रासो काव्य परंपरा ( Raso Kavya Parampara )

रासो काव्य परंपरा ( Raso Kavya Parampara ) को जानने से पूर्व ‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति को जानना आवश्यक होगा |

रासो’ शब्द की व्यत्पत्ति

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वान एकमत नहीं हैं | ‘रास’, ‘रासउ’, ‘रासु’, “रासह’ और ‘रासो’ आदि शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्दों के रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से राजसूय’, ‘रहस्य, रसिक’, ‘रासक’ शब्दों से इसकी उत्पत्ति मानी है। फ्रेंच विद्वान गार्सां द तासी ‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से मानते हैं | आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘रसायन’ शब्द से मानी है | कुछ विद्वानों ने ‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति रहस्य और रामायण से मानी है | परन्तु आज अधिकांश विद्वान मानते हैं कि इसकी व्युत्पत्ति ‘रास’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ है — गीत युक्त मण्डलाकार समूह नृत्य।

रासो काव्य परंपरा ( प्रमुख रासो ग्रंथ )

आदिकालीन रासो साहित्य के अन्तर्गत जिन ग्रन्थों को शामिल किया जाता है, उनके रचयिताओं के सम्बन्ध में तो बहुत कुछ ज्ञात है, किन्तु पाठ, काल और तिथियों आदि की दृष्टि से उनमें संदेहात्मक स्थल मिलते हैं। ऐसी स्थिति में हालांकि इस साहित्य को संदिग्ध साहित्य भी माना जाता है, परन्तु काव्यात्मकता की दृष्टि से यह साहित्य बेजोड़ है।आदिकाल में रचित प्रमुख रासो काव्यों का वर्णन इस प्रकार है —

(1) पृथ्वीराज रासो ( Prithviraj Raso )

‘रासो’ काव्यों में पृथ्वीराज रासो ( Prithviraj Raso ) का विशेष ख्याति प्राप्त काव्य है। इसे रासो काव्यों का प्रतिनिधि काव्य माना जाता है। इसके रचयिता पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चन्दबरदाई हैं। इसका कथानक दिल्ली और अजमेर के हिन्दू शासक पृथ्वीराज चौहान की वीरता एवं शौर्य पर आधारित है।

पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण उपलब्ध हैं। इसके बृहत संस्करण में लगभग 16000 छन्द तथा 69 समय ( सर्ग ), मध्यम संस्करण में 7000 छन्द, लघु संस्करण में 3500 छंद तथा लघुतम संस्करण में 1300 छन्द हैं। यही कारण है कि इस काव्य की प्रमाणिकता पर संदेह व्यक्त किया जाता है | भले ही इस ग्रंथ कि प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में मतभेद हो परन्तु काव्य सौन्दर्य की दृष्टि से यह एक उत्कृष्ट काव्य है। इसमें कवि ने श्रृंगार एवं वीर रस, विभिन्न अलंकारों, वस्तु वर्णनों, मार्मिक प्रसंगों, तथा दोहा, छप्पय, ताटकं, तोमर, पद्धरि, सहक आदि छन्दों का सुन्दर प्रयोग किया है। इसकी भाषा डिंगल एवं पिंगल है, जो रसों के अनुकूल हैं।

(2) खुमान रासो ( Khuman Raso )

खुमान रासो ( Khuman Raso ) भी पृथ्वीराज रासो कि भाँति एक संदेहास्पद काव्य रचना मानी जाती है। इस ग्रन्थ एवं इसके रचयिता के बारे में कई शंकाएँ उठाई गई हैं। सबसे पहली शंका इसके रचयिता के बारे में है। कुछ विद्वान इसका लेखक ब्रह्म भट्ट को मानते हैं तो कुछ विद्वान दलपति विजय को | परन्तु अधिकांश विद्वान इसका लेखक दलपति विजय को मानते हैं |

इसके सन्दर्भ में दूसरी शंका यह है कि चित्तौड़ में तीन खुमान हुए थे, खुमान रासो में किस खुमान की कहानी है? इस रासो में नवीं शताब्दी के खुमान से लेकर अठारहवीं सदी के राणा संग्राम सिंह तक की चर्चा है। वास्तव में, खुमान रासो में खुमान वंश का इतिहास है। अन्य रासो की तरह इसमें भी प्रक्षिप्त अंश जुड़ गए हैं। प्रक्षिप्तांशों के कारण इसकी भाषा की प्राचीनता समाप्त हो गई है, परंतु असली अंशों में प्राचीन भाषा ही मिलती है।

(3) परमाल रासो ( Parmal Raso )

परमाल रासो ( Parmal Raso ) कलिंजर के राजा परमाल के दरबारी कवि जगनिक द्वारा रचित है। इन्हें चन्दबरदाई का समकालीन माना जाता है। इस रासो में उन्होंने महोबा के दो वीरों आल्हा और ऊदल की वीरतापूर्ण 52 लड़ाईयों तथा उनके विवाहों का बहुत ही काव्यात्मक एवं ओजपूर्ण शैली में वर्णन किया है। इसका नामकरण बाबू श्याम सुन्दर दास ने किया तथा 1911 में इसे प्रकाशित करवाया। उत्तर प्रदेश में इसे आल्हा के नाम से जाना जाता है। वहाँ गाँव-गाँव की भीड़ भरी महफिलों में रात भर गाया जाता था | चूँकि इसका संकलन, सम्पादन और प्रकाशन बीसवीं शती में हुआ है। अतः इसमें कुछ प्रक्षिप्त अंश जुड़ गए हैं। इस कारण इसमें ऐतिहासिक और भौगोलिक असंगतियाँ तथा हास्यास्पद अतिशयोक्तियाँ दिखाई देती हैं। परन्तु मूलतः यह एक वीर-रस प्रधान रचना है, जिसमें वर्णित एक-एक छन्द आज भी क्षत्रियों में जोश उत्पन्न कर देता है।

परमाल रासो ( Parmal Raso ) में वीर रस का एक उदाहरण देखिये —

“बारह बरस लौं कूकर जीवै, अरु तेरह लौं जियै सियार।
बरस अठारह क्षत्री जिवै, आगे जीवन को धिक्कार।।”

(4) संदेश रासक ( Sandesh Rasak )

संदेश रासक ( Sandeah Rasak ) की रचना अब्दुर्र रहमान ने की | यह एक विशुद्ध प्रेम काव्य है | इसके रचनाकाल को लेकर विभिन्न विद्वान अपनी अपनी राय प्रस्तुत करते हैं | परन्तु अधिकांश विद्वान इसे 11वीं-12वीं शती की रचना मानते हैं।

संदेश रासक ( Sandeah Rasak ) एक खंडकाव्य है जो 23 पदों तथा तीन प्रक्रमों में विभाजित है। यह एक दूत काव्य है, जिसमें वियोगिनी नायिका का विरह वर्णन अत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है। संदेश कथनों में नारी हृदय की विवशता, आकुलता और विदग्धता एक साथ मुखरित हो उठी है।

डॉ. नामवर सिंह के अनुसार — “यह समझना भ्रान्ति है कि यह ग्राम्य अपभ्रंश में लिखा हुआ काव्य है। वास्तव में इसके भाव और भाषा पर नागरता छाप है। छन्द विविधता और अलंकार सज्जा दोनों दृष्टियों से संदेश रासक अत्यन्त परिमार्जित रचना है।”

(5) बीसलदेव रासो ( Bisaldev Raso )

बीसलदेव रासो ( Bisaldev Raso ) एक प्रसिद्ध रासो ग्रंथ है जिसकी रचना नरपति नाल्ह ने की | इसकी 27 प्रतियां प्राप्त होती हैं | इसका संपादन डॉ माता प्रसाद गुप्त ने किया तथा 500 छंदों में से केवल 128 छंदों को प्रामाणिक माना | अतः स्पष्ट है कि अन्य रासो ग्रंथों की भांति कालांतर में इस में भी अनेक प्रक्षिप्त अंश जुड़ते चले गए |

बीसलदेव रासो ( Bisaldev Raso ) के रचनाकार को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है | डॉ रामकुमार वर्मा बीसलदेव रासो का रचनाकाल संवत 1058, गौरी चंद हीराचंद ओझा संवत 1030 से 1050 के मध्य, मिश्र बंधु संवत 1220 तथा डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी संवत 1545 से 1560 के मध्य मानते हैं | आज अधिकांश विद्वान इसका का रचनाकाल संवत 1272 स्वीकार करते हैं |

बीसलदेव रासो ( Bisaldev Raso ) में अजमेर के शासक बीसलदेव तथा भोज परमार की पुत्री राजमती की विवाहेत्तर कहानी का चार खंडों में वर्णन है | यह रचना एक श्रृंगार रस प्रधान रचना है | इसमें श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों का वर्णन हुआ है परंतु वियोग पक्ष अधिक मार्मिक बन पड़ा है | इसकी भाषा में गुजराती, राजस्थानी तथा ब्रज भाषा के शब्दों का समन्वय है |

(6) विजयपाल रासो ( Vijaypal Raso )

विजयपाल रासो ( Vijaypal Raso ) भी रासो काव्य परंपरा का प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसकी रचना नल्ल सिंह भाट ने की | इसमें विजयपाल के दिग्विजय की कथा है | यह वीर रस प्रधान रचना है | वर्तमान में इसके केवल 42 छंद उपलब्ध हैं | इसके रचनाकाल को लेकर भी अनेक मत प्रचलित हैं | जहां मित्र बंधु इसका रचनाकाल 1298 ईस्वी मानते हैं वहीं डॉo माता प्रसाद गुप्त इसका रचनाकाल 1543 ईस्वी स्वीकार करते हैं |

(7) हम्मीर रासो ( Hammir Raso )

हम्मीर रासो ( Hamir Raso ) की रचना शारंगधर ने की परंतु राहुल सांकृत्यायन इसे जज्जल कवि की रचना मानते हैं | इसकी प्रामाणिकता को लेकर भी विद्वानों में संदेह है | प्राकृत पैंगलम में हमीर राजा से संबंधित केवल 8 छंद मिले हैं | इन्हीं छंदों के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने एक स्वतंत्र ग्रंथ हम्मीर रासो की मान्यता स्थापित की | उन्होंने इसका रचयिता शारंगधर को माना है | आज अधिकांश विद्वान उनके इस मत से सहमत हैं |

अतः स्पष्ट है कि आदिकालीन रासो काव्य परंपरा ( Raso Kavya Parampara ) हिंदी साहित्य का एक बेजोड़ अंग है | यद्यपि इन ग्रंथों की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में संदेह है, यहाँ तक कि इन ग्रंथों में वर्णित विषय वस्तु तथा ऐतिहासिक तिथियों को लेकर भी विद्वान शंका व्यक्त करते हैं परंतु सभी विद्वान साहित्यिक उत्कृष्टता की दृष्टि से एकमत होकर इनके महत्व को स्वीकार करते हैं |

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