घनानंद का साहित्यिक परिचय ( Ghananand Ka Sahityik Parichay )

घनानंद का साहित्यिक परिचय

जीवन परिचय

घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रसिद्ध कवि हैं | इनका जन्म 1683 ईस्वी में माना जाता है | इनके जन्म स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद है | अधिकांश विद्वानों के अनुसार घनानंद का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले में हुआ था | वे मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में पीर मुंशी के पद पर नियुक्त थे | उनके विषय में कहा जाता है कि वे बादशाह के दरबार की अपूर्व सुंदरी सुजान नामक नर्तकी से प्रेम करते थे | एक दिन बादशाह ने घनानंद से गाने का आग्रह किया लेकिन वे टाल गए | अंत में सुजान के कहने पर ही उन्होंने दरबार में गीत सुनाया | गीत गाते समय घनानंद ने अपना मुंह सुजान की ओर तथा पीठ बादशाह की ओर कर रखी थी | राजा ने इसे अपना अपमान समझा और घनानंद को दरबार से निकाल दिया | घनानंद ने सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह साथ नहीं गई | प्रेम में निराश घनानंद वृंदावन चले गए और कृष्ण की भक्ति में लीन हो गए | नर्तकी सुजान के प्रति उनका प्रेम कृष्ण-प्रेम के रूप में परिवर्तित हो गया | 1760 ईस्वी में अहमदशाह अब्दाली के सैनिकों ने उनका वध कर दिया |

प्रमुख रचनाएँ

घनानंद की कुल 41 रचनाएं मानी जाती हैं | सुजान हित ( सुजान सागर ), वियोग-बेली, ब्रज-विलास, प्रेम सरोवर, गोकुल चरित्र, कृपा कंद, यमुना यश आदि घनानंद की प्रमुख रचनाएं हैं |

साहित्यिक विशेषताएँ

घनानंद का रीतिमुक्त काव्यधारा में एक महत्वपूर्ण स्थान है | उनका संपूर्ण काव्य प्रेम की पीर का काव्य है | उनके साहित्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं —

(1) स्वच्छंद प्रेम का वर्णन

घनानंद ने अपने काव्य में स्वच्छंद प्रेम का वर्णन किया है | उनके काव्य में चित्रित प्रेम का संबंध हृदय से है न कि लक्षणों पर आधारित | ये वस्तुतः प्रेम की पीर के कवि हैं | अतः इनके प्रेम का स्वरूप भी अनूठा है | इनके प्रेम वर्णन में किसी प्रकार का दुराव, छिपाव या बनावट नहीं है |

प्रेम के स्वरूप का निर्धारण करते हुए एक स्थान पर घनानंद जी लिखते हैं —

“अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं |

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ, झझकैं कपटी जे निसांक नहीं ||”

(2) अनन्य प्रेम निरूपण

प्रेम पथिक चाहे शरीर से दो दिखाई दें परंतु आत्मा से वे एक ही होते हैं | पूर्णत: आत्मसमर्पण किए बिना प्रेम कैसा? घनानंद का प्रेम ऐसा ही है | कवि जानता है कि सुजान के प्रेम के लिए उस जैसे कितने ही हैं फिर भी वह अपने पथ से विचलित नहीं होता | वह एकनिष्ठ होकर प्रेम के मार्ग पर चलता रहता है | भले ही सुजान ने उसके साथ विश्वासघात किया परंतु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की | वे विरह वेदना से व्यथित नहीं होते | सुजान के विरह में उनका तड़पना ही मानो उनके जीवन का आधार है | उनका प्रेम एकनिष्ठ,अंतर्मुखी एवं सच्चा प्रेम है ; उसमें बनावटीपन कहीं भी नहीं |

(3) विरह वेदना की प्रधानता

घनानंद जी का काव्य मुख्य रूप से प्रेम की पीर का काव्य है | प्रेम के मार्ग पर चलते हुए उन्हें सुजान से विश्वासघात मिला | परंतु वे अपने मन से कभी भी सुजान को भुला नहीं पाए | यही कारण है कि उनके काव्य में विरह वेदना की प्रधानता नजर आती है | उन्होंने अपना संपूर्ण काव्य अपनी प्रेयसी सुजान को संबोधित करके दिखा | बाद में भले ही उनका सुजान प्रेम कृष्ण-प्रेम के रूप में परिणत हो गया हो परंतु उसमें भी सुजान के प्रति उनका प्रेम यदा-कदा दृष्टिगत होता रहता है |

(4) सौंदर्य वर्णन

घनानंद का प्रेम रूप-जन्य प्रेम है | कवि ने मुहम्मदशाह रंगीला के दरबार में सुजान नामक लड़की से प्रेम किया था और यह प्रेम इसलिए हुआ था क्योंकि सुजान एक अपूर्व सुंदरी थी | अत: उनके काव्य में सौंदर्य वर्णन रीतिकालीन सामान्य सौंदर्य वर्णन की भांति ही नजर आता है लेकिन जैसे-जैसे उनका लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम की ओर बढ़ने लगता है, सौंदर्य वर्णन में उदात्तता नजर आने लगती है | एक उदाहरण देखिए —

“झलकै अति सुंदर आनन गौर, छके दृग राजति काननि छवै |

हँसि बोलनि में छवि फुलन की बरषा उर-ऊपर जाति है ह्वै |”

(5) प्रकृति-चित्रण

घनानंद के काव्य में प्रकृति का विशद व व्यापक चित्रण हुआ है | उनके काव्य में प्रकृति का चित्रण अधिकांशत: उद्दीपन रूप में हुआ है | उन्होंने अपने प्रेम-विरह की व्यापकता को दिखाने के लिए प्रकृति का सहारा लिया है | वे अपनी प्रेयसी को अपना दु:ख सुनाने के लिए बादल को संबोधित करते हुए कहते हैं —

“परकाजहि देह को धारि फिरौ, परजन्य जथारथ ह्वै परसौ |

कबहूँ वा बिसासी सुजान के आंगन, मो अँसवानि ले बरसौ ||”

(6) भक्ति-भावना

घनानंद जी का काव्य भक्ति-भावना से ओतप्रोत है परंतु उनकी भक्ति-भावना सूरदास आदि भक्त कवियों के समान नहीं है क्योंकि भक्त कवियों के लिए भक्ति साध्य थी जबकि इनके लिए भक्ति मात्र कविता करने का एक साधन है | किंतु फिर भी अपनी काव्य-प्रतिभा के बल पर घनानंद जी सगुण भक्ति के अनेक सुंदर चित्र प्रस्तुत करते हैं | घनानंद जी श्री कृष्ण की लीलास्थली ब्रज के प्रति अपनी भक्ति भावना व्यक्त करते हुए लिखते हैं —

“सब ते अगम अगोचर ब्रजरस |

रसना कहि न सकति जाको जस ||”

(7) भाषा व भाषा-शैली

घनानंद जी का काव्य साहित्यिक ब्रजभाषा में लिखित है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि सभी प्रकार के शब्दों का सुंदर समन्वय मिलता है | उनकी भाषा में माधुर्य गुण सर्वत्र व्याप्त है | मधुरता और लालित्य के कारण उनके काव्य की भाषा अत्यंत आकर्षक बन पड़ी है |

घनानंद जी ने अपने काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का सुंदर प्रयोग किया है | उनके काव्य में मुख्यत: अनुप्रास, यमक, वक्रोक्ति, रूपक, उपमा, प्रतीप, विशेषोक्ति, विभावना आदि अलंकारों का प्रयोग मिलता है | उन्होंने अपने काव्य में सवैया और कवित्त छंदों का प्रयोग किया | उनका अधिकांश काव्य संबोधन शैली में है |

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