कबीर की रहस्य-साधना ( रहस्यानुभूति )

साहित्य विशेषतः काव्य के क्षेत्र में रहस्यवाद का अर्थ आत्मा-परमात्मा के संबंधों की व्याख्या से लिया जाता है | जब कवि अपने आध्यात्मिक विचारों व अलौकिक शक्ति से अपने संबंध की चर्चा करता है, रहस्यवादी कहलाता है |

रहस्यवाद का अर्थ व परिभाषा

रहस्यवाद कोई दाशनिक सिद्धान्त नहीं है, वह एक मनोदशा मात्र है। इसको परिभाषित करना अमृतकुण्ड को मिट्टी के घड़े में भरने के समान है। रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है। रहस्यवाद के उन्माद में जीव इन्द्रिय जगत् से बहुत ऊपर उठकर विचारशक्ति और भावनाओं का एकीकरण कर अनन्त और अंतिम प्रेम के आधार में मिल जाना चाहता है । यही उसकी साधना और उद्देश्य है।

डॉ रामकुमार वर्मा का विचार है कि, “रहस्यवाद एक अलौकिक विज्ञान है जिसमें अनन्त के संबंध की भावना का प्रादुर्भाव होता है और रहस्यवादी वह व्यक्ति है जो इस संबंध के अत्यन्त निकट पहुँचता है और उस संबंध का ही रूप धारण कर अपनी आत्मा को भूल जाता है।”

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जायसी के रहस्यवाद का विवेचन करते हुए रहस्यवाद के दो भेद किए हैं — ‘साधनात्मक और भावात्मक’ । योग साधना से सम्बद्ध् होने के कारण आचार्य शुक्ल ने कबीर के रहस्यवाद को साधनात्मक रहस्यवाद माना है।

अन्य विद्वानों ने भी रहस्यवाद के चार भेद माने हैं —

(1) दार्शनिक रहस्यवाद — जब जीवात्मा दार्शनिक की मुद्रा में परोक्ष सत्ता के स्वरूप की चर्चा करने लगती है।

(2) सौंदर्यमूलक रहस्यवाद — जब रहस्यवादी को प्रकृति के सौन्दर्य में अलौकिक सत्ता की झलक मिलती है।

(3 ) प्रेमूलक रहस्यवाद- वह मानवीय प्रेम और सौन्दर्य में अलौकिक प्रेम की झलक पाता है।

(4) भक्तिमूलक रहस्यवाद — जब जीव परमतत्त्व के
प्रति निष्ठापूर्वक अपनी भावनाएँ अर्पित करता हुआ सच्चे भक्त की भूमिका में दिखाई पड़ता है।

जहाँ तक रहस्यवाद के विविध प्रकारों का संबंध है कबीर में दाशनिक, भक्तिमूलक और प्रेममूलक रहस्यवाद की स्थितियाँ स्पष्ट हैं | जब कबीर कहते हैं – “जाके मुँह माथा नाहिं, नाहिं रूप कुरूप, पुहुप बास ते पातला ऐसा तत अनूप” तब वे दाशनिक की मुद्रा में होते हैं। जब कबीर ‘अब मोहि राम भरोसो तेरो’ कहते हैं तब वे सच्चे भक्त की भूमिका में होते हैं। प्रेम केन्द्रित दाम्पत्य संबंधों की सारी व्यंजना कबीर को एक प्रेममूलक रहस्यवादी का गौरव प्रदान करती है।

यथा —

“मैं अपने साहब संग चली
हाथ में नारियल मुख में बीड़ा मोतीयन माँग भरी।
बिल्ली घोड़ी जरद बछेड़ी तापे चढ़ि के चली।”

कबीर के रहस्यवाद पर प्रभाव

कबीर के रहस्यवाद पर प्रचलित हिन्दू-मुस्लिम रहस्यवादी मतों का प्रभाव था जिसे उन्होंने अपने मौलिक व तार्किक चिंतन से विशिष्ट रूप प्रदान किया |

डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार, “कबीर का रहस्यवाद अपनी विशेषता लिए हुए है। वह एक और तो हिन्दुओं के अद्वैतवाद के क्रोड़ में पोषित है और दूसरी और मुसलमानों के सूफी सिद्धान्तों को स्पर्श करता है। रहस्यवाद में उन्होंने अद्वैतवाद और सूफी मत की गंगा-जमुना साथ ही बहा दी है।”

वस्तुतः कबीर का रहस्यवाद एक ओर हिन्दुओं के अद्वैतवाद से प्रभावित है और दूसरी ओर सूफी सिद्धान्तों को अपने में मिलाता है। उन्होंने अद्वैतवाद से चिंतन और सूफीमत से प्रेमत्त्व लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की है।

शंकराचार्य का अद्वैतवाद बताता है कि आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो रूप हैं जिन्हें माया ने अलग कर रखा है | ज्ञान से माया नष्ट हो जाती हैं और दोनों तत्त्व एक हो जाते हैं। कबीर ने इसी मत से प्रभावित होकर कहा है —

“जल में कुम्म, कुम्भ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यह तत् कह्यो गियानी ।”

सूफी मत में प्रेम के सोपानों का वर्णन है जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है प्रेमोन्माद | प्रेमोन्माद के कारण ही ईश्वरानुभूति होती है। कबीरदास कहते हैं-

“हरि रस पीया जानिये, कबहु न जाय खुमार।
मैमन्ता घूमत फिरे, नाही तन ही सार।”

रहस्यवाद की अवस्थाएँ

रहस्यवाद की विभिन्न अवस्थाओं के संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। रहस्यवाद के अध्येताओं ने इन मानसिक स्थितियों को लक्षित करते हुए इन्हें क्रमशः जागरण की स्थिति, आत्मशुद्धि की स्थिति , प्रकाशानुभव की स्थिति, विध्नबाधाओं की स्थिति और पूर्ण ऐक्य की स्थिति के रूप में माना है।

आस्था — रहस्यवाद की सर्वप्रथम अवस्था आस्तिकता की है। कबीर निश्वय ही आस्तिक थे, बेशक उन्होंने ब्रह्म के लिए शून्य का प्रयोग किया है | वे ईश्वर को सर्वव्यापक, अखण्ड और निराकार मानते हैं |

वह आश्चर्य और जिज्ञासा से परमात्मा को देखते हैं –

“कहहि कबीर पुकार के अद्भुत कहिए ताहि

प्रेमभाव — उस परमतत्त्व की अनुभूति के लिए आत्मा प्रेम से परिपूर्ण होकर अग्रसर होती है। वह सांसारिकता का बहिष्कार कर दिव्य और अलौकिक वातावरण से भर उठती है। वह उस सत्पुरुष के संसर्ग से, उसकी अलौकिक शक्ति से हत्बुद्धि हो जाती है। कबीर ने ब्रहम में सात्विक हृदय की अभिव्यक्ति मानी है और प्रेम के सन्दर्भ में सूफी साधना का आश्रय लिया है।

कबीर ने इस भाव को दाम्पत्य भाव से स्पष्ट किया है —

‘हरि मोर पीव, माई हरि मोर पीव, हरि बिन रहि न सकै मोर जीव।’

सद्गुरु भाव — प्रेमोदय होने के बाद भी मिलन सम्भव नहीं जब तक कि गुरु सही राह न बताए। रहस्य भावना के प्रति उन्मुखता में गुरु ही सर्वस्व है, जिसका कबीर ने मुक्त कंठ से गान किया है —

सद्गुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार,
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार।”

नाम साथना — रामनाम के रस का वर्णन कबीर बार-बार करते हैं, नाम-स्मरण को साधना का सार कहते हैं किंतु उनका राम दशरथ-पुत्र राम न होकर सर्वव्यापक निर्गुण ब्रह्म है |

‘तत तिलक तिहूँ लोक में, राम जिन सार,
जन कबीर मस्तक दिया, सोभा अधिक अपार।

माया-बाधा — कबीर के विचार में ब्रहम प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा-माया ही है। इसी को सूफियों ने शैतान कहा है। माया का चित्रण कबीर ने कंचन और कामिनी के रूप में किया है | उन्होंने माया को भौतिक जगत के विभिन्न रूपों में रखकर परखा है | कबीर ने ‘रमैणी’ में माया का विभत्स चित्रण किया है |

माया के संबंध में एक स्थान पर कबीर जी कहते हैं —

माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया शरीर,
आसा त्रिष्णाँ ना मुई, याँं कहि गया कबीर।

विरह-भाव — मिलन में बाधक माया के कारण विरह-भाव में लीन आत्मा की दशा का वर्णन कबीर ने ‘विरह कौ अंग’ में किया है | विरहिणी की तड़प का अत्यंत सजीव वर्णन करते हुए वे कहते हैं —

“जिव तरसे तुझ मिलन कूँ, मन नाहिं विसराम”

इस भाव के अंतर्गत कवि ने विरहिणी की विवशता, विकलता, चिंता, उन्माद आदि का मार्मिक वर्णन किया है | रहस्यवाद की इस अवस्था की अभिव्यक्ति दांपत्य प्रेम में ही सर्वाधिक सशक्त रूप में होती है | विरह की दशा में प्रेमानुभूति का उद्रेक होता और हदय की तन्मयता अपने चरम पर पहँच जाती है —

“के विरहणि के मींचू दै, कै आपा दिखलाई,
आठ पहर का दाझणा मोपे साह्या न जाई |”

आत्मशुद्धि — आत्मशुद्धि के लिए काम, क्रोध, लोभ, मोह से मुक्त होने का निर्देश कबीर ने दिया है | आत्माहुति के बाद वाणी वैसे ही शुद्ध हो जाती है जैसे अग्नि मेंआहुति से दीप्ति उत्पन्न होती है | आत्मशुद्धि के बाद परमात्मा की ज्योति का आभास मिलाना आरंभ हो जाता है |

कबीर दास जी उस अलौकिक तेज के वर्णन में अपने को असमर्थ पाते हैं :–

“पारब्रह्म के तेज का कैसा है उनमान,
कहिबे कूँ सोभा नहीं देख्या ही परवान |”

परचा — भावातिरेक की इस दशा में भक्त की दशा सती जैसी होती है जिसमें वह आत्म-बलिदान के लिए तैयार हो जाता है । रहस्यवाद की इस चरम दशा में मिलनजन्य अनन्द का वर्णन होता है, यही परचा व प्रत्यभिज्ञा है । यहाँ आत्मा परमात्मा की ज्योति में लीन होकर विश्व की विराटता का अनुभव करती है और आनन्दातिरेक से परमात्मा के गुणों का वर्णन करने का प्रयास करती है।

“सती जलन कू नीकली, चिस धरि एक बमेख।
तन मन सौप्या पीव कुं, तब अंतरि रही न रेख।।”

तद्रूपता — यह आत्मा और परमात्मा के एकरूप होने की अवस्था है। आत्मा व परमात्मा का अस्तित्त्व और विलय एक-दूसरे पर निर्भर करता है —

“हरि मरि है तो हमहूँ मरिहैं,
हरि न मरै हम काहे कू मरिहैं |”

इसी तद्रूपता की स्थिति को कबीर ने ‘उन्मनी‘ कहा है। यहाँ पहुँचकर कबीर ब्रहम को जननी, स्वामी, पिता, अगम, अगोचर, शून्य ; न जाने क्या-क्या कहते हैं। इसी दशा में वे अपने भाव को स्पष्ट करने में असमर्थ पाते हैं और रूपकों से काम लेते हैं जिसे प्रायः ‘गूंगे का गुड़’ कहते हैं। इस अकस्मात् बोध को सभी रहस्पवादी अनिर्वचनीय मानते हैं। उनका भावोन्माद इतना प्रबल होता है कि साधारण भाषा उसे वहन नहीं कर पाती और इसीलिए कबीर भी उलटबॉंसियों का प्रयोग करने लग जाते हैं |

फ्रायड का मत भी यही है कि आत्मा की भाषा रूपकों में ही प्रकट होती है। कबीर के रूपक फूल की भान्ति उत्पन्न होते हैं और विकसित भी, लेकिन उसमें दुरुहता के काँटे भी होते हैं। कबीर के वचनों की दिव्यता उसके रूपकों के अन्दर समाहित रहती है।

कबीर के रहस्यवाद की विशेषताएँ

(1) योगमूलक रहस्यवाद — करबीर का रहस्यवाद भारतीय आध्यात्मिक आदर्शों का प्रतीक है। कबीर के रहत्यवाद में
यौगिक प्रक्रियाओं और पारिभाषिक शब्दों का उचित प्रयोग मिलता है। कुछ विद्धानों का कहना है की कबीर पहले हठयोगी थे बाद में सहजयोगी हो गए थे, लेकिन यह भी निश्चित है कि वे योगियों के पाखण्डों के आलोचक थे। सहज का अर्थ है कि कबीर ने कष्टसाध्य शारीरिक अभ्यास को महत्व नहीं दिया | साथ ही उन्होंने शास्त्र सम्मत, व्रत, रोजा, नमाज की तुलना में सहज साधना को अधिक महत्त्व दिया । कुडलिनी योग की चर्चा से कबीर के पद भरे हुए हैं। रामानन्दी सम्प्रदाय में दीक्षित कबीर रामनाम के मंत्र को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं | इनके काव्य में अजपा-जाप की महिमा गाई गई है।

“अवधू ऐसा ज्ञान विचारी, ज्यौँ बहुरि न हूवै संसारी,
अजपा जपत सुनि अभिअंतर, तत जाने सोई।”

डॉ पीतांबर दत्त बड़त्थवाल ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि कबीर कुण्डलिनी योग को मानते थे। उनके मतानुसार कबीर के योग में प्राणायाम, चक्रभेदन व अनहदनाद का प्रयोग मिलता है | संक्षिप्तत: योगपूलक रहस्यवाद कबीर काव्य का अभिन्न अंग है |

(2) भावमूलक रहस्यवाद — कबीर के रहस्यवाद की दूसरी विशेषता भावमूलकता है। उनमें भक्तिभावना का भी पूर्ण उद्रेक मिलता है। भावात्मक रहस्यवाद में भक्त सम्पूर्णतः भगवान की शरण में चला जाता है। कबीर के रहस्यवाद में ज्ञान की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व दिया गया है, क्योंकि इसी से ईश्वर को वश में किया जा सकता है।

जब रहस्यवादी आध्यात्मिक दशा में आत्मा को परमात्मा से मिला देता है, तो वह आनन्द में तल्लीन हो जाता है। इसी आध्यात्मिक, अलौकिक अवस्था का प्रतिरूप कबीर की इस वाणी में मिलता है —

“योगियों की नगरी बसे मत कोई, जो रे बसे सो योगिया होई ।”

कबीर की मस्ती, आत्मा-परमात्मा का संबंध और कुछ प्रतीकात्मकता सूफी रहस्यवाद का भारतीय संस्करण है।

(3) अभिव्यत्ति पक्ष — अभिव्यक्ति पक्ष की दृष्टि से कबीर के रहस्यवाद में प्रत्यक्ष, प्रतीक पद्धति, उलटबाँसी – तीनों का प्रयोग दिखाई देता है। इन तीनों के उदाहरण देखिये :

प्रत्यक्ष पद्धति — “कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा न जाइ ।”

प्रतीक पद्धति — “साहब है रंगरेज, चूनर मेरी रंग डाली।”

उलटबाँसी पद्धति — “(चक्र) धरती उलटि अकासहि ग्रासै, यह पुरिखा की बानी ।”

इस प्रकार कहा जा सकता है कि कबीर का रहस्यवाद योग, भाव और अभिव्यक्ति की सुंदर त्रिवेणी है।

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