सूरदास व्याख्या ( Surdas Vyakhya )

विनय तथा भक्ति

(1)
चरण-कमल बंदौ हरिराइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघऎ ,अंध कौ सब कुछ दरसाई।।
बहिरौ सुनै, गूँग पुनि बौले, रंक चलै सिर छत्र धराइ। 
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बदों तिहिं पाइ।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में सूरदास की भक्ति-भावना का परिचय मिलता है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि मैं प्रभु के चरण-कमलों की वंदना करता हूँ जिनकी कृपा से अपाहिज पर्वत लांघ जाते हैं, अंधे देखने लगते हैं, बहरे सुनने लगते हैं, गूंगे बोलने लगते हैं और सामान्य निर्धन व्यक्ति राज-छत्र धारण कर लेते हैं ; सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी करुणामय हैं | मैं बार-बार उन्हीं के चरणों की वंदना करता हूँ |

(2)
प्रभु को देखौ एक सुभाइ।
अति - गंभीर - उदार उदधि हरि, जान सिरोमनि राइ। 
तिनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु- समान। सकुचि गनत अपराध - समुद्रहिं बूंद तुल्य भगवान।
 वदन - प्रसन्न कमल सनमुख ह्वै देखत हौ हरि जैसे।
बिमुख भए अकृपा न निमिषहूं, फिरि चितयौ तौ तैसै। 
भक्त-विरह कातर करुनामय, डोलत पाछे लागे। सूरदास ऐसे स्वामी कौ देहि पीठि सो अभागे।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में सूरदास की भक्ति-भावना व प्रभु की भक्त-वत्सल छवि का परिचय मिलता है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण का मैंने एक स्वभाव देखा है | वे सागर के समान अत्यंत गंभीर एवं उदार हैं | वे ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हैं | वे अपने भक्त के तिनके के समान छोटे गुण को सुमेरु पर्वत के समान महान मानते हैं | वे अपने भक्तों के सागर के समान विशाल ( बड़े ) अपराध को पानी की बूँद के समान तुच्छ मानते हैं | वे अपने भक्तों को सम्मुख देखकर प्रसन्न-मुख हो जाते हैं | यदि कोई भक्त किसी कारणवश उनसे रूठ जाता है और उनसे मुँह फेर लेता है तब भी वे नाममात्र के लिये भी उससे क्रोधित नहीं होते और जब भक्त अपनी गलती मानकर पुनः उनकी शरण में आ जाता है तो वे पहले की भांति अपने भक्तों पर प्रसन्न हो जाते हैं | सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्ण अपने भक्तों से इतना अधिक प्रेम करते हैं कि उनकी विरह-वेदना से दग्ध होकर उनके पीछे-पीछे घूमने लगते हैं | सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार के स्वामी श्री कृष्ण को जो पीठ दिखाते हैं अर्थात उनसे विमुख हो जाते हैं, वे सबसे बड़े अभागे हैं |

(3)
प्रभु, हौं सब पतितन कौ टीकौ।
और पतित सब दिवस चारि के, हौँ तो जनमत ही कौ।
बधिक अजामिल, गनिका, तारौ और पूतना ही कौ।
मोहि छांड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यों जी कौ। कोउ न समरथ अघ करिबे कौ, खैच कहत हौ लीकौ।
मरियत लाज सूर पतितन में, मोहूँ तै कौन नीकौ ||

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में सूरदास की भक्ति-भावना व प्रभु की पतित-पावन छवि का परिचय मिलता है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु मैं सब पापियों में सर्वश्रेष्ठ हूँ अर्थात मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | अन्य पापी तो केवल चार दिन के अर्थात थोड़े समय के पापी हैं लेकिन मैं तो जन्मजात पापी हूँ | हे प्रभु! आपने बधिक, अजामिल, गणिका ( वैश्या ) तथा पूतना राक्षसी आदि का उद्धार किया | मुझे छोड़कर आपने सभी का उद्धार कर दिया ; अतः मेरे हृदय की पीड़ा कैसे दूर हो सकती है? मैं यह बात लकीर खींच कर कहता हूँ कि मेरे समान संसार में और कोई पाप करने में समर्थ नहीं है अर्थात मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | कहने का तात्पर्य यह है कि हे प्रभु! मैंने सुना है कि तुम पापियों का उद्धार करते हो तो इस दृष्टिकोण से सबसे पहले मेरा उद्धार किया जाना चाहिए क्योंकि मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि मैं तो इस शर्म से मरा जा रहा हूँ कि पापियों में मुझसे बढ़कर और कोई नहीं है |

(4)
मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।
जैसे उड़ि जहाज को पच्छी, फिर जहाज पे आवै। कमल - नैन कौ छांड़ि महातम, और देव को ध्यावै। परम गंग कौ छाड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै। जिहिं मधुकर अंबुज - रस चाख्यौ, क्यों करील - फल भावै।
 सूरदास - प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै ।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में सूरदास की भक्ति-भावना का परिचय मिलता है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! मेरा मन आपको छोड़कर और कहीं भी सुख नहीं पाता | जिस प्रकार से एक जलयान पर बैठा हुआ पक्षी इधर-उधर उड़ता है और अंत में फिर से उसी जहाज पर आश्रय लेता है ठीक उसी प्रकार से मेरा मन भी इधर उधर भटकने के उपरांत आपकी शरण में ही सुख पाता है | हे प्रभु! आप जैसे कमल-नयन महान प्रभु को छोड़कर किसी और का ध्यान लगाना ठीक उसी प्रकार से मूर्खतापूर्ण है जिस प्रकार से परम पवित्र गंगा को छोड़कर कोई व्यक्ति कुआं खोदकर अपनी प्यास बुझाने की चेष्टा कर रहा हो | हे प्रभु जिससे भंवरे ने कमल-रस का पान किया हो उसे करेले का कड़वा रस क्यों अच्छा लगेगा? कहने का तात्पर्य यह है कि प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति कमल रस के समान सरस है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु आपकी भक्ति तो कामधेनु के समान सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है अतः कोई मूर्ख व्यक्ति ही आपकी भक्ति रूपी कामधेनु को छोड़कर किसी अन्य देव देवता की भक्ति रूपी बकरी को दोहने का प्रयत्न करेगा |

(5)
तजौ मन, हरि बिमुखनि कौ संग।
जिनकै संग कुमति उपजति है, परत भजन में- भंग। 
कहा होत पय पान कराऐं, विष नहिं तजत भुजग। कागहिं कहा कपूर चुगाऐं, स्वान न्हवाऐ गंग।
खर कौ कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषन - अंग। गज कौ कहा सरित अन्हवाऐं, बहुरि धरे वह ढग। पाहन पतित बान नहिं बेधत, रीतो करत निषँग ( तरकस )
सूरदास कारी कामरि पै, चढ़त न दूजौ रंग।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में सूरदास ने दुष्ट लोगों की संगति से बचने का सुझाव दिया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि हे मेरे मन ! तू प्रभु से विमुख रहने वाले लोगों का साथ छोड़ दे क्योंकि इन लोगों के साथ रहने से दुर्बुद्धि उत्पन्न होती है और प्रभु-भजन में बाधा पड़ती है | इन लोगों को सदुपदेश देकर सुधारा भी नहीं जा सकता | अपनी बात को स्पष्ट करने के लिये सूरदास जी कुछ उदाहरण देते हैं | वे कहते हैं कि साँप को दूध पिलाने से क्या होता है, वह फिर भी अपना विष नहीं छोड़ता | कौए को कपूर चुगाने, कुत्ते को गंगा में नहलाने, गधे को अरगजा ( कपूर, चंदन का लेप ) का लेप करने, बंदर को आभूषण पहनाने से क्या होता है अर्थात कुछ नहीं | ये सभी अपनी मूल प्रवृत्ति नहीं छोड़ते | हाथी को सरिता में नहलाने से क्या होता है? वह फिर से अपने उसी रूप में आ जाता है अर्थात भूमि पर लोटकर फिर गन्दा हो जाता है | सूरदास जी कहते हैं कि पतित रूपी पत्थर को सदुपदेश रूपी बाण बिद्ध नहीं कर सकते, व्यर्थ में तरकस खाली होगा | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि काली कंबली पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता अर्थातलाख प्रयत्न करने पर भी दुष्टों की मूल प्रवृत्ति को नहीं बदला जा सकता |

गोकुल लीला (बाल लीला वर्णन)

(6)
शोभित कर नवनीत लिये |
घुटरुनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किये।  चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिये।
लट - लटकनि मनु मत्त मधुप-गन मादक मधुहिं पिए। 
कठुला - कंठ, वज्र केहरि- नख राजत रुचिर हिए। धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख, का सत कल्प जिए।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | यहाँ श्री कृष्ण के बाल रूप की एक सुंदर झांकी प्रस्तुत की गई है |

व्याख्या — भगवान् कृष्ण हाथ में माखन लिये हुये सुशोभित हो रहे हैं। धूल धूसरित शरीर तथा मुख मे दधि लेप किये वे घुटनो के बल चल रहे है। उनके कपोल सुन्दर हैं, नेत्र चंचल हैं तथा वे गोरोचन का तिलक दिये हैं। उनके लटों की लटकन ऐसी प्रतीत होती है मानो उन्मत्त भ्रमरों का समूह, मादक मधु का पान कर (के झूम) रहा हो। उनके कण्ठ में कठुला और हृदय पर सिंह का नाखून (अथवा सिह नख और मणि ) सुशोभित हो रहा है । सूरदास कहते हैं कि इस सुख में एक पल का जीवन भी धन्य है। सैकड़ों कल्प (जीवन) जीने से क्या लाभ ?

(7)
प्रथम करी हरि माखन - चोरी।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी। 
मन मै यहै विचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाऊँ । 
गोकुल जनम लियौ सुख-कारन, सबकै माखन खाऊँ ।
बाल - रूप जसुमति मोहि जानै, गोपिनि मिलि सुख भोग।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौ, ये मेरे ब्रज- लोग।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | यहाँ श्री कृष्ण के बाल-लीला की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की गई है |

व्याख्या — पहले भगवान् ने माखन चोरी की। गोपी के मन की इच्छा पूरी करके वे ब्रज की गलियों मे भागे। भगवान् अपने मन में यही विचार करते हैं कि मैं ब्रज के सभी घरों में जाऊँ तथा गोकुल में जन्म लेने के सुख के फलस्वरूप सबका माखन खाऊँ । यशोदा मुझे बाल-रूप मे ही जाने और गोपियो से मिलकर सुख का भोग करूँ । सूरदास कहते हैं कि भगवान् प्रेम से कहते हैं कि ये सभी ब्रजवासी मेरे अपने लोग हैं ।

वृन्दावन लीला

(8)
बन तै, आवत धेनु चराये।  
संध्या समय, साँवरे मुख पर, गो पद - रज लपटाए |
बरह-मुकुट के निकट लसति लट, मधुप मनौ रूचि पाय | 
बिलसत सुधा जलज - आनन पर, उड़त न जात उड़ाये।
विधि बाहन - भज्छन की माला, राजत उर पहिराए। 
एक बरन बपु नहीं बड़ छोटे, ग्वाल बने एक धाय |
सूरदास बली लीला प्रभु को जीवत जन जस गाये। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में गाय चराते हुए कृष्ण की बाल-लीला का सुंदर चित्र प्रस्तुत किया गया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि वन से गाय चराकर कृष्ण आ रहे है। संध्या के समय उनके श्यामल मुख पर गायो के पैर की (उडायी गयी) झूल लगी है। मोर-मुकुट के निकट बालों की लट ऐसी सुशोभित हो रही है मानो भौंरे रुचिकर समझ कर एकत्रित हो गये हैं। कमल-मुख पर अमृत लिपटा हुआ हो और इसीलिए भौंरे उड़ाने से भी उड़ते नहीं हैं। ब्रह्मा की सवारी (हंस) के चुगने की वस्तु (मोती) की माला वक्षस्थल पर सुशोभित हो रही है। सभी ग्वाल एक वर्ण तथा एक ही आयु के हैं कोई बड़ा-छोटा नहीं है। सूरदास प्रभु की लीला पर न्योछावर होते हैं और कहते हैं कि भक्तजन प्रभु का यशोगान करते हुए जीते हैं |

(9)
मैया हौ न चरैहो गाइ |
सिगरे ग्वाल घिरावत मोसौ , मेरे पाइ पिरा।
जौ न पत्याहि पूछि बलदाउहिं, अपनी सौंह दिवाइ। यह सुनि माइ जसोदा ग्वालनि, गारी देति रिसाइ।
मैं पठ्वति अपने लरिका कौ, आवै मन बहराइ।
सूर स्याम मेरौ अति बालक, मारत ताहि रिगाइ ।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण की बाल-लीला की सुंदर झांकी प्रस्तुत की गई है |

व्याख्या — कृष्ण यशोदा से कहते है — माता! मैं गाय नहीं चराऊँगा। सब लोग मुझसे गाय इकट्ठा करवाते है जिससे मेरे पैर दर्द करने लगते हैं। यदि तुम्हे विश्वास न हो तो बलदाऊ को अपनी सौगंध दिलाकर पूछ लो। यह सुनकर यशोदा ग्वाल बालों पर क्रोधित होती हैं और उन्हे गाली देती है। मैं अपने पुत्र को मन बहलाने के लिए भेजती हूँ, लेकिन मेरे अति छोटे बालक को ये घुमा-घुमाकर मार डालते हैं अर्थात परेशान करते हैं ।

(10)
मुरली तऊ गुपालहिं भावति।
सुनि री सखी जदपि नदलालहिं , नाना भाँति नचावति।
राखति एक पाइ ठाढो करि, अति अधिकार जनावति ।
कोमल तन आज्ञा करवावति, कटि टैढो ह्वै आवति । 
अति अधीन सुजान कनोड़े ( कृपा से दबे ) , गिरिधर नार नवावति। 
आपुन पौढ़ि अधर सज्जा कर, पर पल्लव पलुटावति। 
भृकुटी कुटिल, नैन नासा-पुट, हम पर कोप करावति। 
सूर प्रसन्न जानि एकौ छिन, धर तें सीस डुलावति || 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण का सदैव मुरली से प्रेम करने के कारण गोपियों की ईर्ष्या दर्शाई गई है

व्याख्या — एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि मुरली तब भी कृष्ण को अच्छी लगती है। सुनो सखी यद्यपि वह नन्दलात को अनेक भाँति से नचाती है। उन्हे एक ही पैर पर खड़ा करके रखती है और अपना अत्यधिक अधिकार जताती है। उनके कोमल तन से आज्ञा का पालन करवाती है | इसी से कृष्ण की कमर टेढी हो आती है। अत्यधिक आधीन तथा कृपा से दबे हुए सुजान कृष्ण की गरदन को झुकवाती है। स्वयं कृष्ण के ओठ रूपी सेज पर लेट कर पल्लव सदृश हाथ से पैर दबवाती है। भौहें , नेत्र, नथुने कुटिल करके हम पर क्रोध करवाती है। सूरदास जी कहते हैं कि वह गोपी अपनी सखी से कहती है कि वह मुरली कृष्ण को एक भी क्षण प्रसन्न जानकर धड़ से सिर हिलवाती है |

(11)
गोपी कहति धन्य हम नारी।
धन्य दूध धनि दधि, धनि माखन, हम परुसति जेवत गिरिधारी | 
धन्य घोष, धनि दिन, धनि निसि वह, धनि गोकुल प्रगटे बनवारी।
धन्य सुकृत पांछिलौ, धन्य धनि नंद, धन्य जसुमति महतारी।
धनि धनि ग्वाल, धन्य वृन्दावन, धन्य भूमि यह अति सुखकारी।
धन्य दान, धनि कान्ह मंगैया, धन्य सूर त्रिन-द्रुम बन-डारी।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में उस प्रत्येक वस्तु-व्यक्ति को धन्य बताया गया है जिसने कृष्ण के सानिध्य-सुख को भोगा है |

व्याख्या — गोपियाँ कहती है कि हम स्त्रियाँ धन्य हैं, दूध धन्य है, दही धन्य है, माखन धन्य है जिन्हे हम परोसती हैं और गिरधारी खाते है। अहीरों का गाँव धन्य है, दिन धन्य है और वह रात्रि धन्य है, वह गोकुल धन्य है जहाँ बनवारी अर्थात श्री कृष्ण प्रकट हुए | पिछला पुण्य धन्य है, नन्द धन्य हैं, यशोदा माता धन्य है, ग्वाले धन्य हैं, वृन्दावन धन्य है, अति सुख प्रदान करने वाली यह भूमि धन्य है | दान धन्य है, माँगने वाले कृष्ण धन्य है। सूरदास कहते हैं कि तृण, वृक्ष तथा वन की डालें धन्य हैं अर्थात वह प्रत्येक वस्तु धन्य है जिसने कृष्ण के सान्निध्य सुख को प्राप्त किया है |

राधा-कृष्ण मिलन

(12)
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति, काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी। 
काहे कौ हम ब्रज-तन आवति, खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नँद ढोटा, करत फिरत माखन दधि चोरी।
तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहै, खेलन चली संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक - सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण और राधा के प्रथम मिलन का चित्र अंकित है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण राधा से पूछते हैं — गोरी ! तुम कौन हो? कहाँ रहती हो और किसकी बेटी हो? तुम्हें बज की गलियों में कभी नही देखा | राधा उत्तर देती है — मैं ब्रज में किसलिए आऊं , मैं अपने द्वार पर खेलती रहती हूँ। माखन तथा दही की चोरी करते फिरते हुए नन्द के पुत्र की कहानी सुनती रहती हूँ। कृष्ण कहते है — मैं तुम्हारा क्या चुरा लूँगा? साथ मिलकर खेलने चलें | सूरदास कहते हैं कि रसिक शिरोमनि कृष्ण ने भोली राधा को बातों से ही फुसला लिया |

(13)
प्रथम सनेह दुहुँनि मन जान्यौ।
नैन नैन कीन्ही सब बातैं, गुप्त प्रगटान्यौ।
खेलन कबहूं हमारें आवहु, नंद - सदन, ब्रज गाउँ।
द्वारे आइ टेरि मोहि लीजौ, कान्ह हमारौ नाउँ।
जौ कहियै घर दूरि तुम्हारौ, बोलत सुनियै टेरि।
तुमहिं सौंह वृषभानु बबा की, प्रात-साँझ इक फेरि। सूधी निपट देखियत तुमकौँ, तातें करियत साथ।
सूर स्याम नागर - उत नागरि, राधा दोउ मिलि गाथ।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण और राधा के मिलन का चित्र अंकित है |

व्याख्या — प्रथम प्रेम को दोनों ने मन में ही जान लिया। दोनों ने आँखों ही आँखों में सब बातें कर ली और गुप्त प्रेम को प्रकट किया। कृष्ण कहते हैं कि कभी हमारे ब्रज गाँव में नन्द के घर खेलने आओ। द्वार पर आकर मुझे बुला लेना, कृष्ण मेरा नाम है। जो कहो कि तुम्हारा घर दूर है, तुम्हारे (जोर से) पुकारने पर सुनाई देगा । तुम्हे वृपभानु बाबा की सौगन्ध है, सुबह – शाम एक बार (अवश्य) आना । तुम्हे बिलकुल सीधी-सरल देखकर मैं तुम्हारा साथ चाहता हूँ। सूरदास कहते है कि कृष्ण नागर (सभ्य तथा चतुर पुरुष) तथा राधा नागरि (सभ्य तथा चतुर नारी) हैं , दोनो मिल कर लीला करते है |

(14)
खंजन नैन सुरंग रस माते।
अतिसय चरु विमल, चंचल ये, पल पिंजरा न समाते। 
बसे कहूँ सोइ बात सखी कहि, रहे इहाँ किहि नातै?    सोइ संज्ञा देखति ओरासी, विकल उदास कला तैं । चलि-चलि जात निकट स्त्रवननि के, सकि ताटंक फंदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु कबै उड़ि जाते। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण के नेत्रों की सुंदरता का हृदयस्पर्शी वर्णन किया गया है |

व्याख्या — खंजन रूपी नेत्र सुन्दर रूप रस में मद मस्त हैं । अत्यधिक सुन्दर तथा विमल ये चंचल नेत्र पलक रूपी पिंजरे में नही समाते। सखी यह नेत्र (रात) कहीं दूसरी जगह बसे हैं | फिर बता, यहाँ ये किस नाते रहें? अपनी चंचलता के कारण ये नेत्र उसी विचित्र संकेत (विशिष्ट मुद्रा) को देखते रहते है तथा (अन्य) कलाओं (सौंदर्य) से सर्वथा व्याकुल एवं उदासीन रहते है। जान पड़ता है कि कानों में पहने हुए ताटंक को फाँद कर चले जायेंगे । सूरदास फहते हैं कि ये अंजन (कृष्ण के श्याम रंग) के गुण (रस्सी) से अटके हुए हैं नहीं तो कभी के उड गये होते |

भ्रमरगीत : विरह – वर्णन

(15)
मधुबन तुम क्यों रहत हरे।
बिरह बियोग स्याम सुन्दर के, ठाढे क्यों न जरे।
मोहन बेनु बजावत, दुम तर, साखा टेकि खरे।
मोहे थावर अरु जड़ जंगम, मुनि जन ध्यान टरे।
वह चितवनि तू मन न धरत है, फिरि फिरि पुहुप धरे। सुरदास प्रभु बिरह दवानल नख सिख लौ न जरे।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | प्रस्तुत काव्यांश में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — विरह-वेदना से दग्ध गोपियाँ कहती हैं कि हे ब्रज के वन ! तुम हरे कैसे रह पा रहे हो? श्यामसुन्दर के दारुण वियोग में खड़े ही खड़े भस्म क्यों नहीं हो गये। मोहन तुम्हारे नीचे तुम्हारी डाल के सहारे खड़े हो वंशी बजाते थे, जिसमे स्थिर रहने वाले मुग्ध हो जाते थे, गतिशील प्राणी जड़वत् हो जाते थे और मुनि ध्यान से विचलित हो जाते थे। तुम उस चितवन को याद नहीं करते और बार-बार पुष्पित होते हो ! हमारे स्वामी के वियोगरूपी दावानल में जड़ चोटी तक भस्म क्यों नहीं हो गये ?

(16)
निसि दिन बरषत नैन हमारे।   
सदा रहति बरषा रितु हम पर, जब तै स्याम सिधारे। दृग अजन न रहत निसि बासर, कर कपोल भए कारे। कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहूँ, उर बिच बहत पनारे। आँसू सलिल सबै भह काया, पल न जाल रिस टारे। सूरवाल प्रभु यह परेवी, गोकुल काहै बिसारे।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | प्रस्तुत काव्यांश में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — विरह-वेदना से दग्ध एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी ! हमारे नेत्र रात-दिन वर्षा करते हैं। क्योंकि जबसे श्यामसुन्दर यहाँ से चले गये हैं, तबसे हमारे निकट सदा वर्षा ऋतु ही रहती है। आँखों में लगाया गया अंजन रात या दिन में कभी टिक नहीं पाता, अतः हाथ और गाल काले हो गये हैं और न कञ्चुकी ( चोली ) का वस्त्र कभी सूखने पाता है। क्योंकि वक्ष-स्थलके बीच से अश्रु की धारा बहती रहती है। पूरा शरीर ही आँसू का जल हो गया है और एक पलको भी यह गुस्सा टाला नहीं जाता। सूरदास कहते हैं कि प्रभु गोपियों को यही पश्चात्ताप है कि आपने गोकुल को विस्मृत क्यों कर दिया ।

(17)
हो, ता दिन कजरा मैं देहौँ |
जा दिन नंद नंदन के नैननि, अपने नैन मिलैहों। 
सुमिरो सखी यह जिय मेरैं, भूली न और चितैहौं।
अब हठ सूर यहै व्रत मेरौ, कौकिर ( हीरे की कणी ) खै मरि जैहौं।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | प्रस्तुत काव्यांश में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — सूरदास जीके शब्दों में एक गोपी किसी अन्य गोपी से कह रही है — हे सखी ! मैं उसी दिन काजल लगाऊँगी, जिस दिन नन्दनन्दन के नेत्रों से अपने नेत्र मिला सकूँगी अर्थात उनके दर्शन कर लूँगी | हे सखी ! मेरे चित्त में यही निश्चय है कि भूलकर भी किसी दूसरेको नहीं देखूँगी। मेरा अब यही हठ है और यही व्रत है कि यदि वे न आये तो हीरे की कणी को खाकर मर जाऊँगी।

(18)
बहुरि हरि अवहिंगे किहि काम।
रितु वसंत अरु ग्रीष्म, बीतें, बादर आए स्याम |
छिन मंदिर छिन द्वारै ठाढ़ी, यो सुखति है घाम। तारे गनत गगन के सजनी , बीतैं चारौ जाम।
और कथा सब बिसराई, लेत तुम्हारौ नाम |
सुर स्याम ता दिन तै बिछुरै , अस्ति रहै कै चाम।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | प्रस्तुत काव्यांश में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी अन्य गोपी से कह रही है कि हे सखी! श्यामसुन्दर फिर हमारे किस काम आयेंगे | वसन्त और ग्रीष्म ऋतु बीत गयी और काले मेघ आ गये हैं। मैं क्षण घर और क्षण में द्वारपर खड़ी धूपमें सूख रही हूँ और यही नहीं सखी! रात्रिमें आकाश के तारे गिनते हुए रात्रि के चारों प्रहर बीतते हैं। श्यामसुन्दर ! तुम्हारा नाम लेते-लेते और सारी कथाएँ हमने भुला दी हैं। हे सखी! जिस दिन से श्यामसुन्दर का वियोग हुआ, उसी दिन से शरीर में हड्डी और चमड़ा भर शेष रह गया है अर्थात् श्यामसुन्दर के जाने के बाद शरीर क्षीण हो गयी हूँ |

भ्रमरगीत – उद्धव संदेश

(19)
हमारै हरि हारिल की लकरी।
मनक्रम बचक्रम नंद - नंदन सो उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस निसि, कान्ह कान्ह जकरी। सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौ करुई ककरी।
सु तौ व्याधि हमकौ ले आए, देखी सुनी न करी।
यह तो सूर तिनहिं लै सौंपी, जिनके मन चकरी।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में उद्धव के योग साधना के सन्देश का तार्किक कखंडन किया गया है |

व्याख्या — गोपियाँ उद्धव को समझाते हुए कहती हैं कि कृष्ण हमारे लिए हारिल की लकड़ी के समान हैं। मन, कर्म, वचन तथा हृदय से हमने कृष्ण को दृढ़तापूर्वक पकड़ा है। जागते, सोते, स्वप्न में तथा दिन-रात कृष्ण-कृष्ण की रट लगी रहती है। योग सुनते हुए ऐसा लगता है जैसे कड़वी ककड़ी है। हे उद्धव! तुम हमारे लिये ऐसी व्याधि ले आये जिसे हमने न तो देखा है, न सुना है, न किया है। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव को समझाते हुए कहती हैं कि यह योग साधना का सन्देश तो उन्हें जाकर सौंपो जिनके मन चंचल हैं |

(20)
अति मलीन वृषभानु - कुमारी।
हरि स्त्रम-जल भीज्यौ उर अंचल, तिहिं लालच न धुवावति सारी।
अध मुख रहति अनत नहिं चितवति, ज्यों गथ हारे थकित जुवारी।
छूटे चिकुर बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।
हरि सैंदेस सुनि सहज मृतक भइ, इक बिरहिनि, दूजे अलि जारी।
सूरदास कैसे करि जीवें, ब्रज बनिता बिन स्याम दुखारी।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में राधा व अन्य गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक चित्रण किया गया है |

व्याख्या — गोपियाँ उद्धव को समझाते हुए कहती हैं कि कृष्ण के वियोग में राधा अत्यधिक मलिन हो गयी है। कृष्ण के सात्विक प्रेम जनित श्रम जल (पसीना) से हृदय स्थल का अंचल भीग गया | उसे सुरक्षित रखने के लालच से वह अपनी साड़ी नहीं धुलवाती | वह सदैव मुख नीचे किये रहती है तथा दाँव में हारे हुये जुआरी की तरह अन्यत्र नहीं देखती है। उसके बाल बिखर गये हैं, शरीर हिम से आहत कमलिनी की तरह कुम्हला गया है। कृष्ण के संदेश को सुनकर वह सहज ही मृतक तुल्य हो गयी क्योंकि एक तो वह विरहिणी थी तथा दूसरे भ्रमर (उद्धव ) के द्वारा जला दी गयी। सूरदास कहते हैं कि गोपियाँ उद्धव से कह‌ती हैं कि दुःखी ब्रज-वनिताएँ कृष्ण के बिना कैसे जीवित रहें |

(21)
कोऊ सुनत न बात हमारी।
मानै कहा जोग जादवपति, प्रगट प्रेम ब्रजनारी।
कोऊ कहतिं हरि गए, कुँज बन, सैन धाम वै देत। कोऊ कहतिं इन्द्र बरषा तकि, गिरिं गोवर्धन लेत। कोऊ कहतिं नाग काली सुनि, हरि गए जमुना तीर। कोऊ कहतिं अघासुर मारन, गए संग बलबीर।
कोऊ कहतिं ग्वाल बालनि सँग, खेलत बनहि लुकाने। सूर सुमिरि गुन नाथ तुम्हारे, कोऊ कह्यौ न माने।। 

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में गोपियों की कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — उद्धव श्री कृष्ण से कहते हैं — कोई हमारी बात नहीं सुनती। हे यादव पति ! वे योग को क्यो मान दें क्योकि कृष्ण से ब्रजनारियों का प्रत्यक्ष (स्पष्ट) प्रेम है। कोई कहती है कि वे जंगल गये हैं और घर में इशारा करते हैं। कोई कहती है कि इन्द्र की वर्षा को रोकने के लिये वे गोवर्धन पर्वत को लेने गए हैं। कोई कहती है काली नाग की पुकार सुनकर वे यमुना के तट पर गये हैं। कोई कहती है वे अघासुर को मारने के लिए बलराम के साथ हैं। कोई कहती हैं कि ग्वाल बालो के साथ वन में छिपकर खेलते हैं । सूरदास कहते हैं कि उद्धव श्री कृष्ण से कहते हैं कि हे प्रभु | वे तुम्हारे गुणों का स्मरण करती रहती हैं लेकिन तुम्हें भूलने का जो संदेश आपने दिया है उसे नहीं मानती |

(22)
ब्रज में एक धरम रह्यौ।
स्त्रुति सुमृति ओ वेद पुराननि, सबै गोविंद कह्यौ। बालक वृद्ध तरुण अबलनि कौ, एक प्रेम निबह्यौ। सूरदास प्रभु छाड़ि जमुन जल, हरि की सरन गह्यौ।।

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय द्वारा बी ए द्वितीय सेमेस्टर के लिए निर्धारित हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से अवतरित हैं | इन पंक्तियों में कृष्ण के प्रति ब्रजवासियों के प्रेम का वर्णन है |

व्याख्या — उद्धव कृष्ण से कहते हैं कि ब्रज मे एक ही धर्म व्याप्त है | श्रुति, स्मृति, वेद, पुराण सभी गोविन्द की ही बात कहते हैं | बालक, वृद्ध, तरुण तथा अबलाओं के एकमात्र प्रेम का एक समान निर्वाह हो रहा है। सूरदास कहते हैं (उद्धव कहते हैं) वे लोग यमुना जल छोडकर कृष्ण की शरण को ग्रहण किए हैं |

यह भी देखें

कबीर व्याख्या ( Kabir Vyakhya )

तुलसीदास व्याख्या ( Tulsidas Vyakhya )

मीराबाई व्याख्या ( Mirabai Vyakhya )

विभिन्न साहित्यकारों का जीवन परिचय

कबीर की भक्ति-भावना ( Kabir Ki Bhakti Bhavna )

कबीर की रहस्य-साधना ( रहस्यानुभूति )

कबीर की सामाजिक चेतना ( Kabir Ki Samajik Chetna )

तुलसीदास की भक्ति-भावना ( Tulsidas Ki Bhakti Bhavna )

कबीरदास का साहित्यिक परिचय ( Kabirdas Ka Sahityik Parichay )

सूरदास का साहित्यिक परिचय ( Surdas Ka Sahityik Parichay )

सूरदास का श्रृंगार वर्णन ( Surdas Ka Shringar Varnan )

सूरदास का वात्सल्य वर्णन ( Surdas Ka Vatsalya Varnan)

कवि बिहारी का साहित्यिक परिचय ( Kavi Bihari Ka Sahityik Parichay )

कवि बिहारी की काव्य-कला ( Kavi Bihari Ki Kavya Kala )

आदिकाल की परिस्थितियां ( Aadikal Ki Paristhitiyan )

आदिकाल का नामकरण और सीमा निर्धारण ( Aadikaal Ka Naamkaran aur Seema Nirdharan)

आदिकाल / वीरगाथा काल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ ( Aadikal / Veergathakal Ki Pramukh Visheshtaen )

रासो काव्य परंपरा ( Raso Kavya Parampara )

आदिकाल : प्रमुख कवि, रचनाएं व नामकरण ( Aadikal ke Pramukh Kavi, Rachnayen Evam Naamkaran )

काव्य : अर्थ, परिभाषा एवं स्वरूप ( बी ए हिंदी – प्रथम सेमेस्टर )( Kavya ka Arth, Paribhasha Avam Swaroop )

काव्य गुण : अर्थ, परिभाषा और प्रकार ( Kavya Gun : Arth, Paribhasha Aur Swaroop )

काव्य के प्रमुख तत्त्व ( Kavya Ke Pramukh Tattv )

काव्य हेतु : अर्थ, परिभाषा, स्वरूप और प्रासंगिकता या महत्त्व ( Kavya Hetu : Arth, Paribhasha V Swaroop )

2 thoughts on “सूरदास व्याख्या ( Surdas Vyakhya )”

Leave a Comment