‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी का मूल भाव

पच्चीस चौका डेढ़ सौ ( ओमप्रकाश वाल्मीकि )

साहित्य की विभिन्न विधाओं में सामाजिक असमानता के विरुद्ध आवाज उठाई गई है परंतु यह तत्काल संभव नहीं हुआ | प्रारंभ में केवल उच्च घरानों से संबंधित विषय-वस्तु को ही साहित्य में स्थान दिया गया | तत्पश्चात निम्न वर्गीय कुछ पात्रों का समावेश हुआ परंतु वे पात्र कभी प्रमुख पात्र नहीं बन पाए | महाभारत में एकलव्य और रामायण में शबरी जैसे कुछ निम्नवर्गीय पात्र अवश्य हुए हैं परंतु अपने चारित्रिक गुणों के बावजूद वे गौण पात्र ही रहे | रामायण में निषादराज और शबरी के पात्र केवल राम के चारित्रिक गुणों के प्रकाशन के लिए गढ़े गए हैं | बड़े आश्चर्य की बात है कि निषादराज और शबरी के प्रसंग में भी आश्रयदाता की उदारता को विस्मृत कर शरणार्थी के बड़प्पन का वर्णन किया गया है | हमारे पौराणिक ग्रंथों के साथ-साथ आरंभिक साहित्यिक कथा-कहानियों में भी सवर्ण लोगों का निम्नवर्गीय लोगों से मिलना-जुलना सवर्ण पात्रों के महानतम गुणों के रूप दिखाया गया है जबकि प्रकृति प्रदत्त समानता के सिद्धांत के अनुसार यह कोई विशेष गुण नहीं बल्कि मनुष्य का मनुष्य होने के नाते उसका प्राथमिक व अनिवार्य गुण है |

प्रेमचंद के युग में पहली बार वास्तविक स्तर पर निम्न वर्ग को साहित्य में स्थान मिला | प्रेमचंद जी ने न केवल निम्नवर्गीय पात्रों को अपनी साहित्यिक कृतियों के प्रमुख पात्र के रूप में प्रस्तुत किया बल्कि सामाजिक असमानता की बुराई के यथार्थ चित्र भी प्रस्तुत किए | प्रेमचंद की कफन, सवा सेर गेहूं, ठाकुर का कुआं आदि ऐसी ही कहानियां है जिनमें दलित वर्ग पर सवर्ण जाति द्वारा किए गए अत्याचारों एवं शोषण को उजागर किया गया है | लगभग इसी समय कविता के क्षेत्र में निराला जी ने निम्नवर्गीय लोगों की व्यथा को अभिव्यक्ति दी | भिक्षुक, वह तोड़ती पत्थर जैसी कविताएं कविता के क्षेत्र में शोषित व निम्नवर्ग का पदार्पण कराती हैं | कुकुरमुत्ता और बादल राग जैसे कविताओं में क्रांति का स्वर दिखाई देता है |

आधुनिक साहित्य में सामाजिक शोषण के विरुद्ध अपेक्षाकृत अधिक तीखे तेवरों में आवाज उठाई गई | आधुनिक कवि इस सामाजिक असमानता और शोषण के लिए केवल सामाजिक व्यवस्था को ही दोषी नहीं मानता बल्कि धर्म और भारतीय संस्कृति को इसका जन्मदाता व पोषक मानते हुए ईश्वर की उपयोगिता व उसके अस्तित्व पर भी सवाल उठाता है |

ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित कहानी ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ एक उद्देश्यपूर्ण कहानी है | प्रस्तुत कहानी में कहानीकार ने इस तथ्य को स्पष्ट किया है कि संविधान एवं कानून की दृष्टि में भले ही लिंग, धर्म एवं जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं है परंतु वास्तविक जीवन में आज भी दलितों को हीन भावना व तिरस्कारपूर्ण दृष्टि से ही देखा जाता है |

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी की यह प्रमुख विशेषता है कि जहाँ यह भारतीय वर्ण-व्यवस्था के अनौचित्य को पुष्ट करती है वहीं दूसरी ओर सदियों से प्रताड़ित दलितों को हीन भावना से मुक्त होने का संदेश देती है |

डॉक्टर रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में — “ओमप्रकाश वाल्मीकि जी की कहानियां एक ओर भारतीय वर्ण व्यवस्था के अनौचित्य को पुष्ट करती हैं तो दूसरी ओर प्रत्येक व्यक्ति के सारे विषमतापूर्ण विभाजनों से ऊपर उठकर अपने भीतर बैठे मनुष्य को बचाए रखने का आग्रह करती हैं |”

‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी के दो मुख्य पात्र हैं – सुदीप और उसके पिता | सुदीप जाति प्रथा के दंश से आहत और कुंठित तो है लेकिन उसमें शिक्षित होकर इस शोषण-चक्कर से मुक्त होने की छटपटाहट भी है | इसके विपरीत उसके पिता जीवन भर इस शोषण को सहते हुए इसे अपनी नियति मान चुके हैं | इस प्रकार कहानीकार ने शिक्षित सुदीप और उसके अशिक्षित पिता को दो विपरीत ध्रुवों पर स्थापित किया है | सुदीप के पिता को साहूकार चौधरी ने बताया था कि पच्चीस रुपए के हिसाब से चार महीने का ब्याज डेढ़ सौ रुपए होता है | जब सुदीप के पिता यह राशि चौधरी को वापस करने जाते हैं तो चौधरी उसकी ईमानदारी से प्रसन्न होकर और उसकी गरीबी पर तरस खाकर बीस रुपए छोड़ देता है और चार महीने के ब्याजस्वरूप उससे केवल एक सौ तीस रुपए वसूल करता है | सुदीप के पिता साहूकार चौधरी की उदारता का गुणगान करते रहते हैं और आज तक चौधरी द्वारा बताए गए पहाड़े को सच मान रहे हैं | उनकी दृष्टि में पच्चीस चौका डेढ़ सौ ही होता है | बचपन में वे सुदीप की पुस्तक में लिखे पच्चीस चौका सौ को नकारते हुए उसे भी पच्चीस चौका डेढ़ सौ का ज्ञान बांटते हैं | जिसके परिणामस्वरूप बालक सुदीप को अगले दिन स्कूल में मार पड़ती है |

शिक्षा प्राप्त करके सुदीप अपने पिता के इस भोले विश्वास की व्यर्थता को जान गया है | जब वह नौकरी प्राप्त कर लेता है और पहली तनख्वाह लेकर अपने घर आता है तो पच्चीस-पच्चीस रुपए की चार ढेरियां बनाता है और अपने पिता को विश्वास दिलाता है कि पच्चीस चौका सौ होते हैं, डेढ़ सौ नहीं | तब जाकर सुदीप के पिता का भ्रम टूटता है और वह चौधरी को भला-बुरा कहते हुए कोसने लगता है |

जिस प्रकार सुदीप को अपने पिता के भ्रम को तोड़ने और शोषण चक्र से मुक्त करने के लिए बचपन से लेकर जवानी तक का एक लंबा समय लगा, उससे दो बातें स्पष्ट होती हैं – एक तो यह कि वर्ण-व्यवस्था की स्वीकृति समाज के दोनों वर्गों – सवर्ण और दलित – में समान रूप से है | एक पक्ष यदि शोषण को अपना विशेषाधिकार मानता है तो दूसरा पक्ष शोषित रहने को अपनी नियति के रूप में स्वीकार करता है | दूसरे, शिक्षा के सहारे वर्ण-व्यवस्था के मनुष्य-विरोधी स्वरूप को समझा तो जा सकता है लेकिन इतनी आसानी से तोड़ा नहीं जा सकता | इसके लिए पूरे समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत है | यह एक लंबी लड़ाई है जिसमें सुदीप जैसे दलित-शोषित पात्रों को पहले स्वयं से लड़ना पड़ता है, बाद में अपने माता-पिता और अन्य संबंधियों से और उसके पश्चात स्वर्ण समाज से ताकि जाति-पाति, ऊंच-नीच और छुआछूत के आधार पर विभाजित समाज में मनुष्य की गरिमा और अस्मिता को बचाया जा सके | इस प्रकार ‘पच्चीस चौका डेढ़ सौ’ कहानी भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय रूप का उद्घाटन ही नहीं करती बल्कि ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का दावा करने वाली भारतीय संस्कृति के दिखावटी स्वरूप को अनावृत भी करती है |

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