मौर्यकालीन कला और स्थापत्य कला

मौर्यकाल भारतीय इतिहास में राजनीतिक दृष्टि से स्थिर व परिपक्व आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ एवं कला की दृष्टि से सम्पन्न था। इस बात की पुष्टि तत्कालीन साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों ही प्रकार के स्रोतों से होती है। इन स्रोतों में सम्राट अशोक के बनवाए हुए बौद्ध स्तूप, विहार, गुफाएँ तथा स्तम्भ विशेष उल्लेखनीय हैं। कला के पारखी विद्वानों ने सम्राट अशोक के स्तम्भों के शीर्षों पर खुदी हुई पशु-पक्षियों की कृतियों की भूरी-भूरी प्रशंसा की है।

संक्षेप में मौर्यकालीन कला एवं स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं —

(1) पाषाण कला (Rock-cut-Art)

भारत में पत्थरों को तराशने की कला की शुरुआत सर्वप्रथम मौर्य सम्राट अशोक के काल में हुई। इससे पूर्व की कला कृतियाँ ईंट, लकड़ी, हाथी दाँत इत्यादि से बनाई जाती थीं। सम्राट अशोक ने बड़ी-बड़ी पहाड़ी शिलाओं से स्मारकीय स्तम्भ, पहाड़ी गुफाएँ, स्तूप व विहार इत्यादि बनवाए।

(2) मौर्य कला के रूप (Types of Mauryan Art)

मौर्यकालीन कला के हमें दो रूप देखने को मिलते हैं, जिनमें पहली है – दरबारी कला तथा दूसरी है – लोक कला । दरबारी कला (Cour Art) का सम्बन्ध उन कलकृतियों से है जिनका निर्माण राज्य की कार्यशालाओं में कुशल कलाकारों से करवाया गया था। इस कला का विकास तथा लोप सम्राट् अशोक के काल में हुआ। लोककला (Folk Art) दरबारी प्रभाव से स्वतन्त्र थी। इसमें काली पॉलिश के चमकदार मिट्टी के बर्तन तथा पाषाण और मिट्टी की बनी हुई सुन्दर मूर्तियाँ हैं।

(3) विशेष काली पॉलिश (Specific Black Polish)

सम्राट अशोक के स्मारकीय स्तम्भों तथा गुफाओं में एक विशेष काली पॉलिश की गई है। जिससे कई बार तो दर्शकों को भ्रम होने लगता है कि कहीं यह चमकते हुए स्तम्भ धातु के तो नहीं हैं। यह पॉलिश किसी तरह वज्रलेप द्वारा की गई है या फिर पत्थर की घुटाई करके, यह निश्चित तौर पर बता पाना कठिन है।

उपर्युक्त बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए मौर्यकालीन कला, स्थापत्य कला व अन्य कलाओं की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है —

(1) मौर्यकालीन स्थापत्य कला (Mauryan Architecture)

मौर्यकालीन स्थापत्य कला को निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है —

(i) नगर स्थापत्य (Town Architecture) — चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र थी। मैगस्थनीज़ लिखा है कि यह नगर गंगा और सोन नदियों के संगम पर बसा हुआ था और बड़ा ही शोभनीय था। वह लिखता है कि इस नगर के चारों ओर एक लकड़ी की दीवार थी जो एक 60 फुट गहरी तथा 600 फुट चौड़ी खाई से घिरी हुई थी। इस खाई में सदा पानी भरा रहता था। इस नगर की लम्बाई लगभग 80 स्टैडिया (15.2 कि०मी०) तथा चौड़ाई 15 स्टैडिया (2.8 कि०मी०) थी। इस नगर के चारों ओर बनी लकड़ी की दीवार में 64 दरवाज़े तथा 570 सुरक्षा बुर्ज थे। मौर्यकाल की अधिकांश इमारतें लकड़ी की बनी हुई थी। इनके अवशेष पटना के पास कुम्हरार, बुलन्दीबाग तथा कुछ अन्य समीपवर्ती स्थानों से प्राप्त हुए हैं। बुलन्दीबाग में लकड़ी के खम्बों की दो कतारों से बनी एक लकड़ी की दीवार भी मिली है जो 150 फुट लम्बी है। इन दोनों कतारों के बीच 14.5 फुट का अन्तर है, जो लकड़ी के स्लीपरों से ढका गया है। लकड़ी के इन खम्बों की लम्बाई 17.5 फुट है। ये खम्भे 5 फुट जमीन में गाड़े गए हैं।

सम्राट अशोक भी वास्तुकला का शौकीन था। उसने श्रीनगर तथा ललितापाटन नामक दो नए नगर बसाए। कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में बताया है कि श्रीनगर में 96 लाख घर थे तथा अशोक ने यहाँ 500 विहार और अनेक स्तूप बनाए। ललितापाटन का निर्माण नेपाल में किया गया तथा यहाँ अशोक ने 5 स्तूपों का निर्माण करवाया। इसके अतिरिक्त इन नगरों में उद्यानों, फव्वारों तथा झीलों आदि का निर्माण करके इनकी सुन्दरता में पर्याप्त वृद्धि कर दी गई।

(ii) राजमहल (Royal Palace) — भवन निर्माण के क्षेत्र में मौर्यकाल में विशेष उन्नति हुई। चन्द्रगुप्त और अशोक ने अपनी राजधानी पाटलिपुत्र में बहुत सुन्दर महलों का निर्माण करवाया। चन्द्रगुप्त मौर्य के राजमहल के अवशेष पटना के निकट बुलन्दीबाग से प्राप्त हुए हैं। यह महल लकड़ी का बना हुआ था। इसमें एक सभा मण्डल था जिसकी छत स्तम्भों पर टिकी रहती थी। इन स्तम्भों पर सोने चाँदी का काम किया हुआ था तथा इन्हें लताओं, पत्तियों, फूलों तथा पक्षियों को आकृतियों से सजाया गया था। इतिहासकार स्पूनर (Spooner) के अनुसार — “जिन काष्टशिल्पियों ने इस राजप्रासाद की रचना की थी उन्हें वर्तमान काष्ठ शिल्पकार भी शायद ही कुछ अधिक सिखा सकें।”

Those who executed them would find little indeed to learn in the field of their own art could they return to earth today. — Spooner.

इसी प्रकार अशोक का राजमहल भी अत्यन्त भव्य तथा कलात्मक था। इसके अवशेष पटना के पास कुम्हरार से प्राप्त हुए हैं। इसमें भी एक कक्ष था जिसकी छत पत्थर के 80 स्तम्भों पर टिकी हुई थी। इन स्तम्भों पर चमकदार पॉलिश की गई थी। कक्ष 140 फुट लम्बा तथा 130 फुट चौड़ा था। इन महलों की सुन्दरता से प्रभावित यूनानी लेखक लिखते हैं —“(ये) शानदार राजप्रासाद सारे संसार में सर्वाधिक भव्य और सुन्दर हैं।” ये भवन इतने सुन्दर थे कि उनके निर्माण के 700 वर्ष पश्चात आने वाला चीनी यात्री फ़ाह्यान भी उन भवनों की सुन्दरता को देखकर चकित रह गया। उसने भाव-विभोर होकर लिखा कि इन्हें देवताओं द्वारा बनवाया गया है।

डॉ० त्रिपाठी (Dr. Tripathi) ने लिखा है — “अशोक का नाम केवल उसके विश्व-व्याप्त धर्म के कारण ही सदा के लिए प्रसिद्ध नहीं वरन् कला और भवन निर्माण के क्षेत्र में विशेष उन्नति के कारण भी प्रसिद्ध है।”

(iii) स्तूप और विहार (Stupas and Vihar) — अशोक के स्तूप अब भी देश भर में पाए जाते हैं। वृहद् वृत्ताकार आधार पर ईंट या पत्थर के बने हुए गुम्बद आकार के भवनों को स्तूप कहते हैं। बुद्ध की अस्थियों को क्षत्रिय राजाओं ने आपस में विभाजित कर लिया तथा अपने-अपने हिस्से को किसी पिटारी में रखकर एवं पृथ्वी में गाड़कर उनके ऊपरे स्तूप बनवाए। बौद्ध साहित्य के अनुसार अशोक ने 84,000 स्तूप और 84,000 विहार बनवाए। ये स्तूप श्रीनगर, थानेश्वर, मथुरा, तक्षशिला, कन्नौज, कौशाम्बी, अयोध्या, कपिलवस्तु, कुशीनगर, बनारस तथा गया आदि स्थानों पर बनवाए गए थे। सम्भवतः अशोक ने पुराने स्तूपों के खण्डहरों पर ही नए स्तूपों का निर्माण करवाया हो। भरहुत तथा मध्य प्रदेश राज्य में भोपाल के पास साँची का स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध है। सामान्यतः स्तूप का व्यास 70 फुट तथा ऊँचाई 35 फुट तक होती थी। स्तूप की परिक्रमा करने के लिए उसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ बना होता है। स्तूप की चोटी पर लकड़ी अथवा पत्थर की छतरी बनी होती थी। यह अण्ड कहलाती थी। इस स्तूप पर पहुँचने के लिए एक या अधिक भव्य द्वार थे जिन्हें तोरण कहा जाता था। इन पर अति सुन्दर मूर्तियों का निर्माण किया जाता था |

मध्य प्रदेश राज्य में भोपाल के पास साँची का स्तूप सबसे अधिक प्रसिद्ध है। साँची के स्तूप का व्यास लगभग 110 फुट और ऊँचाई लगभग 77.5 फुट है। इसकी चोटी पर एक छोटी पत्थर की छतरी बनी हुई है। इसके आस-पास कई छोटे स्तूप, स्तम्भ और मन्दिर भी हैं। साँची के स्तूप के दरवाज़ों और कई स्थानों पर कई तरह के चित्र खुदे हुए हैं जिनसे तत्कालीन रहन-सहन और रीति-रिवाज़ों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। इस स्तूप के चारों ओर दो प्रदक्षिणा पथ हैं। इस स्तूप में प्रवेश के लिए चारों ओर एक-एक तोरण है। प्रत्येक तोरण की ऊँचाई 34 फुट है।

साँची के स्तूप की कला से प्रभावित होकर ई०बी० हैवल (E.B. Havell) ने लिखा है — “The Art of Sanchi on the whole is wonderfully strong, fresh and original.)

अशोक के समय का दूसरा प्रसिद्ध स्तूप भरहुत का है। यह इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम की ओर लगभग 153 किलोमीटर दूर है। इसका व्यास लगभग 21 मीटर है। इसकी खोज 1873 ई० में सर अलैकजेन्डर कानिंघम (Sir Alexander Cunninghum) ने की थी।

(iv) गुफा स्थापत्य (Rock-Cut-Architecture) — मौर्य सम्राट् अशोक ने वास्तुकला के इतिहास में गुफा निर्माण की एक नई शैली की शुरुआत की। इस शैली के अन्तर्गत ठोस पहाड़ की चट्टानों को काटकर गुफा बनाई जाती है। बिहार में गया से 31 किलोमीटर उत्तर में बाराबरा की पहाड़ियों में ऐसी तीन गुफाएँ अशोक ने बनवाई थीं। इनमें अशोक के अभिलेख भी मिले हैं। पहली सुदामा गुफा जो अशोक ने अपने राज्याभिषेक के 12वें वर्ष में आजीविक भिक्षुओं को दान में दी थी। गुफा की अन्दर दीवारों और छत पर शानदार शीशे जैसी चमकती काली पॉलिश की गई है जो मौर्य स्थापत्य की विशेषता है। 12वें वर्ष एक दूसरी विश्व झोंपड़ी-गुफा (लोमस ऋषि गुफा) तथा 19वें वर्ष में कर्ण चौपड़ गुफा का दान संन्यासियों को किया गया। इन गुफाओं को अन्दर से इस कारीगरी तथा सफाई के साथ पॉलिश किया गया है कि वे आज भी शीशे की भाँति चमकती हैं।

(v) पाषाण स्तम्भ (Rock Pillars) — अपने राज्यादेशों को अपनी प्रजा तक पहुँचाने के उद्देश्य से अशोक ने अनेक पत्थर के स्तम्भ बनवाए। इनमें से साँची, सारनाथ तथा लौरिया नन्दगढ़ के स्तम्भ काफ़ी प्रसिद्ध हैं। ये स्तम्भ 50 से 60 फीट तक ऊँचे तथा पचास टन के लगभग भार वाले हैं। इन्हें एक ही पत्थर से काटकर बनाया गया है। इन्हें बड़ी सफाई तथा कुशलता के साथ बनाया गया है। प्रत्येक स्तम्भ के ऊपर एक अलग मस्तक है जो एक अलग पत्थर का बना हुआ है। मस्तक के तीन भाग हैं। सबसे नीचे कमल अथवा उलटी घंटी जैसा भाग है। इसके ऊपर एक चौरस चौकोर पत्थर है, जिसके ऊपर किसी पशु; जैसे शेर, बैल या हाथी आदि की मूर्ति है।

अशोक के स्तम्भों में सबसे अधिक सुन्दर स्तम्भ सारनाथ का है। उल्लेखनीय है कि भारत का राष्ट्रीय प्रतीक इसी स्तम्भ से लिया गया है | इसका शिखर सुन्दर, आकर्षक और कला का श्रेष्ठ नमूना है। इस पर चार सिंह बने हुए हैं जो शांत, सौम्य और अहिंसक लगते हैं | ( सारनाथ का प्रतीक हाल ही में ( 11 जुलाई, 2022 को ) प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा अनावृत्त किये गए उस राष्ट्रीय प्रतीक से सर्वथा पृथक है जिसमें सिंहों को हिंसक मुद्रा में दिखाया गया है | ) सिंहों के ऊपर एक चक्र था जो बाद में कभी टूटकर गिर गया। सर जॉन मार्शल ने इस स्तम्भ के शिखर भाग को शैली और कला की दृष्टि से तथा डॉ० स्मिथ ने इसमें बनी हुई पशु की मूर्तियों की बड़ी प्रशंसा की है। उसमें अंकित समस्त प्रतीक-चिह्नों से एक गम्भीर जीवन-दर्शन की झाँकी दिखाई देती है।

डॉ० विन्सेन्ट स्मिथ (Dr. Vinscent Smith) के अनुसार, “संसार के किसी भी देश में इससे अच्छी या इसकी टक्कर की वास्तुकला की ऐसी सुन्दर कलाकृति पाना कठिन होगा जिसमें यथार्थवादी निर्माण का आदर्श भव्यता के साथ मेल बिठाया गया हो और हर पहलू को सम्पूर्णता और बारीकी के साथ लिया गया हो।”

स्तम्भ शिखरों पर सजावट का काम देखकर यूरोपियन विद्वानों ने मौर्य कला पर ईरानी कला का गहरा प्रभाव बताया है, परन्तु हैवल ने स्तम्भों को शुद्ध भारतीय कला का ही नमूना बताया है। यदि यह मान भी लिया जाए कि भारतीय कला पर कुछ विदेशी प्रभाव पड़ा है तो भारतीय कलाकारों ने अपनी कला को भारतीय रंग-रूप में पूर्ण रूप से रंग दिया है। उस पर विदेशी प्रभाव का पता लगाना कठिन है।

(2) पॉलिश करने की कला (Art of Polish)

अशोक के काल में पॉलिश करने की कला बहुत उन्नत थी। गया के पास की गुफ़ाओं की दीवारों और स्तम्भों के मस्तकों पर की गई पॉलिश बहुत ही श्रेष्ठ किस्म की है। आज के विकसित युग में भी हम उस पॉलिश के विषय में जानकारी प्राप्त नहीं कर सके हैं। दिल्ली के फ़िरोजशाह कोटला में अम्बाला के टोपरा नामक स्थान से लाई गई अशोक की लाट इतनी चमकदार है कि उसके विषय में पादरी हैबर (Priest Habbur) ने 19वीं शताब्दी के आरम्भ में लिखा था, “यह धातु का ऊँचा काला स्तम्भ है।”

सर जॉन मार्शल इस सन्दर्भ में लिखते हैं, “अद्वितीय सुघड़ता और बारीकी में, जो मौर्य कला-कृतियों की एक विशेषता है, ऐथेन्स (यूनान) के भवनों की सुन्दरतम कारीगरी भी आगे नहीं बढ़ सकती।”

(3) इंजीनियरिंग कला (Engineering Skill)

ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक के शासनकाल में इंजीनियरिंग की कला भी काफ़ी उन्नत थी। पचास-पचास टनों के स्तम्भों के टुकड़ों को पहाड़ों से काटना और फिर उन्हें दूर-दूर के स्थानों पर ले जाना कोई आसान कार्य नहीं था। हमें पता चलता है कि फ़िरोज़ तुगलक ने 14वीं शताब्दी में अशोक ने एक स्तम्भ को टोपरा से दिल्ली ले जाने के लिए 42 पहियों वाला एक विशेष छकड़ा बनवाया था जिसे खींचने के लिए 8,400 मनुष्य लगे थे। अशोक के काल में इंजीनियरिंग की कला काफ़ी उन्नत होगी; तभी तो इन स्तम्भों को पहाड़ों से सफलतापूर्वक काटा जा सका और एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाया जा सका। डॉ० आर०के० मुखर्जी (Dr. R.K. Mukherjee) के अनुसार, “मौर्यकाल के इंजीनियर नगर-योजनाएँ बनाने में निपुण थे। इसलिए पाटलिपुत्र तथा अन्य नगरों को एक निश्चित योजना के अनुसार बनाया गया था।”

(4) आभूषण कला (Ornament Art)

आभूषण बनाने की कला ने भी अशोक के काल में बड़ी उन्नति की। तक्षशिला की खुदाई में 250 ई० पू० के, अर्थात अशोक के समय के कुछ आभूषण मिले हैं जिनसे ज्ञात होता है कि मौर्यकाल के आभूषण भी उच्च-कोटि की कला, शिल्प निपुणता और कुशलता के प्रतीक हैं |

(5) मौर्यकालीन मूर्तिकला (Mauryan Sculpture)

मौर्यकाल में मूर्ति कला के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व उन्नति हुई | यह मुख्यतः लोककला (Folk Art) थी। अनेक स्थानों पर खुदाई के दौरान भारी मात्रा में मौर्यकालीन मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इनमें कुछ पत्थर की तथा कुछ मिट्टी की बनी हुई हैं। पत्थर की मूर्तियाँ बलुआ पत्थर से बनी हैं। इन मूर्तियों पर चमकदार पॉलिश की गई है | इन मूर्तियों में सबसे प्रमुख दीदारगंज (पटना) से मिली चमरग्रहिणी यक्षी की मूर्ति है जो 6 फुट 9 इंच लम्बी है। बेसनगर से मिली यक्षी-प्रतिमा तथा परखम (मथुरा) से प्राप्त यक्ष की मूर्ति भी महत्वपूर्ण हैं।

मिट्टी की मूर्तियाँ मथुरा, कौशाम्बी तथा पटना आदि स्थानों से मिली हैं। यद्यपि ये खण्डित अवस्था में हैं किन्तु देखने में सुन्दर लगती है। ये मूर्तियाँ तत्कालीन वेषभूषा, लोककला तथा संस्कृति की जानकारी के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। इनमें बुलन्दीबाग (पटना) से प्राप्त नृत्यमुद्रा में खड़ी एक नर्तकी की मूर्ति अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है।

(6) लेखन कला (Script Art)

मौर्य शासकों का युग साँस्कृतिक विकास का युग कहा जा सकता है। इस काल में लेखन कला का भी काफी व्यापक विस्तार हो चुका था। निःसन्देह इस विकास में सदियाँ लगी होंगी। पहले अधिकाँश लेख ताड़पत्रों पर या फिर सूती कपड़ों पर लिखा करते थे। यह लेख लम्बे समय तक सुरक्षित रहने वाले नहीं थे। इसलिए उस काल की लेखन कला के एकमात्र प्रमाण स्तम्भों, शिलाओं और गुफाओं की दीवारों पर उत्कीर्ण सम्राट अशोक के राज आदेश के रूप में उपलब्ध है। यह अधिकाँश ब्राह्मी लिपि में हैं, जो अभी तक पढ़ी गई भारत की प्राचीनतम लिपि है। इसके अतिरिक्त अरमाइक, यूनानी तथा खरोष्ठी लिपियों का भी उत्तर पश्चिमी शिलालेखों में ज्ञान होता है।

मौर्यकाल की कला के विषय में कुछ यूरोपियन इतिहासकारों की यह धारणा है कि यह भारतीय न होकर ईरानी और यूनानी कला से अधिक प्रभावित थी। सिकन्दर के साथ भारत में अनेक यूनानी तथा ईरानी कलाकार आए थे और जिन्होंने यहाँ नवीन कला को जन्म दिया, वे भारत में मौर्य कला के निर्माता भी थे। परन्तु डॉ० भण्डारकर (Dr. Bhandarkar) जैसे भारतीय इतिहासकारों ने इस विचार का खण्डन किया है। उनके विचार में, यह हो सकता है कि भारतीय कला ने यूनानी तथा ईरानी कलाओं से कुछ सीखा हो, परन्तु यह कहना सर्वथा गलत है कि मौर्य कला पूर्णतः विदेशी थी। अशोक की अनेक कला-कृतियों का निर्माण भारतीयों ने ही किया है। यदि फिर भी कोई विदेशी अंश रहा तो उसका पूर्ण रूप से भारतीयकरण करके भारतीय कला का एक अभिन्न अंग बना लिया गया। इसी प्रकार ईरानी कला को भी पूर्ण भारतीय रंग में रंग दिया गया। मौर्य कला इस प्रकार पूर्ण रूप से भारतीय कला थी।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मौर्यकाल में कला का अद्भुत विकास हुआ और उस समय की कुछ कला-कृतियाँ संसार के इतिहास में अद्वितीय मानी जाती हैं | परन्तु जैसा कि डॉ०निहार रंजन राय (Dr. Nihar Ranjan Ray) ने लिखा है, “मौर्य राजप्रसाद-कला भारतीय कला के विकास में स्थायी रूप से कोई विशेष योगदान देने में असफल रही।” इसका कारण यह था कि मौर्य कला अवश्य ही राजकीय कला थी जो सम्राट के व्यक्तिगत प्रयत्नों के फलस्वरूप ही विकसित हुई थी। इसने कदापि लोक कला का रूप ग्रहण नहीं किया था। अतः मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही इसका पतन भी हो गया और यह भारतीय कला के इतिहास में केवल एक संक्षिप्त एवं पृथक् अध्याय बनकर रह गई।

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