संवेदनहीनता के उद्घोष

सत्रहवीं लोकसभा के प्रथम दिवस औवेसी के शपथ ग्रहण करते समय हिन्दुवादी राजनीतिक दलों  द्वारा “श्री राम”के नारे लगाना और प्रत्युत्तर में औवेसी द्वारा अल्लाह हु अकबर , जय हिंद , जय भीम और जय मीम के नारे लगाना हमारी राजनीतिक घटिया पन और मानसिक औछापन उजागर कर गया , साथ ही धर्म के विरुद्ध  वर्षों से उठने वाले स्वरों को और मुखर कर गया । इस घटनाक्रम से जहाँ राजनीतिक दलों की धर्म के नाम पर की गयी ध्रुवीकरण के षड्यंत्र की सडांध से मानवतावादी लोग नाक भों सिकोड़ने को विवश हो गए वहीं धर्म की विद्रूपता ने उन्हें  एक बार फिर कॉर्ल मार्क्स की धर्म विरोधी सोच पर गम्भीरता से चिंतन मनन करने पर विवश कर दिया ।

इस घटनाक्रम से यह बात तो साफ हो जाती है कि कहीं कोई ईश्वर / अल्लाह नहीं है ; अगर होता तो वे स्वयं इस झगड़े का निपटारा करने के लिए कब के धरती पर अवतरित हो गए होते पर ऐसी स्थिति में “ईश्वर / अल्लाह एक है ” धार्मिक सिद्धांत खंडित हो जाता । चलो मान लिया जाए इन दोनों धर्मों का यह सिद्धांत सही है कि “ईश्वर/ अल्लाह एक है ” तब ऐसी स्थिति में इन धर्म के ठेकेदारों द्वारा  ईश्वर और अल्लाह के नाम पर इस तरह पागलों की तरह चीख़ना- चिल्लाना क्या सिद्ध करता है । बक़ौल कार्ल मार्क्स यह  धर्म की अफ़ीम के ओवर डोज़ से होने वाले भयंकर दुष्परिणामों का  एक छोटा सा ट्रेलर है , पूरी पिक्चर बनाने के लिए सारे हॉलीवुड़ , बॉलीवुड के आर्थिक संसाधन और कलाकार कम पड़ जाएँगे । धर्म ने जितना विध्वंस किया है उतना आज तक किसी ने नहीं किया । धर्म की सबसे बड़ी कमी यह है कि यह व्यावहारिक रूप में प्रकृति के इस नियम की अवहेलना करता है कि सभी मनुष्य समान हैं क्योंकि अपने धर्म से जुड़े व्यक्ति को हम श्रेष्ठ मानते हैं । इस प्रकार धर्म भले ही सैद्धांतिक रूप में मानव समानता की बात करता हो , व्यावहारिक रूप में वह मनुष्यों को विभिन्न वर्गों में विभक्त कर , उन्हें उच्चतर या कमतर घोषित कर उनमें वैमनस्य की भावना रोपित करता है ।

धर्म के नाम पर किया गया शोर-शराबा इतना भयंकर है कि इसमें बिहार में मरने वाले सैंकड़ों बच्चों के परिजनों का हृदयविदारक विलाप भी ना जाने कहाँ खो जाता है । छद्म राष्ट्रवाद के नाम पर “भारत माता की जय ” का नारा लगाते हुए कहीं किसी व्यक्ति को पीट-पीट कर मौत के घाट उतार दिया जाता है ; कहीं गौ-पुत्र किसी व्यक्ति को गौ-तस्कर का आरोप लगा कर पीट-पीट कर जान ले लेते हैं । बदले में उन्हें सज़ा के तौर पर किसी हिन्दुवादी दल के एक सम्मानित सदस्य की पदवी मिलती है और कभी लोकसभा या विधानसभा का टिकट भी मिल जाता  है ।

लेकिन देश में ,  विशेष तौर पर मीडिया में इन घटनाओं से आँख मूँदने की जो परम्परा चल पड़ी है वह इस देश को धीरे-धीरे  एक बड़े आंदोलन या गृहयुद्ध की और धकेल रही है ।

पुलवामा घटना को जिस तरह से मीडिया द्वारा कवरेज दी गयी उस से सरकार को मजबूरन कोई क़दम उठाना पड़ा परंतु घरेलू हिंसा में मरने वाले लोगों को न्याय दिला पाने में मीडिया आज भी विफल ही रही है । प्रशासनिक लापरवाही से मरने वाले लोगों के अधिकारों के लिए मीडिया ईमानदारी से प्रयासरत नहीं है ।शायद राजनीतिक दबाव से ही किसी घटना को दबाया या उछाला जाता है ।

यह सही है कि सीमा पर मरने वाला हर जवान सम्मान का हक़दार है , उसे शहीद की भाँति हर उचित मान – सम्मान मिलना चाहिए लेकिन देश के अन्य नागरिकों के प्रति ऐसी संवेदनहीनता कि पिछले दस-पंद्रह दिन से हर रोज़ दस- पंद्रह बच्चे मौत के मुँह में जा रहे हैं और सारा देश ख़ामोश है ; सरकार के प्रति लोगों में कहीं कोई आक्रोश नहीं । जिन्होंने अपने  बच्चे खो दिए  हैं वे ऐसे महादलित हैं कि सरकार के विरुद्ध रोष प्रदर्शन तो दूर की बात जी भर कर रो भी नहीं सकते क्योंकि रोने में गँवाए समय में कहीं वे अपना शेष बचा न गँवा दें ।

हिंदू संगठन व हिंदू राजनीतिक दल  भी चुप हैं क्योंकि महादलितों को ये हिंदू संगठन व दल अपनी वोट तो मानते हैं परंतु अपना सदस्य नहीं । काश ये हिंदू होते तो शायद अब तक प्रशासन जाग जाता और बहुत सी माताओं की  गोद उजड़ने से बच जाती । 

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