अभिजात्यवाद ( Classicism )

अभिजात्यवाद ( Classicism )

अभिजात्यवाद अंग्रेजी भाषा के Classicism का हिंदी रूपांतरण है | Classicism शब्द Classic शब्द से बना है जिसका अर्थ है — सर्वश्रेष्ठ, अद्वितीय व गंभीरतम | साहित्य के क्षेत्र में इसका अर्थ है — ऐसा साहित्य जिसकी समता कोई अन्य न कर सके |

साहित्य के क्षेत्र में ‘क्लासिक‘ शब्द की व्याख्या करते हुए एक विद्वान कहता है — “क्लासिकल काव्य से हमारा अभिप्राय कैसे काव्य से है जो अपनी श्रेष्ठता, महानता और उत्कृष्टता की दृष्टि से अद्वितीय हो |”

सर्वप्रथम यूनानी और रोमन साहित्य के लिए इस शब्दावली का प्रयोग किया जाने लगा था | कालांतर में यही साहित्य पाश्चात्य साहित्य जगत के लिए अनुकरणीय बन गया | 15वीं – 16वीं सदी में श्रेष्ठ यूनानी तथा रोमन रचनाओं को क्लासिक ( अभिजात्य ) घोषित किया गया | 18वीं सदी तक यही साहित्य उत्कृष्ट साहित्य की कसौटी बना रहा और परवर्ती साहित्यकारों को प्रभावित करता रहा |

(1) अभिजात्यवाद : विकासक्रम

सबसे पहले रोमियो ने इस शब्द का प्रयोग विशिष्ट वर्ग के नागरिकों के लिए किया । उनके बाद औलस जेलियस नामक एक विद्वान ने आलंकारिक रूप में उस लेखक के लिए इस शब्द का प्रयोग किया जिसमें सार हो, यथार्थ गुण हों, जो यथार्थ सम्पत्ति का स्वामी हो और जन-सामान्य के मध्य एक विशेष स्थान रखता हो।

इससे यह स्पष्ट होता है कि उस समय श्रेष्ठ साहित्य के रचयिता को अभिजात्य साहित्यकार माना जाता था तथा उसका साहित्य ही अभिजात्य साहित्य कहलाता था। दूसरी तरफ यूनान और रोम के विद्वानों ने अपने देश के साहित्य को ही अभिजात्य साहित्य कहा है। आज इसे शास्त्रवाद, शास्त्रीयवाद तथा अभिजात्यवाद आदि नामों से जाना जाता है।

(2) पुनर्जागरण ( Renaissance ) काल का प्रभाव

पुनर्जागरण ( Renaissance ) काल में अभिजात्यवादी साहित्य को विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ा जाने वाला तथा विद्वानों के पठन-पाठन का महत्त्वपूर्ण साहित्य माना जाने लगा। इस युग में यूनानी साहित्य को अभिजात्यवादी तक कहा गया। लेकिन सत्य तो यह है कि अभिजात्यवाद का युग पुनर्जागरण ( Renaissance ) के बाद का युग माना जाता है।

मध्य काल में फ्रांस के कवि रोत्सार ने कल्पनात्मक प्रतिभा को पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करने की जोरदार वकालत की। इसका परिणाम यह हुआ कि साहित्य-जगत में अराजकता उत्पन्न हो गई। इस अराजकता
को दूर करने के प्रयास किए गए। यह वह काल था जब ज्ञान, विद्वत्ता और नियम-पालन की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। अतः साहित्य के बारे में भी कुछ नियम बनाये गए। ये नियम बनाने वाले अभिजात्यवादी विद्वान एवं आलोचक थे। इन लोगों का विश्वास था कि उनके द्वारा बनाए गए नियम सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक हैं। अतः इनका पालन अवश्य होना चाहिए। उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला कि प्राचीन श्रेष्ठ कृतियों के आधार पर नवीन कृतियों का सृजन होना चाहिए। उनके मतानुसार विशुद्धता तथा भव्यता ही किसी श्रेष्ठ कृति के तत्त्व हैं। ये लोग कोरी भावनात्मकता के विरोधी थे। नये प्रयत्नों से इन्हें घृणा थी। ये लोग शुद्ध प्राचीन परम्परागत शास्त्रीयता के समर्थक थे।

इन्होंने पूर्ववर्ती रचनाओं को अभिजात्यवादी गरिमा प्रदान की तथा उसके आधार पर निम्नलिखित मान्यताएँ स्थापित की —

(i) वर्तमान काल की अपेक्षा पूर्ववर्ती साहित्यकार साहित्यिक उत्थान के चरम उत्कर्ष का स्पर्श कर चुके थे। जैसे होमर, वर्जिल, होरेस, अरस्तू आदि का साहित्य सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

(ii) वर्तमान कवियों तथा साहित्यकारों का यह साहित्यिक कर्त्तव्य है कि वे पूर्ववर्ती साहित्यकारों तथा उनके द्वारा स्थापित परम्पराओं का दृढ़ता से पालन करें।

(ii) इस अनुकरण में साहित्यकारों को प्राचीन रचनाओं के नियमों तथा शिल्पगत अनुशासन का भी पूर्णतः पालन होना चाहिए।

कालांतर में अभिजात्यवाद ( Classicism ) के स्वरूप पर पर्याप्त चर्चा हुई है। गेटे, शीलर, मैथ्यू आर्नल्ड, गियर्सन, एंबर काम्बी तथा इलियट आदि ने इसके बारे में अपने विचार व्यक्त किए हैं। एकादमी शब्दकोष के अनुसार 19वीं शताब्दी में स्वच्छन्दतावाद के विरोध में अभिजात्य साहित्यकार उसे कहा गया जो किसी भाषा में आदर्श माने जाते हों।

इससे पहले 1694 में एकादमी शब्दकोष अभिजात्य की परिभाषा देते हुए कहता है- “एक बहु-प्रशंसित अपने वर्ण्य-विषय पर प्रमाण स्वरूप लेखक को अभिजात्य साहित्यकार कहा गया है।”

(3) चार्ल्स आगस्टिन सैन्त व्येव का मत

सैन्त व्येव का समय सन् 1804 से 1872 ई. तक माना जाता है। ये अंग्रेजी के समीक्षक ‘मैथ्यू आर्नल्ड’, रस्किन’ और ‘वाल्टर पेटर’ समकालीन थे। उनके समय में फ्रांस में साहित्यकारों का ऐसा दल था जो केवल राजनीति में ही नहीं बल्कि साहित्य और कला के क्षेत्र में भी व्यक्ति स्वातन्त्र्य का समर्थक था। सैन्त व्येव इसी दल के एक महत्त्वपूर्ण सदस्य थे। एक स्वच्छन्दतावादी साहित्यकार होते हुए भी उन्होंने अभिजात्यवाद के बारे में अपने मौलिक विचार व्यक्त किए।

वे कहते हैं- “अभिजात्यवादी साहित्यकार एक ऐसा रचनाकार है, जिसने मानव-मन को समृद्ध किया हो, ज्ञान भण्डार की अभिवृद्धि की हो, जिसने किसी संदिग्ध सत्य का नहीं नैतिक सत्य का अन्वेषण किया हो…………… जिसने अपनी विशिष्ट शैली में सबको संबोधित किया हो, एक ऐसी शैली में जो संपूर्ण विश्व की शैली प्रतीत होती हो | वह नई भी हो और पुरानी भी हो तथा जो युग-विशेष की शैली होते हुए भी युग-युग की शैली जान पड़े |”

सैंत व्येव के अनुसार एकरूपता, संयम और विवेक अभिजात्य रचना के गुण हैं। इन गुणों के अनुसार एक अभिजात्य साहित्यकार को संयमी, विवेकशील और उदात्त भावना से युक्त होना चाहिए।

संक्षेप में अभिजात्य कृति वह है जिसमें हमारे प्रौढ़ विचारों का प्रतिबिम्ब हो जिसमें हमारी सभ्यता की संवेदना की आकांक्षा को उदात्त और प्रेरणादायक शैली में प्रकट करने की शक्ति हो ।

(4) इलियट का दृष्टिकोण

इलियट ने तो स्वयं अभिजात्यवादी ( क्लासिकवादी ) कहा है। उनका कहना है कि अभिजात्य का अर्थ है — परिपक्वता या प्रौढ़ता । अतः अभिजात्य साहित्य की रचना तभी हो सकती है जब सभ्यता, भाषा और साहित्य तीनों ही प्रौढ़ हों। यहाँ तक कि रचनाकार का मस्तिष्क भी प्रौढ़ हो।

इलियट का यह भी विचार है कि मस्तिष्क की प्रौढ़ता तभी आती है जब रचनाकार इतिहास और ऐतिहासिक चेतना से पूर्णतः परिचित हो। मस्तिष्क की प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए कवि को अपने देश और जाति का अध्ययन करने के साथ-साथ दूसरी सभ्य जातियों के इतिहास को भी पढ़ना चाहिए। साथ ही दूसरी जाति की सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। मतलब यह है कि कवि को अतीत की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए।

शील की प्रौढ़ता से उनका मतलब था-‘आदर्शचरित्र निर्माण।’ भाषा की प्रौढ़ता के लिए भी यह आवश्यक है कि कवि को तत्कालीन भाषाओं का समुचित ज्ञान हो। इलियट का कहना था कि यह जरूरी नहीं है कि महान कवि क्लासिक ही हों। अंग्रेजी में अनेक महान कवि हो चुके हैं। लेकिन इलियट उन्हें क्लासिक नहीं मानते । महान कवि एक ही विधा को चरम सीमा तक पहुँचा कर उसकी संभावना को खत्म कर देता है। परन्तु एक क्लासिक कवि केवल विधा को ही नहीं बल्कि भाषा को भी चरम सीमा तक पहुँचा देता है। इलियट ने यह भी घोषणा की कि क्लासिक बनने के लिए व्यापक और विश्वजनीन ( वैश्विक स्तर पर प्रभावशाली ) होना भी ज़रूरी है।

संक्षेप में इलियट ने मस्तिष्क की प्रौढ़ता, शील की प्रौढ़ता, शैली की पूर्णता और वैश्विकता ( विश्वजनीनता ) को अभिजात्य के आवश्यक गुण माने हैं।

यहाँ मस्तिष्क, शील और भाषा की प्रौढ़ता पर विचार करना ज़रूरी होगा। हमें सबसे पहले यह विचार करना होगा कि इलियट क्लासिक साहित्य निर्माण के लिए मस्तिष्क की प्रौढ़ता पर बल क्यों देता है? इलियट का विचार था कि मस्तिष्क की प्रौढ़ता तब होगी जब समुन्नत सामाजिक व्यवस्था होगी। कम विकसित समाज में न तो मस्तिष्क प्रौढ़ हो सकता है और न ही अभिजात्य साहित्य का निर्माण हो सकता है। यदि समाज उन्नत होगा तो उसमें शील भी प्रौढ़ होगा। मतलब यह है कि उच्च समाज में ही आचार-व्यवहार की प्रौढ़ता दिखाई देती है।

इलियट का यह भी कहना है कि भाषा की प्रौढ़ता, मस्तिष्क और शील की प्रौढ़ता से जुड़ी हुई है। मतलब यह है कि मस्तिष्क और शील की प्रौढ़ता भाषा को भी प्रौढ़ बना देती है। इलियट का कथन है — “जिस भाषा की सारी क्षमताएँ किसी महान कवि द्वारा पूर्णतः उपलब्ध कर ली जाती हैं, और उसके विकास की कोई संभावना नहीं रह जाती उस भाषा में किसी क्लासिक कवि होने की बात समाप्त हो जाती है।”

इलियट पुनः कहता है कि क्लासिक रचना का प्रभाव व्यापक होता है। ऐसी रचना केवल अपने देशकाल तक सीमित नहीं रहती बल्कि वह अन्य देश और काल को भी प्रभावित करती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि इसमें किसी उच्च जातीय चरित्र का वर्णन किया जाता है।

इलियट के इस अभिजात्यवादी विचारों पर कुछ आलोचकों ने आपत्तियाँ उठाई हैं। जैसे इलियट कहता है कि यदि क्लासिक वास्तविक आदर्श है तो उसे ईसाई धर्म के उच्च आशय की अभिव्यक्ति करनी होगी। यदि उच्च आशय से उनका मतलब कैथोलिक धर्म से है, तो यह आलोचकों को मान्य नहीं है। यदि इसका मतलब उदारता से है तो इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।

आलोचकों ने इलियट के भाषा की प्रौढ़ता संबंधी विचारों पर भी आक्षेप लगाया है | इलियट का कहना है कि क्लासिक कवि भाषा के विकास की संभावनाओं को समाप्त कर देता है जो कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि भाषा की प्रकृति तो निरंतर विकासशील है | समाज की आवश्यकताओं के अनुसार भाषा का बदलाव स्वाभाविक भी है और उचित भी |

18वीं सदी में अभिजात्यवाद का स्थान नवअभिजात्यवाद ने ले लिया | प्राचीन रोम और यूनान के साहित्यकारों को अभिजात्यवादी तथा यूरोपीय साहित्यकारों व चिंतकों को नवअभिजात्यवादी कहा जाने लगा |

अभिजात्यवाद ( Classicism ) की विशेषताएं

(क ) अभिजात्यवाद ( Classicism ) में भव्य विचार और लोक कल्याण की भावना रहती है | इसमें मानव जीवन की चिरंतन समस्याओं का वर्णन होता है |

(ख ) अभिजात्यवाद ( Classicism ) मैं वस्तुनिष्ठ विषय वस्तु पर आधारित साहित्य की रचना होती है | इसमें कवि के व्यक्तित्व और उसकी अनुभूति का आर्थिक महत्व नहीं होता |

(ग ) अभिजात्यवाद ( Classicism ) में साहित्य रचना काव्य परंपराओं पर आधारित होती है | अभिजात्यवादी कवि यूनानी और रोमन साहित्यकारों का अनुसरण करता है |

(घ ) अभिजात्यवाद ( Classicism ) में भाषा की प्रौढ़ता पर विशेष बल दिया गया है | भाषा परिष्कृत, व्याकरणसम्मत तथा भव्य होनी चाहिए परंतु भव्यता का अर्थ यह नहीं है कि भाषा क्लिष्ट हो ; सरल और सामान्य भाषा भी प्रौढ़ हो सकती है |

(ङ ) अभिजात्यवाद ( Classicism ) में साहित्य रचना करते समय कठोर संयम और अनुशासन पर बल दिया गया है | अभिजात्यवादियों के अनुसार संयम के अभाव में भावनाओं की अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है जो रचना को प्रभावहीन कर देती है |

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ

औचित्य सिद्धांत : अवधारणा एवं स्थापनाएं

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