स्वामी महावीर का जीवन और उनकी शिक्षाएँ ( Life and Teachings of Lord Mahavira )

स्वामी महावीर प्राचीन भारत के महान दार्शनिक कहे जा सकते हैं | उन्होंने धर्म के विषय में नई दृष्टि का प्रतिपादन किया जो वैदिक धर्म से कहीं अधिक तार्किक एवं व्यावहारिक है | उन्होंने धर्म को सभी मनुष्यों के लिए सुलभ एवं ग्राह्य बनाया |

यद्यपि स्वामी महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थकर थे परन्तु उन्हें ही जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है | प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव तथा 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ थे | इनको छोड़कर अन्य तीर्थकरों की प्रमाणिकता संदिग्ध है | पार्श्वनाथ का समय स्वामी महावीर से 250 वर्ष पहले का माना जाता है | उन्होंने भी वेद-शास्त्रों व वैदिक धर्म में प्रचलित अनेक मान्यताओं का विरोध किया | स्वामी महावीर के माता-पिता भी पार्श्वनाथ के अनुयायी थे |

स्वामी महावीर का जीवन (Life of Lord Mahavira)

स्वामी महावीर का वास्तविक नाम वर्धमान था | महावीर की जन्म-तिथि के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं। अधिकांश विद्वान उनका जन्म 599 ई०पू० मानते हैं । स्वामी महावीर का जन्म उत्तरी बिहार में स्थित ‘वज्जि-संघ’ के ‘कुण्डग्राम’ नामक राज्य में हुआ। उनके पिता का नाम सिद्धार्थ था जो इस राज्य के शासक थे | सिद्धार्थ का विवाह वैशाली की लिच्छिवी राजकुमारी त्रिशला से हुआ। त्रिशला लिच्छवी गणराज्य के शासक चेटक की बहन थी।

जैन परम्परा के अनुसार, वर्धमान पहले ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा के गर्भ में आए। परन्तु अभी तक सारे जैन तीर्थंकर क्षत्रीय वंश में उत्पन्न हुए थे, इसलिए इन्द्र ने वर्धमान को देवानन्दा के गर्भ से हटाकर, त्रिशला के गर्भ में स्थापित कर दिया। यह कहानी सम्भवतः क्षत्रियों की प्रतिष्ठा पर बल देने के लिए निर्मित की गई है। इस कथा में इंद्र का उल्लेख करने से भी लगता है कि सम्भवतः हिन्दू धर्म के अनुयायियों ने इस कथा को प्रचारित किया हो क्योंकि जैन धर्म की अधिकांश मान्यतायें हिन्दू धर्म से अलग हैं |

यह कथा भी प्रचलित है कि वर्धमान के जन्म पर देवताओं की भविष्यवाणी हुई थी कि वे चक्रवर्ती राजा बनेंगे या परमज्ञानी भिक्षु बनेंगे। कुछ ऐसी ही कथा भगवान बुद्ध से भी जुड़ी है |

वर्धमान का प्रारम्भिक जीवन सुख-सुविधा में गुजरा। राजकुमार होने के कारण उन्हें अनेक विद्याओं और कलाओं की शिक्षा दी गई। उनका विवाह यशोधा नामक राजकुमारी से हो गया। उनसे एक पुत्री का जन्म हुआ | वर्धमान की आयु 30 वर्ष की थी तो उनके पिता सिद्धार्थ की मृत्यु हो गई। वर्धमान का बड़ा भाई नन्दिवर्धन वैशाली का राजा बन गया। वर्धमान में त्याग की भावना जागृत हुई। वर्धमान ने अपने बड़े भाई से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। उन्होंने एक भिक्षु का जीवन व्यतीत करना आरम्भ कर दिया। ‘कल्पसूत्र’ नामक ग्रन्थ से पता चलता है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर तपस्या की। उन्होंने नग्न अवस्था में तप किया। वे 12 वर्ष तक कठोर तप करते रहे | उन्होंने सभी प्रकार के बन्धन तोड़ दिए। लोगों ने उन्हें पागल कहा और उनका बहुत अपमान किया, परन्तु वर्धमान फिर भी शान्त रहे। उनका हृदय उनका हृदय शुद्ध जल की भांति निर्मल हो गया |

12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें ‘केवल‘ (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ। इसी कारण उन्हें ‘केवलिन’ की उपाधि मिली। अपनी समस्त इन्द्रियों को जीतने के कारण वे ‘जिन’ कहलाए। तत्पश्चात उन्हें ‘महावीर’ कहा जाने जाने लगा। ज्ञान-प्राप्ति के बाद उन्होंने आजीवन धर्म-प्रचार किया। 72 वर्ष की आयु में 527 ई० पू० में पावा नामक नगर में उनकी मृत्यु हो गई । कुछ विद्वान मानते हैं कि उनकी मृत्यु 468 में ईo पूo हुई |

राजपरिवार से सम्बन्ध होने के कारण उन्हें धर्म प्रचार में शासक वर्ग की काफी सहायता मिली। चेटक (चेतक) भी स्वयं महावीर का भक्त बन गया। ‘उत्तराध्ययन सूत्र‘ से पता चलता है कि मगध के शासक बिम्बिसार और उसकी अनेक रानियों की जैन धर्म में आस्था थी। अजातशत्रु भीजैन धर्म के अनुयायी बन गए | वज्जि संघ तथा मल्ल गणराज्य में भी महावीर का बड़ा सम्मान था।

स्वामी महावीर की शिक्षाएँ (Teachings of Lord Mahavira )

स्वामी महावीर की शिक्षाएँ निम्नलिखित हैं —

(1) त्रिरत्न (Triratna)

आत्म-ज्ञान के लिए शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म और शुद्ध विश्वास आवश्यक हैं, इन्हें त्रिरत्न कहा जाता है। जैन धर्म में शुद्ध आचरण पर बल दिया गया है।

(2) पंच महाव्रत (Five Great Fasting)

महाव्रत के अन्तर्गत मनुष्य को अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, मोहमाया से मुक्ति और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। मन, वचन तथा कर्म से किसी के विचारों को ठेस पहुँचाना भी हिंसा होती है। मानव को सदा सत्य और मधुर बोलना चाहिए। अतः आवश्यक है कि मनुष्य को सदैव सोच-विचार कर बोलना चाहिए। बिना अनुमति के किसी की वस्तु ग्रहण नहीं करनी चाहिए। इस सम्बन्ध में बिना आज्ञा किसी के घर में जाना, निवास करना या किसी वस्तु को ग्रहण करना वर्जित है। भिक्षुओं के लिए ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करना आवश्यक है। इसके अन्तर्गत भिक्षु के लिए किसी स्त्री से वार्तालाप करना, उसे देखना, उससे संसर्ग का ध्यान करना भी वर्जित है। भिक्षुओं के लिए किसी प्रकार का संग्रह करना भी वर्जित है। भिक्षु को धन-संपत्ति, वस्त्र, आभूषण आदि सभी का त्याग करना चाहिए | गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए भी इन्हीं व्रतों की व्यवस्था है। किन्तु इनकी कठोरता में कमी कर दी गई है, इसलिए इन्हें ‘अणुव्रत’ कहा गया है।

(3) व्रत और उपवास (Fasting)

जैन धर्म में तप पर बहुत बल दिया गया है। आत्मा को घेरने वाले भौतिक तत्त्वों का दमन करने के लिए यह तप अति अनिवार्य है। उपवास द्वारा शरीर के अन्त करने का भी विधान जैन धर्म में है।

(4) समानता में विश्वास (Belief in Equality)

जैन धर्म में सभी प्राणियों को समान समझा गया है। जैन संघ के द्वार सभी जातियों के लिए खुले थे परन्तु व्यवहारिक रूप में इसका लाभ उच्च वर्ग के लोगों को ही प्राप्त था।

(5) पुनर्जन्म में विश्वास (Belief in Re-birth)

यह सिद्धान्त हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म और कर्म मत के सिद्धान्त के समान है। अच्छे कर्म अच्छे जन्म का कारण बनते हैं। बुरे कर्म बुरे जन्म में धकेलते हैं। कर्मों के प्रभाव से बचने का कोई उपाय नहीं है। मनुष्य को प्रत्येक कर्म का फल भोगना पड़ता है।

(6) कर्म मत में विश्वास (Belief in Good deeds)

इसके अनुसार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य मिलता है। जो जैसा बोएगा, वैसा ही काटेगा। आत्मा को कर्मों से मुक्त करना चाहिए |

(7) निर्वाण संबंधी मत ( Concept o Salvation / Nirvana )

जैन धर्म के अनुसार संसार दुखों का घर है | प्रत्येक मनुष्य को निर्वाण प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए | कठोर तपस्या के द्वारा निर्वाण की प्राप्ति की जा सकती है | ‘उत्तराध्यायन सूत्र’ के अनुसार जो व्यक्ति किसी की निंदा नहीं करता, जो अभिमानी नहीं है और दीन वृत्ति वाला नहीं ; वह ऋजु भाव को प्राप्त कर संयमी, पाप से निवृत होकर निर्वाण की प्राप्ति करता है |

(8) मूर्ति-पूजा का विरोध (Opposition to Idol Worship)

स्वामी महावीर किसी भी प्रकार की मूर्ति-पूजा का विरोध करते थे। वे इसे व्यर्थ मानते थे। परन्तु महावीर के निर्वाण के बाद जैन धर्म में मूर्ति-पूजा आरम्भ हो गई।

(9) ईश्वर के अस्तित्व में अविश्वास (No Trust in Existence of God)

स्वामी महावीर ईश्वर के किसी भी रूप को नहीं मानते थे। उनका आत्मा में विश्वास था और वे संसार को आत्माओं का संग्रह मानते थे। वे कहते थे संसार की सभी वस्तुओं में आत्मा है। जीव-जन्तु, पेड़-पौधे तथा ईंट-पत्थर में भी आत्मा निहित है। प्रत्येक जीव में दो तत्त्व होते हैं — एक, आत्मा और दूसरा, उसको घेरने वाले भौतिक तत्त्व। आत्मा से भौतिक तत्त्वों को अलग करने से ही निर्वाण का मार्ग सम्भव है।

(10) यज्ञ और बलि का विरोध ( Opposition Of Yajna and Bali )

जैन धर्म में यज्ञ, बलि और अन्य व्यर्थ कर्मकांण्डों का विरोध किया गया | बलि हिंसात्मक कृत्य है जो किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं | जबकि यज्ञ व्यर्थ का आडम्बर है |

(11) संस्कृत, वेदों और दर्शनों का विरोध (Opposition to Sanskrit, Vedas and Philosophy)

स्वामी महावीर संस्कृत भाषा का विरोध करते थे। उनके मतानुसार संस्कृत जानभाषा नहीं है | वे प्राकृत भाषा के पक्ष में थे, जो संस्कृत से बहुत सरल थी। वे वेदों और दर्शनों को अंतिम सत्य नहीं मानते थे।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि जैन धर्म का उदय अपने समय की क्रन्तिकारी घटना थी | इस धर्म ने संभवत: सर्वप्रथम मानव की समानता पर देकर धर्म के द्वार प्रत्येक व्यक्ति के लिए खोले | भले ही जैन धर्म अनेक बातों में हिन्दू ( वैदिक ) धर्म के समान दिखाई देता है लेकिन धर्म के सरल, सुगम, तार्किक और सर्वग्राह्य रूप के दृष्टिकोण से यह हिन्दू धर्म से बेहतर सिद्ध हुआ | जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण हिन्दू धर्म में भी कुछ सुधार हुए | दलित और अछूत समझे जाने वाले लोगों को भी हिंदू धर्म में स्थान दिया जाने लगा लेकिन वे केवल अनुयायी ही बन सके इससे अधिक उदारता का साहस हिन्दू धर्म के नीति-नियंता नहीं कर सके |

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