फ्रायड का मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis )

मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis )

‘मनोविश्लेषणवाद’ ( Psychoanalysis ) शब्द दो शब्दों के मेल से बना है — ‘मनोविश्लेषण’ तथा ‘वाद’ | ‘मनोविश्लेषण’ का सामान्य अर्थ है – मानव मन का विश्लेषण करना तथा ‘वाद’ का अर्थ है – पद्धति या सिद्धांत | अतः मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) वह पद्धति है जिसके द्वारा मानव-मन का विश्लेषण किया जाता है |

ऑस्ट्रिया के मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड ( Siegmund Freud ) को मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) का प्रवर्तक माना जाता है | फ्रायड ( Freud ) का जीवनकाल 1856 ईस्वी से 1939 ईस्वी है | उन्होंने मनोविश्लेषण के आधार पर काव्य, कला, दर्शन, धर्म, समाज आदि के बारे में नई मान्यताएं प्रस्तुत की | इन्होंने मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) संबंधी अपने विचार अपनी पुस्तक ‘ An Outline Of Psycho-Analysis’ में व्यक्त किए | फ्रायड के पश्चात एडलर तथा कार्ल जुंग ने मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) का विवेचन किया |

(क ) सिग्मण्ड फ्रायड ( Sigmund Freud )

फ्रायड ( Freud ) के मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है —

(1) मानव व्यक्तित्व का निर्माण

फ्रायड ( Freud ) के अनुसार मानव-व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया के तीन तत्व हैं – इदम् ( Id ), अहम् ( Ego ), तथा अति अहम् ( Super Ego ) | इदम् व्यक्तित्व का वह पहलू है जो आंतरिक और बुनियादी ड्राइव और जरूरतों से प्रेरित है | यह आमतौर पर सहज है जैसे – भूख, प्यास और सेक्स के लिए कामेच्छा | यह तनाव मुक्ति में सहायक है | अहम् का विकास बौद्धिक विकास के साथ-साथ परिवार के संपर्क से होता है | यह इदम् को व्यवस्थित करता है तथा इदम् की परितुष्टि करता है | अति अहम् ( Super Ego ) एक ऐसी वृत्ति है जिस पर अंतःकरण का नियंत्रण रहता है | फ्रायड ने इदम् ( Id ) को ‘सुख का सिद्धांत ‘ , अहम् ( (Ego ) को ‘वास्तविक सिद्धांत’ तथा अति अहम् ( Super Ego ) ‘आदर्शवादी सिद्धांत’ कहा है |

इसी संदर्भ में फ्रायड ( Freud ) ने वृत्ति की भी चर्चा की है | फ्राइड के अनुसार वृत्ति सहज व सोद्देश्य होती है | वृत्ति के जागरण के कारण ही शारीरिक उत्तेजना होती है | वृत्ति जब जागृत होकर लक्ष्य की ओर बढ़ती है तो अहम् तथा अति अहम् बाधक बन जाते हैं |

(2) मन के तीन स्तर

फ्रॉयड ( Freud ) ने मन के तीन स्तरों की चर्चा की है। जब वृत्त्यात्मक ऊर्जा (Instinctual Energy) प्रबल होती है तथा उत्तेजित मन अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है, तब यह मन का चेतन स्तर (Conscious) कहलाता है। लेकिन जब वृत्त्यात्मक ऊर्जा अहम् या अति अहम् के कारण सफल नहीं हो पाती, तब भावनाएँ कुण्ठित होकर मन के जिस स्तर में एकत्रित हो जाती हैं, उसे अचेतन (unconscious) कहते हैं | व्यक्ति की अधिकांश भावनाएँ एवं मनोविकार अचेतन में ही दबे रहते हैं। अर्द्ध-चेतन (Pre-conscious) चेतन ( Conscious ) का ही एक रूप होता है |

(3) काम सम्बन्धी दृष्टिकोण

फ्रॉयड ( Freud ) के मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ‘काम सिद्धान्त’ है। वे ‘काम’ को जीवन की सर्वाधिक प्रबल शक्ति मानते हैं। उन्होंने इसे लिबिडो (Libido) की संज्ञा दी है। वे चार प्रकार की काम वासनाएँ मानते हैं – मुखगत (oral), गुदागत (Anal), लैंगिक (Phallic) तथा जननेन्द्रिगत (genital) |

फ्रॉयड ( Freud ) शिशु को प्रारम्भ से ही काममूलक मानता है। तेरह वर्ष की अवस्था में उसकी रति-इच्छाएँ बलवती हो जाती हैं। लेकिन ‘इदम्’ (Id ), ‘अहम्’ (Ego ) तथा ‘अति अहम्’ ( Super Ego ) तत्त्वों के कारण वह काम वासना संयमित हो जाती हैं। इसी संदर्भ में फ्रॉयड ने इडिपस काम्पलेक्स (oedepus complex) तथा कास्ट्रेशन ( काम्पलेक्स की भी चर्चा की है। पहली विषम लिंगी के प्रति कामेच्छा तथा समलिंगी के प्रति ईर्ष्या पैदा करती है। दूसरी को मनोग्रन्थि कहा जाता है। इस ग्रन्थि के विकास के साथ व्यक्ति पूर्ण यौवन को प्राप्त कर लेता है।

(4) दमित वासनाएँ और साहित्य

काम की वृत्ति मानव में जन्म काल से ही होती है। यह मानव की मूल
एवं शक्तिशाली प्रवृत्ति मानी गई है। फ्रॉयड ने इस वृत्ति को मानव के सभी क्रिया व्यापारों का मूल माना है। लेकिन सामाजिक अवरोधों और मानसिक चिंताओं के कारण काम की वृत्ति लगातार दब जाती है। इनको फ्रॉयड ने दमित वासनाएँ कहा है। अतः यह स्पष्ट हुआ कि जब वासनाओं की पूर्ति नहीं होती तब उन्हें दबाया जाता है। अहम्, अति अहम्, बाह्यभाव, सामाजिक भय, नैतिक भय कुछ ऐसे कारण हैं जिनके फलस्वरूप दमित वासनाएँ अचेतन में जाकर बैठ जाती हैं। कालांतर में ये दमित वासनाएँ या तो मानसिक रोगों का रूप धारण कर लेती हैं या मानसिक विकार बनकर मनुष्य को पाप कर्मों की ओर धकेलती हैं। परन्तु जब ये दमित वासनाएँ उदात्त रूप में प्रकट होती हैं तो वे कला, साहित्य, धर्म और संस्कृति का रूप धारण कर लेती हैं। कार्ल जुंग फ्रॉयड के मत से सहमत हैं। लेकिन एडलर ने व्यक्तित्व निर्माण के श्रेष्ठ तत्त्व और हीन भावना की चर्चा की है। एडलर को मानव विकास के संदर्भ में फ्रॉयड का काम सिद्धान्त अमान्य है। उसका कहना है कि मानव के विकास में सामाजिक शक्तियों का योगदान होता है। वे अहम् को जीवन का मूल केन्द्र मानते हैं। लेकिन एडलर का कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति नीचे से ऊपर उठने का प्रयास करता है। इसी को वह श्रेष्ठ तत्त्व की संज्ञा देता है। साथ ही एडलर मनुष्य के विकास का आधार हीन भावना को मानता है | एडलर के अनुसार मनुष्य के पास जो नहीं है वह उसे पाने का प्रयास करता है।

(5) कल्पनात्मक साहित्य सृजन

फ्रॉयड ( Freud ) के अनुसार कवि की कल्पना दिवा स्वप्न है। उनके अनुसार कवि भी बच्चों की तरह अति काल्पनिक संसार बनाता है जो यथार्थ से परे होता है । लेकिन वह उसे यथार्थता से सुशोभित करना चाहता है। इसका परिणाम यह होता है कि बहुत से भाव जो मूलतः दुःखद होते हैं कवि की कल्पना के कारण वे दर्शकों और श्रोताओं को आनन्द प्रदान करते हैं। फ्रॉयड का विचार है कि बच्चा वयस्क होने पर भले ही अपनी बाल्यावस्थाओं की क्रीड़ाओं को छोड़ दे, लेकिन एक लंबे काल के बाद उसकी स्मृति में शैशवकालीन क्रीड़ाएँ और उससे उत्पन्न होने वाला आनन्द बराबर बना रहता है। इसका कारण यह है कि मानव जिस आनन्द का उपभोग जीवन में एक बार कर लेता है उसे वह सरलता से त्याग नहीं सकता। बच्चे और वयस्क में यही अन्तर है कि बच्चे अपनी क्रीड़ाओं को गुरुजनों से छिपाते नहीं, लेकिन वयस्क अपने कल्पना चित्रों को दूसरे से छिपाने का प्रयास करते हैं।

एक अन्य स्थान पर फ्रॉयड ( Freud ) ने दिवा-स्वप्न दृष्टाओं ( कवि या लेखक ) अथवा कल्पना चित्रों का निर्माण करने वालों को सनायविक विकार वस्तुओं का समूह माना है। उसने दो प्रकार के कवि या साहित्यकार माने हैं-पहली कोटि के वे कवि हैं जो प्राचीन साहित्यकारों (महाकाव्य त्रासदी के रचयिताओं) द्वारा प्रस्तुत लोक स्वीकृत सामग्री को ग्रहण करके साहित्य निर्माण करते हैं। दूसरी कोटि के वे कवि हैं जो अपने साहित्य की स्वयं उद्भावना करते हैं। इस दूसरी कोटि के कवियों को ही फ्रॉयड ने सनायविक विकारग्रस्त समूह कहा है | इस कोटि के साहित्यकारों में उपन्यासकार-कहानीकार आदि आ जाते हैं । इनकी रचनाएँ कल्पना चित्रों का उदाहरण देती हैं। ऐसे साहित्यकारों की अतिरिक्त काम वासना ही उनकी रचनाओं के मूल में निवास करती हैं।

(6) दिवा-स्वप्न की अभिव्यक्ति ही काव्य है

फ्रॉयड ( Freud ) ने कवि-कल्पना को ‘दिवा-स्वप्न’ कहा है, ‘दिवा स्वप्न दृष्टा’ को कवि और दिवा-स्वप्न की अभिव्यक्ति को ‘काव्य’ कहा है। उनका कहना है कि व्यक्ति अपने काममूलक दिवा स्वप्नो को दूसरों से छिपाने का प्रयास करता है लेकिन वह सफल नहीं हो पाता । जैसे एक सनायविक रोगी अपने उपचार के लिए चिकित्सक को अन्तर्मन की सारी बातें बताता है, उसी प्रकार कवि या कलाकार भी अपने दिवा-स्वप्न को दूसरों को बताने के लिए मजबूर है। दिवा-स्वप्न दृष्टाओं (कवि या लेखक ) की यही बाध्यता उनको कवि बनाती है। इसी के फलस्वरूप काव्य या साहित्य का निर्माण होता है ।

(7) कलाकार या कवि की व्याख्या

फ्रॉयड ( Freud ) का विचार है कि कलाकार की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी होती है। वह अपनी सहज वृत्ति को आवश्यकताओं के अनुसार प्रेरित करता है। ये आवश्यकताएँ अनेक प्रकार की हैं। कवि या कलाकार में यश, धन, प्रभुत्व और नारी प्रेम प्राप्त करने की लालसा होती है। लेकिन उपर्युक्त अभाव के कारण ये लालसाएँ पूरी नहीं होतीं। इसलिए वह यथार्थ से दूर भागता है और अपनी समूची काम वासनाओं को कल्पना चित्रों में चित्रित कर देता है।

वह अपने कल्पना चित्रों को इस प्रकार व्यक्त करता है कि उनसे केवल वही आनन्द प्राप्त नहीं करता बल्कि साधारण जन समाज भी आनन्द प्राप्त करता है। कल्पना चित्रों की अभिव्यक्ति की सफलता के कारण कवि को यश, धन, प्रतिष्ठा और नारी प्रेम भी प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार कवि या कलाकार कल्पना चित्रों के संसार से यथार्थ समाज में प्रवेश कर लेता है।

फ्रायड ( Freud ) के अनुसार कलाकार ऐसी रचना का निर्माण करता है जिसमें उसके वैयक्तिक दिवा-स्वप्नों का प्रसार रहता है जिससे उसे आनन्द की अनुभूति होती है। रचना को पढ़ने के बाद पाठक भी तनाव मुक्त होने पर आनन्दानुभूति प्राप्त करता है।

(8) फ्रॉयड की समीक्षा दृष्टि

फ्रॉयड ( Freud ) की समीक्षा दृष्टि भी इसी मान्यता पर आधारित है। फ्रॉयड का कहना है कि कवि के कल्पना चित्र उसके अन्तर्हित इच्छा से तथा तीनों कालों से जुड़े होते हैं। इसी सूत्र को आधार बनाकर हमें लेखक की रचनाओं का परीक्षण करना चाहिए और उन घटनाओं का पारस्परिक मूल्यांकन करना चाहिए। फ्रॉयड कहता है कि एक यथार्थ अनुभव लेखक के मानस पर प्रबल प्रभाव अंकित करता है। वह बाल्यकाल की किसी पूर्व अनुभव-स्मृति को उद्वेलित करता है। इससे इच्छा उत्पन्न होती है जिसकी पूर्ति उस कलाकृति से होती हैजिसका वह निर्माण करता है | उस कृति में वर्तमान की घटना और अतीत की स्मृति के तत्त्व अलग-अलग देखे जा सकते हैं।

इस प्रकार फ्रॉयड ( Freud ) ने साहित्य रचना का सम्बन्ध दिवा-स्वप्नों से जोड़ते हुए साहित्य की मनोवैज्ञानिक क्रिया विवेचन किया है। कवि का कौशल इसी बात में है कि उसका वैयक्तिक दिवा-स्वप्न पाठक को भी आनन्दानुभूति प्रदान करे। इस आनन्द की सृष्टि करना कलाकार का अपना रहस्य है। वह अपने दिवा-स्वप्नों में से महत्त्वपूर्ण दिवा-स्वप्नों का रूपान्तरों एवं परिवर्तनों द्वारा परिहार एवं परिष्कार करता है। इस प्रकार वह अपनी अभिव्यक्ति को ऐसा आकर्षक एवं मनोहारी रूप देता है कि वह हमें आनन्द प्रदान करती है |

(ख ) कार्ल जुंग (Carl Jung) और मनोविश्लेषणवाद

कार्ल जुंग ( Carl Jung ) ने ‘काम’ शब्द को मानव जीवन की मूल प्रवृत्ति माना है और जीवन के सभी क्रिया-कलापों की प्रेरणा-शक्ति माना है। इस संबंध में वे कहते हैं कि आरम्भ में काम का वेग आरम्भगत होता है बाद में रतिगत । यौवनावस्था आते ही व्यक्ति अपने जीवन में खालीपन अनुभव करने लगता है। लेकिन काम अपने उद्देश्य की ओर निरन्तर गतिमान रहता है। जुंग ने इसकी दो दशाएँ मानी हैं —

(1) अन्तर्मुखी प्रवाह — इस वृत्ति के कारण व्यक्ति भावुक, पलायनवादी तथा लचीला बन जाता है।

(2) बहिर्मुखी प्रवाह — इस वृत्ति के कारण व्यक्ति में साहस तथा कर्म चेतना का संचरण होता है और वह कर्मरत होकर निरन्तर आगे बढ़ना चाहता है।

कार्ल जुंग ( Carl Jung ) की मान्यताओं का विवेचन

फ्रॉयड की अपेक्षा जुंग ने साहित्य और कला के बारे में काफी गंभीर
विवेचन किया है। जुंग का मानना है कि कला का मूल उत्स सामूहिक संस्कारगत मूल प्रवृत्तियाँ हैं। इस संबंध में अवचेतन मन ( Unconscious Mind ) की वैयक्तिक प्रवृत्तियाँ अहम भूमिका निभाती हैं।

कार्ल जुंग ( Carl Jung ) ने मनोवैज्ञानिक और अभ्यासगत कला सृजन के दो प्रकार माने हैं – मनोवैज्ञानिक कला मनुष्य के चेतन मन से सामग्री जुटाती है और उसके सामान्य अनुभवों के द्वारा काव्यगत अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है। जुंग का यह भी विचार है कि कला के मूल उत्स मानव के अन्तर्चेतन में युगों से विद्यमान हैं। मनुष्य की अन्तर्वृत्तियों और बहिवृत्तियों के सामंजस्य से ही ये काव्य का रूप धारण करती हैं। कवि पहले संचित संस्कारों द्वारा आदर्शों की स्थापना करता है। ये आदर्श देश तथा काल से परे होते हैं। बाद में अवचेतन में स्थित स्मृतियों और प्रतीकों को उजागर करता है। जुंग ने यह भी स्वीकार किया है कि कवि जो रसानुभूति प्राप्त करता है उस रसानुभूति में विद्यमान अनुमान, प्रतीक, कल्पनाएँ निश्चित शिल्प का रूप धारण करके काव्य के रूप में प्रस्फुटित होती हैं।

(ग ) अल्फ्रेड ऐडलर ( Alfred Adler ) और मनोविश्लेषणवाद

मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) का विवेचन करने वालों में अल्फ्रेड ऐडलर ( Alfred Adler ) का विशेष महत्त्व है। वे नौ साल तक फ्रॉयड स्कूल के चेयरमैन बने रहे। लेकिन सन 1911 में इन्होंने अलग स्कूल की स्थापना की।

इनके चरित्र में व्यक्ति निर्माण, श्रेष्ठ तत्त्व की भावना तथा हीन भावना का विशेष महत्त्व है।

(1) व्यक्तित्व निर्माण

फ्रॉयड के समान ऐडलर मानव विकास में दैवी शक्तियों को नकारते हैं। उनके स्थान पर वे सामाजिक शक्तियों को महत्त्व देते हैं। यही नहीं ऐडलर ने फ्रॉयड के काम सिद्धान्त को भी अस्वीकार कर दिया। इस संबंध में दुआने ने लिखा है — “Adler like Freud, recognised the importance of the early formative years of childhood, but Adler’s focus was social and not biological forces.”

इसका मतलब यह है कि ऐडलर ने फ्रॉयड का समर्थन करते हुए व्यक्तित्व निर्माण में बाल्यकाल के महत्त्व को स्वीकार किया। लेकिन ऐडलर का सर्वाधिक ध्यान सामाजिक शक्तियों की ओर रहा, दैविक शक्तियों की ओर नहीं । जहाँ फ्रॉयड ने काम को जीवन का मूल केन्द्र माना है वहाँ ऐडलर ने अहम को महत्त्व दिया है। फ्रॉयड का कथन था कि मानसिक रोगों का कारण काम होता है। लेकिन ऐडलर ने इसका कारण अहम की मांग को माना है। ऐडलर के कहने का मतलब है कि अहम की तुष्टि होने पर बहुत से मानसिक रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है |

(2) श्रेष्ठ तत्त्व की भावना

जैसे कि पहले बताया जा चुका है कि फ्रॉयड जीवन की सभी गतिविधियों का मूल काम को स्वीकार करता है। लेकिन ऐडलर का कहना है श्रेष्ठ तत्त्व प्राप्ति का लक्ष्य ही मानव की क्रिया का मूल है। इस संबंध में दुआने ने कहा है — “मनुष्य जिस उद्देश्य के लिए प्रयत्नशील है वह उत्कृष्टता अथवा श्रेष्तत्व ही है। इसी में पूर्व विकास, गुणसम्पन्नता और आत्मानुभूति की भावना विद्यमान है।”

ऐडलर ( Adler ) का कहना है कि शिशु पहले शारीरिक विकास प्राप्त करता है और फिर मानसिक विकास। यह श्रेष्ठ तत्त्व पाने का ही प्रयास है। मानव का सामाजिक तथा राजनैतिक विकास पाने का भी यही आधार है। ऐडलर का कथन है कि नीचे से ऊपर जाने की इच्छा कभी खत्म नहीं होती। यह हमारे जीवन का आधारभूत तथ्य है।

(3) हीन भावना कि समस्या

एडलर ( Adler ) का मानना है कि हीन भावना व्यक्ति के विकास का मूल आधार है | व्यक्ति के पास जो नहीं होता है उसे पाने के लिए प्रयत्न करता है |

हीनता ( Inferiority ) की भावना जब बढ़ जाती है तब मनुष्य अपने आपको दूसरों की अपेक्षा कमजोर समझने लगता है | फलत: उसके मन में श्रेष्ठता ( Superiority ) की स्पर्धा उत्पन्न होती है | यही स्पर्धा उसे हीन भावना से मुक्त होने की प्रेरणा प्रदान करती है |

अतः स्पष्ट है कि फ्रायड़ का मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) दर्शन के साथ-साथ साहित्य के क्षेत्र में भी अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है | प्राइड के पश्चात कार्ल जुंग तथा एलफ्रेड एडलर ने मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) का विस्तृत विवेचन किया | कालांतर में इस मनोविश्लेषणवाद ( Psychoanalysis ) से मनोविश्लेषणात्मक आलोचना पद्धति का विकास हुआ | हिंदी के क्षेत्र में डॉक्टर नगेंद्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय आदि इसी मनोविश्लेषणत्मक आलोचना से प्रभावित रहे |

यह भी देखें

अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

अरस्तू का विरेचन सिद्धांत

अरस्तू का त्रासदी सिद्धांत

मार्क्सवादी आलोचना

रूपवाद ( Formalism )

अभिव्यंजनावाद

स्वच्छन्दतावाद ( Romanticism )

अभिजात्यवाद ( Classicism )

व्यावहारिक आलोचना ( Practical Criticism )

आई ए रिचर्ड्स का काव्य-मूल्य सिद्धान्त

मैथ्यू आर्नल्ड का आलोचना सिद्धांत

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

कॉलरिज का कल्पना सिद्धांत

विलियम वर्ड्सवर्थ का काव्य भाषा सिद्धांत

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