सूरदास का साहित्यिक परिचय ( Surdas Ka Sahityik Parichay )

जीवन परिचय – सूरदास जी भक्तिकालीन सगुण काव्यधारा की कृष्ण काव्य धारा के सर्वाधिक प्रमुख कवि हैं | उन्हें अष्टछाप का जहाज कहा जाता है | उनकी जन्म-तिथि तथा जन्म-स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है फिर भी अधिकांश विद्वान मानते हैं कि सूरदास का जन्म सन 1478 ईस्वी ( सम्वत 1535 ) में हुआ | सूरदास जी के जन्म स्थान को लेकर चार मत प्रचलित हैं | डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल गोपांचल ( ग्वालियर ) को, कवि मियां सिंह मथुरा के आसपास के किसी गांव को, आचार्य रामचंद्र शुक्ल रुनकता ( रेणुका ) को और हरि राय जी सीही ग्राम ( हरियाणा राज्य में बल्लभगढ़ के पास ) को सूरदास का जन्म-स्थान मानते हैं | आज अधिकांश विद्वान हरि राय जी के मत से सहमत हैं | वल्लभाचार्य जी उनके गुरु थे | वल्लभाचार्य जी ने इन्हें श्रीनाथ जी के मंदिर में भजन कीर्तन के लिए नियुक्त किया | श्रीनाथ जी के मंदिर के पास ही स्थित ‘पारसोली’ नामक गांव में सन 1583 ईस्वी ( सम्वत 1640 ) में उनका देहावसान हो गया |

प्रमुख रचनाएँ – नागरी प्रचारिणी सभा की रिपोर्ट के अनुसार सूरदास जी द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 25 है | परंतु अधिकांश विद्वान उनकी केवल 3 रचनाओं को प्रमाणिक मानते हैं – सूरसागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी |

साहित्यिक विशेषताएँ – सूरदास कृष्ण-काव्यधारा के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं | उनकी इस महान कीर्ति का मुख्य कारण है – उनकी प्रगाढ़ भक्ति-भावना | यह भावना उनके आवेग पूर्ण भक्ति काव्य के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है | सूरदास जी के काव्य की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

1️⃣ भक्ति-भावना – सूरदास जी सगुण ईश्वर के उपासक थे | इसलिए उनकी भक्ति को सगुण भक्ति कहते हैं | भक्ति उनके लिए साधन नहीं साध्य थी | उनके काव्य में ऐसे बहुत से उदाहरण मिलते हैं जहां गोपियां श्री कृष्ण के विरह में तड़पना पसंद करती हैं | उन्हें कृष्ण से अलग होकर मिली मुक्ति भी अस्वीकार्य है | वैधी भक्ति को स्वीकार करते हुए भी वह प्रेम-भक्ति को अधिक महत्व देते हैं | उनके काव्य में दास्य, सख्य, वत्सल, मधुर तथा शांत मुख्य पाँच भावों की भक्ति का प्रतिपादन मिलता है |

2️⃣ बाल-लीला वर्णन – सूरदास जी ने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है | श्री कृष्ण की विभिन्न चेष्टाओं और क्रियाओं का यथार्थवादी वर्णन करने में वे सफल हुए हैं | यशोदा माता शिशु कृष्ण को कहीं तो पालने में झुलाती है, दुलार करती है और मल्लार गाती है | वह चाहती हैं कि कृष्ण को जल्दी से नींद आ जाए | इसी प्रकार एक अन्य पद में श्रीकृष्ण हाथ से पैर का अंगूठा पकड़कर मुंह में डालते हैं और प्रसन्न होकर खेल रहे हैं | उनकी शोभा को देखकर शिव, ब्रह्मा आदि भी चिंता में पड़ जाते हैं | कहीं वे हाथ में मक्खन लिए हुए हैं तथा घुटनों के बल चल रहे हैं | उनके तन पर धूल लगी हुई है और मुख पर दधि का लेप है | इस प्रकार बाल-लीला के अनेक स्वाभाविक व यथार्थ शब्द-चित्र सूरदास जी ने अपने काव्य में खींचे हैं |

एक उदाहरण देखें –

शोभित कर नवनीत लिये |

घुटरुन चलत रेनु तनु मंडित, मुख दधि लेप किये |

3️⃣ वात्सल्य वर्णन – सूर के काव्य में वात्सल्य को अत्यधिक महत्व दिया गया है | आचार्य वल्लभाचार्य ने भी प्रभु के बाल रूप की आराधना पर अधिक बल दिया था | सूरदास ने पुष्टिमार्ग में दीक्षा प्राप्त की | संभवतः इसी से प्रभावित होकर सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य भाव को अधिक महत्व दिया | उन्होंने अपने पदों में श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव, उनकी बाल-छवि, उनकी वेशभूषा, बाल-चेष्टाओं, गोधन, गोचरण तथा बाल-कृष्ण के मन के भावों का बड़ा ही हृदयग्राही वर्णन किया है | सूरदास जी ने श्री कृष्ण की बाल-लीला का इतना व्यापक वर्णन किया है कि औरों के कहने के लिये कुछ छोड़ा ही नहीं | सूरदास के बाल-वर्णन का एक दृश्य देखिए –

सिखवत चलत जसोदा मैया |

अरबराई कर पानि गहावत, डगमगाई धरनी धरैं पैंया |

4️⃣ श्रृंगार वर्णन – भले ही सूरदास भक्त कवि हैं लेकिन वे श्रृंगार के भी सम्राट कहे जाते हैं | कवि ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का सुंदर चित्रण किया है | श्रृंगार भी उनकी भक्ति का प्रमुख साधन है | यद्यपि श्रृंगार के संयोग पक्ष के चित्र भी आकर्षक हैं तथापि वियोग श्रृंगार अधिक उज्ज्वल एवं हृदयस्पर्शी है | संयोग में प्रिय की समीपता निरंतर बनी रहती हैं | अतः प्रेम का विस्तार अधिक नहीं हो पाता परंतु विरह की अग्नि में तप कर प्रेम शुद्धता प्राप्त करता है | भ्रमरगीत में हमें गोपियों की विरह-वेदना के मार्मिक पद पढ़ने को प्राप्त होते हैं |

5️⃣ प्रकृति वर्णन – अंधे होते हुए भी सूरदास जी ने प्रकृति का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है | उनके काव्य का क्षेत्र ब्रज प्रदेश का परिवेश है | उनके काव्य में ब्रजमण्डल की संपूर्ण प्राकृतिक शोभा सर्वोत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत होती है | उनके काव्य में प्रकृति का उद्दीपनगत रूप में वर्णन मिलता है | उन्हें प्रकृति के कोमल रूप से अधिक लगाव था इसलिए उन्होंने उसी रूप में प्रकृति का वर्णन किया | परन्तु विरह के पदों में प्रकृति के सुन्दर व कोमल अवयव भी मन को विचलित करने लगते हैं | एक उदाहरण देखिए –

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |

तब ये लता लगती अति सीतल,

अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं |

6️⃣ कला पक्ष – सूरदास जी की भाषा सरल, सहज एवं स्वाभाविक है | उन्होंने अपने काव्य में साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों का समन्वय है | उनकी भाषा में प्रसाद गुण और माधुर्य गुण है | उनके काव्य में शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों प्रकार के अलंकारों का सुंदर प्रयोग हुआ है | अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, रूपक, उपमा आदि उनके प्रिय अलंकार हैं | रसों के दृष्टिकोण से उनके काव्य में भक्ति, श्रृंगार, शांत व वात्सल्य रस की प्रधानता है |

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