सूरदास के पदों की व्याख्या ( बी ए हिंदी – प्रथम सेमेस्टर )

यहाँ हरियाणा के विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा बी ए प्रथम सेमेस्टर ( हिंदी ) की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास के पदों की सप्रसंग व्याख्या दी गई है |

सूरदास के पदों की व्याख्या

अविगत-गति कछु कहत न आवै |

ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस अन्तरगत ही भावै |

परम स्वाद सबही सु निरन्तर अमित तोष उपजावै |

मन-बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै |

रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै |

सब विधि अगम विचारहिं तातें सूर सगुन-लीला पद गावै || (1)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

प्रस्तुत पद में सूरदास जी निर्गुण ईश्वर को ही सत्य मानते हैं परंतु साथ ही स्वीकार करते हैं कि निर्गुण ईश्वर की उपासना का उपाय सरल नहीं है | इसलिए सूरदास जी सगुण उपासना के मार्ग को उचित मानते हैं |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण ब्रह्म की गति अर्थात स्वरूप के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता | निर्गुण ईश्वर के विषय में बताना ठीक उसी प्रकार से असंभव है जिस प्रकार से एक गूंगा व्यक्ति मीठे फल को खाकर उसका अंदर ही अंदर आस्वादन तो कर सकता है लेकिन उसके विषय में किसी को बता नहीं सकता | निर्गुण ईश्वर को पाने वाला सबसे बढ़कर व चिरस्थायी आनंद प्राप्त करता है | उसके हृदय में अमिट संतोष की भावना उत्पन्न हो जाती है | परंतु अपने इस अनुभव को वह वाणी प्रदान नहीं कर सकता | वस्तुतः निर्गुण-निराकार ईश्वर मन और वाणी से अगम्य और अगोचर है ; उसे केवल वही जान सकता है जो उसे पा लेता है | उस निर्गुण-निराकार ईश्वर की कोई शारीरिक रूप रेखा, गुण व जाति नहीं है ; न ही उसे पाने की कोई स्पष्ट युक्ति है | ऐसी अवस्था में साधक उस निर्गुण ईश्वर को पाने के लिए बिना किसी आधार के इधर-उधर भागते रहते हैं |

अंत में सूरदास जी कहते हैं कि सभी प्रकार से निर्गुण ब्रह्म की उपासना को अगम्य मानकर ही मैं उनके सगुण व साकार रूप की उपासना संबंधी पदों का गान किया करता हूँ |

विशेष — (1) प्रस्तुत पद में सूरदास जी निर्गुण ईश्वर को सत्य मानते हैं परंतु निर्गुण ईश्वर की प्राप्ति की कोई सरल व स्पष्ट युक्ति न होने के कारण वे सगुण ईश्वर की उपासना करते हैं |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) अनुप्रास व दृष्टांत अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |

प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ |

अति-गम्भीर-उदार-उदधि हरि, जान सिरोमनि राइ |

तिनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु समान |

सकुचि गनत अपराध समुद्रहिं बूंद-तुल्य भगवान |

वदन-प्रसन्न-कमल सनमुख ह्वै देखत हौं हरि जैसैं |

विमुख भये अकृपा निमिष हूँ, फिरि चितयौ तौ तैसैं |

भक्त-विरह-कातर करुणामय, डोलत पाछै लागे |

सूरदास ऐसे स्वामी कौं देहिं पीठि सो अभागे || (2)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

प्रस्तुत पद्यांश में प्रभु श्री कृष्ण की भक्तवत्सल छवि का चित्रण किया गया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण का मैंने एक स्वभाव देखा है | वे बड़े गंभीर तथा उदारता के सागर हैं तथा ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हैं | वे अपने भक्तों के तिनके के समान छोटे और तुच्छ गुण को भी सुमेरु पर्वत के समान महान मानते हैं | वे अपने भक्तों के सागर के समान विशाल अपराध को भी पानी की बूंद के समान तुच्छ मानते हैं | अर्थात वे अपने भक्तों के बड़े-बड़े अपराधों को भी क्षमा कर देते हैं | वे अपने भक्तों को सम्मुख देखकर प्रसन्न-मुख हो जाते हैं | यदि कोई भक्त किसी कारणवश उनसे रूठ जाता है और उनसे मुंह फेर लेता है तब भी वे नाममात्र के लिए भी उस पर क्रोधित नहीं होते और जब भक्त अपनी गलती मानकर पुनः उनकी भक्ति में लीन हो जाता है तो वे पहले की भांति अपने भक्तों पर प्रसन्न हो जाते हैं |

सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्ण अपने भक्तों से इतना अधिक प्रेम करते हैं कि उनकी विरह-वेदना से दग्ध होकर उनके पीछे-पीछे घूमने लगते हैं | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार के स्वामी श्री कृष्ण को जो पीठ दिखाते हैं अर्थात उनसे विमुख हो जाते हैं, वे सबसे बड़े अभागे हैं |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में सूरदास जी ने प्रभु श्री कृष्ण की भक्त-वत्सल छवि का सुंदर चित्रण किया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) अनुप्रास, उपमा, रूपक आदि अलंकारों का सुंदर प्रयोग है |

जा दिन मन पंछी उड़ि जैहैं |

ता दिन तेरे तन-तरुवर के सबै पात झरि जैहैं |

या देहि कौ गरब न करियै, स्यार-काग-गिध खैहैं |

तीननि में तन कृमि, कै विष्टा, कै ह्वै खाक उडैहैं |

कहँ वह नीर, कहाँ वह शोभा कहँ रंग-रूप दिखैहैं |

जिन लोगनि सौं नेह करत है, तेई देखि घिनैहैं | (3)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास जी ने मानव शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डालते हुए मनुष्य को भक्ति में तल्लीन रहने का संदेश दिया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य जिस दिन प्राण रूपी पक्षी उड़ जाएगा उस दिन तेरे शरीर रूपी वृक्ष के सारे पत्ते झड़ जाएंगे | इस शरीर पर गर्व मत कर क्योंकि प्राण निकल जाने पर इसे गीदड़, कौवे और गिद्ध आदि खाएंगे | प्राण निकल जाने के पश्चात तीन में से एक परिणाम होगा | यह कीड़ों में बदल जाएगा या मल के रूप में परिवर्तित हो जाएगा या खाक बनकर उड़ेगा | ऐसा होने पर शरीर की वह कान्ति, वह सुंदरता तथा रंग-रूप आदि कहाँ दिखाई देगा ? अर्थात शरीर का सारा सौंदर्य नष्ट हो जाएगा | जिन लोगों से तुम आज बहुत अधिक स्नेह करते हो वही तुमसे घृणा करेंगे |

विशेष — (1) मनुष्य की शारीरिक नश्वरता पर प्रकाश डाला गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

घर के कहत सबारे काढ़ौ, भूत होइ धरि खैहैं |

जिन पुत्रनहिं बहुत प्रतिपाल्यौ देवी-देव मनैहैं |

तेई लै खोपरी बाँस दै, सीस फोरी बिखरैहैं |

अजहूँ मूढ़ करौ सतसंगति, संतनि तै कछु पैहैं |

नर-बपु धारि नाहिं जन हरि के, जम की मार सो खेहैं |

सूरदास भगवन्त-भजन बिनु वृथा सु जनम गवैहैं || (4)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

प्रस्तुत पद्यांश में कविवर सूरदास जी ने मानव शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डालते हुए उसे प्रभु भक्ति में तल्लीन रहने का संदेश दिया है |

व्याख्या — मनुष्य की शारीरिक नश्वरता पर प्रकाश डालते हुए सूरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तेरी मृत्यु के पश्चात घर के सभी लोग यह कहेंगे कि इसे जल्दी से घर से बाहर निकालो नहीं तो यह भूत बनकर घर के सदस्यों को खा जाएगा | जिन पुत्रों का तुमने बहुत अधिक प्रयत्न से पालन-पोषण किया है और जिनके स्वास्थ्य, व सुख-समृद्धि के लिए देवी-देवताओं से मन्नतें मांगी थी, वे ही तुम्हारी खोपड़ी पर बांस मारकर उसे फोड़कर बिखेर देंगे |

इसीलिए सूरदास जी मनुष्यों को सचेत करते हुए कहते हैं कि अरे मूर्खों! अभी भी तुम संतों की संगति कर लो क्योंकि संतों से ही तुम्हें कुछ प्राप्त होगा | मानव शरीर धारण करके भी जो व्यक्ति भगवान के भक्त नहीं होते उन्हें यमराज की मार खानी पड़ती है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि भगवान के भजन के बिना मानव जन्म व्यर्थ नष्ट हो जाएगा |

विशेष — (1) मानव शरीर की नश्वरता को प्रकट करते हुए प्रभु भक्ति का संदेश दिया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

प्रभु हौं सब पतितन को टीकौ |

और पतित सब दिवस चारि के, हौं तौ जनमत ही कौ |

बधिक अजामिल, गनिका तारौ और पूतना ही कौ |

मोहि छाँड़ि तुम और उधारे, मिटै सूल क्यों जी कौ?

कोउ न समरथ अघ करिबै कौ, खैंच कहत हौं लीकौ |

मरियत लाज सूर पतितनि में, मोहूँ तैं को नीकौ || (5)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

इन पंक्तियों में सूरदास जी ने प्रभु श्री कृष्ण की पतित-पावन छवि का चित्रण किया है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु मैं सब पापियों में सर्वश्रेष्ठ हूँ अर्थात मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | अन्य पापी लोग तो केवल चार दिन के अर्थात थोड़े समय के पापी हैं लेकिन मैं तो जन्मजात पापी हूँ | हे प्रभु आपने बधिक, अजामिल, गणिका ( वैश्या ) तथा पूतना राक्षसी आदि का उद्धार किया | मुझे छोड़कर आपने सभी का उद्धार कर दिया ; अतः मेरे हृदय की पीड़ा कैसे दूर हो सकती है? मैं यह बात लकीर खींच कर कहता हूँ कि मेरे समान संसार में और कोई पाप करने में समर्थ नहीं है अर्थात मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | कहने का तात्पर्य यह है कि हे प्रभु! मैंने सुना है कि तुम पापियों का उद्धार करते हो तो इस दृष्टिकोण से सबसे पहले मेरा उद्धार किया जाना चाहिए क्योंकि मैं सबसे बड़ा पापी हूँ | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि मैं तो इस शर्म से मरा जा रहा हूँ कि पापियों में मुझसे बढ़कर और कोई पापी नहीं है |

विशेष — (1) प्रभु श्री कृष्ण की पतित पावन छवि का चित्रण है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

मो सम कौन कुटिल खल कामी |

तुम सौं कहा छिपी करुनामय, सबके अंतरयामी |

जो तन दियौ ताहि बिसरायो, ऐसो नौन-हरामी |

भरि, भरि द्रोह विष कौ धावत जैसे सूकर ग्रामी |

सुनि सतसंग होत जिय आलस, विसयिनि संग बिसरामी |

श्रीहरि-चरन छाँड़ि विमुखन की निसि दिन करत गुलामी |

पापी परम, अधम, अपराधी, सब पतितनि में नामी |

सूरदास प्रभु अधम उधारन सुनियै श्रीपति स्वामी || (6)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! मेरे समान कुटिल,पापी और विषय-वासनाओं में संलिप्त व्यक्ति कौन है? अर्थात ये दुर्गुण मुझ में सबसे अधिक हैं | हे करुणामय! तुमसे तो कोई बात छुपी हुई नहीं रह सकती क्योंकि तुम तो सबके हृदय की बात जानने वाले हो | मैं तो ऐसा नमक-हरामी हूँ कि जिस प्रभु ने मुझे यह सुंदर शरीर दिया मैंने उसी को भुला दिया | मैं गांव के सूअर की भांति विषय-वासनाओं रूपी मल के पीछे भागता रहता हूँ | सत्संगति में मुझे आलस्य होता है जबकि विषय-वासनाओं में लिप्त पापियों की संगति में मुझे आनंद मिलता है | श्री हरि के चरणों को छोड़कर मैं ईश्वर-विमुख लोगों की दिन-रात गुलामी करता हूँ | मैं परम पापी, नीच और अपराधी हूँ | मैं सभी पापियों में अपने पाप-कर्मों के कारण कुख्यात हूँ | सूरदास कहते हैं कि आप तो पापियों का उद्धार करने वाले हो | इसलिए हे प्रभु! मेरी प्रार्थना सुन लो और मेरा उद्धार कर दो |

विशेष — (1) सूरदास जी की भक्ति-भावना का परिचय मिलता है जिसमें वे अपने सभी कुकर्मों की स्वीकारोक्ति करते हुए अपने उद्धार के लिए विनम्र निवेदन करते हैं |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

जनम सिरानौ अटकैं-अटकैं |

राज-काज, सुत-बित की डोरी, बिनु बिबेक फिरयो भटकै |

कठिन जो गाँठि परी माया की, तोरी जात न झटकैं |

ना हरि-भक्त न साधु-समागम, रह्यो बीच ही लटकै |

ज्यौं बहु कला काछि दिखरावै, लोभ न छूटत नर कैं |

सूरदास सोभा क्यों पावै, पिय बिहीन धनि मटकैं || (7)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी भक्ति बिना जीवन निस्सार बताते हुए मानव को प्रभु भक्ति का सन्देश दिया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि इधर-उधर भटकते हुए सारा जीवन व्यतीत हो जाता है | मनुष्य राज-कार्य, पुत्र, धन और यश रूपी डोरी से बंधा हुआ विवेक रहित होकर यहां-वहां भटकता रहता है | मोह-माया की गांठ इतनी अधिक सुदृढ़ होती है कि वह झटका देकर तोड़ी नहीं जा सकती | मोह-माया के बंधनों में बंधा हुआ मनुष्य एक ऐसी अवस्था में फंसा रहता है कि वह न तो प्रभु भक्ति कर पाता है न साधु-संतों की संगति कर पाता है और इसी प्रकार से बीच में लटका रहता है | संसार का विस्तार बाजीगर के जादू के समान है जिस प्रकार बाजीगर संसार में अनेक कलाएं दिखाता है परंतु फिर भी मनुष्य लोभ से मुक्त नहीं हो पाता | बाजीगर की श्रेष्ठ कलाओं को देखते हुए भी वह और अधिक अच्छे करतबों की मांग करता है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार बिना पति की नारी को हाव-भाव दिखाना शोभा नहीं देता उसी प्रकार भक्ति बिना मानव जीवन व्यर्थ है |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में सूरदास जी ने प्रभु भक्ति और सत्संगति को जीवन में श्रेयस्कर माना है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै |

जैसे उड़ि जहाज को पच्छी, फिरी जहाज पै आवै |

कमल-नैन कौं छाँड़ि महातम, और देव को ध्यावै |

परम गंग को छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै |

जिहिं मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ, क्यों करील-फल भावै |

सूरदास-प्रभु कामधेनु तजि, छेरी कौन दुहावै || (8)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी ने प्रभु श्री कृष्ण को ही अपने जीवन का एकमात्र आधार माना है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! मेरा मन आपको छोड़कर और कहीं भी सुख नहीं पाता | जिस प्रकार से एक जलयान पर बैठा हुआ पक्षी इधर-उधर उड़ता है और अंत में फिर से उसी जहाज पर आश्रय लेता है ठीक उसी प्रकार से मेरा मन भी इधर उधर भटकने के उपरांत आपकी शरण में ही सुख पाता है | हे प्रभु! आप जैसे कमल-नयन महान प्रभु को छोड़कर किसी और का ध्यान लगाना ठीक उसी प्रकार से मूर्खतापूर्ण है जिस प्रकार से परम पवित्र गंगा को छोड़कर कोई व्यक्ति कुआं खोदकर अपनी प्यास बुझाने की चेष्टा कर रहा हो | हे प्रभु जिससे भंवरे ने कमल-रस का पान किया हो उसे करेले का कड़वा रस क्यों अच्छा लगेगा? कहने का तात्पर्य यह है कि प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति कमल रस के समान सरस है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु आपकी भक्ति तो कामधेनु के समान सभी प्रकार की इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है अतः कोई मूर्ख व्यक्ति ही आपकी भक्ति रूपी कामधेनु को छोड़कर किसी अन्य देव देवता की भक्ति रूपी बकरी को दोहने का प्रयत्न करेगा |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में सूरदास जी की श्री कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति भावना प्रकट हुई है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

नंदराइ कैं नवनिधि आई |

माथे मुकुट, स्रवन मनि कुण्डल, पीत वसन भुज चारि सुहाई |

बाजत ताल मृदंग जंत्र गति, चरचि अरगजा अंग चढ़ाई |

अच्छत दूब लियें रिषि ठाढ़े, वारनि बंदनवार बँधाई |

छिरकत हरद दही हिय हरषत, गिरत अंक भरि लेत उठाई |

सूरदास सब मिलत परसपर, दान देत नहिं नंद अघाई || (9)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के जन्मोत्सव से उत्पन्न आनंद का वर्णन किया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि नंदराज के यहाँ कृष्ण के रूप में नौ निधियाँ आई हैं | कृष्ण के मस्तक पर मुकुट शोभायमान हो रहा है उनके कानों में मणियों के कुंडल चमक रहे हैं | उनके तन पर पितांबर हैं और उनका शरीर चार भुजाओं से सुशोभित हो रहा है | कृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर ताल, मृदंग तथा अन्य वाद्य यंत्र बज रहे हैं | सुगंधित चंदन का लेप उनके तन पर लगाया जा रहा है | नंदराज के द्वार पर अच्छत तथा दूब लिए हुए ऋषि खड़े हैं और द्वारों पर बंदनवार बँधी हुई है | आसपास खड़े लोग हल्दी तथा दही उन पर छिड़क रहे हैं तथा मन ही मन प्रसन्न हो रहे हैं | बाल कृष्ण को उठाकर लोग गोदी में भर लेते हैं | सभी लोग प्रेमपूर्वक आपस में मिल रहे हैं तथा इस अवसर पर नंद बाबा दान देते हुए तृप्ति का अनुभव कर रहे हैं |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर उल्लासमय वातावरण का सजीव चित्रण किया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

नैंकु गोपालहिं मोकौं दै री |

देखौं वदन कमल नीकैं करि, ता पाछै तू कनिया लै री |

अति कोमल कर वदन सरोरुह, अधर-दसन-नासा सोहै री |

लटकन सीस, कंठ मनि भ्राजत, मनमथ कोटि वारनैं गै री |

वासर निसा विचारति हौं सखि, यहि सुख कबहुँ न पायौ मैं री |

निगमनि धन, सनकादिक-सरबस, बड़े भाग्य पायौ हैं तैं री |

जाकौ रूप जगत के लोचन, कोटि चन्द्र-रवि लाजत भै री |

‘सूरदास’ बलि जाइ जसोदा, गोपिनी-प्रान पूतना बैरी || (10)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी ने बाल कृष्ण के रूप-सौंदर्य का वर्णन किया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि एक गोपी बाल कृष्ण के रूप सौंदर्य से मुग्ध होकर माता यशोदा से आग्रह करती है कि हे माता यशोदा! थोड़ी देर के लिए कृष्ण को मेरी गोद में दे दो | मुझे अच्छी प्रकार से कृष्ण के कमल रूपी मुख को देखने दो | उसके बाद तुम उसे अपनी गोद में ले लेना | बाल कृष्ण के कोमल हाथ और पैर कमल के समान हैं | उनके होंठ, दाँत और नासिका शोभायमान हैं तथा उनके सिर पर बालों की लटें लटक रही हैं | उनके गले में मणियों का हार शोभायमान हो रहा है | उनके रूप-सौंदर्य पर करोड़ों कामदेवों को न्योछावर किया जा सकता है | हे सखी री! मैं तो दिन-रात यही विचार करती रहती हूँ कि मैंने ऐसा सुख जीवन में कभी प्राप्त नहीं किया | वेद-शास्त्रों के धन, सनक आदि ऋषियों के सर्वस्व भगवान कृष्ण को तुमने बड़े भाग्य से प्राप्त किया है | जिसके रूप सौंदर्य को देखकर संसार के नेत्र, करोड़ों चंद्रमा और सूर्य लज्जित हो रहे हैं |

सूरदास जी कहते हैं कि गोपी की इन बातों को सुनकर गोपियों के प्राण तथा पूतना राक्षसी के शत्रु श्री कृष्ण के रूप-सौंदर्य पर माता यशोदा बलिहारी जाती है अर्थात उसकी बलिया लेती है |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

किलकत कान्हा घटरुवन आवत |

मनिमय कनक नंद कैं आँगन, मुख प्रतिबिम्ब, पकरिबे धावत |

कबहुँ निरखि हरि आप छाँह को, पकरन को चित चाहत |

किलकि हँसत राजत द्वै दँतियाँ, पुनि पुनि तिहि अवगाहत |

कनक-भूमि पर कर-पग-छाया, यह उपमा एक राजत |

प्रति-कर प्रति-पद प्रतिमनि वसुधा, कमल बैठकी साजत |

बाल-दसा-सुख निरखि जसोदा, पुनि-पुनि नंद बुलावति |

अँचरा तर लै ढाँकि ‘सूर’ के प्रभु कौं दूध पियावति || (11)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने बाल कृष्ण की लीलाओं का सुंदर वर्णन किया है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि किलकारियां मारते हुए बाल कृष्ण घुटनों के बल आ रहे हैं | नंद के मणियों से सुसज्जित सोने के आंगन में वे अपने प्रतिबिंब को देखते हैं और उसे पकड़ने के लिए भागते हैं | कभी बाल कृष्ण अपनी छाया को देखकर कर उसे अपने हाथ से पकड़ना चाहते हैं | जब वे किलकारी मार कर हंसते हैं तो उनकी दोनों दन्तुलियाँ शोभायमान होती हैं | वह बार-बार छाया को पकड़ना चाहते हैं | सोने की भूमि पर पैरों और हाथों की छाया ; यह उपमा बहुत शोभा देती है | ऐसा लगता है मानो पृथ्वी श्री कृष्ण के प्रत्येक पद पर प्रत्येक मणि में कमल प्रकट कर उनके बैठने के लिए आसन सजा रही है | श्री कृष्ण की बाल्यावस्था के सुख को देखकर यशोदा बार-बार नंद को बुलाती है | सूरदास के स्वामी श्री कृष्ण को माता यशोदा आंचल के नीचे ढक कर दूध पिलाती है |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में श्री कृष्ण की बाल छवि का सुंदर एवं मनोहारी वर्णन किया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

कान्हा चलत पग द्वै द्वै धरनी |

जो मन में अभिलाष करत ही, सो देखत नंदघरनी |

रुनुक-झुनुक नूपुर बाजत पग, यह अति है मन-हरनी |

बैठ जात पुनि उठत तुरत ही, सो छवि जाय न बरनी |

ब्रज जुवती सब देखि थकित भइ, सुंदरता की सरनी |

चिरंजीवौ जसुदा को नंदन, सूरदास की तरनी || (12)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में कविवर सूरदास जी ने श्री कृष्ण की बाल छवि और बाल क्रीड़ाओं का सुंदर एवं स्वाभाविक वर्णन किया है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि बालक कृष्ण अब अपने दोनों पैर पृथ्वी पर रखकर चलने लगे हैं | नंद की पत्नी यशोदा मन में जो अभिलाषा रखती थी, उसे अब वह प्रत्यक्ष रूप से देख रही है | चलते समय बालक कृष्ण के पैरों में पाजेब रुनझुन की ध्वनि कर रहे हैं | बाल कृष्ण की यह छवि अत्यंत मनोहर है | वे चलते-चलते बैठ जाते हैं और फिर तुरंत उठ खड़े होते हैं | ऐसा करते हुए बालक कृष्ण की इस शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता | ब्रज की युवतियाँ कृष्ण की इन गतिविधियों को देखते कर थक जाती हैं और वे कृष्ण के सौंदर्य की शरण ग्रहण कर लेती हैं | कवि सूरदास कहते हैं कि कृष्ण उनके लिए भवसागर से पार उतारने वाली नाव के समान हैं | यशोदा को आनंदित करने वाले श्री कृष्ण चिरंजीवी हों अर्थात् उनकी आयु लंबी हो |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में बाल श्री कृष्ण के पैरों के बल चलने, गिरने-उठने का मनोहारी वर्णन किया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

सोभा सिंधु न अंत लही री |

नंद भवन भरि पूरि उमँगि चल ब्रज की बीथिनु फिरति बही री |

देखी जाइ आजु गोकुल में घर-घर बेचहि फिरति दही री |

कहँ लगि कहौ बनाइ बहुत विधि कहत न मुख सहसहुँ निबही री |

जसुमति उदर अगाध उदधितें उपजी ऐसौ सबनि कही री |

सूर स्याम प्रभु इंद्रनीलमनि ब्रज बनिता उर लाइ गही री || (13)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में कविवर सूरदास जी ने श्री कृष्ण के जन्म के उपरांत ब्रज में उमड़ी शोभा और खुशियों का वर्णन किया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि एक गोपी जो गोकुल में दही बेचने गई थी वह अपने सखियों से कृष्ण की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहती है कि श्री कृष्ण के जन्म पर संसार में शोभा के सागर का अंत नहीं रहा | यह शोभा नंद बाबा के भवन में पूर्ण रुप से उमड़ रही है तथा बृज की गलियों में बह रही है | मैं स्वयं गोकुल में उस शोभा को देख कर आई हूँ क्योंकि मैं घर-घर जाकर दही बेचती हूँ | श्री कृष्ण के जन्म के विषय में लोग तरह-तरह की बातें बना रहे हैं | ऐसी बातें मुख से कहने का साहस नहीं होता | यशोदा के उदर रूपी अगाध सागर से एक बालक ने जन्म लिया है, ऐसी बातें सब कह रहे हैं | सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री कृष्ण की नीलमणि के समान नीले रंग की कांति को ब्रज की नारियां अपने हृदय से लगाए हुए हैं |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में श्री कृष्ण के जन्मोत्सव के अवसर पर व्याप्त प्रसन्नता और शोभा का वर्णन किया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

स्याम हृदय जलसुत की माला अतिहि अनूपम छाजै री |

मनहुँ बलाक पाँति नव घन में यह उपमा कछु भ्राजैँ री |

पीत हरित सित अरुन माल बन राजत हृदय बिसाल री |

मानहुँ इंद्र धनुष नभ मण्डल प्रगट-भयौ तेहि काल री |

भृगुपद चिह्न उरस्थल प्रगटे कौस्तुभमनी ढिंग बरसै री |

बैठे मानो षट विधु एक संग अर्धनिसा मिलि हरसै री |

भुजा विसाल स्याम सुन्दर की चन्दन खौरि चढ़ाये री |

‘सूर’ सुभग अंग अंग की सोभा ब्रज ललना ललचाए री || (14)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में सूरदास जी ने श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य की अनुपम छवि का चित्रण किया है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर कमल के फूलों की सुंदर माला अत्यधिक अनुपम शोभा प्रदान कर रही है | उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो नए बादलों में बगुलों की पंक्ति हो | कवि के अनुसार यह उपमा कुछ ठीक लग रही है | पीले, हरे, श्वेत, और लाल पुष्पों की वनमाला उनके विशाल वक्षस्थल पर सुशोभित हो रही है जिसे देख कर ऐसा लगता है मानो उस समय नीले नभमण्डल में इंद्रधनुष प्रकट हुआ हो | प्रभु कृष्ण के वक्षस्थल पर भृगु ऋषि के पैरों का चिन्ह अंकित है और साथ ही कौस्तुभ मणि भी सुशोभित हो रही है | उसे देख कर ऐसा लगता है मानो छह चंद्रमा आधी रात के समय मिलकर हर्षित हो रहे हों | श्याम सुंदर श्री कृष्ण की विशाल भुजाएं हैं जिन पर चंदन के तिलक सुशोभित हो रहे हैं | सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण के प्रत्येक अंग की शोभा को देखकर ब्रज की गोपियाँ उनके सौंदर्य पर मोहित हो रही हैं |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य तथा वेशभूषा का आकर्षक व मनोहारी चित्रण है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

देखै माई रूप सरोवर साज्यौ |

ब्रज बनिता वर वारि वृन्द में श्री ब्रजराज विराज्यौ |

लोचन जलज, मधुप अलकावलि कुंडल मीन सलोल |

उर चकवाक विलोकि वदन-वधु बिछुरि रहे अनबोल |

मुक्ता माल बाल बग पंगति, करत कुलाहल कूल |

सारस, हंस, मोर, सुक स्रेनी, वैजयन्ति सम तूल |

पुरइनि कपिस निचोल, विविध अंग, बहु रति रुचि उपजावै |

सूर स्याम आनन्द कंद की सोभा कहत न आवै || (15)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का वर्णन किया है |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि एक गोपी कहती है – हे माई! देखो कैसे रूप सौंदर्य रूपी सरोवर शोभायमान हो रहा है | ब्रज की सुंदरियों रूपी श्रेष्ठ जल समूह में ब्रजराज श्री कृष्ण शोभायमान हो रहे हैं | उनके नयन कमल हैं, बालों की लटें भ्रमर हैं तथा कानों के कुंडल क्रीडा करती हुई मछलियां हैं | उनका वक्षस्थल चकवा-चकवी का जोड़ा है जो उनके मुख-रूपी चंद्रमा को देख रहा है | मोतियों की माला बाल-बगुलों की पंक्ति है जो सरोवर के तट पर कोलाहल कर रही है | सारस, हंस, मोर, शुक आदि की श्रेणी वैजयंतीमाला के समान है | रेशमी वस्त्र कमल के पत्तों के समान हैं | उनके विभिन्न अंग प्रेम की अत्यधिक रुचि उत्पन्न करते हैं | सूरदास जी कहते हैं कि आनंद कंद श्री कृष्ण की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में श्री कृष्ण के रूप सौंदर्य का मनोहारी चित्रण है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

नवल किसोर नवल नागरिया |

अपनी भुजा स्याम-भुज ऊपर, स्याम-भुजा अपनैँ उर धारिया |

क्रीड़ा करत तमाल-तरु-तर, स्यामा स्याम उमँगि रस भरिया |

यौँ लापटाइ रहे उर-उर ज्यौँ मरकत मनि कंचन मैं जरिया |

उपमा काहि देउँ, को लायक, मन्मथ कोटी वारने करिया |

सूरदास बलि बलि जोरी पर, नन्द कुँवर वृषभानु- कुँवरिया || (16)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में सूरदास जी ने राधा और कृष्ण की प्रेम क्रीड़ा का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है |

व्याख्या — राधा और कृष्ण की संयोगकालीन प्रेम क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण नवयुवक है और राधा नवयुवती है | राधा ने अपनी भुजा कृष्ण की भुजा पर रख दी और कृष्ण की भुजा को अपने वक्षस्थल पर रख दिया | दोनों तमाल के वृक्ष के नीचे प्रेम क्रीड़ा करने लगे | राधा और कृष्ण दोनों ही उत्तेजित होकर प्रेम रस से भर गए | दोनों के वक्षस्थल एक दूसरे से इस प्रकार लिपटे हुए थे मानो स्वर्ण में मरकत की मणियाँ जड़ी हुई हों | सूरदास जी कहते हैं कि उनकी प्रेम लीला का वर्णन करने के लिए मैं क्या उपमा दूँ ; कोई भी उपमा उनकी प्रेम लीला को अभिव्यक्त करने में समर्थ नहीं है | केवल इतना कहा जा सकता है कि उन पर करोड़ों कामदेवों को भी न्योछावर किया जा सकता है | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि मैं नंद के पुत्र श्री कृष्ण तथा वृषभानु की पुत्री राधा की इस सुंदर जोड़ी पर बार-बार बलिहारी जाता हूँ |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में राधा-कृष्ण की प्रेम क्रीड़ा का मनोहारी वर्णन है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

मुरली मधुर बजाई स्याम |

मन हरि लियौ भवन नहीं भावै, ब्याकुल ब्रज की बाम |

भोजन, भूषन की सुधि नाहीं, तनु की नाही सम्हार |

गृह गुरुलाज सूर सौं तोरयौ, डरी नहीं व्यवहार |

करत सिंगार बिबस भई सुंदरि, अंगनि गई भुलाइ |

सूर-स्याम बन बेनु बजावत, चित-हित रास समाइ || (17)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी ने श्री कृष्ण की मधुर मुरली के उस प्रभाव का वर्णन किया है जिसे सुनकर ब्रज की नारियाँ अपनी सुध-बुध खो बैठती हैं |

व्याख्या — सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण मुरली को मधुर स्वर में बजाते हैं | मुरली की मधुर तान ने ब्रज की युवतियों का मन हर लिया है, उन्हें अपना घर अब अच्छा नहीं लगता और वे उनसे मिलने के लिए व्याकुल हो गई हैं | उनको अपने भोजन तथा आभूषणों की कोई सुध-बुध नहीं है | यहाँ तक कि वे अपने शरीर को भी ठीक से संभाल नहीं पा रही हैं | उन्होंने अपने घर-बार तथा बड़े-बुजुर्गों की मर्यादा को तोड़ दिया है और वे श्री कृष्ण के प्रति अपने प्रेम-व्यवहार से नहीं डरती | वे श्री कृष्ण से मिलने के लिए विवश हो गई हैं और श्रृंगार करने लगी हैं, यहाँ तक कि वे अपने अंग-प्रत्यंगों को भी भूल गई हैं | अंत में सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण वन में बांसुरी बजा रहे हैं जिससे गोपियों के मन में रास की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गई है |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में श्री कृष्ण की मुरली की मधुरता के प्रभाव का वर्णन किया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

मेरे जिय ऐसी आनि बनी |

बिनु गोपाल और नहिं जानौँ, सुनि मोसौं सजनी |

कहा काँच के संग्रह कीन्हैं, डारि अमोल मनी |

विष सुमेरु कछु काज न आवै, अमृत एक कनी |

मन-बच-क्रम मोहिं और न भावै, मेरे स्याम धनी |

सूरदास-स्वामी के कारन, तजी जाति अपनी || (18)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों के माध्यम से सूरदास जी ने एक गोपी के कृष्ण के प्रति एक निष्ठप्रेम का वर्णन किया है |

व्याख्या — एक गोपी अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहती है कि हे सखी! मेरी बात सुनो मेरे हृदय की कुछ ऐसी आदत हो गई है कि मैं श्री कृष्ण को छोड़कर किसी अन्य को जानती तक नहीं | श्री कृष्ण रूपी बहुमूल्य मणि को छोड़कर अन्य व्यक्ति रूपी काँच का संग्रह भला कौन करे? वह कहती है कि विष का सुमेरु पर्वत भी किसी काम का नहीं जबकि अमृत का एक छोटा सा कण भी उपयोगी होता है | मन, वचन और कर्म से मुझे और कोई भी प्रिय नहीं लगता | श्री कृष्ण ही मेरे पति हैं ; मैं उन्हीं से प्रेम करती हूँ | सूरदास कहते हैं कि अंत में वह ब्रजयुवती अपनी सखी को संबोधित करते हुए कहती है कि प्रभु श्री कृष्ण के लिए उसने अपनी जाति को भी छोड़ दिया है |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में गोपियों का श्री कृष्ण के प्रति प्रेम व्यक्त होता है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

चितै राधा रति-नागर ओर |

नैन-बदन-छबि यौँ उपचति, मनु ससि अनुराग चकोर |

सारस रस अँचवन कौं मानौं, फिरत मधुप जुग जोर |

पान करत कहुँ तृप्ति न मानत, पलकनि देत अकोर |

लियौ मनोरथ मानि सफल ज्यौं रजनि गये पुनि भोर |

‘सूर’ परस्पर प्रीति निरन्तर दम्पत्ती हैं चित चोर || (19)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में सूरदास जी ने राधा और श्री कृष्ण की प्रेम लीला का सुंदर वर्णन किया है |

व्याख्या — कविवर सूरदास जी कहते हैं कि राधा निरंतर प्रेम में प्रवीण श्री कृष्ण की ओर देखती रहती है | वह श्री कृष्ण के नेत्र और मुख को इस प्रकार अनुरक्त होकर देखती है जैसे चकोर चंद्रमा से प्रेम करता है और एकटक उसकी ओर निहारता रहता है | ऐसा लगता है मानो भ्रमरों का जोड़ा सारस-रस का पान करने के लिए मंडरा रहा हो | वह कृष्ण के रूप-सौंदर्य का पान करके भी तृप्त नहीं होता और पलकों की ओट दे-देकर उस रस का निरंतर पान करता रहता है | राधा ने अपने मनोरथ को इस प्रकार पूर्ण कर लिया जैसे रात बीत जाने पर सवेरा होता है | कविवर सूरदास कहते हैं कि राधा और कृष्ण का प्रेम निरंतर चलता रहता है | वे दोनों पति-पत्नी हैं और एक दूसरे के मन को चुराए हुए हैं |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में राधा-कृष्ण की प्रेम लीला का सजीव वर्णन है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

कहौ कहाँ ते आए हौं |

जानित हौं अनुमान मनों तुम यादवनाथ पठाए हौ |

वैसोई बरन, बसन पुनि वैसोई, तन भूषण सजि ल्याए हौ |

सर्वसु लै तब संग सिधारे अब का पर पहिराए हौ |

सुनहु मधुप! एकै मन सबको सो तो वहाँ लै छाए हौ |

मधुबन की मानिनी मनोहर तहँहि जाहु जहुँ भाए हौ |

अब यह कौन सयानप? ब्रज पर का करन उठि धाए हौ |

सूर जहाँ लौ श्यामगात हैं जानि भले करि पाए हौ || (20)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में ब्रज की गोपियां उद्धव पर व्यंग्य करती हैं और ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती हैं |

व्याख्या — उद्धव के योग के संदेश को सुनकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हुई एक गोपी कहती है कि हे उद्धव! हमें बताओ आप कहाँ से आए हो? हम ठीक से नहीं जानती लेकिन ऐसा हमारा अनुमान है कि संभवत: आपको श्री कृष्ण ने ब्रज में भेजा है | आपका वैसा ही रंग है, वैसे ही वस्त्र तथा आभूषण धारण किए हुए हैं | हमारे जीवन का सर्वस्व अर्थात् हमारे जीवनाधार कृष्ण को तुम पहले ही यहाँ से लेकर चले गए हो अब तुम्हारी नजरें किस वस्तु पर हैं? अर्थात अब तुम हमसे क्या लेने आए हो? हे भ्रमर! मेरी बात सुनो कि सब का एक ही मन होता है और हमारे मन को लेकर तुम पहले ही मथुरा चले गए हो | तुम मथुरा की सुंदर मानिनियों के पास ही जाकर रहो क्योंकि वहीं पर तुम्हारा मन लगता है | अब यह तुम्हारी कौन सी चतुराई है? अब तुम किस कारण से ब्रज की ओर भागे आए हो? अंत में गोपी उद्धव को कहती है कि जहाँ तक काले शरीर वालों का प्रश्न है वह उन्हें भली-भाँति जानती है |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियां उद्धव तथा कृष्ण पर आक्रोश व्यक्त करते हुई कहती हैं कि सभी काले लोग तन और मन दोनों से काले हैं |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

गोकुल सबै गोपाल उपासी |

जोग अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी |

यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रस रासी |

अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि हैं ससि राहु-गरासी |

का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी |

सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी || (21)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में ब्रज की गोपियां उद्धव पर व्यंग्य करती हैं और ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती हैं |

व्याख्या — उद्धव के योग-संदेश के प्रत्युत्तर में गोपियां उत्तर देती हुई कहती हैं कि हे उद्धव! गोकुल के सब नर-नारी गोपाल के उपासक हैं और उसकी ही पूजा-अर्चना करते हैं | जो लोग योग-साधना करते हैं वे तो शिव की नगरी काशी में बसते हैं | यद्यपि श्रीकृष्ण ने हमें त्याग कर अनाथ बना दिया है परंतु फिर भी हम उनके चरणों में अनुरक्त हैं | यह ठीक वैसा ही है जैसे चंद्रमा राहु के द्वारा ग्रसित होने पर भी अपनी शीतलता को नहीं छोड़ता | कहने का भाव यह है कि भले ही कृष्ण ने हमें छोड़ दिया परंतु हम उनके प्रति अपने प्रेम को नहीं त्याग सकती | हमने ऐसा कौन सा अपराध किया था कि कृष्ण ने हमारे लिए ही योग का संदेश भिजवा दिया | वे क्यों हमें प्रेम भक्ति के मार्ग को छोड़कर योग साधना का संदेश देकर विरक्त करना चाहते हैं | अंत में गोपियां उद्धव से कहते हैं कि यहाँ ब्रज में कौन ऐसी विरहिणी है जो गुणों की खान कृष्ण को छोड़कर मुक्ति की इच्छा करेगी?

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में निर्गुण व ज्ञानमार्गी शाखा पर सगुण व प्रेम मार्गी भक्ति का महत्व प्रतिपादित किया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

ऊधौ जोग सिखावन आए |

सिंगी, भस्म, अधारी, मुद्रा, लै ब्रजनाथ पठाए |

जो पै जोग लिख्यौ गोपिन कौं, कत रसराज खिलाए |

तबहिं ज्ञान काहे न उपदेस्यो अधर सुधा रस प्याए |

मुरली शब्द सुनत वन गवनति सुत पति गृह विसराए |

सूरदास संग छाँड़ स्याम को मनहि रहे पछिताए | (22)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में ब्रज की गोपियां उद्धव पर व्यंग्य करती हैं और ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती हैं |

व्याख्या — योग साधना का संदेश देने आए उद्धव को संबोधित करते हुए गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! तुम यहाँ ब्रज में हमें योग साधना सिखाने आए हो | ब्रजनाथ कृष्ण ने सिंगी, भस्म, अधारी तथा मुद्रा आदि देकर तुम्हें यहाँ ब्रज में भेजा है | पुन: वे कहती हैं कि यदि कृष्ण को गोपियों के लिए योग लिखकर भेजना ही था तो उन्होंने पहले हमारे साथ प्रेम क्यों किया? जब वे हमें अपने अधरों से अमृत रस का पान कराते थे उन्होंने तभी हमें ज्ञान का उपदेश क्यों नहीं दिया? वे कहती हैं कि संयोग काल में वे मुरली के स्वर को सुनते ही पुत्र, पति और घर को भुलाकर वन की ओर दौड़ पड़ती थी | अब उनसे हमारी संगति छूट गई है जिसके कारण हम अपने मन में पश्चाताप कर रही हैं |

विशेष — (1) इन पंक्तियों में योग साधना की भर्त्सना करते हुए श्री कृष्ण द्वारा योग साधना का संदेश लेकर भेजने पर उनको उपालंभ दिया गया है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

अँखियाँ हरि दरसन की भूखी |

कैसे रहें रूप रस राँची ये बतियाँ सुनि रूखी |

अवधि गनत इकटक मग जौवत तब एती नहि झूखी |

अब इत जोग-संदेसन ऊधौ अति अकुलानी दूखी |

बारक वह मुख फेरि दिखायो दुहि पय पिवत पतूखी |

सूर सिकत हठि चलायो ये सरिता है सुखी || (23)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में ब्रज की गोपियां उद्धव पर व्यंग्य करती हैं और ज्ञान मार्ग पर प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती हैं |

व्याख्या — योग साधना का संदेश देने आए उद्धव को संबोधित करते हुए गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! हमारी आंखें तो श्री कृष्ण को देखने के लिए व्याकुल हैं | हे उद्धव! कृष्ण के रूप-रस में अनुरक्त हमारी आँखें तुम्हारी रूखी बातों को कैसे सुन सकती हैं? हमारी यह आंखें उनके विरह में उनकी प्रतीक्षा करती हुई उनकी आने की अवधि को गिन-गिनकर काटते हुए कभी इतना दु:खी नहीं हुई जितना अब तुम्हारे योग-संदेश को सुनकर दु:खी हो रही हैं | हे उद्धव! हमें एक बार फिर से दूध दोहकर दोने में पीते हुए कृष्ण के मुख के दर्शन करा दो | सूरदास जी कहते हैं कि गोपियां उद्धव को कहती हैं कि हे उद्धव! तुम हमें योग-साधना का संदेश देकर ठीक वैसे ही निरर्थक व हास्यास्पद प्रयास कर रहे हो जैसे कोई रेत की सूखी नदी में नाव चलाने का प्रयास कर रहा हो |

विशेष — (1) इन पंक्तियों के माध्यम से इस तथ्य की अभिव्यक्ति हुई है कि गोपियों के लिए श्री कृष्ण का मनोहारी रूप ही जीवनाधार है ; ज्ञान मार्ग और निर्गुण ब्रह्म की भक्ति उनके लिए व्यर्थ है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

हमारे हरि हारिल की लकरी |

मन वच क्रम नंद नन्दन सों उर यह दृढ करि पकरी |

जागत, सोवत सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जक री |

सुनतहि जोग लगत ऐसी अलि! ज्यों करुई ककरी |

सोई व्याधि हमैं लै आए देखी सुनी न करी |

यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी || (24)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | प्रस्तुत पंक्तियों में सूरदास जी ने गोपियों के माध्यम से सगुण ईश्वर में अपनी आस्था का परिचय दिया है |

व्याख्या — योग साधना का संदेश लेकर आए उद्धव को गोपियां समझाती हुई कहती हैं कि हमारे प्रभु श्री कृष्ण हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं | अर्थात जिस प्रकार से हारिल नामक पक्षी किसी लकड़ी के तिनके को अपने हाथों में दबाए रखता है ठीक उसी प्रकार से गोपियां भी श्रीकृष्ण के ध्यान में निरंतर निमग्न रहती हैं | गोपियां कहती हैं कि हमने मन, वचन और कर्म से श्री कृष्ण रूपी लकड़ी को अपने हृदय में धारण कर लिया है | जागते हुए, सोते हुए स्वप्नावस्था में तथा दिन-रात हम श्री कृष्ण के नाम की रट लगाती रहती हैं | हे उद्धव! तुम्हारे योग साधना का उपदेश सुनकर ऐसा लगता है मानो कोई हमें कड़वी ककड़ी खाने को दे रहा हो | इस निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान के रूप में तुम ऐसा रोग ले आए हो जिसके विषय में हमने न कभी सुना है और न देखा है | कवि सूरदास जी के अनुसार गोपियां उद्धव को कहती हैं कि यह असाध्य रोग उन्हीं को जाकर सौंप दो जिनके मन सदा चंचल रहते हैं |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियों ने श्रीकृष्ण की भक्ति को अपने जीवन का आधार माना है | वे उसी प्रकार श्री कृष्ण की छवि को सदैव अपने हृदय में धारण करके रखती हैं जिस प्रकार से हारिल नामक पक्षी अपने पंजों में एक छोटी सी लकड़ी को हमेशा पकड़े रखता है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं |

तब ये लता लगती अति शीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं |

वृथा बहति जमुना, खग बोलत, वृथा कमल फूले अलि गुंजैं |

पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भइँ भुंजैं |

ए, ऊधो, कहियो माधव सों, मदन मारि किन्हीं हम लुंजैं |

सूरदास प्रभु को मग जोवत अँखियाँ भई वरन ज्यों गुंजैं || (25)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों के माध्यम से सूरदास जी ने गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन किया है |

व्याख्या — जब उद्धव गोपियों को योग साधना का संदेश देते हैं तो गोपियों की विरह वेदना जागृत हो उठती है और वे उद्धव को संबोधित करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव! तुम श्री कृष्ण से जाकर कहना कि उनके बिना सुख देने वाले वृक्षों के समूह अब दुश्मन के समान लगने लगे हैं | श्री कृष्ण के साथ होने पर जो लताएं तन को शीतलता प्रदान करती थी, अब वे अग्नि के समूह के समान प्रतीत होती हैं | अब तो यमुना का बहना, वृक्षों पर पक्षियों का बोलना व्यर्थ लगता है | इतना ही नहीं कमल के फूलों का खिलना और भंवरों की मधुर गुंजार भी अब मन को व्यर्थ प्रतीत होती है | मंद-मंद चलने वाली वायु, जीवन देने वाला पानी सब व्यर्थ प्रतीत होता है | चंद्रमा की शीतल किरणें सूर्य की किरणों के समान झुलसा देने वाली लगती हैं | हे उद्धव! श्री कृष्ण से जाकर कहना कि कामदेव ने हमें अपने काम वासना रूपी तीर मारकर कमजोर बना दिया है | सूरदास जी कहते हैं कि गोपियां उद्धव को अपनी विरह-वेदना के विषय में बताते हुए कहती हैं कि उनके दर्शन करने के लिए राह देखते-देखते हमारी आंखें गुंजा फल के समान लाल हो गई हैं |

विशेष — (1) प्रस्तुत पंक्तियों में गोपियों की विरह-वेदना का मार्मिक वर्णन है |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

ऊधौ न हम बिरही न तुम दास |

कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहुँ अकास |

बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँडि जियन की आस |

दास भाव नहिं तजत पपीहा, बरु सहि रहत पियास |

प्रगट प्रीति दशरथ प्रतिपाली प्रीतम के वनवास |

सूर स्याम सौं दृढ़व्रत किन्हों मेटि जगत उपहास || (26)

प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित सूरदास द्वारा रचित पदों से अवतरित है | इन पंक्तियों में गोपियों की विरह-वेदना का वर्णन करते हुए गोपियों द्वारा यह स्वीकारोक्ति करके कि वे सच्ची बिरही नहीं है, श्री कृष्ण के प्रति गोपियों के एक निष्ठा प्रेम की अभिव्यक्ति की गई है |

व्याख्या — गोपियां उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव! न तो हम सच्चे अर्थों में श्री कृष्ण की सच्ची विरहिणीयाँ हैं और न ही तुम उनके सच्चे दास हो | हम सच्ची विरहिणी इसलिए नहीं हैं क्योंकि उनके वियोग के बावजूद हम जीवित हैं, अभी तक मरी नहीं हैं | तुम कृष्ण के सच्चे सेवक इसलिए नहीं हो क्योंकि तुम उन्हें छोड़कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते हो | सच्ची विरहिणी तो मछली होती है जो पानी से बिछड़ते ही जीवन की आशा को त्यागकर मर जाती है | इसी प्रकार पपीहा सच्चा सेवक है जो प्यासा रहकर भी प्यास की पीड़ा को सहन करता है और बादल के प्रति अपने दास्य-भाव को नहीं छोड़ता | एक अन्य उदाहरण देते हुए गोपियां कहती हैं कि सच्चा प्रेम तो राजा दशरथ ने किया था जिसने अपने प्रिय पुत्र के द्वारा वनवास लेते ही उनके वियोग में अपने प्राण त्याग दिए थे | हमने भले ही श्री कृष्ण से अटूट प्रेम करने का संकल्प लिया फिर भी उनके वियोग में जीवित रहकर हम उनके प्रेम को कलंकित कर रही हैं |

विशेष — (1) गोपियां श्री कृष्ण के वियोग में जीवित होने पर व्यथित हैं | उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि वे सच्ची विरहिणी नहीं हैं |

(2) संपूर्ण पद में गेयता एवं संगीतात्मकता है |

(3) साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |

(4) शब्द चयन सर्वथा उचित तथा भावानुकूल है |

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