प्राचीन भारत में विवाह प्रणाली

प्राचीन भारत में जिस प्रकार वर्ण व जाति व्यवस्था को लेकर विभिन्न नियम स्थापित किये गए थे उसी प्रकार विवाह संस्कार को भी विभिन्न नियमों में बांधा गया था | वैदिक काल में विवाह को कानूनी बंधन न मानकर धार्मिक बंधन स्वीकार किया गया था | वैदिक समाज में विवाह जीवन के विभिन्न कार्यों को पूर्ण करने व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए आवश्यक माना गया था जिसे धर्म-ग्रंथों में वर्णित कर अनिवार्यता प्रदान की गई |

(1) विवाह का अर्थ व परिभाषा ( Meaning and Definition of Marriage )

सामान्य शब्दों में विवाह का अर्थ है – किसी कन्या को उसकी सम्मति से पुरुष द्वारा जीवन भर के लिए अपने घर ले जाना तथा जीवन भर एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदार बनना | इस प्रक्रिया में पुरुष को वर तथा कन्या को वधू माना जाता है | विवाह के पश्चात वर-वधू समाज व कानून की दृष्टि में पति-पत्नी बन जाते हैं और साथ रहने, शारीरिक संबंध स्थापित कर संतान उत्पन्न करने, एक-दूसरे के जीवन से सम्बंधित कुछ बातों में सहभागी बन जाते हैं | पत्नी अपने पति के घर को अपना घर मानकर उसकी देखरेख करती है तथा पति के सुख-दुःख तथा संपत्ति में भागीदार बन जाती है |

संस्कृत साहित्य में विवाह के लिए परिणय, उपयम, पाणिग्रहण आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है | परिणय का अर्थ अग्नि के चारों ओर घूमने से है जबकि पाणिग्रहण से अभिप्राय – वर द्वारा कन्या के हाथ ग्रहण करने अर्थात सदा के लिए उसे स्वीकार करने से है | इस प्रकार विवाह स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को सामाजिक स्वीकृति प्रदान करता है तथा पति-पत्नी के अधिकार और कर्त्तव्य भी निर्धारित करता है।

(2) विवाह के उद्देश्य (Objects of Marriage)

ऋग्वेद में विवाह का उद्देश्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करके यज्ञ तथा सन्तानोत्पत्ति करना बताया गया है। ऐतरेय ब्राह्मण ने लिखा है कि पत्नी को जाया (जन्म देने वाली) इसलिए कहा जाता है कि पति ही पत्नी के द्वारा पुत्र के रूप में जन्म लेता है। शतपत ब्राह्मण में भी कहा गया है कि पत्नी के बिना पति पुत्र को जन्म नहीं दे सकता जो इस ओर संकेत करता है कि विवाह का मुख्य उद्देश्य संतान-उत्पत्ति है साथ ही पुत्र-मोह की भावना भी उजागर होती है | धर्मसूत्रों में विवाह के दो उद्देश्य बताए गए हैं। प्रथम, धर्मकृत्य व दूसरा पुत्रोत्पत्ति ।

मनु स्मृति में मनु ने विवाह के तीन उद्देश्य बताए हैं — (1) धार्मिक , (2) संतानोत्पत्ति और (3) कामेच्छा की पूर्ति।

इस व्यवस्था में मनु ने काम को तीसरे स्थान पर रखा है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पुरुषार्थ व्यवस्था में भी काम को तीसरा स्थान प्रदान किया गया है। लेकिन इससे काम का महत्त्व कम नहीं होता क्योंकि मोक्ष को चौथे स्थान पर रखा गया है जबकि मोक्ष को जीवन का मुख्य उद्देश्य बताया गया है | वस्तुतः हमारे प्राचीन धर्म-ग्रन्थ विरोधाभासों से भरे हैं |

(3) वर-वधू की आयु तथा चुनाव

वैदिक समाज में वर की आयु निश्चित नहीं थी। साधारणतः उपनयन संस्कार के बाद वह शिक्षा ग्रहण करता था तथा शिक्षा पूरी करके विवाह करता था। आश्रम व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम 25 वर्ष की आयु के बाद ही शुरू होता था। मनु ने बेमेल विवाह का समर्थन किया है | मनु के अनुसार वर की आयु 30 वर्ष हो तो वह 12 वर्ष की कन्या से विवाह कर सकता है। महाभारत में वर की आयु 30 वर्ष बताई गई है। वर और वधू के चुनाव के सम्बन्ध में भी धर्म शास्त्रों में निर्देश मिलते हैं। गृह्यसूत्रों में पिता को निर्देश है कि वह अपनी पुत्री का विवाह बुद्धिमान, अच्छे परिवार के सच्चरित्र, विद्वान्, स्वस्थ तथा गुणवान युवक के साथ करे। बोधायन ने ब्रह्मचारी युवक, मनु ने अच्छे परिवार के युवक, याज्ञवल्क्य ने प्रसिद्ध परिवार से व रोग मुक्त युवक को विवाह के लिए चुनने पर बल दिया है। वात्स्यायन के अनुसार पिता को पागल, कोढ़ी, नपुंसक, अन्धे, बहरे, मिरगी रोग से पीड़ित और सगोत्रिय युवक से अपनी पुत्री का विवाह नहीं करना चाहिए। इनमें वात्सयायन के विचार अधिक तर्क-संगत लगते हैं |

(4) विवाह-संस्कार के रिवाज

विवाह-संस्कार से हमारा अभिप्राय उन विधि-विधानों से है, जो विवाह के समय आयोजित किए जाते थे। ये आचार और रीति-रिवाज धर्मशास्त्रों के आधार पर प्रचलन में आए तथा इनमें समय के साथ विभिन्न रीति-रिवाजों को भी शामिल किया गया, परन्तु धर्मशास्त्रों में दी गई प्रक्रिया समाज के सभी वर्गों में प्रचलित विवाह सम्बन्धी रीति-रिवाजों को स्पष्ट नहीं करती। हिन्दू धर्म शास्त्रों के अनुसार वर-वधू के चुनाव की प्रक्रिया के बाद पिता वर को बारात सहित आमन्त्रित करता था तथा वर के पहुँचने पर उसका सम्मान करता था, उसे ‘मधु पर्क’ कहा जाता था। इसके बाद वर-वधू को एक-दूसरे का दर्शन कराया जाता था, जिसे ‘परस्पर समीक्षण’ कहा गया है। पिता आमन्त्रित वर को अपनी कन्या दान में देता था तथा उससे आश्वासन लेता था कि वह वधू का कभी परित्याग नहीं करेगा। यह प्रक्रिया ‘कन्यादान’ के
नाम से जानी गई।

(5) विवाह के प्रकार (Forms of Marriage)

ऋग्वेद में विवाह के प्रकारों का वर्णन नहीं है, परन्तु जिस तरह से विवाह होते थे, उनके विवाह के प्रकारों का अनुमान लगाया जाता था। गृह्यसूत्रों में आश्वलायन गृह्यसूत्र में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है। इनमें से प्रारम्भिक चार प्रकार के विवाह समाज में सम्मान तथा आदर योग्य माने जाते थे तथा अन्तिम चार निन्दनीय माने जाते थे।

आश्वलायन गृह्यसूत्र में निम्नलिखित आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है —

(i) ब्रह्म विवाह में वेदों को जानने वाले शीलवान वर को घर बुलाकर वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कन्या के पिता द्वारा दान किया जाता था।

(ii) देव विवाह में यज्ञ करने वाले पुरोहित को यजमान अपनी कन्या का दान करता था |

(iii) आर्षविवाह में पिता गाय और बैल का एक जोड़ा लेकर ऋषि को अपनी कन्या का दान करता था।

(iv) प्रजापत्य विवाह में लड़की का पिता यह आदेश देता था कि तुम दोनों अर्थात वर-वधू एक-सांथ रहकर आजीवन धर्म का आचरण करो। इसके बाद कन्यादान करता था।

(v) असुर विवाह में वर कन्या के पिता को धन देकर विवाह करता था।

(vi) गांधर्व विवाह एक प्रकार से युवक-युवती में पारस्परिक प्रेम के आधार पर हुआ विवाह था।

(vii) राक्षस विवाह में कन्या को जबरन उठाकर विवाह किया जाता था।

(viii) पैशाच विवाह में सोई हुई, उन्मत, घबराई हुई कन्या के साथ बलात्कार करके या धोखा देकर विवाह किया जाता था।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि प्रथम चार प्रकार के विवाह धर्म सम्मत तथा अन्तिम चार विवाह धर्म के आधार पर निंदनीय बताए गए। सामान्यतः असुर, राक्षस, गांधर्व और पैशाच विवाह निम्न वर्णों तथा जनजातीय समाजों में प्रचलन में होते थे, परन्तु उच्च वर्ग में इस प्रकार के विवाहों की संख्या बढ़ने पर बौधायन तथा मनु ने असुर, राक्षस और गांधर्व विवाहों की विशेष परिस्थितियों में क्षत्रिय और वैश्यों के लिए भी अनुमति दी है।

इन आठ प्रकार के विवाहों के अतिरिक्त जनजातीय समूहों में अन्य प्रकार के विवाह भी प्रचलन में थे। जनजातीय विवाह या विवाह साथी चुनने की प्रणालियों में ‘परीक्षा विवाह’ (पुरुष के साहस व वीरता की परीक्षा) गुजरात में भीलों , गोंड व बैगा जनजातियों में ‘सेवा विवाह’ (सास और ससुर की सेवा करना), विनिमय विवाह (दो परिवारों द्वारा कन्याओं का लेन व देन), हर विवाह (लड़की द्वारा लड़के के घर जाकर रहने लगना) आदि मुख्य विवाह प्रणालियाँ बताई गई हैं।

(6) विवाह सम्बन्धी नियम (Rules Related to Marriage)

वर्ण-व्यवस्था की उत्पत्ति के साथ ही धर्मशास्त्र रचयिताओं ने विवाह सम्बन्धी नियमों के बारे में भी लिखना शुरू कर दिया था। विवाह सम्बन्धी नियमों से अभिप्राय यह है कि किससे विवाह किया जा सकता है और किससे नहीं। इस सम्बन्ध में मुख्य तौर पर दो तरह के नियम उभरकर सामने आए, अन्तर्विवाह (Endogamy) तथा बहिर्विवाह (Exogamy) के नाम से जाने गए।

(i) अन्तर्विवाह — अपने ही वर्ण, जाति, जनजाति, प्रजाति में विवाह करना अन्तर्विवाह कहलाता था। धर्मशास्त्रों में लिखा था कि अपने ही वर्ण अथवा जाति में विवाह करना चाहिए। इसको वर्ण तथा जाति की रक्त शद्धता से जोड़ा गया।

(ii) बहिर्विवाह — इसके अन्तर्गत यदि किसी समूह से बाहर विवाह करना है। इसके बारे में नियम या परम्पराएँ उभरकर आई। गोत्र बहिर्विवाह में एक गोत्र के सदस्यों के मध्य विवाह निषेध था। सप्रवर बहिर्विवाह में यज्ञ, हवन आदि के समय समान पूर्वज और समान ऋषियों के नामों का उच्चारण करने वाले एक ही प्रवर के माने जाने के कारण में विवाह नहीं करते थे। इस प्रकार अन्तर्विवाही और बहिर्विवाही नियम स्वीकार किए गए जिसके पीछे रक्त ‘की पवित्रता, धार्मिक मान्यता, सामाजिक प्रतिष्ठा, आर्थिक कारण आदि प्रमुख रूप से जिम्मेदार थे।

(7) अन्तर्जातीय विवाह (Intercaste Marriage)

प्राचीनकाल में दो प्रकार के अन्तर्जातीय विवाह प्रचलन में थे। एक अनुलोम और दूसरा प्रतिलोम विवाह। अनुलोम विवाह में उच्च वर्ण या जाति का पुरुष होता था और निम्न वर्ण या जाति की स्त्री होती थी। सामान्यतः अनुलोम विवाह वैदिक काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों के मध्य ही थे। इससे नीचे के वर्णों; जैसे ब्राह्मण और वैश्य जाति या वर्ण में या ब्राह्मण, क्षत्रिय वर्ण और शूद्र वर्ण में अनुलोम विवाह के उदाहरण भी कम मिलते हैं। उच्च जाति तथा निम्न जाति में अनुलोम विवाह भी अवांछनीय तथा अपमानजनक माना जाता था। अनुलोम विवाह में स्त्रियों को समान प्रतिष्ठा तथा उनसे उत्पन्न सन्तानों को समान सम्पत्ति के अधिकार नहीं थे।

(8) विवाह विच्छेद, नियोग एवं विधवा विवाह

धर्मशास्त्रों ने विवाह को एक समझौता न मानकर धार्मिक बन्धन स्वीकारा है। अतः विवाह विच्छेद का प्रश्न ही नहीं उठता था। इसका वैदिक साहित्य में कोई उल्लेख नहीं है। मनु ने आमरण पति-पत्नी के सम्बन्ध को प्रत्येक गृहस्थ का धर्म बताया है, परन्तु वह कुछ दशाओं में स्त्रियों को दूसरा विवाह करने की अनुमति भी देता है। विशेषतः यदि पति ही पत्नी का परित्याग कर दे तो उस स्थिति में वह दूसरा विवाह कर सकती थी। इसी प्रकार पति को भी यदि पत्नी घृणा करती हो, बांझ हो या उसकी सन्तान जीवित न रहती हो, मात्र पुत्रियों को ही जन्म देती हो तो ग्यारह वर्ष बाद पति ऐसी पत्नी का परित्याग कर सकता था लेकिन विवाह विच्छेद की परम्परा नहीं थी। हाँ, निम्न वर्णों तथा अन्य समुदायों में विवाह विच्छेद की परम्परा रही होगी। इसके अलावा समाज के सभी वर्गों में एक से अधिक पलियाँ भी रखने के उदाहरण मिलते हैं। बहुपत्नी प्रथा के उदाहरण भी प्राचीनकाल में मिलते थे।

निष्कर्ष

विवाह पर उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विवाह भारतीय समाज में एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया तथा उच्च वर्णों में इसे धर्म के पालन के लिए अनिवार्य बताया गया। प्रारम्भ से ही विवाह की उम्र के बारे में शास्त्रकारों में मतभेद था। पिता या परिवार के द्वारा वर-वधू का चुनाव होता था। उसे स्वयं भी वर चुनने का अधिकार समाज के कुछ वर्णों में प्राप्त था। विवाह के सम्बन्ध में अन्तर्विवाह तथा बहिर्विवाह नियमों की संरचना हुई। अनेक प्रकार के विवाहों की प्रणालियाँ समाज में प्रचलन में थीं। अन्तर्जातीय विवाहों को उचित नहीं माना जाता था, तथापि अनुलोम और प्रतिलोम विवाह के उल्लेख प्राचीनकाल में मिलते हैं। विवाह संस्था का स्वरूप तथा स्त्री की स्थिति समाज के सभी हिस्सों में एक-समान नहीं थी।

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