आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्यिक परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का साहित्यिक परिचय

जीवन परिचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के प्रमुख निबंधकार एवं आलोचक माने जाते हैं | उनका जन्म सन 1884 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के अगोना नामक गाँव में हुआ | सन 1901 में इन्होंने मिशन हाई स्कूल से स्कूल फाइनल की परीक्षा पास की | कुछ समय तक उन्होंने इसी स्कूल में चित्रकला अध्यापक के रूप में कार्य किया | सन 1908 में वे नागरी प्रचारिणी सभा के ‘हिंदी शब्द सागर’ शीर्षक शब्दकोश-निर्माण में सह-संपादक के रूप में नियुक्त हुए | कुछ समय तक वे काशी विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे और बाबू श्यामसुंदर दास के अवकाश ग्रहण करने पर हिंदी विभाग के अध्यक्ष चुने गए | सन 1941 में उनका देहांत हो गया |

प्रमुख रचनाएँ

आचार्य शुक्ल ने कविता, निबंध, आलोचना, अनुवाद, कोश-निर्माण, इतिहास-लेखन आदि अनेक क्षेत्रों में लेखन कार्य किया | परंतु मुख्य रूप से वे आलोचक, निबंध लेखक और हिंदी साहित्य इतिहास लेखक के रूप में जाने जाते हैं | आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रमुख रचनाएं ( Aacharya Ramchandra Shukla Ki Pramukh Rachnaen ) निम्नलिखित हैं —

निबंध-संग्रह — चिंतामणि ( दो भागों में ) |

आलोचना — काव्य में रहस्यवाद, सूरदास, तुलसीदास व जायसी के साहित्य की समीक्षाएँ |

इतिहास लेखन — हिंदी साहित्य का इतिहास |

कहानी — ग्यारह वर्ष का समय

साहित्यिक विशेषताएँ

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने निबंध-लेखन के क्षेत्र में विशेष ख्याति अर्जित की | उनके निबंध मनोविकार, साहित्य तथा समीक्षा से संबंधित विषयों पर हैं |

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ ( Aacharya Ramchandra Shukla Ke Sahitya Ki Pramukh visheshtaen ) निम्नलिखित हैं —

(1) मौलिक चिंतन

मौलिक चिंतन शुक्ल जी के निबंधों की प्रमुख विशेषता कही जा सकती है | उनके निबंधों में परंपरागत निष्कर्ष कम मिलते हैं ; वे स्वयं अपने मालिक चिंतन के आधार पर निष्कर्ष तक पहुंचते हैं | इस विषय में उनका ‘श्रद्धा-भक्ति’ निबंध लिया जा सकता है | इस निबंध में श्रद्धा, प्रेम और भक्ति संबंधी उनके विचार सर्वथा मौलिक हैं | श्रद्धा और प्रेम की परिभाषा देने के पश्चात वे श्रद्धा और प्रेम के योग को भक्ति कहते हैं | जैसे-जैसे पाठक इस निबंध को पढ़ता है वह स्वयं महसूस करता है कि शुक्ल जी ने श्रद्धा और प्रेम के पारस्परिक साम्य और वैषम्य के जो लक्षण बताए हैं, उनको प्रत्येक मनुष्य अपने व्यक्तिगत जीवन में अनुभव करता है | इसलिए पाठक उनकी बातों से सहमत होता हुआ उनके द्वारा बताई गई भक्ति की परिभाषा से सहमत हो जाता है |

(2) सुगठित विचार परंपरा

शुक्ल जी के निबंधों में सुगठित विचार-परंपरा का निर्वाह देखने को मिलता है | पाठक निबंध को पढ़ते समय एक विचार से दूसरे विचार तक सहज रूप से पहुंच जाता है | यही कारण है कि उनके निबंधों में कसावट नजर आती, कहीं कोई बिखराव नजर नहीं आता | वे क्रमबद्ध रुप से सभी विचारों को एक दूसरे से जोड़ते चले जाते हैं | उदाहरण के लिए ‘कविता क्या है’ निबंध में वे कविता की परिभाषा देने के पश्चात,उसकी प्रकृति, अलंकार आदि विभिन्न विचारों के बारे में तर्क व उदाहरण देकर समझाते चले जाते हैं | यही कारण है कि वे जिस विषय का प्रतिपादन करते हैं उसके विषय में उठने वाली सभी जिज्ञासाओं और प्रश्नों का उत्तर पाठकों को मिल जाता है |

एक उदाहरण देखिए —

“जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है | हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती है, उसे कविता कहते हैं |”

(3) गंभीर विवेचन

गंभीर विवेचन उनके निबंधों की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है | उन्होंने जिस विषय पर निबंध लिखा उस विषय के बारे में अपना गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया | यही कारण है कि उनके निबंध विश्वसनीय एवं प्रभावशाली बन गए हैं | गंभीर चिंतन होने पर भी उनके निबंध नीरस नहीं होते | वे अपने व्यावहारिक अनुभव तथा संवेदनशीलता के मिश्रण से इन निबंधों को मनोरंजक, आकर्षक एवं विश्वसनीय बनाते हैं |

(4) हृदय और बुद्धि का समन्वय

शुक्ल जी के निबंधों में हृदय और बुद्धि का सुंदर समन्वय दिखाई देता है | स्वयं शुक्ल जी मानते हैं कि उनके निबंधों में हृदय एवं बुद्धि का मणिकांचन संयोग है | बुद्धि तत्त्व के कारण उनके निबंधों में तार्किकता, क्रमबद्धता तथा शब्दों व वाक्यों का सटीक प्रयोग मिलता है | हृदय पक्ष के कारण उनके निबंध सरस, मनोरंजक और स्वाभाविक बन गए हैं |

(5) व्यंग्यात्मकता

यद्यपि शुक्ल जी के निबंधों में गंभीर चिंतन मिलता है फिर भी कहीं-कहीं व्यंग्य-विनोद के दर्शन भी होते हैं | प्राय: जब वे सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक जीवन में फैली विसंगतियों को उजागर करते हैं, तो व्यंग्य का सहारा लेते हैं | इसके अतिरिक्त वर्ण्य विषय से संबंधित भ्रान्तियों का उल्लेख करते हुए भी उनकी वाणी में व्यंग्यात्मकता का पुट आ जाता है |

भाषा एवं भाषा-शैली

आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भाषा ( Aacharya Ramchandra Shukla Ki Bhasha ) मूलत: शुद्ध तत्सम प्रधान खड़ी बोली हिंदी है लेकिन विषय को स्वाभाविक बनाने के लिए उनकी भाषा में उर्दू-फारसी, अंग्रेजी, तद्भव, देशज आदि सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग मिलता है | आम बोलचाल के शब्दों तथा लोक प्रसिद्ध मुहावरों व लोकोक्तियों का भी यथास्थान प्रयोग मिलता है | इन्होंने अपने निबंधों में शब्द-चयन तथा वाक्य-रचना में जिस निपुणता का परिचय दिया है, वह आज भी सामान्य पाठकों के साथ-साथ उच्चस्तरीय साहित्यकारों के लिए अनुकरणीय है | उन्होंने जिस भाषा में अपने भावों को अभिव्यक्ति दी, संभवत है उससे अच्छी भाषा हो ही नहीं सकती थी |

जहाँ तक उनकी भाषा-शैली का प्रश्न है, उन्होंने अपने निबंधों में आवश्यकता के अनुसार विवेचनात्मक, वर्णनात्मक, आलोचनात्मक, भावात्मक शैली का प्रयोग किया है | कहीं-कहीं व्यंग्यात्मक शैली के दर्शन भी होते हैं | कभी आगमन शैली तो कभी निगमन शैली का प्रयोग हुआ है |

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