कबीर की सामाजिक चेतना ( Kabir Ki Samajik Chetna )

कबीरदास जी भक्ति काल की निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं | यद्यपि वे मुख्यतः संत हैं तथापि उनकी वाणी में काव्यत्व के सभी गुण मिलते हैं | उनकी काव्य में भक्ति परक पदों के साथ-साथ सामाजिक चेतना का का स्वर भी दिखाई देता है | जाति प्रथा, भेदभाव, छुआछूत, मूर्ति पूजा व धार्मिक आडंबरों का वे तीखे शब्दों में खंडन करते हैं | हिंदू धर्म और मुस्लिम धर्म के गलत और रीति-रिवाजों के विरुद्ध वे जिस निर्भीकता से लिखते हैं संभवत आज के दौर में भी वैसा लिख पाना हर किसी के बस की बात नहीं | कबीर दास जी की सामाजिक चेतना को निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है —

(1) मूर्ती पूजा का विरोध

कबीर दास जी मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं | उनका मानना है कि ईश्वर का न कोई रंग रूप है और न कोई आकार | वह कण-कण में व्याप्त है |

“पाहन पूजे हरि मिलै, तो मैं पूजुँ पहार |

ता ते वा चाकी भली, जे पीस खाए संसार ||”

(2) अवतारवाद का विरोध

कबीर दास जी का मानना है कि ईश्वर एक है | इसलिए हिंदू धर्म में व्याप्त अवतारवाद की अवधारणा का वे खंडन करते हैं | ईश्वर के विभिन्न अवतारों की कथाओं को वे महज कल्पना मानते हैं |

(3) तीर्थ-हज का विरोध

हिंदू धर्म तथा मुस्लिम धर्म में व्याप्त विभिन्न आडंबरों का वे विरोध करते हैं | वे कहते हैं कि हिंदुओं की तीर्थ यात्रा और मुस्लिमों की हज यात्रा आडंबर मात्र हैं | उनका मानना है कि ईश्वर को बाहर ढूंढना व्यर्थ है | वास्तव में ईश्वर मनुष्य के शरीर में ही निवास करते हैं |

(4) तिलक-टोपी आदि का विरोध

कबीर दास जी ने बड़े व्यंग्यात्मक ढंग से उन लोगों का विरोध किया है जो विभिन्न प्रकार के पहनावे को ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक मानते हैं | शरीर पर विभिन्न प्रकार की छाप लगाना, तिलक लगाना, विभिन्न प्रकार की माला पहनना, टोपी पहनना आदि सब व्यर्थ हैं | वे कहते हैं —

“माला तो कर मे फिरै, जीभ फिरै मुख मांहि |

मनवा तो चहुँ दिस फिरै, यह तो सुमिरण नाहिं ||”

ऊँची आवाज का विरोध

कबीरदास जी ने ऊँचे स्वर में ईश्वर को पुकारने, उसका गुणगान करने या प्रार्थना करने का विरोध किया है | उनका मानना है कि ईश्वर आपके घट में ही विद्यमान है तथा वह आपकी प्रत्येक मनोदशा को जनता है | एक स्थान पर वे कहते हैं —

“कांकर पत्थर जोरि कै, मस्जिद लै बनाय |

ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय |”

यह पंक्तियां स्पष्ट रूप से इस्लाम में प्रचलित मस्जिद में चीखने-चिल्लाने की प्रथा का विरोध करती हैं परन्तु अब हिन्दू, सिख और ईसाई धर्म में भी यही सब हो रहा है | लाउड स्पीकर के माध्यम से सभी धर्म ध्वनि प्रदूषण कर रहे हैं | कबीर की दृष्टि में ये ईश्वर को बहरा समझने के समान है |

(6) शाक्त मत की निंदा

कबीर दास जी अनेक बुराइयों के बावजूद वैष्णव धर्म की प्रशंसा करते हैं | वैष्णव धर्म की अहिंसक प्रवृत्ति उन्हें प्रिय है | शास्त्र धर्म में बलि प्रथा प्रचलित है | इसलिए कबीर दास जी शाक्त मत की घोर निंदा करते हैं | वे यहाँ तक कहते हैं — “साकत से सूकर भला, राखै सूचा गाँव |”

(7) जाति-पाति का विरोध

कबीरदास जी हिंदू धर्म में व्याप्त जाति-पाति तथा ऊंच नीच का घोर विरोध करते हैं | उनकी दृष्टि में प्रत्येक मनुष्य समान है | सभी मनुष्य उस ईश्वर की रचना हैं | वे कहते हैं — “साईं के सब जीव हैं, कीरी कुंजर दोई |”

ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पर व्यंग्य करते हुए वे लिखते हैं — “जै ते बामण-बामणी जाया, आन बाट ह्वै क्यों नहीं आया |”

अतः स्पष्ट है कि कबीर दास जी की सामाजिक चेतना अपने युग से बहुत आगे की थी | वे उस रूढ़िवादी मध्यकालीन युग में सामाजिक समता और आडंबर हीन समाज की वह दृष्टि रखते थे जो विज्ञान और संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद आधुनिक काल में भी आज तक लक्ष्य मात्र है |

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