कबीरदास के पदों की व्याख्या ( बी ए – हिंदी, प्रथम सेमेस्टर )

( यहाँ KU, MDU, CDLU विश्वविद्यालयों द्वारा बी ए प्रथम सेमेस्टर -हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित ‘कबीरदास’ के पदों की सप्रसंग व्याख्या दी गई है | )

कबीरदास के पदों की व्याख्या
कबीरदास के पदों की व्याख्या

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार |

लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावणहार || (1)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — सतगुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु की महिमा असीम है | सतगुरु अपने शिष्य पर अनंत उपकार करता है | सतगुरु अपने शिष्य को अनंत अर्थात ब्रह्म के दर्शन कराने के लिए उसकी ज्ञान चक्षुओं को खोल देता है |

राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं |

क्या ले गुर संतोषिए, हौस रही मन मांहि || (2)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि राम नाम की तुलना में इस संसार में कोई भी वस्तु श्रेष्ठ नहीं है | गुरु ने उसे राम नाम रूपी अनमोल मंत्र दिया है और उसके पास ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो इस अनमोल मंत्र के प्रतिदान के रुप में गुरु को दी जा सके | इसलिए मेरे मन में हमेशा टीस बनी रहती है कि मैं अपने गुरु को क्या भेंट करूं कि गुरु संतुष्ट हो सकें | अर्थात सतगुरु अपने शिष्य को राम नाम रूपी अनमोल मन्त्र देता और संसार की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे देकर गुरु के इस ऋण से उऋण हुआ जा सके |

हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि |

कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार || (3)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि सतगुरु के उपदेश रूपी बाण ने उसके ह्रदय को भीतर तक भेद दिया है और उसकी चंचलता को समाप्त कर दिया है | अब उसका ह्रदय उस उनमना अवस्था को प्राप्त हो गया है जहां ना वह हंसता है और ना बोलता है | अर्थात सतगुरु ने अपने उपदेश के माध्यम से साधक को सांसारिक राग-विराग से विरक्त कर दिया है |

पीछै लागा जाइ था, लोक वेद के साथि |

आगै थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया हाथि || (4)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मैं इस संसार में लोक और वेदों द्वारा बताए गए मार्ग पर चलता जा रहा था | इस प्रकार लोक व्यवहार और वेद शास्त्रों का अंधा अनुकरण करते हुए मैं निरंतर भटक रहा था किंतु इस प्रकार भटकते हुए अचानक मुझे मेरे सतगुरु मिल गए और उन्होंने ज्ञान का दीपक मेरे हाथ में दे दिया और इस भवसागर से पार उतरने का मुझे सही रास्ता दिखा दिया |

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट |

पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौँ हट्ट || (5)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि सद्गुरु ने उन्हें ज्ञान रूपी दीपक दिया और उसे प्रेम-भक्ति रूपी तेल से भर दिया है और कभी भी समाप्त नहीं होने वाली बाती उसमें लगा दी है | इस प्रकार संसार रूपी बाजार में मैंने अपने कर्मों का समस्त लेन-देन सही ढंग से कर लिया है, अब मुझे इस बाजार में पुन: आने की आवश्यकता नहीं है | कहने का भाव यह है कि अब मुझे मोक्ष की प्राप्ति हो गई है और मैं आवागमन के चक्र से मुक्त हो गया हूँ |

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवै पडंत |

कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उबरंत || (6)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में सतगुरु की महिमा का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि माया दीपक के समान है और मनुष्य पतंगे के समान है जो बार-बार भटक कर इस माया रूपी दीपक की लौ से आकर्षित होकर उसमें झुलसता रहता है | कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार पतंगे दीपक की लौ की तरफ आकर्षित होकर उसमें झुलस जाते हैं और अपना जीवन नष्ट कर देते हैं ठीक उसी प्रकार से मनुष्य भी सांसारिक प्रलोभनों के जाल में फंसकर अपने जीवन को नष्ट कर देता है |

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ |

अंतरि भीगी आत्माँ, हरी भई बनराइ || (7)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में प्रभु प्रेम के प्रभावों का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर के प्रेम का बादल मेरे ऊपर उमड़ कर अपने प्रेम की वर्षा कर रहा है जिससे मेरी अंतरात्मा अंदर तक भीग गई है | ईश्वर की प्रेम-वर्षा से मेरे हृदय की वन-राशि हरी-भरी हो गई है अर्थात हृदय आनंद-निमग्न हो गया है |

भगति भजन हरि नाँव है, दूजा दुक्ख अपार |

मनसा बाचा क्रमनाँ , कबीर सुमिरण सारा || (8)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर के नाम स्मरण के महत्व का को उजागर किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु के नाम का स्मरण करना ही वास्तविक भक्ति और भजन है | इसके अतिरिक्त यदि हम प्रभु भक्ति का दूसरा कोई दूसरा उपाय अपनाते हैं तो वह अपार दुःख का कारण बनता है | अत: हमें मन, वचन और कर्म से ईश्वर का नाम स्मरण करना चाहिए | वस्तुतः यही सार तत्त्व है |

कबीर निरभै राम जपि, जब लग दिवै बाति |

तेल घट्या बाती बुझी, ( तब ) सोवैगा दिन राति || (9)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर भक्ति का संदेश दिया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य जब तक हमारे शरीर रूपी दीपक में जीवन रूपी बाती है, तब तक हमें निर्भय होकर राम नाम का जाप करना चाहिए क्योंकि जैसे ही हमारे शरीर रूपी दीपक में से श्वास रूपी तेल समाप्त हो जायेगा, हमारे जीवन की बाती बुझ जाएगी और उसके पश्चात हम चिर निद्रा में सो जाएंगे | भावार्थ यह है कि जब तक हमारे शरीर में प्राण शेष है हमें प्रभु-भक्ति में तल्लीन रहना चाहिए |

केसो कहि कहि कूकिये, नाँ सोइयै असरार |

राति दिवस के कूकणो , (मत) कबहूँ लगै पुकार || (10)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में रात-दिन ईश्वर के नाम स्मरण पर बल दिया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हमें प्रभु ( केशव ) के नाम का जाप करते रहना चाहिए, व्यर्थ में सोना नहीं चाहिए | क्योंकि रात-दिन प्रभु के नाम का जाप करने से न जाने कब हमारी पुकार प्रभु के कानों तक पहुंच जाए | कहने का भाव यह है कि लगातार प्रभु का नाम स्मरण करने से एक ना एक दिन अवश्य ही प्रभु हम पर अनुकंपा करते हैं |

लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार |

कहौ संतो क्यूँ पाइये, दुर्लभ हरि दीदार || (11)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर भक्ति के मार्ग की बाधाओं का वर्णन है |

व्याख्या – कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु का घर बहुत दूर है, रास्ता बहुत लंबा है और रास्ते में विभिन्न प्रकार की बाधाएं हैं | इसलिए हे संतो! तुम ही बताओ कि प्रभु के दुर्लभ-दर्शन किस प्रकार हो सकते हैं | कहने का भाव यह है कि ईश्वर के दुर्लभ दर्शन करने के लिए साधना के एक लंबे और विकट रास्ते से गुजरना पड़ता है |

कबीर चित्त चमंकिया, चहुं दिस लागी लाइ |

हरि सुमिरण हाथूं घड़ा, बेगे लेहु बुझाइ || (12)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में मन की चंचलता और ईश्वर भक्ति के महत्व का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हृदय रूपी चकमक पत्थर के कारण चारों तरफ विषय-वासनाओं की आग लगी हुई है | विषय-वासनाओं की इस आग को ईश्वर के नाम-स्मरण रूपी घड़े को हाथ में लेकर बुझाया जा सकता है | इसलिए हे साधक! तू तुरंत ईश्वर के नाम-स्मरण रूपी इस घड़े से विषय-वासनाओं की इस अग्नि को बुझा ले |

बिरहनि ऊभि पंथ सीरि, पंथी बुझै धाइ |

एक सबद कहि पीव का, कब रे मिलैगे आइ || (13)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में विरहिणी आत्मा रूपी नायिका के परमात्मा रूपी नायक से मिलन की उत्कंठा का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि विरहिणी नायिका जीवन-पथ के किनारे खड़ी है और प्रत्येक राही से भाग -भाग कर अपने प्रिय परमात्मा के विषय में पूछ रही है | वह अपने प्रिय का केवल एक संदेश (शब्द ) सुनना चाहती है कि वे उससे कब मिलेंगे |

आंइ न सकौ तुझ पै, सकूँ न तुझ बुलाइ |

जियरा यौही लेहुगे, बिरह तपाइ तपाइ || (14)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

प्रस्तुत पंक्तियों में विरहिणी आत्मा रूपी नायिका की विरह वेदना का वर्णन किया गया है |

व्याख्या — आत्मा रूपी नायिका परमात्मा रूपी नायक की विरह वेदना से दग्ध होकर कहती है कि हे प्रिय ( प्रभु ) मैं ना तो तुम्हारे पास आ सकती हूँ और ना ही तुम्हें अपने पास बुला सकती हूँ ; ऐसा लगता है कि तुम विरह-अग्नि में तपा -तपा कर ऐसे ही मेरे प्राण ले लोगे | कहने का भाव यह है कि साधक की आत्मा ना तो अभी इतनी पवित्र हुई है की परमात्मा में विलीन हो सके और ना ही उसकी भक्ति भावना इतनी उच्च कोटि की है कि ईश्वर स्वयं उसे स्वीकार करने के लिये उसके पास आ जायें |

यहु तन जालौँ मसि करूं, ज्यूँ धुवाँ जाइ सरग्गी |

मति वै राम दया करै, बरसि बुझावै अग्गी || (15)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ विरह विदग्ध आत्मा रूपी नायिका का मार्मिक वर्णन किया गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मैं अपने तन को विरह -अग्नि में जलाकर उसे राख़ में परिवर्तित कर दूँ | इस प्रकार लगी आग से धुंआ स्वर्ग तक जायेगा और परमात्मा को मेरी विरह -दग्ध अवस्था के विषय में पता चल जायेगा | संभवत: प्रभु को मुझ पर दया आ जाये और वे प्रेम -वर्षा कर मेरी विरह -अग्नि को बुझा दें |

बिरहा बिरहा जिनि कहौ, बिरहा है सुलितान |

जिह घटि बिरह न संचरै, सो घट जान मसान || (16)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ साधक के जीवन में विरह के महत्व पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हमें विरह -विरह का रोना नहीं रोना चाहिये अर्थात विरह से व्यथित नहीं होना चाहिये | वस्तुत: विरह तो सुल्तान है | वास्तविकता तो यह है कि जिस हृदय में विरह भावना का संचरण नहीं होता, वह हृदय शमशान के समान होता है |

अंषड़ियाँ झाई पड़ी, पंथ निहारि निहारि |

जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि पुकारि || (17)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

विरहिणी आत्मा रूपी नायिका की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि विरहिणी आत्मा रूपी नायिका की परमात्मा रूपी प्रिय का रास्ता देखते-देखते दृष्टि कमजोर पड़ गयी है और अपने प्रिय प्रभु के नाम का जाप करते -करते उसकी जीभ में छाले पड़ गये हैं | कहने का भाव है कि साधक लम्बे समय से प्रभु का नाम स्मरण कर रहा है और उनके आने की प्रतीक्षा कर रहा है |

इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव |

लोही सींचौ तेल ज्यूँ , कब मुख देखूँ पीव || (18)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

विरहिणी आत्मा रूपी नायिका की विरह वेदना का मार्मिक वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! मैं अपने तन का दीपक बनाकर, उसमें जीवात्मा की बाती डालकर और उसे अपने रक्त रूपी तेल से सींच कर प्रदीप्तमान किया है | अब मेरे मन में यही अभिलाषा बनी रहती है कि मैं कब अपने प्रिय (प्रभु ) का सुंदर मुख देखूंगी |

हंसि हंसि कंत न पाइए, जिनि पाया तिनि रोइ |

जो हाँसही हरि मिलै, तो नहीं दुहागनि कोइ | (19)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक आत्मा को परमात्मा से मिलन के लिए विरहाग्नि में जलना पड़ता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य ! इस संसार में किसी भी विरहिणी आत्मा को हँसते हँसते परमात्मा नहीं मिलता ; जिन्होंने भी अपने प्रिय परमात्मा को प्राप्त किया है, उन्हें पहले अपने प्रिय के विरह में रोना पड़ा है अर्थात विरह वेदना में जलकर ही आत्मा परमात्मा से मिलन के लिये शुद्धता प्राप्त करती है | कबीरदास जी कहते हैं कि अगर हँसते हँसते ही परमात्मा मिल जायें तो कोई भी आत्मा अभागिन न रहे अर्थात सभी आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जायें |

पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उनमान |

कहिबे कूं सोभा नहीं, देख्याही परवान || (20)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि उस परब्रह्म के तेज का अनुमान नहीं लगाया जा सकता अर्थात उस ईश्वर के स्वरूप को जाना नहीं जा सकता | शब्दों में उसके स्वरूप की व्याख्या नहीं की जा सकती, उसको देखना ही उसका प्रमाण है | कहने का भाव यह है कि ईश्वर के स्वरूप को वही व्यक्ति जान सकता है जिसने उसके साक्षात् दर्शन किये हैं |

अगम अगोचर गमि नहीं , तहां जगमगै जोति ।

जहां कबीर बंदिगी , तहां पाप पुन्य नहीं छोति ॥ (21)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं जहाँ वह परमज्योति जगमगाती है अर्थात जहाँ ईश्वर निवास करते हैं, वह स्थान अगम्य व अगोचर है | इसके पश्चात् कबीरदास जी सच्ची भक्ति के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जहाँ सच्ची भक्ति भावना होती है, वहाँ पाप-पुण्य, छुआछूत आदि का कोई स्थान नहीं रहता अर्थात सच्चा भक्त इन संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठ जाता है |

पांणी ही तें हिम भया , हिम ह्वै गया बिलाइ ।

जो कुछ था सोई भया , अब कछु कह्या न जाइ ।। (22)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में आत्मा और परमात्मा के पारस्परिक संबंधों पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार पानी से बर्फ का निर्माण होता है और बाद में बर्फ पिघल कर पुन: पानी का रूप धारण कर लेती है तब उनके बदले रूप के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता ठीक उसी प्रकार हमारी आत्मा भी उसी परमात्मा के अंश से निर्मित है और बाद में उसी परमात्मा में विलीन हो जाती है |

जब मैं था तब हरि नहीं , अब हरि है मैं नाँहि ।

सब अँधियारा मिटि गया , जब दीपक देख्या माँहि ।। (23)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहां कबीरदास जी कहते हैं कि जब कोई साधक अहंकार भाव त्याग कर प्रभु भक्ति में लीन होता है तो उसे अपने हृदय में ही ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक मैं था तब तक ईश्वर नहीं थे परन्तु अब जब ईश्वर हैं तो मैं नहीं हूँ अर्थात जब तक मेरे मन में अहंकार की भावना थी तब तक मैं ईश्वर से दूर था परन्तु अब जब मेरा अहंकार समाप्त हो गया है तो मुझे ईश्वर की प्राप्ति हो गयी है | जैसे ही मैंने अपने हृदय में ज्ञान रूपी दीपक प्राप्त किया है, मेरे अज्ञान का अंधकार समाप्त हो गया |

मानसरोवर सुभर जल , हंसा केलि कराहिं ।

मुक्ताहल मुकता चुगैं , अब उड़ी अनत न जाहिं ।। (24)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ कबीरदास जी भक्ति के महत्व को प्रतिपादित करते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मन रूपी सरोवर भक्ति रूपी जल से अच्छी प्रकार से भरा है जिसमें आत्मा रूपी हंस क्रीड़ा कर रहा है और मुक्ति अर्थात मोक्ष के मोती चुग रहा है | अब वह यहाँ प्रसन्न है और उड़ कर कहीं अन्यत्र जाना नहीं चाहता | कहने का भाव यह है कि जब हमारा मन भक्ति में रम जाता है तो वह इधर-उधर नहीं भटकता |

नैना अंतरि आव तूँ , ज्यूँ हीं नैन झँपेऊँ ।

नाँ हौं ( मैं ) देखौं और कूं , नाँ तुझ देखन देउँ ।। (25)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीरदास जी उस अवस्था का वर्णन करते हैं जब साधक प्रभु पर एकाधिकार प्राप्त कर लेना चाहता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि आत्मा रूपी नायिका परमात्मा रूपी नायक से कहती है कि हे प्रिये! तुम मेरी आँखों में समा जाओ, जैसे ही तुम मेरी आँखों में समाओगे मैं अपनी आँखें झपक लूंगी और इस प्रकार ना मैं किसी और को देखूंगी और ना ही तुझे किसी और को देखने दूंगी | अर्थात नायिका ( आत्मा ) नायक ( परमात्मा ) से एकनिष्ठ प्रेम करती है और अपने प्रेम के प्रतिदान में अपने प्रिय से भी एकनिष्ठ प्रेम की अपेक्षा करती है |

मेरा मुझ में कुछ नहीं , जो कुछ है सो तेरा ।

तेरा तुझको सौंपता , क्या लागै है मेरा ।। (26)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में साधक द्वारा अपना सब कुछ प्रभु को समर्पित करने की बात कही गई है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! मुझ में मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है आप का है अर्थात मुझे सब कुछ आप ने ही दिया है | अत: हे प्रभु! मैं अपना सब कुछ आपको ही सौंपता हूँ क्योंकि मुझ में मेरा कुछ भी नहीं है | कहने का भाव है कि मनुष्य के जीवन में सब कुछ ईश्वर ने ही दिया है | अत : मनुष्य को व्यर्थ में घमंड नहीं करना चाहिये |

कबीर रेख स्यंदूर की , काजल दिया न जाइ ।

नैनूं रमइया रमि रह्या , दूजा कहाँ समाइ ।। (27)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में इस तथ्य की अभिव्यक्ति हुई है कि इस साधक के लिए ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं होता |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार सिंदूर की रेखा के स्थान पर काजल नहीं लगाया जा सकता, ठीक उसी प्रकार मेरी आँखों में प्रभु समाये हुए हैं और सर्वश्रेष्ठ प्रभु का स्थान कोई और कैसे ले सकता है |

कबीर कुत्ता राम का , मुतिया मेरा नाउँ |

गलै राम की जेवड़ी , जित खैचे तित जाउँ ।। (28)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीरदास जी दास्य भक्ति के अनुरूप ईश्वर की प्रत्येक आज्ञा का अनुसरण करने की बात कहते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी दास्य भक्ति के अनुरूप कहते हैं कि वे भगवान के कुत्ते हैं और उनका नाम मोती है | उनके गले में भगवान ने अपनी जंजीर बांध रखी है | प्रभु जिधर भी खींच कर उसे ले जाना चाहते हैं, वे उधर ही जाते हैं | कहने का भाव यह है कि जिस प्रकार पालतू कुत्ता अपने स्वामी के प्रत्येक आदेश की अनुपालना करता है, ठीक उसी प्रकार वे भी अपने प्रभु के प्रत्येक आदेश को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करते हैं |

उस संम्रथ का दास हौं , कदे न होइ अकाज ।

पतिव्रता नाँगी रहै , तो उसही पुरिस कौ लाज ।। (29)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों के माध्यम से कबीरदास जी कहते हैं कि जो ईश्वर की उपासना करते हैं उनका कभी अहित नहीं होता |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि यदि हम उस सर्वशक्तिमान व समर्थ प्रभु का दास बनकर रहें तो कभी भी हमारा काम नहीं बिगड़ सकता | एक पतिव्रता स्त्री यदि नग्न रहती है तो उसके पति को लज्जा का अनुभव होता है | कहने का भाव यह है कि यदि हम सर्वशक्तिमान प्रभु को अपना स्वामी मानते हैं तो वह कभी भी हमें अभाव में नहीं रहने देता, वह स्वयं हमारे सभी कष्टों को दूर करने का प्रयास करता है |

कबीर नौबति आपणी , दिन दस लेहु बजाइ ।

ए पुर पटन ए गली , बहुरि न देखैं आइ ।। (30)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में जीवन की क्षणभंगुरता और निस्सारता का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! दस दिन अपने यश के नगाड़े को बजा ले क्योंकि फिर तुझे ये गाँव, नगर, बाजार व गलियां देखने को नहीं मिलेंगी | कहने का भाव यह है कि मनुष्य का जीवन क्षण भंगुर है और वह अपनी उपलब्धियों पर व्यर्थ अभिमान करता है |

कबीर कहा गरबियौ , ऊँचे देखि अवास ।

काल्हि परयूँ भ्वै लेटणा , ऊपरी जामै घास ।। (31)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में जीवन के भौतिक सुख-साधनों की निस्सारता का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तू अपने ऊँचे-ऊँचे भवनों को देख कर अभिमान क्यों करता है | कल जब तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी तो तुझे ज़मीन पर लेटना पड़ेगा अर्थात तू मिट्टी में दफना दिया जायेगा या तुम्हारी राख़ मिट्टी में मिल जाएगी और तुम्हारे ऊपर घास उग जाएगी | कहने का भाव है कि मनुष्य का जीवन क्षण भंगुर है, उसे व्यर्थ में अहंकार नहीं करना चाहिये |

कबीर कहा गरबियौ, इस जीवन की आस |

टेसु फूले दिवस चारि, खंखर भये पलास || (32)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में जीवन की क्षणभंगुरता और निस्सारता का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी मानव को चेतावनी देते हुए कहते हैं कि हे मानव ! अपने शरीर की सुंदरता पर गर्व करना व्यर्थ है क्योंकि उनकी सुंदरता तो पलाश के फूल की भांति थोड़े समय के लिए होती है जिस प्रकार पलाश के वृक्ष पर चार दिन अर्थात थोड़े समय के लिए सुंदर फूल खिलते हैं और अंत में वह खंखड़ मात्र रह जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य का शरीर भी कुछ समय पश्चात मिट्टी में मिल जाता है |

यहु ऐसा संसार है, जैसा सैबल फूल |

दिन दस के ब्योहार को, झूठे रंगि न भूल || (33)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में जीवन की क्षणभंगुरता और निस्सारता का वर्णन है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि यह संसार सेंबर के फूल की भांति है अर्थात जिस प्रकार सेंबर का फूल कुछ पल के लिए सुहावना प्रतीत होता है और उसके पश्चात वह मुरझा जाता है ठीक उसी प्रकार से इस संसार में मनुष्य का जीवन भी केवल कुछ पल की शोभा लिए होता है | इसलिए हे मनुष्य ! दस दिन अर्थात कुछ दिन के व्यवहार में इस संसार के झूठे रंगों से भ्रमित नहीं होना चाहिए |

कबीर हरि की भगति बिन, घिगि जीमण संसार |

धूँवा केरा धौलहर जात न लागै बार || (34)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीरदास जी ने मानव जीवन की क्षणभंगुरता का उल्लेख करते हुए ईश्वर भक्ति का सन्देश दिया है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु की भक्ति के बिना इस संसार में जीवन को धिक्कार है तात्पर्य यह है कि प्रभु की भक्ति के बिना जीवन निरर्थक है | अतः मनुष्य को प्रभु भक्ति करके अपना जीवन सार्थक बनाना चाहिए | कबीरदास जी इसके पश्चात कहते हैं कि मनुष्य का जीवन धुएं के महल की तरह क्षणिक होता है अर्थात जिस प्रकार हवा के झोंके से धुएं का भवन नष्ट हो जाता है ठीक उसी प्रकार देखते ही देखते मनुष्य का जीवन भी समाप्त हो जाता है | अतः समय रहते मनुष्य को प्रभु भक्ति कर जीवन सार्थक बनाना चाहिए |

कुल खोया कुल ऊबरै, कुल राख्यो कुल जाइ |

राम निकुल कुल भेंटि लै, सब कुल रह्या समाइ || (35)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीरदास जी ने ईश्वर भक्ति का सन्देश दियहै |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने कुल की मोह माया को त्याग कर ईश्वर की भक्ति में तल्लीन हो जाते हैं वही सर्वस्व प्राप्त कर जाते हैं इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने परिवार और सगे संबंधों की मोह माया में उलझे रहते हैं उनका सर्वस्व छिन जाता है | इसलिए प्रत्येक मनुष्य को कुल रहित ईश्वर में स्वयं को भेंट कर देना चाहिए क्योंकि ईश्वर के कुल में ही सभी कुल समाए हुए हैं | इसका दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि जो मनुष्य कुल रहित ईश्वर की भक्ति में अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है, वह व्यक्ति सर्वस्व प्राप्त कर जाता है |

कबीर नाव जरजरी, कूड़े खेवणहार |

हलके हलके तिरि गए, बूड़े तिनि सिर भार || (36)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ कबीर जी पंच विकारों को ईश्वर भक्ति में बाधा मानते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य-जीवन रूपी नाव अत्यंत जर्जर अवस्था है और इसका नाविक भी कुशल नहीं है | कहने का भाव यह है कि मानव-जीवन क्षणभंगुर है, वह कभी भी नष्ट हो सकता है तथा प्रभु भक्ति से विमुख होने के कारण मानव कुशल नाविक नहीं है ऐसी अवस्था में भवसागर को पार करना अत्यंत दुष्कर कार्य है | वही मनुष्य इस भवसागर को तैर कर पार करते हैं जो पाप मुक्त होते हैं ; जिनके सिर पर पाप का बोझ होता है, वे डूब जाते हैं |

चिंता चिति निबारिए, फिर बूझिए न कोइ |

इंद्री पसर मिटाइए, सहजि मिलैगा सोइ || (37)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

सच्ची भक्ति के लिए ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण आवश्यक है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि अगर मनुष्य अपने मन से चिंताओं का निवारण कर लेता है तो ऐसी अवस्था में उसे किसी उपदेश की आवश्यकता नहीं होती | अपनी इंद्रियों को वश में करके ही मनुष्य अपना मन प्रभु की भक्ति में लगा सकता है और उसे सहज भाव से ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है |

कबीर मारुँ मन कूँ, टूक टूक ह्वै जाइ |

विष की क्यारी बोइ करि, लूणत कहा पछिताइ || (38)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में सन्देश दिया गया है कि मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिए क्योंकि जैसे कर्म करता है वैसा ही फल उसे मिलता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मैं अपने मन को इतना मारूंगा कि उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे कहने का भाव यह है कि मैं अपने मन को पूर्णत: अपने वश में कर लूँगा | यदि मनुष्य अपने मन को नियंत्रित करके प्रभु भक्ति में नहीं लगाता तो उसका यह कार्य है वास्तव में विष की क्यारी बोने के समान होगा और बाद में उस विष की फसल को काटते हुए पश्चाताप करना व्यर्थ है अर्थात समय रहते मनुष्य को अपने मन को नियंत्रित करके प्रभु भक्ति में लगाना चाहिए और अपना जीवन सार्थक बनाना चाहिए अन्यथा बाद में पश्चाताप करना पड़ेगा |

पाँणी ही तैं पातला, धूवाँ ही तै झीण |

पवनाँ बेगि उतावला, सो दोसत कबीरै कीन्ह || (39)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में ईश्वर के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — ईश्वर के स्वरूप के विषय में बताते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर पानी से भी पतला तथा धुएं से भी क्षीण है, वह पवन की गति से भी अधिक गतिशील है | इन लक्षणों के आधार पर ही तू ईश्वर को चिह्नित कर सकता है |

कबीर मन ग़ाफ़िल भया, सुमिरण लागै नाहिं |

घणी सहैगा सासणाँ, जम की दरगह माहिं || (40)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

कबीर जी कहते हैं कि जिनका मन ईश्वर भक्ति में नहीं लगता उनको यमलोक में अनेक कष्ट भोगने पड़ते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जिन लोगों का मन सांसारिक विषय वासनाओं में रम कर असावधान हो जाता है, उनका मन प्रभु स्मरण में नहीं लग पाता | ऐसे लोगों को चेतावनी देते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि उन्हें अंत में यमराज की दरगाह में बहुत अधिक कष्टों को सहन करना पड़ेगा |

कागद केरी नाँव री, पाणी केरी गंग |

कहै कबीर कैसे तिरु, पंच कुसंगी संग || (41)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

कबीर जी कहते हैं कि भावसागर को पार करने के लिए पंच विकारों से मुक्ति आवश्यक है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य का शरीर कागज की नाव के समान है और यह संसार अथाह पानी से भरी हुई विशाल गंगा के समान है | ऐसी अवस्था में पंच विकारों रूपी कुसंगियों के साथ भला इस अथाह जल राशि को तैरकर कैसे पार किया जा सकता है | कहने का भाव यह है कि मनुष्य अपने पंच विकारों अर्थात काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह आदि से मुक्त होकर ही भवसागर से पार हो सकता है |

भगति दुबारा सकड़ा, राई दसवैँ भाइ |

मन तौ मैंगल ह्वै रह्यो, क्यूँ करि सकै समाइ || (42)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीर जी कहते हैं कि भक्ति के संकरे द्वार में प्रवेश करने के लिए मनुष्य को विषय-विकारों भार से मुक्त होना चाहिए |

व्याख्या — संत कबीर का कथन है कि भक्ति का द्वार बहुत संकरा होता है | वह राई के दसवें भाग के समान है | जबकि हमारा मन मस्त हाथी के समान बहुत विशाल होता है भला वह किस प्रकार इस तंग रास्ते में प्रवेश पा सकता है | कहने का भाव यह है कि भक्ति के द्वार में प्रविष्ट करने के लिए मन को विषय विकार रहित करना आवश्यक है |

करता था तो क्यूँ रह्या, अब करि क्यूँ पछताइ |

बोवै पेड़ बबूल का, अंब कहाँ तैं खाइ || (43)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में बताया गया है कि मनुष्य को उसके बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता है | अतः मनुष्य को अच्छे कर्म करने चाहिए |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे मनुष्य! तुम बुरे काम क्यों करते रहे और अब यदि तुमने बुरे काम कर दिए हैं तो अब पश्चाताप क्यों कर रहा है | यह ठीक उसी प्रकार से है कि यदि तुमने बबूल का पेड़ बोया है तो तुम्हें उसके काँटों को सहन करना ही पड़ेगा | अब तू रसीले आम कहां से खा सकता है? कहने का भाव यह है कि जीवन में हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही फल पाते हैं |

पांहण केरा पूतला, करि पूजै करतार |

इही भरोसै जै रहे, ते बूड़े काली धार || ( 44)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ कबीरदास जी मूर्ति पूजा का खंडन करते हुए उसे दुःखों का कारण मानते हैं |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि बहुत से मनुष्य पत्थर की मूर्ति बनाकर उसे भगवान समझकर उसकी पूजा करते रहते हैं | जो व्यक्ति केवल इसी भरोसे रहते हैं, वे काल की धारा में बह जाते हैं | कहने का भाव यह है कि मूर्ति पूजा व्यर्थ है | वास्तव में सच्चे मन से प्रभु का स्मरण करना तथा अच्छा आचरण ही वास्तविक भक्ति है |

मन मथुरा दिल द्वारिका, काया कासी जाँणि |

दसवाँ द्वारा देहुरा, तामै जोति पिछाँणि || ( 45)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में सन्देश दिया गया है कि ईश्वर मनुष्य के भीतर ही निवास करता है, उसके लिए इधर उधर भटकना व्यर्थ है |

व्याख्या — कबीरदास जी मनुष्य को भक्ति के वास्तविक स्वरूप के विषय में बताते हुए कहते हैं कि हे मनुष्य ! अपने मन को मथुरा, हृदय को द्वारिका और अपने शरीर को काशी समझ कर तुझे ईश्वर की आराधना करनी चाहिए | तुम्हारे शरीर में उपस्थित दसवां द्वार ही देवालय है जिसमें वह परम ज्योति है, उसे पहचानो | कहने का भाव यह है कि ईश्वर हमारे भीतर ही समाया हुआ है, उसे खोजने के लिए विभिन्न धार्मिक स्थलों पर भटकना व्यर्थ है |

हिंदू मूये राम कहि, मुसलमान खुदाइ |

कहै कबीर सो जीवता, दुइ मैं कदे न जाइ || (46)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में हिंदू धर्म और इस्लाम की प्रचलित मान्यताओं का खंडन किया गया है | वस्तुतः राम और खुदा में मूलत: कोइ भेद नहीं है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हिंदू लोग प्रायः राम-राम तथा मुसलमान लोग खुदा-खुदा कहते हुए मर जाते हैं लेकिन वास्तविकता तो यह है कि वही लोग वास्तव में जीवित रहते हैं जो इन दोनों ही भेदों में नहीं पड़ते अर्थात किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करते और सच्चे मन से ईश्वर की आराधना करते हैं |

संत न बांधै गाँठड़ी, पेट समाता लेइ |

सांई सूँ सनमुख रहै, जहाँ माँगै तहाँ देइ || (47)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में संत की संतोषी प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला गया है |

व्याख्या — कबीरदास जी संत व्यक्ति की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि संत व्यक्ति कभी भौतिक साधनों को इकट्ठा नहीं करता | वह केवल अपना पेट भरने के लिए लेता है अर्थात आवश्यकता से अधिक वह भौतिक साधनों का संचय नहीं करता | वह हमेशा ईश्वर के सम्मुख रहता है तथा जहां भी कोई उससे कुछ मांगता है, वह तुरंत उसे दे देता है | अर्थात एक संत व्यक्ति अपना सर्वस्व त्यागने के लिए तत्पर रहता है |

कबीर यहु घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं |

सीस उतारै हाथि करि, सो पैसे घर माँहि || (48)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहां कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर भक्ति सरल नहीं है | एक सच्चे साधक को अनेक कष्टों का सामना करना पड़ता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि ईश्वर की भक्ति का मार्ग कोई खाला जी का घर नहीं है कि जब चाहो वहां चले जाओ अर्थात ईश्वर की भक्ति का मार्ग कोई सरल मार्ग नहीं है | इस मार्ग पर तो वही व्यक्ति चल सकता है जो अपना सिर उतार कर हथेली पर रखकर चल सके | ऐसा व्यक्ति ही इस मार्ग में प्रविष्ट हो सकता है |

प्रेम न खेती नींपजे, प्रेम न हाटि बीकाइ |

राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ || (49)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ कवि इस तथ्य की अभिव्यक्ति करता है कि अहंकार भाव को त्याग कर सम्पूर्ण समर्पण भाव से ही प्रभु प्रेम की प्राप्ति की जा सकती है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि प्रभु-प्रेम न तो खेतों में पैदा होता है और ना ही बाजार में बिकता है | इसे बाजार से खरीदा नहीं जा सकता | राजा हो या चाहे प्रजा जिसकी भी इसमें रूचि हो वह अपना सिर देकर अर्थात अपना अहंकार त्यागकर इसे प्राप्त कर सकता है |

ज्यूँ नैनूँ मैं पूतली, त्यूँ खालिक घट माँहि |

मूरखि लोग न जाँणहि, बाहरि ढूँढण जाँहि || (50)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

इन पंक्तियों में कबीरदास जी सन्देश देते हैं कि ईश्वर हमारे हृदय में ही निवास करते हैं, उन्हें बाहर ढूंढना मूर्खता है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार से हमारी आंखों में हमारी पुतली होती है ठीक उसी प्रकार से हमारे स्वामी अर्थात परमात्मा हमारे हृदय में समाए हुए हैं लेकिन मूर्ख व्यक्ति इस तथ्य को नहीं जानते और वे बाहर ईश्वर को ढूंढते रहते हैं | कहने का भाव यह है कि ईश्वर हमारे हृदय में ही समाया हुआ है, उसे इधर-उधर विभिन्न तीर्थ स्थलों तथा देवालयों में ढूंढना व्यर्थ है |

कबीर करत है बिनती, भौसागर के ताँई |

बँदे ऊपरि जोर होत है, जँम कुँ बरिज गुसाँई || (51)

प्रसंग — प्रस्तुत पंक्तियां हमारी हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित कबीरदास के पदों से अवतरित हैं |

यहाँ कवि ने भव सागर को पार करने के लिए ईश्वर भक्ति को आवश्यक माना है |

व्याख्या — कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु ! वे इसलिए प्रार्थना करते हैं ताकि वे भवसागर से पार हो सकें क्योंकि उनका मानना है कि मनुष्य का वश तो मनुष्य पर ही चल सकता है, यमराज पर नहीं | केवल प्रभु ही यमराज को वश में कर सकते हैं | कहने का भाव यह है कि केवल प्रभु भक्ति के माध्यम से ही भवसागर से पार किया जा सकता है और यमराज के कष्टों से बचा जा सकता है |

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