रीतिमुक्त काव्य : परंपरा व प्रवृत्तियां ( Reetimukt Kavya: Parampara Evam Pravrittiya )

हिंदी साहित्य के इतिहास को तीन भागों में बांटा जा सकता है अधिकार मध्यकाल और आधुनिक काल | मध्य काल के उत्तर भर्ती काल को रीतिकाल के नाम से जाना जाता है | हिंदी साहित्य में संवत 1700 से संवत 1900  तक का काल रीतिकाल है जिसमें तीन प्रकार का साहित्य मिलता है – रीतिबद्ध ,रीतिसिद्ध तथा रीतिमुक्त | 

रीतिमुक्त काव्य परंपरा ( Reetimukt Kavya Parampara )

रीतिमुक्त काव्य : परंपरा एवं प्रवृत्तियां

रीतिकाल में कुछ ऐसे कभी भी हुए हैं जिन्होंने रीति से मुक्त होकर काव्य रचना की इन्होंने काव्य शास्त्रीय विधानों  की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया |  इसीलिए इन्हें रीतिमुक्त कवि  कहा गया |  कुछ विद्वान इन्हें स्वच्छंद विचारधारा के  कवि भी कहते हैं |  रीतिमुक्त कवियों की संख्या 50 के लगभग मानी  जाती है | इनमें प्रेम रस के कवि,  वीर रस के कवि तथा नीति कवि सभी शामिल हैं | रीतिमुक्त कवियों में प्रमुख कवि हैं-  घनानंद,  आलम, ठाकुर, बोधा तथा द्विजदेव |
घनानंद ( Ghananand ) इस काव्य धारा के  सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं | उन्हें ´प्रेम की पीर` का कवि माना जाता है | उनकी विरह वेदना बेजोड़ है | उनकी प्रमुख रचनाएं हैं- इश्कलता,  सुजान सागर, सुजान विनोद ,सुजान हित ,सुजान हित प्रबंध|
आलम ( Aalam ) भी प्रमुख रीतिमुक्त कवि हैं | इनकी प्रमुख रचनाएं हैं-आलम केलि,  माधवानल  कामकंदला | उनके काव्य में मधुरता की बहुलता है |
ठाकुर ( Thakur ) की प्रमुख रचनाएं ‘ठाकुर ठसक’ तथा   ‘ठाकुर शतक’ हैं | इनकी रचनाएं शाश्वत प्रेम की अभिव्यक्ति करती  हैं |
 बोधा ( Bodha ) की प्रमुख रचनाएं ‘विरह वारीश’ तथा ‘इश्कनामा‘  हैं |
 द्विजदेव ( Dvijdev ) की प्रमुख रचना ‘सिंहासन बत्तीसी’ है | इनके काव्य में श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों रूपों का वर्णन मिलता है |

रीतिमुक्त काव्यधारा की विशेषताएं ( Ritimukt Kavya Ki Visheshtayen ) 

रीतिमुक्त काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –
(1) स्वच्छंद प्रेम का वर्णन : सभी रीतिमुक्त कवियों ने स्वच्छंद प्रेम की अभिव्यंजना की है | इनका प्रेम उदात्त है,  वासना से मुक्त है | प्रेम को ही एक कवि जीवन का आधार मानते हैं | प्रेम की इन कवियों का स्वप्न,  निष्ठा और संकल्प है | इन कवियों की विरह वेदना बेजोड़ है | यह कवि प्रेमी या प्रेमिका के  प्राप्त न होने पर भी दोष नहीं देते क्योंकि प्रेम इनके लिए साधना है साध्य  नहीं | ये प्रेम को ईश्वर का रूप स्वीकार करते हैं | संयोग तथा वियोग दोनों दशाओं में इन्होंने आदर्श प्रेम की अभिव्यंजना की है | घनानंद जी कहते हैं –    ” अति  सूधो स्नेह को मारग है,  तैहं नेकु  स्यानप  बांक  नहीं |”

(2) श्रृंगार वर्णन : सभी रीतिमुक्त कवियों ने अपने काव्य में श्रृंगार पर बल दिया है | इन कवियों ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन किया है |
श्रृंगार के लिए सौंदर्य का होना आवश्यक है | यही कारण है कि इन कवियों ने अपनी प्रियतमा के रूप सौंदर्य का आकर्षक वर्णन किया है | इन्हें हर बार अपनी प्रियतमा के रूप में नए सौंदर्य के दर्शन होते हैं –   “रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्यौं-ज्यौं निहारिये |”
वियोग की दशा का वर्णन करने में यह कवि अत्यंत प्रवीण हैं | विरह वर्णन में इन्हें अत्यधिक सफलता मिली है | ये  कवि विरह वेदना में भी जीवन की सार्थकता खोजते हैं | अपने प्रिय की स्मृति में तड़पना भी इन्हें प्रिय है | प्रेम के लिए विख्यात मछली और पतंग को भी इन्होंने धिक्कार दिया है क्योंकि यह दोनों विरह  के कारण अपने प्राण त्याग देते हैं | उनका मानना है कि विरह की अग्नि में जलकर ही प्रेम का सच्चा आनंद मिलता है |

(3) सौंदर्य वर्णन: रीतिमुक्त कवियों ने सौंदर्य वर्णन में अत्यधिक सफलता प्राप्त की है | इन कवियों ने नायक नायिका के रूप-सौंदर्य का वर्णन किया है | उदाहरण के लिए रीतिमुक्त काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि घनानंद ने अपनी प्रेमिका सुजान के रूप-सौंदर्य,  सज्जा,  वेशभूषा,  हाव-भाव आदि का जो वर्णन किया है ; वह बहुत ही आकर्षक बन पड़ा है | हर बार उन्हें अपने प्रिय के रूप में नए सौंदर्य के दर्शन होते हैं | वे अपने प्रिय के रूप पर अपना सर्वस्व अर्पित कर देने को आतुर हैं | घनानन्द जी कहते हैं – ” रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यौं-ज्यौं निहारिये | “
रीतिमुक्त कवियों ने अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण के रूप सौंदर्य का भी  आकर्षक वर्णन किया है | वस्तुतः जहां कहीं भी इन्हें सौंदर्य का मौका मिला है इन्होंने उसका भरपूर लाभ उठाया है |

(4) सूफी तथा फारसी प्रेम पद्धति का प्रभाव : रीतिमुक्त कवियों पर सूफी तथा फारसी प्रेम-पद्धतियों का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | रीतिमुक्त काव्य में प्रेम की वही विरह  भावना देखने को मिलती है जो सूफी काव्य में विद्यमान है | लेकिन ही कभी सूफियों की दार्शनिक विचारधारा से कभी प्रभावित नहीं हुए |
यही नहीं रीतिमुक्त कवियों पर फारसी काव्य का प्रभाव भी है | इसका प्रमुख कारण यह है कि तत्कालीन राजाओं की राजभाषा फारसी थी | घनानंद तथा आलम दोनों ही फारसी भाषा के अच्छे विद्वान थे | यही कारण है कि इन दोनों कवियों ने अपनी रचनाओं में फारसी के शब्दों का भरपूर प्रयोग किया है | इनकी कार्यशैली पर भी फारसी का प्रभाव देखा जा सकता है |

(5) प्रकृति वर्णन : रीतिमुक्त कवियों ने प्रकृति का चित्रण आलंबन और उद्दीपन दोनों रूपों में किया है | यह प्रकृति-चित्रण नायक-नायिका की मनोदशा के अनुरूप हुआ है | संयोग दशा में प्रकृति का मनोहारी चित्रण है तथा वियोग दर्शन में त्रास उत्पन्न करने वाला रूप है | रीतिमुक्त कवियों ने स्वतंत्र प्रकृति-वर्णन बहुत कम किया है |  प्रकृति के विभिन्न अवयवों का वर्णन करने के लिए इन्होंने नायक-नायिका की मनोदशा को देखा है | नायक व नायिकाओं की  सुंदरता के लिए उन्होंने प्रकृति से अनेक उपमाएं  भी ली हैं | उद्दीपन के रूप में इनका प्रकृति-वर्णन अधिक प्रभावशाली बन पड़ा है |

(6) भक्ति भावना : रीतिमुक्त कवियों ने प्रेम के साथ-साथ अपनी भक्ति भावना को भी अभिव्यक्त किया है | रीतिमुक्त कवि उच्च कोटि के कवि तो माने जाते हैं परंतु उच्च कोटि के भक्त नहीं | घनानंद जी सुजान से प्रेम करते थे लेकिन आगे जाकर उनका सुजान प्रेम कृष्ण प्रेम में परिणत हो गया | उन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है | इनकी भक्ति में दांपत्य भक्ति की प्रधानता है | कहीं-कहीं वात्सल्य भाव भी प्रकट होता है | दास्य-भक्ति भी रीतिमुक्त कवियों के  काव्य में मिलती है |  फिर भी भक्ति की भावना इन कवियों के काव्य में उतना अधिक विकास नहीं पा सकी  जितना सूर,  तुलसी,  कबीर,  जायसी जैसे भक्ति कालीन कवियों के काव्य में मिलती है |

(7) सामाजिक सरोकार : अनेक आलोचक रीतिकालीन कवियों पर यह आरोप लगाते हैं कि उनका काव्य-लोक काव्य से विमुख है | उनका मानना है कि रीतिकालीन काव्य केवल श्रृंगारिकता का काव्य है | ऐसा कहना रीतिकालीन कवियों का अपमान होगा वस्तुत: रीतिकालीन काव्य में श्रृंगार के साथ-साथ अन्य अनेक प्रवृतियां मिलती  हैं | सामाजिक सरोकार भी इन कवियों की प्रमुख प्रवृत्ति है | इन कवियों ने सामाजिक दायित्व का भी सफलतापूर्वक निर्वाह किया है | विशेषत: रीतिमुक्त कवियों ने रीतिबद्ध व  रीतिसिद्ध कवियों की भांति बढ़ा चढ़ाकर अपने आश्रयदाताओं का वर्णन नहीं किया | इनके काव्य में तत्कालीन समाज, रीति-रिवाज, मूल्यों,  मान्यताओं आदि की सुंदर झलक मिलती है |

(8) कला : इन कवियों ने अपने काव्य में चमत्कार उत्पन्न करने के लिए छंदों ,अलंकारों, बिम्बों आदि का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है |
छंदों की दृष्टि से इन कवियों ने प्राय: दोहा  कवित्त,  सवैया  का प्रयोग किया है  | इसके अतिरिक्त छप्पय,  बरवै,  सोरठा आदि का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है | फिर भी इन कवियों ने दोहा, कवित्त,  सवैया का अधिक प्रयोग किया है क्योंकि यह छंद ब्रज भाषा की प्रकृति के अनुकूल थे |
चमत्कार उत्पन्न करने के लिए इन कवियों ने विभिन्न प्रकार के अलंकारों का प्रयोग भी किया है | इन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का बखूबी प्रयोग किया है | इन कवियों ने अपने काव्य में अनुप्रास,  यमक ,श्लेष पुनरुक्ति,  रूपक,  उपमा, उत्प्रेक्षा,  रूपक अतिशयोक्ति आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है | इन कवियों के लिए अलंकार मानव साधन नहीं बल्कि साध्य बन गया था |

(9) ब्रजभाषा की प्रधानता :  रीति काल में अधिकांश काव्य ब्रजभाषा में रचा गया ब्रजभाषा ही इस युग की प्रधान साहित्यिक भाषा थी | इसका  प्रमुख कारण यह था कि ब्रजभाषा शृंगार रस में कोमल भावों की अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त भाषा थी | रीतिकाल के अधिकांश कवि केवल अपने स्वामी अर्थात अपने आश्रयदाता  राजा को प्रसन्न करने के लिए काव्य-रचना कर रहे थे | अतः उन्होंने ब्रजभाषा जैसी मधुर भाषा को चुना |
 डॉ नगेंद्र ( Dr Nagendra ) इस विषय में लिखते हैं-  “भाषा के प्रयोग में इन कवियों ने एक खास नाजुक मिजाजी बरती है | इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं जिसमें माधुर्य नहीं है |”
वस्तुत:  ब्रजभाषा का जितना उत्कर्ष किस काल में हुआ उतना पहले कभी नहीं हुआ | फिर भी हम इनकी भाषा को पूर्णतया निर्दोष नहीं मान सकते | रीतिकालीन कवियों की भाषा में कई स्थान पर कारक-चिह्नों  की गड़बड़ है | कहीं-कहीं लिंग संबंधी दोष है परंतु इनकी भाषा में सर्वत्र मधुरता व  मादकता के दर्शन होते हैं |

निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि रीतिकालीन काव्य श्रृंगार व मधुरता का काव्य है | इसमें सर्वत्र श्रृंगार व कलात्मकता के दर्शन होते हैं | जितना अधिक कला का विकास इस काल में हुआ वह इससे पहले कभी नहीं हुआ शायद इसीलिए ही डॉ रामकुमार वर्मा व रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इस काल को कलाकाल व विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने श्रृंगार काल नाम दिया है | अनेक त्रुटियां होने के बावजूद यह काल अपनी मधुरता कला- प्रियता व अलंकार-प्रियता के लिए जाना जाएगा |

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