‘ठेस’ कहानी का मूल भाव, उद्देश्य व प्रतिपाद्य / शीर्षक का औचित्य

‘ठेस’ ( Thes ) कहानी फणीश्वरनाथ रेणु ( Fanishvarnath Renu ) द्वारा रचित एक प्रसिद्ध आंचलिक कहानी है | प्रस्तुत कहानी का शीर्षक संक्षिप्त, सार्थक तथा उपयुक्त है | प्रस्तुत शीर्षक कहानी के मूल भाव तथा उद्देश्य को उजागर करता है | इस कहानी में लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि एक कलाकार के लिए उसकी कला सर्वोपरि होती है | सिरचन ( Sirchan ) कहानी का नायक है जो एक ग्रामीण कलाकार है | वह चिक, शीतलपाटी, मोढ़े, आसनी तथा ताल के सूखे पत्तों की छतरी-टोपी बनाने में कुशल है | वह एकाकी जीवन जीने को विवश है | उसकी पत्नी तथा बच्चों का देहांत हो चुका है | वह अत्यंत निर्धन है और दाने-दाने का मोहताज है | लेकिन फिर भी वह स्वाभिमानी कलाकार है | वह समाज के ताने सहन कर सकता है किंतु स्वाभिमान पर की गई चोट से वह तिलमिला उठता है | जब उसके स्वाभिमान को ठेस लगती हैं तो वह अपने काम को अधूरा छोड़ कर चल पड़ता है | वह अपने पारिश्रमिक की भी परवाह नहीं करता | जब लेखक की चाची और मँझली भाभी उसे खाने के लिए ताना कस देती हैं — ” घर में पान और गमकौआ जर्दा खाते हो……… चटोर कहीं के?” यह शब्द सुनते ही वह तुनक पड़ता है | कुछ देर बाद उसने अपनी छुरी, हंसिया वगैरह समेट- संभालकर झोले में रखे | टंगी हुई अधूरी चिक पर एक निगाह डाली और हनहनाता हुआ आंगन से बाहर निकल गया | वह नई धोती का मोह त्याग कर अधूरा काम छोड़कर चला जाता है | वह कलाकार का, कला का अपमान नहीं सह सकता | लेखक भी मानता है कि कलाकार के दिल में ठेस लगी है | लेकिन कहानी के अंत में कलाकार का भावुक और मानवीय पक्ष सामने आता है जब सिरचन मानू दीदी को विदाई के समय चिक और शीतलपाटी देने के लिए स्टेशन पर पहुंच जाता है और बदले में अपना पारिश्रमिक भी नहीं लेता | अतः इस कहानी का शीर्षक ‘ठेस’ सर्वथा उपयुक्त है | कहानी का मूल भाव व प्रतिपाद्य भी यही है कि एक कलाकार के लिए उसका स्वाभिमान सर्वोपरि है |

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