कबीर व्याख्या ( Kabir Vyakhya )

(1)
सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार। लोचन अनंत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में सच्चे गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — सच्चे गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि सच्चे गुरु की महिमा अनंत अर्थात असीम है, वह हम पर अनंत उपकार करते हैं | वे हमें सच्चा ज्ञान प्रदान कर हमारे ज्ञान चक्षु खोल देते हैं ताकि हम उस अनंत-असीम ईश्वर के दर्शन कर सकें |

(2)
सतगुर सांचा सूरिवाँ, सवद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजे छेक ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में सच्चे गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि सद्गुरु सच्चा शूरवीर है जिस प्रकार से एक शूरवीर युद्ध भूमि में तीर छोड़कर शत्रु के कलेजे को छेद देता है ठीक उसी प्रकार एक सच्चा गुरु शब्द रूपी तीर छोड़कर हमारे हृदय में अवस्थित अज्ञानता रूपी शत्रु को नष्ट कर देता है और अहंकार को मार देता है |

(3)
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै थै सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में सच्चे गुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — सच्चे गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि मैं लोक-व्यवहार, वेद-शास्त्र व अन्य धर्म ग्रंथो में बताए गए नियमों व आडंबरों का अंधानुकरण कर रहा था | ( इस प्रकार मैं व्यर्थ में भटक रहा था |) तभी मुझे सच्चा गुरु मिला और उन्होंने ज्ञान का दीपक मेरे हाथ में थमा दिया | कहने का भाव यह है कि सच्चा गुरु ज्ञान के माध्यम से हमारी अज्ञानता के अंधकार को दूर कर हमें जीवन में सच्ची राह दिखाता है |

(4)
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में ईश्वर प्रेम से मिलने वाले आंनद की अभिव्यक्ति की गई है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जब ईश्वर प्रेम का बादल हम पर वर्षा करता है तो हमारी अंतरात्मा अंदर तक भीग जाती है और हमारे हृदय-स्थल की वनस्पति हरी-भरी हो जाती है | कहने का भाव यह है कि जब एक साधक सच्चे मन से ईश्वर-भक्ति करता है तो उसे ईश्वर-प्रदत्त प्रेम-रस की अनुभूति होती है और उसकी अंतरात्मा प्रसन्नता से भीग जाती है |

(5)
मेरा मन सुमिरै राम कूं, मेरा मन रामहिं आहि।
अब मन रामहिं ह्वै रह्या, सीस नवावौं काहि ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में इस तथ्य की अभिव्यक्ति है कि जब साधक सच्चे मन से ईश्वर-प्रेम करता है तो वह उससे ( ईश्वर से ) एकाकार हो जाता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि राम के नाम का स्मरण करते-करते मेरे मन में राम का आगमन हो गया है | अब मेरा मन राम ही हो गया है अर्थात राममय हो गया है | भला अब मैं किसके समक्ष अपना सिर झुकाऊँ |

(6)
कबीर निरभय राम जपि, जब लग दिवाइ बाति ।
तेल घट्या बाती बुझी , (तब) सोवैगा दिन राति ||

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में मानव-जीवन की क्षण-भंगुरता पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी मनुष्य को सावधान करते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य ! जब तक तेरे शरीर रूपी दीपक में आत्मा रूपी बाती शेष है तब तक तू निर्भय होकर राम के नाम का जाप कर | क्योंकि जैसे ही तेरे शरीर रूपी दीपक से आत्मा रूपी तेल समाप्त हो जाएगा तुम्हारा शरीर रूपी दीपक बुझ जाएगा ; तब तू दिन-रात सोयेगा अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जायेगा |

(7)
लूटि सकै तो लूटियौ, राम नाम है लूटि |
पीछै ही पछिताहुगे, यहु तन जहैं छूटि ||

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में मानव जीवन क्षण भंगुरता और प्रभु-नाम स्मरण की महत्ता का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य ! इस जगत में राम नाम की लूट मची है, जितना चाहो उतना लूट लो | क्योंकि जब तुम्हारा शरीर छूट जाएगा अर्थात तुम मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे तो उसके पश्चात पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलेगा |

(8)
बिरहनि ऊभि पथ सिरि, पंथी बूझै धाइ।
एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैंगे आइ ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में विरहिणी आत्मा की विरह-वेदना का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हमारी आत्मा रूपी नायिका जीवन-पथ पर खड़ी हुई उस पथ से गुजरने वाले प्रत्येक पथिक से भाग-भाग कर पूछती है कि वे उसके प्रिय का एक सन्देश दे दें कि उसके प्रिय कब उससे आकर मिलेंगे |

(9)
आइ न सकौं तुझ पैं, सकूँ न तुझ बुलाइ।
जियरा यौहि लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में विरहिणी आत्मा की विरह-वेदना का वर्णन है |

व्याख्या — परमात्मा से मिलने के लिये व्यग्र विरहिणी आत्मा परमात्मा को संबोधित करते हुए कहती है कि हे प्रिये ! ना तो मैं मिलने के लिये तुम्हारे पास आ सकती हूँ और ना ही तुम्हें अपने पास बुला सकती हूँ | लगता है इसी प्रकार विरहाग्नि में तपा-तपा कर तुम मेरी जान ले लोगे |

(10)
बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान।
जिस घटि बिरह न संचरै, सो घट सदा मसान।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में विरह को भक्ति मार्ग का आवश्यक पड़ाव बताया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे साधक ! भक्ति-मार्ग पर चलते हुए विरह का रोना नहीं रोना चाहिए वास्तव में विरह तो सुल्तान है | जिस हृदय में विरह की भावना नहीं होती वह हृदय श्मशान के समान होता है | कहने का तात्पर्य है कि विरह भावना झेलने के बाद ही कोई साधक ( प्रेमी या प्रेमिका ) प्रेम की कसौटी पर खरा उतरता है |

(11)
अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि ।
जीभड़ियाँ छाला पडया, राम पुकारि पुकारि।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में विरहिणी आत्मा की विरह-वेदना का वर्णन है |

व्याख्या –– विरहिणी आत्मा परमात्मा से मिलने के लिये व्यग्र है और कहती है कि हे प्रिये! तुम्हारा रास्ता देखते-देखते मेरी आँखें काली पड़ गई हैं | तुम्हारा नाम पुकारते-पुकारते मेरी जीभ में छाले पड़ गए हैं अर्थात मैं लम्बे समय से तुम्हारा नाम पुकार रही हूँ और तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ |

(12)
नैना अंतरि आव तूँ , ज्यूँ हीं नैन झपेऊँ ।
नाँ हौं देखौँ और कूं, नां तुझ देखन देऊँ ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में साधक की भक्ति भावना प्रकट होती है |

व्याख्या — एक साधक ईश्वर को सम्बोधित करते हुए कहता है कि हे प्रभु ! तुम मेरी आँखों में समा जाओ | जैसे ही तुम मेरी आँखों में समाओगे मैं अपनी आँखें झपक लूँगा | इस प्रकार ना मैं किसी और को देखूंगा और ना तुझे किसी और को देखने दूंगा | नायक-नायिका के रूपक के माध्यम से अगर कहें तो अर्थ बनता है कि एक नायिका ( आत्मा ) नायक ( परमात्मा ) को सम्बोधित करते हुए कहती है कि वह उसकी आँखों में समा जाये | जैसे ही उसके प्रिय उसकी आँखों में समाएंगे वह अपनी आँखें बंद कर लेगी | इस तरह वह ना स्वयं किसी को देखेगी और ना अपने प्रियतम को किसी और को देखने देगी |

(13)
कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाइ।
नैनू रमइया रमि रह्या, दूजा कहाँ समाइ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में कबीर की एकनिष्ठ भक्ति का परिचय मिलता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से एक विवाहिता के सिर के बालों के मध्य बनी रेखा ( मांग ) में सिन्दूर के बदले काजल नहीं दिया जा सकता ठीक उसी प्रकार मेरी आँखों में दूसरे किसी के लिये स्थान नहीं बनता क्योंकि इनमें राम समाये हुए हैं | कहने का भाव यह है कि ना तो मेरे हृदय में इतना स्थान है कि प्रभु के अतिरिक्त कोई दूसरा उसमें समा सके और ना ही दूसरे किसी में वह योग्यता कि वह प्रभु का स्थान ले सके |

(14)
कबीर कहा गरबियौ, काल गहै कर केस।
नाँ जाणें कहाँ मारिसी, कै घरि कै परदेस ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में मानव-जीवन की क्षण-भंगुरता पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तू क्यों व्यर्थ में गर्व करता है क्या पता काल तुम्हारे केश पकड़कर घर या परदेस ना जाने कहाँ तुम्हें मृत्यु प्रदान कर दे | कहने का तात्पर्य है यह है कि मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है ; उसे अपने भौतिक सुख-साधनों पर व्यर्थ में गर्व नहीं करना चाहिए |

(15)
यहु ऐसा संसार है, जैसा सैंबल फूल।
दिन दस के ब्योहार कौं, झूठे रंगि न भूल।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में मानव-जीवन की क्षण-भंगुरता पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — जीवन की क्षणभंगुरता पर प्रकाश डालते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि यह संसार सेमल के फूल की भांति है जिसके रंग तो चटकीले होते हैं परंतु उससे कोई उपयोगी वस्तु प्राप्त नहीं होती |

इस संसार में रहते हुए जो दस दिन का व्यवहार हम करते हैं उसके रंग झूठे हैं यह बात हमें भूलनी नहीं चाहिए |

(16)
पाणी हीं तैं पातला, धूवां ही तैं झीण ।
पवन बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै चिन्ह ।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — निर्गुण ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि वह पानी से पतला, धुएं से झीना है और पवन से भी अधिक द्रुतगामी है | हे दोस्त ! इन लक्षणों के आधार पर हमें ईश्वर को चिह्नित करना चाहिए |

(17)
भगति दुवारा संकड़ा, राई दसवै भाइ।
मन तो मैंगल ह्वै रह्यो, क्यूं करि सकै समाइ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में भक्ति के लिये आवश्यक मनोदशा पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं की भक्ति का द्वार बहुत संकरा ( तंग ) होता है | वह राई के दसवें भाग के बराबर होता है लेकिन हमारा मन तो मदमस्त हाथी की तरह है भला वह उसमें कैसे प्रवेश कर सकता है |

18
कबीर माया पापणीं हरि सूं करै हराम।
मुखि कड़ियाली ( कुंडी ) कुमति की, कहण न देई राम ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में बताया गया है कि मोह-माया हमें भक्ति मार्ग से अवरुद्ध करती है |

व्याख्या — कबीर दास जी माया को भक्ति के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा मानते हुए कहते हैं की माया महापापिनी है जो हमें प्रभु से विमुख कर देती है वह हमारे मुख पर कुमति ( बुरी बुद्धि ) की कुंडी लगा देती है और राम का नाम नहीं लेने देती |

19
माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया शरीर।
आसा त्रिष्णां नाँ मुई, यौं कहि गया कबीर ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में माया के कुप्रभावों पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या –– कबीरदास जी कहते हैं कि न तो जीवन भर माया मरती है, ना ही मन मरता है, ना हमारी इच्छाएँ मरती हैं अर्थात जीवन भर हम न तो मोह-माया से मुक्त हो पाते हैं, ना चंचल मन को स्थिर कर पाते हैं और ना ही इच्छाओं का दमन कर पाते हैं | इन विषय वासनाओं के चंगुल में फंसकर अंततः हमारा शरीर मर जाता है |

20
जप तप दिसैं थोथरा, तीर्थ व्रत बेसास।
सुवै संबल सेविया, तुम जग चल्या निरास।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में धार्मिक आडंबरों का विरोध किया गया है |

व्याख्या — धार्मिक आडंबरों का विरोध करते हुए कबीर दास जी कहते हैं कि जप-तप खोखले हैं और तीर्थ-व्रत सारहीन हैं | एक उदाहरण देते हुए कबीर दास जी समझते हैं कि जिस प्रकार से एक तोता सेमल के फूलों के पास इस आशा से बैठता है कि इससे उसे कुछ खाने योग्य वस्तु मिलेगी और अंत में निराश हो जाता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी इन धार्मिक आडंबरों के चंगुल में उलझ कर अंतत: निराशा ही प्राप्त करता है |

21
मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि।
दसवाँ द्वारा देंहुरा, तामै जोति पिछाँणि ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में बताया गया है कि ईश्वर हमारे अंदर ही निवास करता है |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! अपने मन को मथुरा, दिल को द्वारिका और अपनी काया को काशी जानना चाहिए | शरीर के दसवें द्वार में ही वह देवालय है जिसमें वह परम ज्योति समाई है, वहीं पर उसकी पहचान कर |

(22)
ऊँचे कुल क्या जनमियाँ, जे करणीं ऊंच न होइ। सोवन ( स्वर्ण ) कलस सुरै भर्या, साधू निंद्या सोइ ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में बताया गया है कि अच्छे लोग कर्मों के आधार पर लोगों को पसंद-नापसंद करते हैं, कुल के आधार पर नहीं |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि उच्च कुल में जन्म लेने से कुछ नहीं होता यदि हमारे कर्म उच्च न हों | जैसे सोने के कलश में मदिरा भर देने पर साधु लोग उसकी निंदा ही करते हैं |

(23)
मथुरा जावै द्वारिका, भावै जावै जगनाथ।
साध संगति हरिभगति बिन, कछू न आवै हाथ।।

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में तीर्थ यात्राओं को व्यर्थ बताते हुए सच्ची भक्ति-भावना के महत्व को स्पष्ट किया गया है |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तू भले ही मथुरा जाए, द्वारिका जाए या जगन्नाथ पूरी की यात्रा कर ले साधु-संतों की संगति और प्रभु भक्ति के बिना कुछ भी हाथ नहीं आएगा |

(24)
काजल केरी कोठरी, काजल ही का कोट |
बलिहारी ता दास की, जे रहै राम की ओट ||

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में कबीर की भक्ति-भावना प्रकट होती है |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि यह सारा संसार काजल की कोठरी के समान है और हमारा शरीर काले कोट के समान है अर्थात यह संसार इतने अवगुणों से भरा है कि इसमें रहते हुए पाक-साफ रहना सम्भव नहीं | दूसरे, मानव शरीर भी अवगुणों की खान है |

कबीर दास जी कहते हैं कि मैं उस प्रभु के दास के बलिहारी जाता हूँ जो हमेशा राम की शरण में रहता है | कहने का भाव यह है कि अवगुण युक्त शरीर को धारण करके अवगुणों की खान इस संसार में रहते हुए वही व्यक्ति पाक-साफ रह सकता है जो प्रभु भक्ति का आश्रय ग्रहण करता है |

(25)
अब तो एसौ ह्वै पड़ी, मन का रुचित कीन्ह |
मरनै कहा डराइये, हाथि स्यंधौरा लीन्ह ||

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में कबीर की भक्ति भावना प्रकट होती है |

व्याख्या — कबीर दास जी कहते हैं कि अब मेरे जीवन में ऐसी अवस्था आन पड़ी है कि मन को रुचिकर लगने लगा है | अर्थात भक्ति मार्ग में आने वाले कष्ट अब मुझे प्रिय लगने लगे हैं | अब मुझे कोई मौत का भय दिखाकर क्या डराएगा मेरी अवस्था सती होने के लिए जा रही है उस स्त्री जैसी हो गई है जिसने मरने का संकल्प लेकर अपने हाथ में सिंधोरा ( सिन्दूरदान ) धारण कर लिया है |

(26)
कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं |
सीस उतारै हाथ करि, सो पैसे घर माहिं |

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में कहा गया है कि भक्ति का मार्ग एक कठिन मार्ग है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर-प्रेम का मार्ग कोई आसान मार्ग नहीं है | जो व्यक्ति अपने शीश को उतार कर अपने हाथ पर रखने का साहस रखता है वही इस घर में प्रवेश कर सकता है | शीश उतारने का प्रतीकार्थ अहंकार मुक्त होने से भी हो सकता है अर्थात अहंकार मुक्त होकर ही ईश्वर भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ा जा सकता है |

(27)
प्रेम न खेतौँ नींपजै, प्रेम न हाटि बीकाइ |
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ ||

प्रसंग – प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिये निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीरदास के पदों से ली गई हैं | इन पंक्तियों में कहा गया है कि अहंकार मुक्त होकर ही प्रेम को प्राप्त किया जा सकता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम को न तो खेत में उपजाया जा सकता है और न ही प्रेम बाजार में बिकता है | राजा-प्रजा जिसे भी यह रुचिकर लगता है वह अपना सिर अर्थात अहंकार देकर इसे प्राप्त कर सकता है | कहने का भाव यह है कि प्रेम को प्राप्त करने के लिए अहंकार मुक्त समर्पण की आवश्यकता होती है और यह बात लौकिक और अलौकिक दोनों प्रेम पर लागू होती है |

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