संस्कृति की आड़ में

लोगों को गौ मूत्र के रूप में कैन्सर की अचूक दवा देकर स्वयं विदेशों में इलाज कराने वाले जिस प्रकार वैश्विक संस्कृति के इस दौर में मध्यक़ालीन भारत की साँझी संस्कृति को दरकनार कर प्राचीन भारतीय संस्कृति के वर्तमान समय में पूर्णत:   अनावश्यक तत्त्वों को महिमामंडित कर ज़बरन आरोपित करने का अभियान चला रहे हैं उससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि आज लोकतंत्र के युग में भी धर्म-संस्कृति पर अवलंबित परम्पराएँ राजनेताओं के लिए राजसत्ता हथियाने का सबसे सरल व प्रभावशाली साधन हैं । प्राचीन काल में अपनी सत्ता को वैध क़रार देने के लिए स्वयं को दैवी-शक्ति  का प्रतिनिधि सिद्ध करने के लिए काल्पनिक कहानियों को गढा जाता था । इसके लिए दरबार में विशेष रूप से कई लेखक नियुक्त किए जाते थे जो अपने आश्रयदाता का गुणगान करते थे ।कई चित्रकार होते थे जो उनकी छवि को दैवी आभा प्रदान करते थे । धर्म-भीरू लोगों को डरा कर व धर्मांध लोगों को भड़का कर स्वयं को धर्म-रक्षक के रूप में प्रतिष्ठापित किया जाता था ।

वर्तमान में भी स्थिति अधिक परिवर्तित नहीं है । आज भी राजनेता गली- सड़ी परम्पराओं को जिनको उनका अंतर्मन भी स्वीकारोक्ति नहीं देता ; महज़ वोट हासिल करने के लिए प्रचारित करते हैं । स्वयं स्वदेशी और विदेशी की अवधारणा से ऊपर उठ कर गुणवत्ता के आधार पर भोग-विलास की वस्तुओं का चयन व उपभोग करते हैं परंतु लोगों के सामने स्वदेशी का राग अलापते हैं ।

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में जहाँ एक दल वर्षों से अल्पसंख्यक समुदाय की ग़लत परम्पराओं को भी स्वीकार कर तुष्टिकरण की नीति अपनाता रहा है तो दूसरा दल बहुसंख्यक समुदाय के धर्म का रक्षक बन ध्रुवीकरण का षड्यंत्र रच रहा है ; न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप  करने पर भी ग़लत परम्पराओं  को संविधान से परे मान समर्थन कर रहा है । शबरीमाला मंदिर में आज भी स्त्रियों के प्रवेश की मनाही को सही मान न केवल संविधान और न्यायालय   की अवहेलना की जा रही है बल्कि न्यायालय को सांस्कृतिक परम्पराओं में हस्तक्षेप न करने की धमकी भी दी जा रही है ।

यह सही है कि वर्षों से सत्तासीन दल भ्रष्टाचार की दलदल में धँसता जा रहा था लेकिन दूसरा दल भी सत्ता प्राप्त कर दो-चार साल में ही उस दलदल में गर्दन तक डूब चुका है लेकिन चेहरे पर देशभक्ति व भ्रष्टाचार का मुखौटा अभी क़ायम है । पहली बार इसी मुखौटे के बल पर भ्रष्ट लोगों के काले धन को ग़रीबों की जेबों में भरने और भ्रष्टाचार मुक्त भारत का स्वप्न दिखा कर अपनी स्वार्थ-सिद्धी करने के उपरांत अब दूसरी बार वर्षों पुराने धार्मिक-हथकंडों का सहारा लिया जा रहा है।भारतीय संस्कृति का जीर्णोद्धार करने का दावा किया जा रहा । अनपढ़ साधु-संतों को संसद में पहुँचाने और शिक्षित युवाओं से पकोड़े बनवाने की क़वायद चल रही है । शहरों के नाम बदल कर “स्मार्ट सिटिज” में बदला जा रहा है और पूर्व प्रचलित भ्रष्ट हो चुकी योजनाओं व संस्थाओं के नाम बदल कर उनका शुद्धिकरण किया जा रहा है । आवाम तालियाँ बजा रहा है क्योंकि ये नाम उन्हें अपनी संस्कृति के द्योतक लगते हैं लेकिन किंवदंतियों से इतिहास नहीं बनता और इतिहास के सही जानकार भारतीय संस्कृति के वास्तविक स्वरूप को लेकर ख़ुद असमंजस की स्थिति में हैं क्योंकि जिस वैदिक- संस्कृति को भारतीय संस्कृति के रूप में आवाम के सामने वर्षों से परोसा जा रहा है उसे अनेक प्रसिद्ध इतिहासकार विदेशी मानते हैं । तो क्या हम एक विदेशी संस्कृति को अपना मान व्यर्थ में गर्व कर रहे हैं और इस संस्कृति से पूर्व की हड़प्पा सभ्यता जो इस संस्कृति से कहीं अधिक विकसित थी उसे नज़रंदाज कर रहे हैं ।

बहरहाल जो भी है हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए कि इतिहास के कुछ प्रकरण अभी रहस्य के घेरे में हैं और उनकी वास्तविकता को सही ढंग से जानने के लिए पूर्वाग्रहों से मुक्त रहना होगा क्योंकि नए पहलुओं का प्रकाश में आना अभी बाक़ी है ।

एक और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भले ही हमारा अतीत कितना ही स्वर्णिम क्यों न रहा हो हम अपने वर्तमान को विस्मृत नहीं कर सकते और अपनी श्रेष्ठता के कारण दूसरों को हीन सिद्ध करना भी कहीं से उचित प्रतीत नहीं होता । श्रेष्ठ धनी वर्ग अगर अपनी सम्पन्नता के दम्भ में अपनी संस्कृति का राग अलापते रहें तो भी कुछ बात जमती है क्योंकि ऐसा करके वे अपनी सम्पन्नता व श्रेष्ठता को सुरक्षित रखने का प्रयास करते हैं लेकिन बड़े आश्चर्य का विषय है कि दिन भर चिलचिलाती धूप में मजदूरी करने वाले और अपने बच्चों की शिक्षा- स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए  संघर्षरत लोग भी इस धर्म और संस्कृति के प्रपंच में फंस उन्हीं लोगों को अपना मत व समर्थन प्रदान करते हैं जो सदियों से उनकी इस दुर्दशा के लिए उत्तरदायी रहे हैं ।

कुल मिला कर संस्कृति की आड़ में साधन-सम्पन्न वर्ग द्वारा साधन-हीन वर्ग को हमेशा अपने अधीन रखने का एक बड़ा षड्यंत्र रचा जा रहा है ।

8 thoughts on “संस्कृति की आड़ में”

  1. बिलकुल सही कहा आपने ये पुरातन काल से चला आ रहा है ओर आज आधुनिक समाज भी इन आडंबरों से बच नही पा रहा

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  2. इन सभी परिस्थितियों के लिए सिर्फ और सिर्फ अज्ञानता या अनपढ़ता ही जिम्मेदार है।
    "विद्या विवेक को जन्म देती है " और विवेकी पुरुष इस प्रकार की सभी धारणाओं से दूर रहता है।
    अतः विवेक के लिए विद्याध्ययन एवं स्वाध्याय करें।

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