व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )

व्यावहारिक आलोचना

व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism ) के प्रतिपादन से पूर्व रिचर्ड्स काव्य की भाषा के बारे में गंभीर चिन्तन कर चुके थे। उन्होंने काव्य की भाषा के दो प्रयोग स्वीकार किए हैं। इनमें से एक के अधीन वैज्ञानिक सत्य का निर्देश होता है और दूसरे में कवि की अनुभूतियों का सम्प्रेक्षण होता है।

भाषा के बारे में रिचर्ड्स ने कहा था, “भाषा ऐसे प्रतीकों का समूह है जो पाठक तथा लेखक के मन में अनुरूप अवस्था उत्पन्न करता है। इस प्रकार भाषा का प्रतीकत्व वक्ता और श्रोता के बीच अखण्ड मानसिकता का सूत्रपात करता है।”

इसका मतलब यह हुआ कि भाषा की पूर्णता शब्द और अर्थ में विद्यमान है।

(1) व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )

इस प्रकार भाषा संबंधी विचारों को एक नया मोड़ देकर रिचर्ड्स ने एक पूर्ण नवीन आलोचना पद्धति का आरम्भ किया। रिचर्ड्स ने कहा कि आलोचक मूल्यों का निर्णायक होता है और मूल्यों का निर्धारण करना कोई सहज कार्य नहीं है। वह स्पष्ट कहता है — “आलोचना विलास व्यापार नहीं है। आलोचक का मन के स्वास्थ्य से उतना ही सम्बन्ध है जितना चिकित्सक का तन के स्वास्थ्य से संबंध है।”

उनके इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आलोचक को मन के स्वास्थ्य का चिकित्सक मानते हैं। आलोचक का कार्य भी चिकित्सक जैसा है। वह पहले आलोच्य कृति का सूक्ष्मता से अध्ययन करता है, शारीरिक विकारों की तरह वह उस रचना में निहित रचनाकार के मन के गुण-दोषों का परीक्षण करता है। फिर वह निर्णय देता हुआ उसका
मूल्यांकन करता है।

भले ही इसे कुछ विद्वान निर्णयात्मक या व्याख्यात्मक आलोचना कहें, लेकिन यह व्यावहारिक आलोचना ही कही जाएगी। व्यावहारिक आलोचना को लेकर रिचर्ड्स ने अपनी ‘Practical Criticism’ नामक पुस्तक लिखी और उसमें इस नवीन आलोचना पद्धति का विस्तृत विवेचन किया। इस पुस्तक में रिचर्ड्स ने किसी भी काव्य रचना के मूल्यांकन के लिए एक प्रयोगशाला विधि को अपनाया।

रिचर्ड्स का कहना है कि कविता के रसास्वाद का विश्लेषण चार माध्यमों से हो सकता है —

(i) अर्थ अर्थात आशय (सेन्स)

(ii) भाव (फीलिंग)

(iii) स्वर (टोन)

(iv) लक्ष्य (इन्टेन्शन)

(i) अर्थ को आशय भी कह सकते हैं। कवि शब्दों द्वारा पाठक का ध्यान किसी वस्तुस्थिति की ओर आकर्षित करना चाहता है। कवि कुछ बातें इसलिए उठाता है ताकि पाठक इन बातों पर मनन करे और उसके विचार उत्तेजित हों। इसी को अर्थ अथवा आशय कह सकते हैं। वैज्ञानिक विषयों में तो आशय का अत्यधिक महत्त्व होता है। लेकिन भावमय कविता में आशय का महत्त्व बहुत कम होता है। आशय के लिए रिचर्ड्स ने शब्दावली के सतर्कतापूर्ण प्रयोग पर बल दिया है।

(ii) भाव के सम्बन्ध में वे कहते हैं कि हम जिस किसी वस्तु-स्थिति का ज्ञान पाना चाहते हैं, उसके बारे में हमारे मन में कुछ चरण होते हैं अर्थात् उस वस्तुस्थिति की ओर हमारी कोई प्रवृत्ति या झुकाव अथवा अनुराग की प्रबलता होती है। उसके प्रति भावों की अलग प्रकार की आसक्ति होगी। प्रत्येक कविता में भावों का अत्यधिक महत्त्व होता है।

(iii) ध्वनि या स्वरूप के अन्तर्गत रिचई ने भाषा की चर्चा की है। भावों को अभिव्यक्त करने के लिए कवि उचित विशेषणों, क्रिया तथा क्रिया-विशेषणों का प्रयोग करता है। इसे अलंकृत भाषा भी कहा जा सकता है। कवि पाठक के स्तर की ही भाषा का प्रयोग करता है। इसी को ध्वनि कहते हैं।

(iv) उद्देश्य से रिचर्ड्स का अभिप्राय है-चेतन अथवा अचेतन लक्ष्य। यह लक्ष्य प्रत्येक रचना में होता है। इसी के द्वारा लेखक पाठकों को प्रभावित करता है। भाषण-कला में उद्देश्य प्रमुख (प्रधान) होता है, परन्तु साहित्य में यह गौण होता है। किसी भी कला-कृति के समझने के लिए उद्देश्य को समझना ज़रूरी है।

रिचर्ड्स का कहना है कि जब कोई पाठक किसी कविता का अनुशीलन करता है उसके मन में एक विशेष प्रकार की अनुक्रिया जन्म लेती है। इस अनुक्रिया को जानना आवश्यक है। कविता के बारे में पाठक की अनुक्रियाएँ उपर्युक्त चार प्रकार की हो सकती हैं।

यदि कविता का गुप्त भाव पाठक को पूर्व परिचित है तो उसकी अनुक्रिया एक बंधी बंधाई ढंग की होगी। ठीक ऐसे ही जैसे हम किसी अबोध बच्चे को हर बार मारने पर एक ही चीख सुनते हैं। इस प्रकार का काव्य उच्चकोटि का काव्य नहीं कहा जा सकता।

इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि काव्य से उत्पन्न होने वाले आनन्द को रिचर्ड्स बौद्धिक नियमों में बांधने का प्रयास कर रहे हैं जो कि सर्वथा अनुचित है। काव्य से उत्पन्न होने वाला आनन्द पाठक के हृदय की ग्रन्थियों को छूकर उत्पन्न होता है। काव्यानन्द को पाकर वह वेद्यान्तर शून्य बन जाता है। यह आनन्द एक अनोखा अमृत है जो पाठक की धमनियों में बहने वाले रक्त के साथ प्रवाहित होने लगता है। अतः काव्य संबंधी रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना सर्वथा असफल है।

एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में — “कविता एक पूर्ण इकाई
है जिसके अवयव नहीं हो सकते। इसका केवल रस लिया जा सकता है और रस का आनन्द पाठक के रक्त, हृदय और आत्मा तक प्रवाहित होता है। उसकी काव्यात्मक अनुक्रिया का प्रभाव प्रयोगशाला की परीक्षण नलियों में डालकर लिटमस कागज से आँका नहीं जा सकता।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism ) आज व्यावहारिक न होने के कारण सर्वथा अनुपयोगी बन गई है। फिर भी पाश्चात्य आलोचकों में रिचर्ड्स का स्थान मूर्धन्य है। यहाँ तक कि आचार्य शुक्ल ने भी उनकी चर्चा की है | समीक्षाशास्त्र को वैज्ञानिक बनाने में उनका स्थान प्रमुख है।

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

जॉन ड्राइडन का काव्य सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

अलंकार सिद्धांत : अवधारणा एवं प्रमुख स्थापनाएँ

काव्यात्मा संबंधी विचार

लोंजाइनस का उदात्त सिद्धांत

3 thoughts on “व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )”

Leave a Comment