखक लौंजाइन्स को माना है | लौंजाइन्स का समय तीसरी शताब्दी माना गया है । इसने पलमीरा की महारानी जेनोबिया की बड़ी निष्ठा से सेवा की थी। ‘स्कॉट जेम्स’ ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है |

लोंजाइनस कृत ‘पेरिइप्सुस’ का प्रतिपाद्य

लोंजाइनस द्वारा रचित ‘पेरिइप्सुस‘ केवल 60 पृष्ठों की एक छोटी सी पुस्तक है | इसमें 44 अध्याय हैं | यह रचना पत्र शैली में लिखित है जिसमें ‘रोमी’ नामक मित्र को सम्बोधित किया गया है। इसका केवल दो-तिहाई भाग ही उपलब्ध है। इसमें वर्णित विषय को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है।

आरम्भ में इसका अनुवाद किया गया — On the Sublime और इसको आधार मानकर यह कहा गया था कि इस का प्रतिपाद्य उदात्त कला की प्रेरक भावनाओं और धारणाओं का विश्लेषण है।

डॉ. नगेन्द्र ने स्वीकार भी किया है —

इसमें उदात्त शैली के आधार तत्त्वों का विवेचन ही प्रधान है।”

एटकिन्स ने भी लिखा है —

“What he has in mind is rather elevation, all that raises a style above ordinary and gives to distinction in its widest and truest sense.”

लोंजाइनस पूर्व काव्य सम्बन्धी धारणाएँ

लौंजाइन्स पूर्व विशेषत: प्लेटो के काल में यह धारणा थी कि कवि का मुख्य कर्म पाठक या प्रेक्षक को शिक्षा देना और आनन्द प्रदान करना है। बाद में अलंकारवादियों ने संतुलित भाषा और सुव्यवस्थित तर्क पर बल दिया ताकि पाठक लेखक की बात को स्वीकार कर ले | इस प्रकार कालांतर में काव्य का लक्ष्य बन गया — शिक्षा देना, आनन्द प्रदान करना और अपनी बात को मनवाना। उदाहरण के रूप में होमर काव्य की सफलता श्रोताओं को मुग्ध करने में मानता था। अरिस्टोफैनिस कविता का उद्देश्य पाठकों को सुधारना मानता था।

इस प्रकार लोंजाइनस से पूर्व काव्य के तीन मुख्य उद्देश्य माने जाते थे — शिक्षा प्रदान करना, आनंद प्रदान करना, अपने विचार पाठकों या में आरोपित करना |

लेकिन लोंजाइनस ने माना कि काव्य का उद्देश्य इन तीनों बातों — शिक्षा देना, आनन्द प्रदान करना और अपनी बात मनवाना से कुछ अधिक है। उसने एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रस्तुत किया —

“काव्य या साहित्य का चरम उद्देश्य चरमोल्लास प्रदान करना है तथा पाठक या श्रोता को वेद्यान्तर शून्य बनाना है।”

यही नहीं, लौंजाइन्स ने कवि के अध्ययन और अभ्यास पर भी बल । वह स्वयं एक कुशल अलंकारशास्त्री था। उदात्त के स्रोतों की चर्चा करते हुए उसने उदात्त के बहिरंग पक्ष पर भी समुचित प्रकाश डाला। अलंकारों के प्रयोग के बारे में उसने अपना मौलिक दृष्टिकोण व्यक्त किया। यद्यपि उसने ‘कल्पना’ शब्द का प्रयोग तो नहीं किया लेकिन उसने यह भी कहा कि साहित्य का सम्बन्ध तर्क से नहीं है। साहित्य कल्पना द्वारा ही पाठकों को प्रभावित करता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लौंजाइन्स के काव्य में स्वच्छन्दतावादी तथा अभिजात्यवादी दोनों प्रकार के तत्त्व देखे जा सकते हैं।

लोंजाइनस के उदात्त का स्वरूप

लौंजाइन्स ने अपने मन्तव्य को कैकिलियस द्वारा प्रतिपादित उदात्त (sublime) का सुधार बताया है। यद्यपि लोंजाइनस ने उदात्त की सविस्तार व्याख्या प्रस्तुत की और उसका उदात्त संबंधी दृष्टिकोण कैक़ीलियस की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत धरातल को लिए हुए है लेकिन इसके बावजूद लोंजाइनस ने उदात्त के प्रतिपादन का श्रेय कैक़ीलियस को दिया है |

लौंजाइन्स ने उदात्त की कहीं पर भी स्पष्ट परिभाषा नहीं दी । सम्भवतः उसे लगा होगा कि उसके समय ‘उदात्त’ की परिभाषा विद्वानों को ज्ञात होगी | लेकिन फिर भी उसके द्वारा दिए गए सिद्धांत से उदात्त का अर्थ स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है |

लौंजाइन्स ने उदात्त क्या है? इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यह उचित समझा कि उदात्त क्या नहीं है, इस पर विचार किया जाए।

बोइलो‘ नामक प्रसिद्ध पाश्चात्य आलोचक ने यह स्पष्ट किया कि लौंजाइन्स का उदात्त निश्चित रूप से ‘उदात्त शैली’ का पर्याय शब्द नहीं है। ‘शैली’ में भाषा की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है। जबकि उदात्त का संबंध भावगत और विचारगत उदात्तता से होता है।

लौजाइन्स की दृष्टि में ‘उदात्त‘ केवल भाषा के चमत्कार की क्षमता का ही परिचायक नहीं है, क्योंकि भाषा के साथ उदात्त का कोई मूल संबंध नहीं |

उदात्त का मूल भाव तो मनुष्यगत या विचारगत जगत है। बोइलो ने जो इप्सुस का अर्थ सबलाईम था जिसे उचित नहीं माना गया क्योंकि इप्सुस एक व्यापक अवधारणा है जबकि सब्लाइम सीमित अवधारणा है |

लोंजाइनस उदात्त के विषय में लिखता है —

“वह वाणी का ऐसा वैशिष्टय और चरमोत्कर्ष है जिससे महान कवियों और इतिहासकारों को जीवन में प्रतिष्ठा और यश मिलता है |”

इसके साथ ही लौंजाइन्स लिखता है —

“Sublimity is always an excellence in composition.”

अर्थात “अभिव्यक्ति की विशिष्टता और उत्कर्ष का नाम उदात्त है |”

लोंजाइनस के अनुसार उदात्त कविता वही है जो आनंदातिरेक के कारण हमें इतना निमग्न या तन्मय कर दे कि हम अपना मान भूल जाएं और ऐसी भाव भूमि पर पहुँच जाएं जहां निरी बौद्धिकता पंगु हो जाए |

इस प्रकार लोंजाइनस ने व्यवहारिक और मनोवैज्ञानिक दोनों आधारों पर उदात्त का विश्लेषण किया है |

लोंजाइनस ने उदात्त दो पक्ष माने हैं — (क ) अंतरंग पक्ष तथा ( ख ) बहिरंग पक्ष |

(क ) अंतरंग पक्ष

उदात्त के अंतरंग पक्ष के अंतर्गत लोंजाइनस ने निम्नलिखित दो तत्त्वों को सम्मिलित किया है — (1) महान धारणाओं की क्षमता, (2) उद्दाम उद्वेग

(1) महान धारणाओं की क्षमता (Grandeur of Concept)

लौंजाइन्स के अनुसार उस कवि की महान हो सकती है जिसमें महान् धारणाओं की क्षमता है। कवि को महान बनाने के लिए अपनी आत्मा में उदान विचारों का पोषण करना होगा। यहाँ लौंजाइन्स का मतलब यह था कि कवि की कल्पना में उच्चता और विराटता होनी चाहिए। यह विराटता ही मनुष्य को क्षुद्रता से ऊपर उठाती है। जो व्यक्ति छोटे-छोटे विचारों और स्वार्थों से घिरा रहता है वह किसी महान् कृति की रचना नहीं कर सकता।

इस विषय में डॉ. नगेन्द्र कहते भी हैं —

“यह संभव नहीं है कि जीवन भर क्षुद्र उद्देश्यों और विचारों से ग्रस्त व्यक्ति कोई स्तुत्य और अमर रचना कर सके। महान शब्द उसी के मुख से निःसृत होते हैं जिनके विचार गंभीर और महान हों।”

जहाँ तक विषय की गरिमा का प्रश्न है तो लौंजाइन्स का विचार था कि उदात्त की उत्पत्ति के लिए विषय केवल साधन है। महान विषय एक साधन रूप में रचना को उदात्त रूप देता है। महान कवियों की महान रचनाओं में महान विषयों की उद्भावना रहती है। महान विषय के लिए जन्मजात प्रतिभा तो आवश्यक है ही, इसके साथ-साथ कवि को महान कवियों की अमर रचनाओं को भी पढ़ना चाहिए। उनका विचार था कि महान् रचनाओं को पढ़ने से रचनाकार को नए संस्कार, नई विचार-शक्ति, नए भाव और एक अद्भुत प्रेरणा मिलती है ।

काव्य के विषय के सम्बन्ध में लौंजाइन्स कहता है —

“विषय सागर के समान अनन्त विस्तार वाला हो, उसमें ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और उद्वेग हो तथा ईश्वर के समान अलौकिक ऐश्वर्य और प्रभाव क्षमता हो |”

अतः स्पष्ट है कि लौंजाइन्स मानव मन की विराटता पर बल देता है। मानव मन की विराटता ही गरिमामयी विषय पर उदात्त काव्य रचना कर सकती है।

(2) उद्दाम प्रेरणा प्रसूत उद्वेग

लौंजाइन्स ने उद्दाम प्रेरणा प्रसूत उद्वेग को उदात्त का दूसरा आन्तरिक तत्त्व माना है। भव्य आवेग से उनका मतलब था ऐसा आवेग जिससे हमारी आत्मा अपने आप ऊपर उठकर गर्व के ऊँचे आकाश में विचरण करने लगे तथा हर्ष और उल्लास से भर जाए। उन्होंने आवेग की दो कोटियाँ बताई हैं-भव्य और निम्न।

निम्न आवेग में वे उन आवेगों की चर्चा करते हैं जिनका संबंध दया, शोक, भय आदि से है। भव्य आवेग से आत्मा का उत्कर्ष होता है और निम्न आवेग से अपकर्ष होता है। उदात्त के लिए भव्य आवेग जरूरी है।

वे कहते हैं —

“मैं यह बात पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ जो आवेग उन्मत उत्साह के उद्दाम वेग से फूट पड़ता है और एक प्रकार से वक्ता के शब्दों को विक्षेप से पूर्ण कर देता है उसके यथास्थान व्यक्त होने से स्वर में जैसा उदात्त आता है वह अन्यत्र दुर्लभ है।”

इसका मतलब है कि लौंजाइन्स ने भव्य आवेग को आवश्यक माना है।

वे उसी को उदात्त मानते हैं जो अपनी ऊर्जा-उल्लास आदि के समन्वित प्रभाव से ऐसी अनुभूति को जन्म देता है जो पाठक की सम्पूर्ण चेतना को अभिभूत कर देता है।

(ख) बहिरंग पक्ष

बहिरंग पक्ष के अंतर्गत लोंजाइनस ने तीन तत्वों को स्वीकार किया है — (1) समुचित अलंकार योजना, (2) उत्कृष्ट भाषा तथा (3) गरिमामयी रचना विधान |

(1) समुचित अलंकार योजना

लौंजाइन्स ने अलंकारों के बारे में बहुत ही तर्कपूर्ण और विवेचन किया है। लौंजाइन्स ने कहा कि केवल चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग नहीं होना चाहिए। उनके विचारानुसार अलंकार प्रयोग तभी सार्थक है यदि उनके प्रयोग से भावोत्कर्ष होता हो, आनन्द की प्राप्ति होती हो तथा सहृदय भाव विभोर हो उठता हो। पुनः लौजाइन्स ने यह स्वीकार किया कि अलंकार भावोत्कर्ष का साध्य नहीं, अपितु साधन है। अलंकारों का प्रयोग सहज और स्वाभाविक होना चाहिए ताकि पाठक को यह पता ही न चले कि उसमें कोई अलंकार है।

वस्तुतः अलंकार प्रयोग के बारे में लौंजाइन्स की अवधारणा सर्वथा नवीन एवं मौलिक है। इस दृष्टि से वे एक क्रान्तिकारी आलोचक प्रतीत होते हैं। उन्होंने केवल उन्हीं अलंकारों का विवेचन किया जो काव्य शैली को उत्कर्ष प्रदान कर सकते हैं।

लौंजाइन्स ने कहा कि अलंकारों का प्रयोग बड़े ही संयमित और विवेकपूर्ण ढंग से होना चाहिए। अलंकारों का प्रयोग करते समय स्थान, रीति और अभिप्राय का ध्यान होना चाहिए।

(2) उत्कृष्ट भाषा

भाषा भावों की की अभिव्यक्ति का माध्यम है | भाषा ही कवि मन में जन्मे अमूर्त काव्य को मूर्त रूप प्रदान करती है | भाषा की उदात्तता कवि के महान व्यक्तित्व का द्योतक होने के साथ-साथ काव्य-कृति के अमरत्व का भी कारण है। शब्दों का सुनिश्चित चयन एवं उनका यथास्थान एवं यथासमय औचित्यपूर्ण प्रयोग निश्चय ही शैली को गरिमा प्रदान करता है।

एक स्थान पर लौंजाइन्स ने लिखा है –

“औदात्य अभिव्यक्ति की विशिष्टता और उत्कृष्टता का नाम है।”

इस कथन से भाषा के महत्त्व एवं उसके प्रयोग की गरिमा स्पष्ट होती है | पुन: लौंजाइन्स कहता है —

“सुन्दर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं।”

इसका अर्थ यह है कि विचारों की महानता अथवा आवेगों की प्रचुरता औदात्य सृष्टि में पर्याप्त नहीं, उसे साधारणीकरण की स्थिति देने के लिए सुनियोजित शब्द योजना भी आवश्यक है। उक्ति के औदात्य एवं भावावेग के प्राचुर्य का साधन भाषा ही है।

जहाँ शब्दों का लावण्यमय गुम्फन विचारों एवं भावनाओं के ओज का प्रमुख वाहक होता है, वहाँ उनकी छिन्नता-भिन्नता औदात्य की बाधक बन बैठती है। अतः लेखक को बड़ी सावधानी से शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।

लौंजाइन्स के शब्दों में —

“उदात्त भाषा का प्रभाव श्रोता के मन पर प्रत्यय के रूप में नहीं, वरन भावोद्रेक के रूप में पड़ता है।”

उदात्त भाषा में स्थान, ढंग, परिस्थिति एवं उद्देश्य के समन्वय एवं संगठन का भाव अन्तर्निहित है। कल्पना विधान की मनोरमता के लिये भाषा की कोमलता और चारुता वांछनीय है।

(3) गरिमामयी रचना विधान

लौंजाइन्स ने इस बात पर बल दिया कि काव्य का रचना विधान गरिमामय होना चाहिए, क्योंकि काव्य रचना के शब्द श्रोता के केवल कानों का ही स्पर्श नहीं करते बल्कि उसके भीतर गहरे उतर जाते हैं। अतः काव्यकृति में प्रयुक्त शब्दों में सामंजस्य होना चाहिए।

लौंजाइन्स ने रचना विधान के अन्तर्गत शब्दों, विचारों और कार्यों के अनेक रूपों के गुम्फन पर बल दिया है। उनकी दृष्टि में यही सामंजस्य काव्य रचना का प्राण तत्त्व होता है और यह उदात्त शैली के लिए अनिवार्य है।

इस संबंध में उन्होंने मानव की शारीरिक रचना और का उदाहरण दिया है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अवयवों का अलग-अलग कोई महत्त्व नहीं है और ये सब मिलकर ही एक समग्र और संपूर्ण शरीर का निर्माण करते हैं उसी प्रकार उदात्त शैली के सभी तत्त्व एकान्वित होने चाहिएँ |

इस संबंध में वे कहते हैं —

वही काव्य सृष्टि उत्कृष्ट है जो पाठकों को एक बार नहीं वरन बार-बार उत्तेजित और उद्वेलित कर सके, जो विभिन्न पेशों, आकांक्षाओं, युगों और भाषाओं के मनुष्यों के सम्मुख बार-बार पढ़ी जाने पर उन्हें प्रभावित कर सके |”

गरिमामयी रचना विधान के लिए यद्यपि उन्होंने सामंजस्य की बार-बार चर्चा की है। परन्तु यह सामंजस्य सहज होना चाहिए | सामंजस्य बैठाने के लिए किया गया अनावश्यक प्रयत्न करता है सहजता को नष्ट कर देत है।

कल्पना तत्त्व का समावेश

लौंजाइन्स ने स्पष्ट रूप से कल्पना तत्त्व की चर्चा नहीं की। वे बिम्बों का वर्णन करते समय वे निर्माण करने वाली शक्ति के रूप में कल्पना की चर्चा करते हैं। बिम्ब से उनका मतलब कल्पना चित्र है और उसकी प्रेरणा शक्ति वे कल्पना को मानते हैं। उनके अनुसार कल्पना वह शक्ति है जो पहले कवि को मानसिक रूप में वर्ण्य-विषय का साक्षात्कार कराती है और फिर जिसकी सहायता से कवि भाषा में चित्रात्मकता द्वारा वर्ण्य-विषय को इस रूप में प्रस्तुत करता है कि वह पाठक के सामने सजीव हो उठता है। इस प्रकार लौंजाइन्स के कल्पना संबंधी विचार आज के कल्पना संबंधी विचारों से मेल खाते हैं।

उदात्त के विरोधी तत्त्व

लौंजाइन्स ने कुछ ऐसे अवरोधक तत्त्वों का भी वर्णन किया है जो विषय को स्पष्ट बनाने के मार्ग में बाधा का काम करते हैं। सबसे पहले उन्होंने शब्दाडम्बर की चर्चा की है। इसे वह Tumidity या Bombast of Language कहते हैं। शब्दाडम्बर के प्रयोग से कवि और पाठक के बीच साधारणीकरण नहीं हो पाता। कठिन शब्दों के कारण कविता का आशय दब जाता है। चंचल पद गुम्फन, असंयत वाक् -विस्तार, हीन और क्षुद्र शब्दों वाले अर्थों का प्रयोग उदात्त शैली को नष्ट कर देते हैं। पुनः लौंजाइन्स ने बचकानेपन की भी चर्चा की है। बेतुके और मनमाने काल्पनिक प्रयोगों से काव्य कृति की महत्ता खत्म हो जाती है।

भावाडम्बर की चर्चा करते हुए उन्होंने इसे उदात्त शैली का अवरोधक माना है। भावों की अभिव्यक्ति मनमाने ढंग से करने से भावों की उदातत्ता नष्ट हो जाती है। भले ही मानवीय भाव बड़े पावन होते हैं लेकिन उनकी शाब्दिक अभिव्यक्ति के कुछ नियम और सिद्धान्त जरूरी हैं। वे कहते हैं —

“भावाडम्बर दोष वहाँ होता है जहाँ संयम के स्थान पर असंयम और खोखले आवेग का प्रदर्शन होता है। यह आवेग प्रकृति जन्य न होकर वैयक्तिक और थका देने वाला होता है।”

पुनः लौंजाइन्स ने नवीनता की खोज के लिए आडम्बर का विरोध किया है। कुछ कवि नवीनता की खोज के चक्कर में ऊल-जलूल कल्पनाएँ करते हैं और अस्पष्टत व अस्वभाविक शब्दावली का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार से अभिव्यजंना की क्षुद्रता, अत्यन्त संक्षिप्तता, अति विस्तृत वर्णन, अनावश्यक साजसज्जा, संगीत और लय का आधिक्य आदि भी उदात्त के विरोधी तत्त्व हैं।

लोंजाइनस के काव्य संबंधी सिद्धांत ( उदात्त सिद्धांत ) का मूल्यांकन

लोंजाइनस का काव्य सिद्धांत अपने पूर्ववर्ती आलोचकों प्लेटो और अरस्तू के आगे की कड़ी माना जा सकता है | उनके उदात्त संबंधी दृष्टिकोण पर प्लेटो और अरस्तू दोनों का प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है | एक ओर प्लेटो से प्रभावित होने के कारण वे कवि के उत्कृष्ट व्यक्तित्व को आवश्यक मानते हैं तो दूसरी और अरस्तू से प्रभावित होने के कारण वे काव्य रचना विधान को भी महत्व देते हैं |

प्लेटो और अरस्तू से प्रभावित होने पर भी उनका काव्य सिद्धांत पूर्णत: मौलिक माना जा सकता है | एक तो उन्होंने काव्य में भावात्मक उत्तेजना पर बल दिया | दूसरे काव्य रचना विधान के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने उसे सहज, संयमित और विश्वासनीय बनाने पर बल दिया |

उनकी उदात्त अवधारणा का महत्व इसी से प्रतिपादित होता है कि आगे चलकर ड्राइडन, एडिसन, वर्ड्सवर्थ जैसे महान कवि और आलोचक उनके इस काव्य शास्त्रीय सिद्धांत से प्रभावित हुए |

भाव-उत्कृष्टता, लौकिकता, ऐश्वर्य तथा प्रभावोत्पादकता आदि जिन गुणों का उल्लेख उन्होंने किया परवर्ती कवियों तथा काव्य-शास्त्रियों ने भी उन्हें किसी ना किसी रूप में स्वीकार किया है |

संक्षेप में कहा जा सकता है कि लोंजाइनस का काव्य शास्त्रीय सिद्धांत पाश्चात्य काव्य परंपरा में एक विशेष स्थान रखता है | ‘पेरिइप्सुस’ में लोंजाइनस साहित्य के मूल प्रश्नों पर विचार करता है और उसके सिद्धांतों का तर्कसंगत और सारगर्भित उल्लेख करता है |

यह उनके मौलिक दार्शनिक चिंतन का ही परिणाम है कि वे सदोष महान रचना को निर्दोष साधारण रचना से श्रेष्ठ मानते हैं | उनका मानना है कि महान रचना में ही दोषों की संभावना हो सकती है |

वे कहते भी हैं —

“Great flights are necessarily involve great risks from which pedestrian creatures are free.”

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

रस सिद्धांत ( Ras Siddhant )

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ ( Alankar Siddhant : Avdharna Evam Pramukh Sthapnayen )

रीति सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएँ (Reeti Siddhant : Avdharana Evam Sthapnayen )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )

ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

काव्यात्मा संबंधी विचार

सहृदय की अवधारणा ( Sahridya Ki Avdharna )

साधारणीकरण : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप