कबीर की भक्ति-भावना ( Kabir Ki Bhakti Bhavna )

‘भक्ति’ शब्द की उत्पत्ति ‘भज्’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है – भजना अर्थात् भजन करना | ‘ ‘भक्ति’ की कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं :

(क) ‘शांडिल्य भक्ति सूत्र’ के अनुसार ईश्वर में परम अनुरक्ति का नाम ही भक्ति है |

(ख) शंकराचार्य ने उत्कंठा युक्त निरंतर स्मृति को भक्ति कहा है |

(ग) आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं — ” श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है | जब पूज्य-भाव की वृद्धि के साथ श्रद्धाभाजन के सामीप्य-लाभ की प्रवृत्ति, उसकी सत्ता के कई रूपों से साक्षात्कार की वासना हो ; तब ह्रदय में भक्ति का प्रादुर्भाव होता है |

अतः स्पष्ट है कि भक्ति एक ऐसी भावना है जिसमें श्रद्धालु श्रद्धेय से निष्काम प्रेम करता है, निरंतर उसका स्मरण करता है, उसके सामीप्य-लाभ की कामना करता है तथा उसके भजन, श्रवण, कीर्तन, ध्यान आदि में आनंद का अनुभव करता है |

कबीर की भक्ति भावना ( Kabir Ki Bhakti Bhavna )

कबीरदास जी निर्गुण काव्यधारा के सर्वाधिक प्रसिद्ध कवि हैं | सभी विद्वान मानते हैं कि कबीर मूल रूप से भक्त हैं, कवि नहीं | उनकी भक्ति भावना उच्च कोटि की है | वे भक्ति के मार्ग में व्याप्त आडंबरों का विरोध करते हुए सच्चे हृदय से ईश्वर के प्रति अपने प्रेम को अभिव्यक्त करते हैं | शास्त्रीय दृष्टि से उनकी भक्ति में भक्ति के अनेक रूपों की तलाश की जा सकती है |

कबीरदास की भक्ति भावना ( Kabir Ki Bhakti Bhawna ) को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है :

(1) निर्गुण ब्रह्म की उपासना

(2) माधुर्य भक्ति

(3) निष्काम प्रेम की भक्ति

(4) नारदीय भक्ति

(5) सदाचार प्रधान भक्ति

(6) भक्ति के प्रमुख साधन

(1) निर्गुण ब्रह्म की उपासना

कबीरदास जी निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर जोर देते हैं | उनकी उपासना पद्धति अद्वैतवाद से प्रभावित है | वे लिखते हैं —

“जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहरी भीतरी पानी |
फुट्यो कुंभ जल जलहि समाना यह तत कह्यौ ग्यानी |”

कबीरदास जी अवतारवाद का खंडन करते हैं | यद्यपि उनके काव्य में कई स्थानों पर राम, केशव आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है | लेकिन उनका प्रयोजन निर्गुण ब्रह्म से है दशरथ के पुत्र राम या देवकी के पुत्र कृष्ण से नहीं |

कबीर की भक्ति त्रिगुणातीत है | उनके अनुसार इन तीन गुणों से ऊपर उठकर ही चौथे पद की प्राप्ति हो सकती है —

“राजस तामस आतिग तिन्यूँ ये सब तेरी माया |
चौथे पद कौ जे जन चिन्हैं, तिनहि परम पद पाया |”

इस प्रकार कबीरदास जी वेद- शास्त्रों में बताए गए भक्ति के मार्ग की अवहेलना करके ज्ञानमार्गी भक्ति की प्रतिष्ठा करते हैं |

(2) माधुर्य भक्ति

कबीरदास की भक्ति में प्रेम तत्त्व की प्रधानता है | प्रेम प्रधान भक्ति को रागानुगा भक्ति कहा जाता है | कबीर ने इस प्रकार की भक्ति को भावभगति या प्रेमभगति कहा है | शास्त्रीय दृष्टि से यह मूलतः नारदीय भक्ति पद्धति है जिसमें उपास्य और उपासक के बीच अनन्य प्रेम होता है |

कबीर ने विभोर होकर आत्मा-परमात्मा के पारस्परिक वियोग का मार्मिक वर्णन किया है —

“आई सकूँ न तुझ पे सकूँ न तुझ बुलाई |
जियरा यूँहीं लेहुगे बिरहा तपाई-तपाई |”

उनके मन में अपने प्रिय से मिलने की उत्कंठा सदैव बनी रहती है | विरह कातर आत्मा विदग्ध होकर निवेदन करती है —

“कै बिरहन को मीच दै, कै आपा दिखलाय |
आठ पहर का दाझना अब मोपै सहै न जाय |”

कबीरदास जी अपने आराध्य से अनन्य प्रेम करते हैं तथा अपने प्रेम के माध्यम से उन पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेना चाहते | वे लिखते हैं —

“नैना अंतर आव तू, त्यों ही लेहुँ झपेउँ |
ना मैं देखूँ और कूँ, ना तुझ देखण देउँ |”

कबीरदास जी भावभगति को ही भवसागर से तरने का एकमात्र साधन मानते हैं —

“जब लगि भाउ भगति नहिं करिहौँ |
तब लगि भवसागर क्यों तरिहौँ |”

कबीरदास जी की भक्ति भावना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है — आत्मसमर्पण | वे लिखते हैं — “मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा” |

इस प्रकार कबीर ने अपने प्रेमभाव की स्थापना सूफियों के प्रेमभाव के समानांतर कर डाली | सूफी कवियों की प्रेम भावना केवल दांपत्य भक्ति-भावना के आसपास ही घूमती है लेकिन कबीर ने अपनी प्रेम-भावना को कहीं अधिक विस्तृत धरातल पर प्रस्तुत किया है | कबीर ने दांपत्य भावना के साथ-साथ अपनी प्रेम भावना को दास्य, पुत्र-पिता, पुत्र-माता आदि में भी प्रतिष्ठित किया |

(3) निष्काम प्रेम की भक्ति

कबीर के विचार से परमात्मा के प्रति निष्काम प्रेम-भाव की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है | निष्कामता ही वह तत्त्व है जो मध्यकालीन भक्ति भावना को वैदिक भक्ति भावना से पृथक करता है | वह भक्ति ही शुद्ध और सर्वोत्तम मानी जाती है | जो व्यक्ति किसी कामना से भक्ति करता है उस भक्ति को कबीर निष्फल मानते हैं | वे कहते हैं — ‘जब लगि भगति सकामता तब लग निरफल सेवा |’

यदि कबीर निष्काम भक्ति को ही महत्त्व देते हैं तो प्रश्न यह उठता है कि फिर भक्ति का उद्देश्य क्या है? इस सम्बन्ध में कबीर ने बार-बार एक ही बात कहते हैं कि भक्ति का उद्देश्य केवल आत्मा का परमात्मा से मिलन है |

वे कहते हैं-

“लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल ।

लाली देखन में गई, मैं भी हो गई लाल |”

कबीर की दृष्टि में निष्काम भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ भक्ति है। यदि उन्हें परमात्मा के दर्शन हो भी जाएं तो मोक्ष, धन, सुख-वैभव आदि किसी भी वस्तु को माँगने की नहीं सोचते। उन्हें तो केवल एक ही लग्न यदि उन्हें परमात्मा मिल जाएं तो वे उन्हें अपने अपनी आँखों में बसा लेंगे |

“नैना अंतरि आव तू, ज्यूँ हौँ नैन झपेऊँ |

ना मैं देखूं और कूँ, ना तुझ देखन देऊँ ||”

(4) नारदीय भक्ति

श्रीमद्भागवत पुराण में नवधा भक्ति का उल्लेख है — श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पदसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन | नारद भक्ति सूत्र में जो भक्ति की विशेषताएं बताई हैं वे नवधा भक्ति से मेल खाती हैं | नारद के अनुसार भक्ति ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है | समस्त कर्म और आचारों को ईश्वर के प्रति अर्पित कर देना ही भक्ति है | भक्त ईश्वर से इतना प्रेम करता है कि वियोग की स्थिति में व्याकुलता का अनुभव करता है। ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम को विविध भावों द्वारा स्पष्ट किया गया है। वात्सल्यभाव के अन्तर्गत कबीर ने परमात्मा से कहीं पिता के रूप में और कहीं माता के रूप में सम्बोधित किया है —

“कहै कबीर बाप रामराया, अबहूँ सरन तुम्हारी आया।'”

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“हरि जननी मैं बालक तेरा, काहे न औगुन बकसहु मेरा”

कबीर की वाणी में दास्य और सख्य भाव की भक्ति के उदाहरण कम मिलते हैं |

“दास रामहि जानि है, और न जाने कोई” ( दास्य भक्ति )

“कबीर कुत्ता राम का मुतिया मेरा नाँव

गले राम की जेवड़ी जित खिंचै तित जाउँ |” ( दास्य भक्ति )

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‘पवना देगि उतावला, सो दोस्त कबीरे कीन्ह’

कबीर की भक्ति में प्रमुख और प्रबल भाव दाम्पत्य व कांताभाव है। वे कहते हैं —

“हरि मोरा पीव, में हरि की बहुरिया”

कबीर की भक्ति का यह रूप उन्हें सूफी कवियों के निकट ले जाता है |

आत्मनिवेदन की स्थिति में वे ईश्वर से अभेद सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं | यह पूर्ण समर्पण की स्थिति है |

कबीरदास जी कहते हैं —

“तेरी गति तू ही जाने, कबीरा तो सरना |”

इस प्रकार नवधा भक्ति के सभी रूपों का समावेश कबीर की भक्ति भावना में हुआ है।

(5 ) सदाचार प्रधान भक्ति

कबीरदास जी जीवन में सदाचार को महत्त्व देते हैं | वे प्रत्येक भक्त से सदाचार का पालन करने का आह्वान करते हैं। कई स्थानों पर वे सदाचारी गृहस्थ को महान कर्मकांडी पंडित से श्रेष्ठ बताते हैं | माया को वे सदाचारी मनुष्य बनने की राह में बाधा मानते हैं | इसलिए वे प्रत्येक मनुष्य को कनक और कामिनी का त्याग करने का परामर्श देते हैं | वे कहते है कि कामिनी अर्थात् व्यभिचारिणी नारी मानव के तीन सुखों का नाश कर देती है —

“नारी नसावे तीन सुख, जा वर पास होय|

भगति मुकति निज ज्ञान में, पैसि न सकई कोय ||”

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“एक कनक अरु कामिनी, दोऊ अगन की झाल |

देखन ते ही बदन जले, पास जाये हूँ पसाल ||”

कबीरदास जी कुसंगति को बुरे आचरण का कारण मानते हैं | कुसंगति के कारण मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार कुसंगति साधना में सबसे बड़ी बाधक है। जब तक व्यक्ति कुसंगति में रहता है तब तक वह एकाग्रचित होकर प्रभु का स्मरण नहीं कर सकता। इसलिए कबीर ने कुसंगति के कुप्रभावों के साथ-साथ सत्संगति के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला है | कुसंगति के दुष्प्रभावों को अभिव्यक्त करते हुए वे कहते हैं —

“भाषी गुड़ मैं गडि रही, पंच रही लपटाइ |

ताली पीटे सिरि धुने, मीठे बोई भाइ ||”

सदाचार अपनाने के लिए वे साधु-संतों की संगति को अपनाने का परामर्श देते हैं।

“कबीर संगति साधु की, बेगि करी जे जाए |

दूरमति दूरि गवाँइ, सो, देसी सुमति बताइ ||”

(6) भक्ति के प्रमुख साधन

कबीर ने भक्ति में प्रचलित आडम्बरों व मिथ्या परंपराओं का बहिष्कार किया है। वे पूजा, जप, तप आदि को मन बहलाने वाली गुड़िया का खेल-मात्र समझते हैं। वे कहते कहते हैं —

“पूजा-सेवा-नेम व्रत, गुड़ियन का-सा खेल |

जब लगि पिउ परसे नहि, तब लग संसय मेल ||”

उन्होंने धर्म के तथाकथित ठेकेदारों जैसे पुजारियों, मौलवियों आदि के बाह्याचार पर व्यंग्य प्रहार करते हुए कहा है —

“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहार |

ताते ये चाकी भली पीस खाये संसार ||”

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“कांकर पत्थर जोरी कै मस्जिद लै बनाय |

तां चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय ||”

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि कबीरदास ने पूजा, जप, तप आदि को भक्ति का साधन नहीं माना है। उन्होंने अपनी रचनाओं में गुरु, सत्संग तथा मानव शरीर इन तीनों को ही भक्ति का प्रमुख साधन बताया है।

कबीर के अनुसार गुरु साधक को विकार और संशय मुक्त करके उसे भक्ति का सही मार्ग दिखाता है |

गुरु की महिमा का उल्लेख करते हुए कबीरदास जी कहते हैं —

“सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार |

लोचन अनंत उघाड़िया , अनंत दिखावनहार ||”

कबीरदास जी ढोंगी, मूर्ख और अयोग्य गुरु से बचने का परामर्श भी देते हैं | वे मनुष्य को सचेत करते हुए कहते हैं —

“जाका गुरु भी अंधला, चेला निरा निरंघ,

अंधे अंधा ठेलिया, दोऊ कूप पडन्त |”

इसी प्रकार वे सत्संग को भी भक्ति का एक प्रमुख साधन मानते हैं। साधु-संगत में भक्त को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह बैकुण्ठ में भी नहीं मिल सकता। इसीलिए कबीरदास कहते हैं-

“राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |

जो सुख साधु-संग में, सो बैकुंठ न होय ||”

मानव शरीर से ही भक्ति संभव है। कबीर के अनुसार मानव जीवन दुर्लभ है | इसीलिए मानव शरीर को विषय-वासना में नष्ट नहीं करना चाहिए, बल्कि इसे प्रभु भक्ति में समर्पित कर देना चाहिए |

“कबीरा हरि की भक्ति करु, तजि विषया रस चौज |

बार-बार न पाई है, मानुष जन्म की मौज ||”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कबीर की भक्ति में नवधा भक्ति का प्रत्येक रूप न्यूनाधिक मिलता है लेकिन मूलत: उनकी भक्ति ज्ञान, प्रेम और सदाचार पर आश्रित है |

कबीर की भक्तिभावना के सम्बन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है —

“कबीरदास की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति का बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी और जिसका विकास स्वानुभूति का अवलम्ब पाकर हुआ था।”

कबीर की यह स्वानुभूति ही उनकी भक्ति में प्रेम और सदाचार का योग करती है |

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