संत काव्य-परंपरा एवं प्रवृत्तियां /विशेषताएं

संत काव्य-परंपरा
संत काव्य-परंपरा

हिंदी साहित्य का इतिहास मुख्य तौर पर तीन भागों में बांटा जा सकता है : आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल | संत काव्य-परंपरा हिंदी साहित्य के भक्तिकाल की निर्गुण काव्यधारा से सम्बद्ध है | हिंदी साहित्येतिहास के काल विभाजन और नामकरण को निम्नलिखित आरेख के माध्यम से समझा जा सकता है : –

हिंदी साहित्य का इतिहास

निर्गुण काव्य धारा में संत काव्य धारा व सूफी काव्य धारा प्रवाहित हुई |
सगुण काव्यधारा को दो भागों में बांटा जा सकता है :- राम काव्य धारा व कृष्ण काव्य धारा |

संत काव्य-परंपरा ( Sant Kavya Parampara )

निर्गुण काव्यधारा की एक शाखा को संत काव्य धारा कहा जाता है | इस काव्य धारा को ज्ञानाश्रयी काव्यधारा भी कहा जाता है |
अधिकांश विद्वान मानते हैं कि वह व्यक्ति जिसने ‘सत’ रूपी परमतत्व को प्राप्त कर लिया हो, वही संत है |

संत काव्य-परंपरा के प्रमुख कवि ( Sant Kavya Parampara Ke Pramukh Kavi ) हैं – नामदेव, कबीरदास , रैदास,  नानक, दादू दयाल,  रज्जब दास,  मलूक दास,  सुंदर दास आदि |

का श्रीगणेश महाराष्ट्र के महान संत श्री नामदेव ( Namdev ) जी ने किया |

कबीरदास जी संत काव्य-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं | उनका जन्म 1398 ईo में काशी में हुआ तथा मृत्यु 1518 ईस्वी में मगहर में हुई |  ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म एक विधवा ब्राह्मणी से हुआ था | लोक-लाज के भय से उसने शिशु को बनारस के लहरतारा तालाब की सीढ़ियों पर छोड़ दिया | नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने उनको पाल पोस कर बड़ा किया | रामानंद जी उनके गुरु थे | उनके कुछ पद ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित हैं | उनकी केवल एक प्रामाणिक रचना है – ‘बीजक’ ( Bijak ) जिसके तीन भाग हैं – साखी,  सबद, रमैनी |

रैदास जी भी रामानन्द के शिष्य थे | इनके पद भी ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में संकलित हैं |

गुरु नानक देव जी संत काव्य-परंपरा के एक अन्य प्रमुख कवि हैं |  उनकी रचनाएं ‘गुरु ग्रंथ साहब’ में ‘महला’ प्रकरण में संकलित हैं | जपुजी, आसा दी वार, सोहेला इनकी प्रमुख रचनाएं हैं |  दादू दयाल की प्रमुख रचना ‘हरड़े वाणी’ है |

रज्जब दास जी की प्रमुख रचना ‘बानी’ है |

मलूकदास जी भी संत काव्य धारा / संत काव्य-परंपरा के कवि हैं | इनकी प्रमुख रचनाएं हैं – राम अवतार लीला, ब्रज लीला, ध्रुव चरित |

सुंदरदास की प्रमुख रचना ‘सुंदर विलास’ है |

संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां ( Sant Kavya Dhara Ki Pramukh Pravrittiyan Ya Visheshtayen )

भक्ति कालीन साहित्य में निर्गुण संत कवियों का योगदान अप्रतिम है |  इन्होंने निर्गुण ईश्वर की भक्ति पर बल दिया | इन कवियों ने सामान्य जन को सर्वाधिक प्रभावित किया | संत काव्य धारा की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं :

(1) निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल : सभी संत कवियों ने निर्गुण-निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया है | यह कवि प्रायः अवतारवाद व बहुदेववाद का विरोध करते हैं | वे निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल देते हैं | वह दशरथ पुत्र राम को ईश्वर स्वीकार नहीं करते | उनके राम निर्गुण ब्रह्म है | कबीरदास जी लिखते हैं :-

 “दशरथ सुत तिहुं लोक बखाना

राम नाम का मरम है आना |”

सभी संत कवि कहते हैं कि ईश्वर हमारे मन में निवास करते हैं | उसे मंदिर-मस्जिद व अन्य किसी धार्मिक  स्थल पर खोजना व्यर्थ है |
इस विषय में नानक जी कहते हैं :- “काहे रे बन खोजन जाई” और कबीरदास जी कहते हैं – “घट माही खोजो” |

स्पष्ट है कि उनका ईश्वर पौराणिक देवी देवताओं से भिन्न है |उसका न रंग है, न रूप है | वह प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है |

(2) गुरु की महिमा पर बल : सभी संत कवि गुरु के महत्व को स्वीकार करते हैं | संत कवि गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा स्थान देते हैं | उनका मानना है कि गुरु ही ईश्वर-प्राप्ति का रास्ता दिखाता है | गुरु ही हमें सच्चा ज्ञान देता है और हमारे भ्रम को दूर करता है |
कबीरदास जी ने तो गुरु को ब्रह्म से भी ऊंचा स्थान दिया है ; वह कहते हैं :-

 “गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय |

 बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाय ||”

इसी प्रकार अन्य संत कवियों ने भी गुरु की महिमा का वर्णन किया है | उनके अनुसार गुरु ही सच्चा ज्ञान देता है,  दुविधा दूर करता है व मन के विकारों को दूर करता है |

(3) रूढ़ियों वआडंबरों का विरोध : संत कवियों ने धर्म व समाज के क्षेत्र में फैली रूढ़ियों,  आडंबरों व  पाखंडों का विरोध किया है | स्वार्थी ब्राह्मणों के कारण हिंदू धर्म में व  मौलवियों के कारण मुस्लिम धर्म में बहुत सी बुराइयां आ गई थी | दोनों धर्मों में आडंबरों व पाखंडों की भरमार थी| ऐसे अवसर पर संत कवियों ने जनता का उद्धार करने का निश्चय किया | इन कवियों ने बिना किसी भेदभाव के दोनों धर्मों की कमियां उजागर की |

हिंदुओं की मूर्ति पूजा के विरोध में कबीरदास जी की लिखते हैं :-

“पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहार |

तातें  तो चाकी भली पीस खाए संसार ||”

इसी प्रकार मुसलमानों की धर्म-रूढ़ि  का वर्णन करते हुए कबीरदास जी लिखते हैं :-

“कांकर पाथर जोरि के मस्जिद लई बनाय |

 ता मुल्ला चढ़ी बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ||”

संत कवियों ने न केवल पंडितों व पुजारियों को फटकार लगाई बल्कि मुल्लों को भी खरी-खोटी सुनाई | ब्राह्मणों ने व मुस्लिम शासकों ने इन संत कवियों पर अनेक अत्याचार किए लेकिन इन्होंने किसी की परवाह नहीं की |

(4) जाति-पाति तथा वर्ण-व्यवस्था का विरोध : सभी संत कवियों ने सामाजिक समानता पर बल दिया | इन्होंने वर्णगत व जातिगत भेदभाव को अस्वीकार किया है |

तत्कालीन हिंदू समाज चार वर्णों में बटा हुआ था -ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र |  संत कवियों ने यह अनुभव किया कि वर्ण व्यवस्था के कारण ही हिंदू समाज में अनेक रूढ़ियां व  बुराइयां आई हैं | इसलिए संत कवियों ने जाति-पाति,  ऊंच-नीच व छुआछूत का विरोध किया |  कबीरदास जी ने यह घोषणा की कि सभी मनुष्य एक ही रक्त से बने हैं | अतः कोई ब्राह्मण व शुद्र नहीं है | कबीर दास जी ने वैष्णव व मुसलमानों दोनों को फटकार लगाई है |

कबीरदास जी ने बड़े सरल शब्दों में कहा है :-

“जाति-पाति  पूछे नहीं कोई

हरि को भजे सो हरि का होई |”

कबीरदास जी ने अपने-अपने धर्म पर इतराने वाले हिंदुओं व मुसलमाननों पर प्रहार करते हुए कहा है :-

“हिंदू कहे मोहि राम पियारा तुर्क कहें रहिमाना |

आपस में दोऊ लरि  मुए मरम काऊ न जाना ||”

वस्तुतः संत कवियों का मूल उद्देश्य सभी धर्मों की बुराइयों का विरोध करके सच्चे मानव धर्म की स्थापना करना था |

(5) रहस्यवाद : रहस्यवाद संत कवियों की प्रमुख विशेषता रही है | संत कवियों ने आत्मा-परमात्मा के संबंध को सुंदर शब्दों में अभिव्यक्ति दी है |

कुछ उदाहरण देखिए :-

“लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल |

लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल ||”

एक अन्य उदाहरण देखिए :-

“नैनन अंतर आव तू त्योंहि लेऊँ झपेऊँ |

 ना मैं देखूं और कूं ना तुझे देखण  देऊं ||”

इस प्रकार संत कवियों ने आत्मा को विरहिणी नायिका के रूप में चित्रित किया है जो परमात्मा से मिलने के लिए तड़प रही है | इनके रहस्यवाद में शंकराचार्य के अद्वैतवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है |

(6) माया के प्रति सचेतता : सभी संत कवियों ने माया से सावधान कराया है | इनका मानना है कि माया ईश्वर भक्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है | संत कवियों के अनुसार काम,  क्रोध,  मद, लोभ,  मोह पंच-विकार माया के रूप हैं | मनुष्य इनके जाल में फंसकर पथभ्रष्ट हो जाता है | संत कवियों का यह भी मानना है की ज्ञान की प्राप्ति करके मनुष्य इस माया के चंगुल से मुक्त हो सकता है ; यथा :-

“संतो भाई आई ज्ञान की आंधी

भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रही न बांधी |”

(7) नारी के प्रति दृष्टिकोण : संत कवियों ने कुछ स्थान पर नारी को माया का प्रतीक माना है | उनका मानना है कि व्यभिचारी इंसान ईश्वर भक्ति से विमुख हो जाता है और पतन का शिकार हो जाता है | व्यभिचारिणी स्त्री विषैले सर्प से भी अधिक भयंकर होती है | कबीरदास जी इस विषय में एक स्थान पर कहते हैं :-

“नारी की झाई परत अंधा  होत भुजंग

कबीरा उनकी क्या गति जो नित नारी के संग |”

परंतु ऐसा कबीरदास जी ने केवल व्यभिचारिणी  स्त्री के बारे में कहा है | सती-साध्वी और पतिव्रता नारी की उन्होंने मुक्त कंठ से प्रशंसा की है ; वे कहते हैं :-

“पतिवरता मैली भली काली कुचील कुरूप

पतिवरता के रूप पै वारों कोटी सरूप ||”

संत कवियों ने अपनी आत्मा को भी नारी के रूप में चित्रित किया है जो परमात्मा रूपी नायक से मिलने को आतुर है |

रस व्यंजना : संत कवियों ने अपने काव्य में जानबूझकर रसों की सृष्टि नहीं की  वरन  इनके काव्य में स्वाभाविक रूप से ही रसों का समावेश हो गया है | जहां संत कवियों ने आध्यात्मिक भावना को अभिव्यक्त किया है वहां श्रृंगार रस का परिपाक हुआ है |  इन कवियों ने अपनी आत्मा को विरहिणी नायिका के रूप में चित्रित किया है तथा परमात्मा को नायक के रूप में | अतः इनके काव्य में श्रृंगार रस के संयोग – वियोग दोनों पक्ष मिलते हैं | जहां परमात्मा के विराट रूप का वर्णन है वहां अद्भुत रस मिलता है परंतु अधिकांशत: उनके काव्य में शांत रस का परिपाक हुआ है ; अन्य रस दुर्लभ हैं |

(8) भाषा : सामान्यत: संत कवियों ने सरल, सहज व स्वाभाविक भाषा का प्रयोग किया है | उनका मुख्य उद्देश्य अपने विचारों को सामान्य जनता तक पहुंचाना था |  काव्य शास्त्रीय नियमों का न उन्हें ज्ञान था और न ही उनमें विश्वास |इसलिए उन्होंने ऐसी भाषा का प्रयोग किया जिसे जनसाधारण समझ सके |

जहां तक कबीर की भाषा का प्रश्न है ; उनकी भाषा मिश्रित भाषा जान पड़ती है | आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा है |

अन्य संत कवियों की भाषा भी जन भाषा थी जिनमें हिंदी की विभिन्न बोलियों के अतिरिक्त अरबी, फारसी के शब्द भी मिलते हैं | संत कवियों की भाषा को आलोचकों ने ‘खिचड़ी भाषा’,  ‘संधा भाषा,  व  ‘सधुक्कडी भाषा’ कहा है लेकिन फिर भी सभी स्वीकार करते हैं कि उनकी भाषा प्रभावशाली होने के साथ-साथ सरस भी थी | रसों के साथ-साथ उनके काव्य में विभिन्न छंदों तथा अलंकारों का समावेश भी स्वत: ही हो गया है |

◼️ उपर्युक्त विवेचन से कहा जा सकता है कि संतकाव्य धारा हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है |  भाव पक्ष व  कला पक्ष के दृष्टिकोण से संतकाव्य उत्कृष्ट है | समाज सुधार व धर्म सुधार के दृष्टिकोण से संत कबीर आज भी प्रासंगिक हैं |

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