सूरदास का श्रृंगार वर्णन ( Surdas Ka Shringar Varnan )

सूरदास जी भक्तिकाल की सगुण काव्यधारा के प्रमुख कवि हैं | उन्हें कृष्ण काव्य धारा का सर्वश्रेष्ठ कवि माना जाता है | उन्हें वात्सल्य सम्राट के रूप में जाना जाता है परंतु वात्सल्य के समान श्रृंगार वर्णन में भी सूरदास जी ने कमाल किया है | यही कारण है कि अनेक विद्वान उन्हें श्रृंगार रस का सम्राट भी कहते हैं |

श्रृंगार के सामान्यत: दो पक्ष होते हैं – संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | सूरदास जी के साहित्य में श्रृंगार के संयोग व वियोग दोनों रूपों का सुंदर वर्णन मिलता है |

संयोग श्रृंगार — सूरदास जी के पदों में संयोग श्रृंगार के अनेक सुंदर चित्र मिलते हैं | अनेक पदों में राधा व श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन किया गया है | उन्होंने राधा और कृष्ण का नख-शिख वर्णन किया है | श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य के सामने सूरदास जी करोड़ों कामदेवों को भी निछावर कर देते हैं | राधा का सौंदर्य रति के सौंदर्य से भी बढ़कर है | नख-शिख वर्णन के अतिरिक्त वे कृष्ण और राधा के वस्त्रों और आभूषणों का भी विस्तार से वर्णन करते हैं | श्री कृष्ण के शरीर पर पीत वस्त्र, माथे पर मोर मुकुट कमर में किंकिणि , पैरों में नूपुर, और गले में वैजयंती माला सुशोभित होती है | सूरदास जी ने रूप वर्णन से अनुपम श्रृंगार की सृष्टि की है |

मुख्य रूप से संयोग श्रृंगार वर्णन में नायक-नायिका के हास-परिहास व मिलन के चित्र प्रस्तुत किए जाते हैं |
सूरदास जी ने भी अपने काव्य में राधा-कृष्ण की प्रेम-क्रीड़ाओं का बड़ा ही सुंदर वर्णन किया है | सूरदास ही प्रेम का चित्रण प्रथम दर्शन से करते हैं | कृष्ण खेलने निकलते हैं | यमुना तट पर उन्हें राधा अपनी सखियों सहित मिल जाती है | दोनों एक दूसरे को देखते हैं और एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं |

खेलत हरि निकले ब्रज-खोरी |
कटि कछनी पीताम्बर बांधे, हाथ लए भौंरा, चक डोरी |

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औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दीए रोरी |

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सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिले परि ठिगोरी |

प्रेम में नोकझोंक भी होती है | सूरदास जी उनकी आपसी नोक-झोंक के अनेक भव्य चित्र प्रस्तुत करते हैं | जैसे एक दृश्य में कृष्ण राधा से पूछता है कि तू कौन है, किसकी बेटी है? मैंने कभी तुझे ब्रज में नहीं देखा | इस पर राधा कहती है कि हम बेकार में ब्रज में क्यों आएंगे
हम अपने घर में ही रहते हैं, हम तुम्हारी तरह इधर-उधर नहीं भटकते | वह यह भी कहती हैं कि हमने सुना है कि नंद का बेटा इधर-उधर चोरी करते हुए घूमता रहता है | यह सुनकर कृष्ण तनिक भी विचलित नहीं होते और वाक चातुर्य का परिचय देते हुए कहते हैं कि हमने तुम्हारा क्या चुरा लिया है? चलो हम दोनों मिलकर खेलते हैं | इस प्रकार रसिक शिरोमणि श्री कृष्ण भोली भाली-राधा को अपनी बातों से बहला लेते हैं |

राधा और कृष्ण की प्रेम क्रीड़ा के चित्र भी सूरदास जी प्रस्तुत करते हैं | एक पद में सूरदास जी लिखते हैं कि राधा अपनी भुजा कृष्ण की भुजा पर रख देती है और कृष्ण की भुजा को अपने वक्ष-स्थल पर रख लेती है | राधा और कृष्ण दोनों ही तमाल वृक्ष के नीचे खड़े प्रेम-क्रीड़ा करने लगते हैं | दोनों के वक्षस्थल आपस में ऐसे मिलते हैं मानो स्वर्ण में मरकत मणियाँ जड़ी हुई हों |

नवल किसोर नवल नागरिया |
अपनी भुजा स्याम भुज ऊपर, स्याम भुजा अपनैं उर धारिया |

इसी प्रकार संयोग वर्णन में राधा के साथ-साथ गोपियों के साथ की गई अठखेलियों का भी सुंदर वर्णन किया गया है |

वियोग वर्णन — सूरदास जी का वियोग वर्णन संयोग वर्णन से भी अधिक उत्कृष्ट है | सूरदास ने भ्रमरगीत के माध्यम से वियोग वर्णन किया है | जब कृष्ण ब्रज छोड़कर मथुरा चले जाते हैं तो गोपियां विरह वेदना से तड़प उठती हैं | उन्हें संयोग की दशा में सुंदर लगने वाली वस्तुएं भी अब प्रिय नहीं लगती | वे कहती हैं –

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |
तब ये लता लगती अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं ||

गोपियों की विरह वेदना अत्यंत तीव्र है | वे निरंतर विरह की अग्नि में जलती रहती हैं | हरे भरे वृंदावन को देखकर वे यहां तक कहती हैं कि वह जल क्यों नहीं जाता –

मधुबन तुम क्यों रहत हरे |
बिरहा बियोग श्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे ||

श्री कृष्ण के विरह में गोपियां बहुत दुखी रहती हैं | वे उनके बिना रात-दिन आंसू बहाती रहती हैं | उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता | उनकी विरह-वेदना के विषय में सूरदास जी ने बड़ी ही सुंदर कल्पना की है | गोपियां कहती हैं कि वे विरह वेदना से जलती रहती हैं लेकिन उनकी आंखों से बहने वाले आंसू उन्हें किसी प्रकार से जीवित रखे हुए हैं |

जब उद्धव गोपियों को समझाने के लिए आता है तो गोपियाँ उसे भी अपनी वाक- चातुर्य से पराजित कर देती हैं और उनसे बार-बार आग्रह करती हैं कि वे उनका संदेशा कृष्ण तक पहुंचा दें | उनके विरह की विशेषता यह है कि वे इसे अपने जीवन का आधार मानती हैं | वे ऐसी मुक्ति भी नहीं चाहती जो उन्हें श्री कृष्ण यादों से अलग कर दे | इसीलिए वे उद्धव के योग संदेश को नकार देती हैं |
इस प्रकार सूरदास जी के विरह वर्णन में अभिलाषा, चिंता, स्मृति, उन्माद, प्रलाप, जड़ता, मूर्च्छा आदि सभी दशाओं का स्वाभाविक चित्रण मिलता है |

निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि सूरदास जी के काव्य में श्रृंगार रस का विस्तृत एवं स्वाभाविक वर्णन हुआ है | उनके काव्य में श्रृंगार की सभी अवस्थाएँ मिलती हैं | अतः उन्हें श्रृंगार सम्राट कहना अनुचित नहीं होगा |

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