घनानंद के पद

( यहाँ KU / MDU / CDLU विश्वविद्यालयों द्वारा निर्धारित बी ए प्रथम सेमेस्टर -हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित घनानंद के पद दिए गए हैं | )

घनानंद के पद
घनानंद के पद

1

झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजति काननि छ्वै ।
हंसि बोलन में छबि-फूलन की, बरखा उर ऊपर जाति है ह्वै | लोल कपोल कलोल करैं, कल-कंठ बनी जलजावलि द्वै |
अंग-अंग तरंग उठै दुति की परिहै मनौ रूप अबै धरि च्वै ||

2

हीन भएं जल मीन अधीन, कहा कछु मो अकुलानि समानै।
नीर-सनेही को लाय कलंक, निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यौं समुझै, जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घन आनंद, जीव की जीवन जान ही जानै।।

3

मीत सुजान अनीति करौ जिन, हा हा न हूजिए मोहि अमोही।
दीठि को और कहूँ नहिं ठौर, फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहें लगि आस रहे बसि प्रान बटोही।
हौ घन आनन्द जीवन मूल दई! कित प्यासनि मारत मोही।।

4

क्यौं हंसि हेरि हरयौ हियरा, अरु क्यौं हित के चित चाह बढ़ाई।
काहे को बोलि सुधासने बैननि, चैननि मैन-निसैन चढ़ाई।
सो सुधि मो हिय मैं घन आनन्द सालति क्यौं हूं कढै न कढ़ाई।
मीत सुजान अनीति की पाटी, इतै पै न जानिए कौनें पढ़ाई।।

5

तब तौ छबि पीवत जीवत है, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-पोष के तोष सुप्रान पले, विललात महा दुख दोष-भरे।
घनानन्द मीत सुजान बिना, सबही सुख-साज समाज हरे।
तब हार पहार से लागत हे अब आनि के बीच पहार परे।।

6

पहिले अपनाया सुजान स्नेह सों, क्यौं फिरि तेह के तोरियो जू।
निरधार आधार दे धार मंझार, दई! गई बांह न बोरियो जू।
घन आनन्द आपने चातिक कों, गुन बांधि लै, मोह न छोरियो जू।
रस प्याय कै ज्याय बढ़ाय कै आस, बिसास में यों बिस घोरियो जू।।

7

रावरे रूप की रीति अनूप, नयो-नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारियै।
त्यों इन आंखिन बानि अनोखी, अघानि कहूं नहि आनि निहारियै।
एक ही जीव हु तो सु तौ वारयो, सुजान! सकोच औ सोच सहारियै।
रोकी रहै न, दहै, घन आनन्द, बावरी रीझ के हाथनि हारियै।।

8

अंतर उदेग-दाह, आँखिन प्रवाह-आँसू,
देही अटपटी चाह भीजनि दहनि है।
सोइबो न जागिबो हो, हंसिबो न रोइबो हू,
खोय-खोय आपही में चेटक-लहनि है।
जान प्यारे प्राननि बसत पै अनंदघन,
बिरह-विषम-दसा मूक लौं कहनि है।
जीवन-मरन जीव-मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौन बिधि रची नेही की रहनि है।

9

नेह निधान सुजान समीप तौ सींचति ही हियरा सियराई।
सोई किधौं अब और भई, दई हेरति ही मति जाति हिराई।
हैं विपरीत महा घनआनंद, अंबर तें धर को झरआई।
जारत अंग अनंग की आंचनि, जोन्ह नहीं सु नई अगिलाई |

10

नैनन में लागै जाय, जागै सु करैजे बीच,
या बस ह्वै जीव धीर होत लोट-पोट हैं।
रोम रोम पूरि पीर, ब्याकुल सरीर महा,
घूमैं मति गति आसैं, प्यास की न टोट हैं।
चलत सजीवन सुजान-दृग हाथन तें
प्यारी अनियारी रुचि रखवारी ओट हैं।
जब-जब आवै, तब-तब अति मन भाव,
अहा! कहा विषम कटाछ-सर-चोट है।

11

कंत रमैं उर अंतर में, सु लहैं नहीं क्यों सुख रासि निरंतर।
दंत रहैं गहे आंगुरी ते, जु बियोग के तेह तचे परतंतर।
जो दुख देखति हौं घनआनन्द, रैन-दिना बिन जान सुतंतर।
जानै वेई दिन-राति, बखाने ते जाय परै दिन-रात को अन्तर।।

12

चंद चकोर की चाह करै, घनआनन्द स्वाति पपीहा कौं धावै।
त्यों त्रसरैनि के ऐन बसै रवि, मीन पै दीन द्वैव सागर आवै।
मों सों तुम्हें, सुनौ जान कृपानिधि! नेह निबाहिबो यों छबि पावै।
ज्यों अपनी रुचि राचि कुबेर सु रंकहि लै निज अंक बसावै।

13

ज्यौं बुधि सों सुघराई रचै कोऊ, सारदा कौं कबिताई सिखावै।
मूरतिवंत महालछमी-उर पोत-हरा रचि लै पहिरावै।
राग-बधू-चित-चोरन के हित सोधि सुधारि कै तानहिं गावै।
त्यौं ही सुजान तियै घनआनन्द मो-जिय-बौरई-रीति रिझावै।।

14

तपति उसास औधि रूधिये कहां लौ दैया,
बात बूझें सैननि ही उतर उचारियै।
उड़ि चल्यो रंग कैसें राखियै कलंकी मुख,
अनलेखे कहां लौं न घूंघट उघारियै।
जरि बरि छार हवै न जाय हाय ऐसी बैसि,
चित-चढ़ी मूरति सुजान क्यौं उतारियै।
कठिन कुदायँ आय घिरी हौं अनंदघन,
रावरी बसाय तो बसाय न उजारियै ।।

15

अकुलानि के पानि पर्यो दिनराति सु ज्यौ छिनकौन कहूं बहरै।
फिरिबोई करै चित चेटक चाक लौं, धीरज को ठिकु क्यौं ठहरै।
भये कागद नाव उपाय सबै, घनानन्द नेह नदी गहरै।
बिन जान सजीवन कौन हरै, सजनी! विरहा विष की लहरै ।।

16

जान प्यारी! हौं तो अपराधनि सों पूरन हौं,
कहा कहौं ऐसी गति, आवत गर्यो रुक्यो।
साध मारै सुधा तो सुभाय के मिठासै, ताकी,
आसा ल दहति, मैं चरन कंज सों ढुक्यो।
इतै पे जो रोष कै रसीली हियो पोढयौँ करौं,
तौ न कहूं गैर जी को, वे हू झगरो चुक्यो।
ऐसें सोच-आंचनि अनंदघन सुखनिधि।
लपट कढै न नेकौ हा हा जात ज्यौं फुक्यौ।

17

सुधा तें स्रवतं विष,फूल मैं जमत सूल,
तम उगिलत चंद, भई नई रीति है।
जल जारै अंग, और राग करै सुरभंग,
संपति विपति पारै, बड़ी विपरीति है।
महागुन गहै दोषै, औषद हू रोग पोषै,
ऐसे जान! रस मांहि विरस अनीति है।
दिनन को फेर मोहि, तुम मन फेरि डार्यो,
अहो घन आनन्द न जानौं कैसी बीति है।

18

लगी है लगनि प्यारे, पगी है सुरति तोसों,
जगी है विकलताई ठगी सी सदा रहौं।
जियरा उड्यो-सो डोले, हियरा धक्यौई करै,
पियराई छाई तन, सियराई दौ दहौं।
ऊनो भयो जीबो अब सूनो सब जग दीसै
दूनो-दूनो दुख एक एक छिन में सहौं।
तेरे तौ न लेखो, मोहिं मारत परैखो महा,
जान घन आनन्द पै खोइबो लहा लहौं।

19

अधिक बधिक ते सुजान! रीति रावरी है,
कपट-चुगौ दै फिरि निपट करौ बुरी।
गुननि पकरि लै, निपांख करि छोरि देहु,
मरहि न जियै, महा विषम दया-छुरी।
हौं न जानौं, कौन धौं ही या में सुद्ध स्वारथ की,
लखि क्यौं परति प्यारे अंतर कथा दुरि
कैसें आसा-द्रुम पै बसेरो लहै प्रान खग,
बनक-निकाई घन आनन्द नई जुरी।

20

इत बांट परी सुधि, रावरे भूलनि, कैसें उराहनो दीजियै जू।
अब तो सब सीस चढ़ाय लयी जु कुछू मन भाई सु कीजियै जू।
घन आनंद जीवन प्रान सुजान! तिहारियै बातनि जीजियै जू।
नित नीके रहौ, तुम्है चाड़ कहा पै असीस हमारियौ लीजियै जू |

21

‘एरे बीर पौन! तेरो सब ओर गौन, बीरी
तो सो और कौन, मनैं ढ़रकौंही बानी दै।
जगत के प्रान, ओछे बड़े सो समान, घन- आनंद-निधान सुखदान दुखियानि दै।
जान उजियारे गुन-भारे अंत मोही प्यारे,
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै।
बिरह-बिथाहि मूरि, आँखिन में राखौं पूरि,
धूरि तिन पायन की हा-हा! नेकु आनि दै।’

22

एकै आस एकै बिसवास प्रान गहैं बास,
और पहचानि इन्हैं रही काहू सों न है।
चातिक लौं चाहै घनआनंद तिहारी ओर,
आठौ जाम नाम लै, बिसारि दीनी मौन है।
जीवन आधार जान सुनियै पुकार नेकु,
आनाकानी दैबो दैया घाय कैसो लौन है।
नेह-निधि-प्यारे गुन-भारे ह्वै न रूखे हूजै
ऐसौ तुम करौ तौ बिचारन कैं कौन है।

23

अति सूधो सनेह को मारग है,
जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ सांचे चलें तजि आपनपौ,
झझकैं कपटी जे निसांक नहीं।
घन आनन्द प्यारे सुजान सुनौ,
यहाँ एक ते दूसरो आंक नहीं
तुम कौन धौं, पाटी पढ़े हो कहौ,
मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।

24

कारी कूर कोकिला! कहां को बैर काढ़ति री,
कूकि कूकि अबहिं करेजो किन कोरि लै।
पैंड़े परे पापी ये कलापी निस द्यौँस ज्यों ही,
चातक! घातक त्यौं ही तू ही कान फोरि लै।
आनंद के घन प्रान जीवन सुजान बिना,
जानि कै अकेली सब घेरौ दल जोरि लै।
जौ लौं करैं आवन विनोद-बरसावन वे,
तौं लौं रे डरारे बजमारे घन घोरि लै।

25

मही दूध सम गनै हंस-बक भेद न जाने।
कोकिल-काक न ज्ञान, कांच-मनि एक प्रमानै।
चंदन-ढाक समान, रांग-रूपौ सम तोलै।
बिन बिबेक गुन दोष, मूढ़ कबि ब्यौरि न बोलै।
प्रेम नेम हित-चतुरई, जे न बिचारत नेकु मन।
सपने हू न बिलंबिये, छिन तिन ढिग आनन्दघन।

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