आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त
आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) अंग्रेजी आलोचना साहित्य के प्रसिद्ध आलोचकों में से एक हैं | उनका जन्म 26 जनवरी, 1893 में हुआ | उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और मनोविज्ञान का अध्ययन किया | कालांतर में उन्होंने आलोचना जगत में पदार्पण किया | आलोचना जगत में आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) का काव्य-मूल्य सिद्धान्त पाश्चात्य काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है | उनका यह सिद्धांत ‘आवेगों का संतुलन सिद्धांत’ या संप्रेषण सिद्धांत भी कहलाता है | उन्होंने मानव सभ्यता के संतुलन के लिए आवेगों का संतुलन तथा आवेगों के संतुलन के लिए कविता को अनिवार्य घोषित किया |

वे कहते हैं — “मूल्य विघटन युग में कविता अनिवार्य है | कविता के सहारे मानसिक व्यवस्था बनाई जा सकती है और काव्य से समाज में मानसिक संतुलन बनाया जा सकता है |”

(1) रिचर्ड्स की कृतियाँ

कैम्ब्रिज में अध्यापन करते हुए रिचर्ड्स ने अधिकांश रचनाएँ लिखीं। उनकी कृतियों को तीन वर्गों में बांटा जा सकता है —

(क) उनकी कुछ ऐसी कृतियाँ हैं जिसमें काव्य विषयक चिन्तन के साथ-साथ आलोचना का प्रतिपादन है।

(ख) उनकी कुछ कृतियाँ व्यावहारिक समालोचना से सम्बद्ध है।

(ग) तीसरे प्रकार की रचनाओं में उन्होंने अर्थों पर विचार किया है।

“साईस एण्ड पोएट्री”, “प्रिंसीपल आफ लिटरेरी क्रिटीसिज्म”, “प्रेक्टिकल क्रिटिसिज्म”, “कॉलरिज ओन इमेजिनेशन”, “मैन्सियस ऑफ रेटोरिक”, “बेसिक रूल्स ऑफ रिजन” तथा “हाउ टू रीड ए पेज” आदि उनकी कृतियाँ हैं।

इन सभी रचनाओं में यही प्रतीत होता है कि रिचर्ड्स ने न केवल कविता की परिभाषा और उसकी उपयोगिता पर अपने विचार प्रकट किए बल्कि मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का आश्रय लेते हुए कविता के महत्त्व का प्रतिपादन किया है। उन्होंने जहाँ एक ओर साहित्यिक आलोचना के सिद्धान्त बनाए वहाँ दूसरी ओर पाठक के मनोवेगों को वैज्ञानिक सन्दर्भ में देखने का प्रयास किया।

(2) आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) प्रथम समीक्षक है जिसने शुद्ध मनोवैज्ञानिक धरातल पर काव्य मूल्य का विवेचन प्रस्तुत किया है। उसका विश्वास है कि जिस प्रकार चिकित्सकों का कार्य शरीर के स्वास्थ्य से सम्बद्ध है, उसी प्रकार समीक्षक का सम्बन्ध मन के स्वास्थ्य से होता है। जनता के तन और मन दोनों से संबंधित स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण हैं। यदि चिकित्सक अपने कर्म की उपेक्षा करता है तो जन-शरीर के ह्रास की संभावना अधिक रहती है और यदि समीक्षक इस बात का विचार नहीं करता कि किस काव्य-कृति से जन-मन को स्वास्थ्य मिलेगा और किसके द्वारा उसे क्षति पहुंचेगी तो जन-मन के विकृत होने की अधिक आशंका बनी रहेगी। अतः रिचर्ड्स के मत से समीक्षक को काव्य-मूल्य का बोध होना चाहिए और उसके आधार पर उसे अपनी समीक्षा प्रस्तुत करनी चाहिए।

उसने अपने पूर्व प्रचलित कला के मूल्य सम्बन्धी विचारों का खंडन करते हुए काव्य-मूल्य के विषय में दो आधारभूत बातों का उल्लेख किया है।

प्रथम तो यह कि कलात्मक या काव्यात्मक अनुभव मनुष्य के पूर्ण अनुभव का एक अंशमात्र है स्वतः पूर्ण नहीं।

दूसरे यह कि सौन्दर्य से कोई रहस्यात्मक अनुभव नहीं होता, वरन यह अन्य अनुभवों से ही सम्बद्ध है। केवल यह अन्यों की अपेक्षा अधिक सघन एवं स्पष्ट होता है।

तत्पश्चात रिचर्ड्स ने अपने काव्य-मूल्य सिद्धान्त (Theory of Value) का विस्तार से विवेचन किया है। उसने काव्य का मूल्य क्या है? ; इस प्रश्न का उत्तर मनोविज्ञान के आधार पर दिया है।

उसके अनुसार काव्य-रचना एक मानवीय क्रिया है। इसलिए जो मूल्य मानव की अन्य क्रियाओं का है वही काव्य का भी है। इस बात को और स्पष्ट करने के लिए उन्होंने बताया कि मन के आवेगों के दो रूप हैं, एक रूप का प्रतिनिधित्व आकांक्षा या तृष्णा (expectancy) करती है और दूसरे का वितृष्णा या घृणा (aversion) करती है।

(3) रागात्मक अर्थ तथा संवेगों का सन्तुलन

पहले बताया जा चुका है कि रिचर्ड्स मनोविज्ञान के क्षेत्र से साहित्य जगत में आए। उन्होंने सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक विवेचना का आश्रय लेकर काव्य-मूल्य के निर्धारण का प्रयत्न किया। इस सन्दर्भ में उन्होंने मानव के मानसिक संवेगों (उद्वेगों) की चर्चा की।

इसी को रागात्मकता भी कह सकते हैं। उनका विचार था कि मनुष्य के लिए वही वस्तु मूल्यवान होती जो उसके मानसिक संवेगों को शान्त करती है। जो वस्तु मानव के संवेगों (उद्वेगों) को शान्त करने में असमर्थ होती है, वह उसकी दृष्टि में महत्त्वहीन होती है।

‘राग’ शब्द का अर्थ है – मन का झुकाव या आसक्ति । अन्य शब्दों में प्रिय या अभिप्रेत वस्तु के प्रति मन में होने वाला भाव ही राग है। ईर्ष्या, द्वेष, प्रेम, अनुराग आदि सभी इसके पर्यायवाची शब्द कहे जा सकते हैं।

मानव मन में परिस्थितियों के अनुसार अनेक प्रकार के राग या भाव उत्पन्न होते रहते हैं। इन्हीं रागों या भावों की अव्यवस्था के कारण मानव मन चिन्तित एवं व्यथित रहता है। आई. ए. रिचर्ड्स के मतानुसार इन्हीं राग-जनित संवेगों में सन्तुलन स्थापित करना ही कविता का उद्देश्य होना चाहिए।

आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) के अनुसार काव्य मूल्य मन को प्रभावित करने वाली क्षमता पर आश्रित है। जो कविता पाठक को जितना अधिक प्रभावित कर पायेगी, वह उतनी ही श्रेष्ठ कही जाएगी। काव्य का प्रयोजन यही है कि वह मानव मन के रागात्मक पक्ष को व्यवस्थित व सन्तुलित करे। यदि वह ऐसा नहीं कर पाती तो वह कविता निरर्थक है, उसका कोई महत्त्व नहीं है।

रिचर्ड्स ( Rechards ) का कहना है कि मानव मन असंख्य संवेगों (आवेगों) का तंत्र है। जब इन आवेगों (impulses) में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है तो उनका संतुलन भंग हो जाता है। संतुलन लाने के लिए यह ज़रूरी है कि मन के संवेग व्यवस्थित होकर एक स्वर (एक रूप) हो जाएँ।

एक स्थल पर वे कहते हैं — “कला का वास्तविक मूल्य इसी में है कि वह ऐसी अनुभूति का संचरण करने में सफल हो जो इन परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों (संवेगों) के बीच सामंजस्य लाने से होती है।”

(4) संवेगों की चर्चा

आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) के अनुसार संवेगों (मनोवेगों) की दो कोटियाँ हैं। ये हैं —

(क) प्रवृत्तिमूलक अनुकूल आकांक्षाएँ (एषणाएँ)

(ख) निवृत्ति मूलक प्रतिकूल आकांक्षाएँ (एषणाएँ)

प्रवृत्तिमूलक संवेगों में प्रेम, भूख, तृष्णा, वासना आदि एषणाएँ समाहित की जा सकती हैं तथा निवृत्तिमूलक संवर्गों में मन की विरक्ति, घृणा, निर्वेद आदि इच्छाएँ आ जाती हैं। इन दोनों को क्रमशः तृष्णामूलक तथा वितृष्णामूलक उद्वेगों की भी संज्ञा दी गई है। कभी एक उद्वेग शान्त हो जाता है तो उसके स्थान पर दूसरा जाग्रत हो जाता है।

प्रमुख एवं गौण आवेग

रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) का कहना है कि प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक उद्वेगों में परस्पर संघर्ष भी हो जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमारे एक उद्वेग की तो सन्तुष्टि हो जाती है। परन्तु साथ ही दूसरे प्रकार के उद्वेग को चोट पहुंचती है। उदाहरण के रूप में हम अपनी उदारता के कारण अपमान करने वाले किसी व्यक्ति को क्षमा तो कर देते हैं, लेकिन मन में यह दुःख तो बना रहेगा कि इसने हमारा अपमान किया। यह स्थिति परस्पर विरोधी उद्वेगों का संघर्ष कहलाती है। इसका एकमात्र उपाय यही है कि हम अपने उद्वेग को इस प्रकार से शान्त करें जिससे कि दूसरे प्रकार के उद्वेग को चोट न पहुँचे या हल्की चोट पँहुचे। यह तभी सम्भव होगा जब हम प्रमुख उद्वेगों को महत्त्व देंगे और गौण उद्वेगों की ओर ध्यान नहीं देंगे।

इस सम्बन्ध में रिचर्ड्स स्वयं कहते हैं — “यदि हमारी किसी मांग (उद्वेग) की सन्तुष्टि न होने पर हमारी अन्य कई मांगें विक्षुब्ध हो उठती हैं तो हमारी ये मांगें महत्त्वपूर्ण हैं।”

पुनः रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) का कथन है कि इन्हीं उद्वेगों के आधार पर हमारे सामाजिक तथा नैतिक नियमों का निर्धारण किया जाता है। सुचारु और शान्तिपूर्वक सामाजिक व्यवस्था के लिए यह नियम बनाया गया है कि समाज के लिए वही वस्तु अधिक उपयोगी है जो समाज के अधिकांश व्यक्तियों की मांगों को बिना किसी पारस्परिक संघर्ष के अधिकाधिक मात्रा में सन्तुष्ट करने में समर्थ हो । रिचर्ड्स ने मूल्य सम्बन्धी इसी सिद्धान्त को काव्य और समीक्षा पर लागू किया।

(5) कवि या कलाकार का लक्ष्य

रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) के अनुसार कवि या कलाकार सामान्य की अपेक्षा अधिक प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति होता है। वह अपनी प्रतिभा और कल्पना की सहायता से मानव के परस्पर विरोधी उद्वेगों को स्थायी सन्तुलन प्रदान करता है। साधारण व्यक्ति ऐसा नहीं कर पाता। उदाहरण के रूप में कलाकार अपनी विलक्षण प्रतिभा द्वारा करुणा और भय जैसे परस्पर विरोधी उद्वेगों का समन्वय करके त्रासदी की रचना करता है।

कलाकार का कार्य या उद्देश्य यही है कि वह अपनी कला के माध्यम से आवेगों में सन्तुलन स्थापित कर मन में समस्वर की अवस्था उत्पन्न करे और आवेगों को व्यवस्थित कर दे।

रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) के अनुसार सौन्दर्य एक प्रकार का मूल्य है। वह उसे निरपेक्ष मूल्य कहता है। सौन्दर्य इसलिए मूल्यवान है, क्योंकि उसमें विरोधी मनोवेगों में व्यवस्था और सन्तुलन उत्पन्न हो जाता है। मानव मन में जो लगातार उद्वेग उत्पन्न होते रहते हैं उनमें से कुछ अनुकूल होते हैं और कुछ प्रतिकूल होते हैं। सौन्दर्य ( ऐस्थेटिक्स ) के प्रभाव से इन सभी प्रकार के मनोवेगों में पारस्परिक सामंजस्य स्थापित होता है। सौन्दर्य से उत्पन्न यह आनन्दप्रद मनोदशा न तो निष्क्रिय अवस्था होती है जिसमें समान विरोधी प्रभावों के आकर्षण के कारण हम स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और न उत्तेजनापूर्ण दृढ़ता को प्राप्त होते हैं जो क्रोध आदि को जन्म देती है।

पुनः प्रवृत्तिमूलक और निवृत्तिमूलक उद्वेगों की चर्चा करते हुए रिचर्ड्स कहते हैं — “मन की सबसे मूल्यवान स्थिति वह है जिसमें मानवीय क्रियाओं की सर्वाधिक और सर्वोत्कृष्ट संगति स्थापित होती है जिसमें उद्वेगों में पारस्परिक स्पर्धा घट जाती है। अतः कला और साहित्य का मूल्य इसी बात में है कि वह हमारे आवेगों में संगति और सन्तुलन स्थापित करे। हमारी अनुभूतियों के क्षेत्र को व्यापक बनाए। सच्या साहित्य यही कार्य करता है।”

संक्षेप में आई ए रिचर्ड्स ( I. A. Rechards ) का काव्य-मूल्य सिद्धान्त (Theory of Value) निम्नलिखित बिंदुओं पर जोर देता है —

(क) साहित्य अथवा कला अन्य मानव व्यापारों से सम्बद्ध है। उससे पृथक अथवा भिन्न नहीं है।

(ख) मानव की कलाओं में काव्य-कला सर्वाधिक मूल्यवान है।

(ग) मानव की किसी भी क्रिया का मूल्य इस बात निर्धारित करता है कि यह कहाँ तक उसके मनोवेगों में सन्तुलन और सुव्यवस्था उत्पन्न करने में सक्षम है।

(घ) कला के द्वारा घटित आवेगों का सन्तुलन कला के आस्वाद के क्षणों तक ही सीमित नहीं रहता।

(ङ) बीसवीं शताब्दी में जब विज्ञान की प्रगति के कारण मानव का जीवन जटिल और दुरूह बनता जा रहा है, उस स्थिति में रिचर्ड्स का मूल्य सम्बन्धी सिद्धान्त काफी उपयोगी और प्रभावशाली है।

डॉ. शांतिस्वरूप गुप्त के अनुसार, “रिचर्ड्स के अनुसार अच्छा वही है जो मूल्यवान हो और मूल्यवान वह है जो मन में संगतिपूर्ण संतुलन स्थापित कर सके। उन्होंने इस प्रकार समीक्षा क्षेत्र में चले आते धार्मिक, नैतिक, सौंदर्यशास्त्रीय मतों के विरोध में शुद्ध मनोवैज्ञानिक मत प्रस्तुत किया उनका मनोवैज्ञानिक, आदर्शवादी और मानववादी दृष्टिकोण ही उनकी सबसे बड़ी देन है।”

यह भी देखें

प्लेटो की काव्य संबंधी अवधारणा

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विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

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ध्वनि सिद्धांत ( Dhvani Siddhant )

वक्रोक्ति सिद्धांत : स्वरूप व अवधारणा ( Vakrokti Siddhant : Swaroop V Avdharna )