सिन्धु घाटी की सभ्यता और राजनीतिक स्वाँग

प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के नाम पर जो नाम जबरन हमारे मन- मस्तिष्क में आरोपित कर दिया गया है वह है – वैदिक सभ्यता परंतु इतिहास का एक सामान्य छात्र भी भली भाँति जानता है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता   ( सिंधु-सरस्वती सभ्यता ) इससे भी प्राचीन व इससे कहीं अधिक विकसित सभ्यता थी और निर्विवादित रूप से विशुद्ध भारतीय सभ्यता थी जबकि आर्यों के मूल स्थान को लेकर आज भी प्रो० मैक्समूलर का  “मध्य एशिया का सिद्धांत” सर्वमान्य है ।
 
विश्व की यह महान सभ्यता ( सिंधु घाटी की सभ्यता ) 1921 ई० में दया राम साहनी के नेतृत्व में हड़प्पा और 1922 ई० में राख़ाल दास बैनर्जी के नेतृत्व में मोहन जोदड़ो की खुदाई के बाद प्रकाश में आई । इसने न केवल भारत बल्कि पूरे विश्व के इतिहासकारों को एक बार फिर से इतिहास के झरोखे में झाँकने के लिए बाध्य कर दिया ।
 
सन 1853 और सन 1855 में एलक्ज़ेंडर कनिंघम ने हड़प्पा के खंडहरों का निरीक्षण किया था । जब 1856 ई० में कराची और लाहौर के बीच रेल मार्ग बिछाने के लिए ईंटों की आवश्यकता हुई तो रावी तट पर स्थित  हड़प्पा के खंडहरों की खुदाई की गई । इस प्रकार एक प्राचीन एवं विकसित सभ्यता का आभास हुआ लेकिन उस समय इस सभ्यता को प्रकाश में लाने के लिए कोई ख़ास प्रयास नहीं किए गए ; किंतु सन 1920 ई० में ब्रिटिश अधिकारी सर जॉन मार्शल की अध्यक्षता में इस सभ्यता के विषय में जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रयास शुरू हुए ।
इसी दौरान राख़ाल दास बैनर्जी ने मोहन जोदड़ो में एक बौद्ध- स्तूप के उत्खनन के सिलसिले में यह निष्कर्ष निकाला कि इसके समीप अति प्राचीन नगर के अवशेष दबे हैं । उन्हीं के प्रस्ताव पर भारतीय पुरातत्व विभाग ने उस स्थान पर उत्खनन कार्य आरम्भ करवाया । परिणामस्वरूप एक अत्यंत प्राचीन सभ्यता प्रकाश में आई |
 
 सिन्धु घाटी की सभ्यता एक अत्यंत विकसित एवं विस्तृत सभ्यता थी । इसका विस्तार उत्तर में जम्मू कश्मीर में चिनाब नदी के किनारे स्थित माँड़ा से दक्षिण में उत्तरी महाराष्ट्र में प्रवार नदी पर स्थित दैमाबाद तक तथा  पश्चिम में दाश्त नदी पर स्थित सुत्कागेंडार ( बलूचिस्तान ) तथा पूर्व में उत्तर प्रदेश में हिन्डन नदी पर स्थित आलमगीरपुर तक था । सिंधु घाटी की सभ्यता का कुल क्षेत्रफल 12  लाख  99 हज़ार  6 सौ वर्ग किलोमीटर था तथा इसका आकार त्रिभुजाकार था ।
 
 सिन्धु घाटी की सभ्यता  के काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है । सर जॉन मार्शल सिंधु सभ्यताओं का काल 3250 ई० पू० से 2750 ई० पू० मानते हैं जबकि डॉ० व्हिलर तथा वी० ए० स्मिथ सिंधु सभ्यता का काल 2500 ई० पू० से 1500 ई० पू० मानते हैं । डॉ० व्हीलर तथा वी० ए० स्मिथ का मत आज सर्वमान्य है परंतु अन्य मतों पर विचार करते हुए यदि सिंधु सभ्यता का काल 3500 ई० पू० से 1500 ई० पू० तक मान लिया जाए तो कहीं अधिक समीचीन होगा ।
 
जहाँ तक सिन्धु घाटी की सभ्यता के नामकरण का प्रश्न है ; साधारणत: दो नामों का उल्लेख हुआ है -सिंधु घाटी की सभ्यता तथा हड़प्पा सभ्यता । चूँकि प्रारम्भ में इस सभ्यता के मुख्य स्थान सिंधु व उसकी सहायक नदियों के समीपस्थ क्षेत्रों में मिलते हैं ; इसलिए डॉ० व्हीलर जैसे विद्वानों ने इसे “सिंधु घाटी की सभ्यता ” के नाम से अभिहित किया है । परंतु कालांतर में अनेक नवीन अनुसंधानों द्वारा यह प्रमाणित हो गया कि यह सभ्यता सिंधु घाटी की सीमाओं के पार दूर-दूर तक विस्तृत थी । अतः विद्वानों द्वारा इस सभ्यता के लिए ग़ैर भौगोलिक नाम का प्रयोग किया गया क्योंकि यह सभ्यता सर्वप्रथम हड़प्पा में हुए उत्खनन परिणामस्वरूप प्रकाश में आई थी । नवीनतम शोध के आधार पर यह तथ्य भी प्रकाश में आया है कि सिंधु घाटी की सभ्यता का विस्तार वैदिक क़ालीन सरस्वती नदी के किनारे हरियाणा , राजस्थान तथा गुजरात तक था । इतिहासकार अब इस तथ्य को स्वीकारने लगे हैं कि हरियाणा , राजस्थान तथा गुजरात में स्थित हड्डप्पाक़ालीन नगर लुप्त हो चुकी नदी सरस्वती व उसकी सहायक नदियों के तट पर स्थित थे ।
 
यमुना तथा दृशद्वती (घग्घर) को सरस्वती की सहायक नदियाँ माना जाता है । ध्यातव्य है कि कालीबंगा ( गंगानगर, राजस्थान ) घग्घर नदी पर स्थित सिंधुक़ालीन स्थल है । ठीक इसी प्रकार हरियाणा के हड़प्पाक़ालीन स्थल बनावली , राखीगढ़ी व गुजरात के हड़प्पाक़ालीन स्थल धौलावीरा, लोथल भी सरस्वती नदी या उसकी सहायक नदियों के किनारे स्थित माने जाते हैं ।
 
अतः अगर यह सत्य है कि सिंधु सभ्यताओं के अधिकांश स्थल सिंधु तथा सरस्वती नदी के समीपवर्ती क्षेत्रों में अवस्थित थे तो इस सभ्यता को “सिंधु-सरस्वती सभ्यता” कहना भी अनुचित नहीं होगा  परंतु दूसरी तरफ़ यह भी स्वीकार करना होगा कि जिन साक्ष्यों के आधार पर हम सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र का ख़ाका खींचते हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सरस्वती का प्रवाह उत्तराखंड के आदिबद्री ( उद्गम स्थल ) से लेकर हिमाचल ,हरियाणा, पंजाब, राजस्थान तथा गुजरात तक था ।
 
महाभारत के अनुसार सरस्वती गुजरात के कच्छ ( विनाशन नामक स्थान ) में सूख जाती थी । वैदिक साहित्य के अनुसार सरस्वती नदी सतलुज तथा यमुना नदी के बीच बहती थी । इसके पश्चिम में सतलुज तथा पूर्व में यमुना नदी बहती थी । इस आधार पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि सरस्वती नदी कभी भी प्रयाग तक नहीं गई तथा इलाहाबाद में गंगा, यमुना, सरस्वती का संगम महज़ कपोलकल्पित है या ऐसा भी हो सकता है कि वैदिक धर्म व संस्कृति को महिमामंडित करने के लिए वेदों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण व स्तुत्य नदी को अपेक्षाकृत कम महत्त्वपूर्ण गंगा ( ऋग्वेद में केवल एक बार नाम आया है ) तथा यमुना ( ऋग्वेद में तीन बार नाम आया है ) नदी के साथ जोड़कर सामान्य जन के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके क्योंकि वे जानते हैं कि सरस्वती का मानवीकृत रूप देवी के रूप में पूजा जाता है जिसकी महत्ता गंगा नदी के मानवीकृत रूप से कहीं अधिक है और तीनों का संगम विशेष आकर्षण पैदा करने के लिए किया गया मेक अप है जिसके नीचे यथार्थ को छिपाने की कोशिश की गयी है ।
 
अतः प्रयाग संगम को इतिहास में आरोपित करना नदियों के बहाने वैदिक धर्म को महिमामंडित करने का प्रयास है परन्तु आधुनिक शोध प्रयाग संगम की ऐतिहासिकता पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं | वस्तुतःसदियों से एक वर्ग विशेष द्वारा इतिहास को धर्म और संस्कृति का चोगा पहनाकर शोषण-तंत्र के रूप में बदलने का सफल किन्तु घृणित प्रयास किया जा रहा है |                                                                                                                               
यह बात प्रसंग से हटकर होगी लेकिन मन को कचोटतीअवश्य है कि आज जब कुछ क्षेत्रों में लोग पानी की बूँद-बूँद को तरस रहे हैं तब एक अस्तित्त्व खो चुकी नदी को पुनर्जीवित करने के लिए अरबों रूपये की बर्बादी  महज इसलिए की जा रही है क्योंकि यह नदी नेताओं की  राजनीतिक प्यास को अवश्य बुझा देगी लोग भले ही प्यासे मरते रहें | अर्थशास्त्र का  एक सामान्य सा छात्र भी बता सकता है कि जितना धन इस स्वांग पर गंवाया  जा रहा है उतने में पहले से प्रवाहित अनेक नदियों पर काम करके करोड़ों लोगों की प्यास को बुझाया जा सकता है |           चलिए प्रसंगानुकूल बात करते हैं | नए शोध से एक बात तो सभी इतिहासकार एकमत रूप से स्वीकार करते हैं कि सरस्वती नदी सिन्धु सभ्यता के समय व उससे पूर्व पूरे प्रवाह से बहती थी | लगभग 3000 ई० पू ० के आसपास यह नदी धीरे-धीरे सूखने लगी और कालांतर में यह नदी छोटे-छोटे सरोवरों व बरसाती नालों के रूप में अस्तित्त्व में रह गई| इस नदी का अधिकांश विस्तार भारत में था जबकि सिन्धु सभ्यता की डेढ़ हजार से अधिक बस्तियां पकिस्तान में मिली हैं जो अधिकांशत: सिन्धु नदी व उसकी सहायक नदियों के किनारे या समीपवर्ती क्षेत्रों में अवस्थित हैं और सिन्धु नदी आज भी पूरे वेग से प्रवाहमान है जबकि सरस्वती नदी के अस्तित्त्व व प्रवाह क्षेत्र पर अभी अनुसन्धान कार्य आरम्भ हुआ है |                                                                                                           
अत: इस सभ्यता को सिन्धु-सरस्वती सभ्यता कहना जल्दबाजी होगी | इस दिशा में अभी व्यापक शोध की आवश्यकता है |
 
 
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