तुलनात्मक आलोचना ( Comparative Criticism )

अर्थ एवं स्वरूप

तुलनात्मक आलोचना में दो लेखकों की या एक ही लेखक की दो रचनाओं में तुलना की जाती है | जिस किसी लेखक की या उसकी किसी रचना की तुलनात्मक आलोचना करनी होती है तब उस लेखक के जीवन और लेखन के विषय में जानकारी प्राप्त की जाती है | यही सब व्याख्यात्मक आलोचना में भी किया जाता है | यही कारण है कि कुछ विद्वान तुलनात्मक आलोचना को व्याख्यात्मक आलोचना में ही समाहित करते हैं परन्तु कुछ समानताएँ होते हुए भी तुलनात्मक आलोचना और व्याख्यात्मक आलोचना एक दूसरे से भिन्न हैं | तुलनात्मक आलोचना में तुलना पर अधिक बल दिया जाता है जबकि व्याख्यात्मक आलोचना में व्याख्या पर |

तुलनात्मक समीक्षा तभी की जा सकती है जब दो लेखकों के साहित्य में या एक ही लेखक की दो रचनाओं में विशेष समानता होती है। साम्य के अभाव में की गई आलोचना हानिकारक होती है, क्योंकि तब आलोचक उन दोनों लेखकों की असमानताओं की ओर ध्यान देने लगता है। ऐसी आलोचना साहित्य, साहित्यकारों एवं पाठकों को हानि पहुंचाती है। परन्तु तुलनात्मक आलोचना निष्पक्ष तथा निर्वैयक्तिक होनी चाहिए और उसमें संयम का पूरा पालन होना चाहिए। किसी भी वस्तु का सही अध्ययन और मूल्यांकन करने के लिए तुलनात्मक दृष्टि आवश्यक है। वस्तु के स्वरूप का सम्यक ज्ञान हम तभी प्राप्त कर सकते हैं जब उसकी कुछ समानधर्मी वस्तुओं के साथ समानता-असमानता का पूर्ण विवेचन हो जाता है। दो असमान वस्तुओं का साम्य और वैषम्य निरुपण भी उस वस्तु का सम्यक् ज्ञान कराता है। ऐसी स्थिति में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उन दी वस्तुओं के आपेक्षिक महत्त्व और श्रेष्ठता का मूल आधार तुलना है। जब तक हम उस वस्तु की संसार के विभिन्न विरोधी और समानधर्मी वस्तुओं के मुकाबले में तुलना नहीं कर लेते तब तक उसकी उपादेयता अथचा महत्त्व का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते। यही स्थिति साहित्यिक रचनाओं की भी है। साहित्य की विभिन्न आलोचना पद्धतियों में तुलनात्मक आलोचना पद्धति का विशेष महत्त्व है।

साहित्य और कला का सही मूल्यांकन करने के लिए बुद्धि की अपेक्षा हृदय का अधिक महत्त्व होता है। हम कला और साहित्य की आलोचना आलोच्य वस्तु के विश्लेषण के अतिरिक्त उसकी मार्मिकता और हृदयस्पर्शिता पर भी विचार करते हैं। तुलनात्मक पद्धति इस काम में आलोचक की सहायता करती है।

प्राचीन साहित्य में तुलनात्मक पद्धति के संकेत

दो कवियों या दो उक्तियों का तुलनात्मक अध्ययन पाठक को यह दृष्टि प्रदान करता है कि वह उक्तियों के अंतर का बोध कर उनके कलागत सौन्दर्य को जान सके। साहित्यिक सूक्तियाँ आलोचना के अत्यन्त प्राचीन उदाहरण हैं। इनको लेकर हम यह घोषणा कर देते हैं कि एक कवि की अपेक्षा दूसरा श्रेष्ठ है। कभी-कभी तो दो कवियों की भिन्न-भिन्न विशेषताओं का भी उल्लेख कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया का मूल आधार तुलना ही है।

माघ की श्रेष्ठता प्रतिपदित करते हुए कहा गया है- “पद लालित्य, अर्थ गौरव और उपमा की दृष्टि से माघ श्रेष्ठ है।क्योंकि अन्य कवियों में तो केवल एक ही गुण होता है, परन्तु माघ में तीनों हैं।

"दण्डिन: पद लालित्यं भारवै त्वर्थगौरवम् | उपमा कालिदासस्य माघे सन्ति त्रयो गुणा: |"

इसी प्रकार हिन्दी में सूर को सूर (सूर्य) , तुलसी को चन्द्रमा और केशवदास को तारा कहना तुलनात्मक पद्धति का ही एक रूप है।

सूर-सूर तुलसी शशी, उडुगन केशवदास । अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास ।।

इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृत साहित्य में ही तुलनात्मक आलोचना का श्रीगणेश हो चुका था। आज भले ही असंख्य आलोचना पद्धतियों का विकास हो गया है पर किसी भी रचना के अन्तःस्थल में तुलनात्मक पद्धति सदैव दिखाई देती है। एक कवि को अन्य से अलग करते हुए अथवा उसे कवि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए उसके अचेतन मन या सचेतन मन के अध्ययन हेतु इस प्रक्रिया का अवश्य सहारा लिया जाता है। कहने का भाव यह है कि साहित्य के श्रीगणेश के साथ ही तुलनात्मक आलोचना पद्धति किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रही है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के उद्भव से ही इस समीक्षा पद्धति के दर्शन होने लगते हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस पद्धति का कई स्थलों पर अनुसरण किया है। आरम्भिक पत्र-पत्रिकाओं में हमें जो समीक्षा प्राप्त होती है उसका आधार भी तुलना रही है। मिश्र बन्धुओं ने तुलनात्मक पद्धतिय को आधार बनाकर आलोचना की है।

हिंदी साहित्य में तुलनात्मक समीक्षा-पद्धति का प्रवर्तन

हिंदी साहित्य में यद्यपि रीतिकाल से ही तुलनात्मक समीक्षा-पद्धति के दर्शन होते हैं परन्तु प्रौढ़ रूप के दर्शन पद्म सिंह शर्मा की ‘बिहारी सतसई’ में होते हैं | इसमें शर्मा जी ने उस साहित्यिक परम्परा और शैली का विवेचन किया जिसका अनुकरण बिहारी ने किया। इस सन्दर्भ में सातवाहन द्वारा संग्रहित ‘गाहा सप्तशती’ (प्राकृत) तथा गोवर्धनाचार्य की ‘आर्य सप्तशती’ संस्कृत के दो ग्रंथों का उल्लेख करना आवश्यक होगा। इन दोनों के छंदों का उल्लेख आनन्दवर्धन, मम्मट, विश्वनाथ आदि ने अपने ग्रंथों में किया है। बिहारी के अधिकांश दोहे भाव और निरूपण शैली में इन ग्रंथों के छंदों का अनुकरण करते हुए प्रतीत होते हैं। आचार्य पद्म सिंह शर्मा ने इन दो ग्रंथों के साथ बिहारी सतसई की तुलना करके तुलनात्मक आलोचना पद्धति को प्रौढ़ रूप प्रदान किया। शर्मा जी ने बिहारी की जिन कवियों और ग्रंथों से तुलना की है उन ग्रंथों में एक व्यवस्था दिखाई देती है।

आगे चलकर मिश्र बन्धुओं ने देव का साहित्यिक मूल्यांकन करने के लिए इसी पद्धति को अपनाया है। कुल मिलाकर आचार्य पद्म सिंह शर्मा ने स्वस्थ एवं प्रौढ़ तुलनात्मक आलोचना का रूप प्रस्तुत किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि मौलिकता का संबंध एक नवीन वस्तु के उत्पादन के साथ नहीं है, बल्कि चिर-परिचित कवि परम्परा से प्राप्त तथ्य को उक्ति- वैचित्र्य के साथ प्रस्तुत करना भी मौलिकता है। यदि हम नूतन भाव और वस्तु की कल्पना को ही मौलिक मानकर बैठ जाएँगे तो शायद ही कोई कवि मौलिक कहलाएगा। कालिदास जैसा महान् कवि भी अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति ऋणी हैं। राजशेखर ने तो यहाँ तक कह दिया कि वणिक और कवि चोरी किए बिना नहीं रह सकते। कभी-कभी एक ही भाव दो कवियों को स्वतंत्र रूप में सूझ जाता है। ऐसा सादृश्य केवल आकस्मिक होता है, ऐसी स्थिति में यह निर्णय करना कठिन होता है कि कौन कवि मौलिक है और कौन नहीं। आचार्य पद्म सिंह शर्मा ने तुलनात्मक आलोचना पद्धति को अपनाते हुए निर्णय लिया कि बिहारी को उनकी सरल और केवल चमत्कारपूर्ण उक्तियाँ निर्विवादित रूप से महान कवि के पद पर विभूषित करने के लिए पर्याप्त हैं |

बिहारी सम्बन्धी भ्रांत धारणाओं का निवारण

आचार्य पद्म सिंह शर्मा ने ‘बिहारी सतसई’ सम्बन्धी कुछ भ्रांत धारणाओं का खंडन किया। रीतिकाल में श्रृंगार रस का अतिशयता के साथ वर्णन किया गया था। कालांतर में उसके प्रति अरुचि जागृत होने लगी। लोग बिहारी की कविता को अश्लील तक कहने लगे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि आलोचकों की दृष्टि में बिहारी के काव्य-सौष्ठव का मूल्य घट गया; क्योंकि ये लोग बिहारी के अभिसार आदि वर्णनों को अश्लील मानने लगे थे। बिहारी की कविता के वास्तविक महत्त्व को समझने के लिए श्रृंगार संबंधी इस भ्रांत धारणा को दूर करना जरूरी हो गया। इसलिए शर्मा जी ने श्रृंगार रस का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए ‘गाथा सप्तशती’ ओर ‘आर्या सप्तशती’ जैसी रचनाओं के साथ ‘सतसई’ की तुलना की। शर्मा जी का कहना है कि इस संसार में शृंगार संबंधी सामग्री प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है। कवि उसकी ओर से आंखें बन्द करके नहीं बैठ सकता। शृंगार संबंधी चित्रण देने का कवि का यह उद्देश्य था कि वह सभ्य समाज को इन धूर्त लीलाओं से मुक्त करवाए और उनको इनसे सावधान रहने की प्रेरणा दे। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने ‘रुद्र’ के ‘काव्यालंकार’ रचना का भी सहारा लिया है।

पुनः मिश्र बन्धुओं की आलोचनाओं के कारण बिहारी के काव्य सौष्ठव के बारे में कुछ भ्रांत धारणाएँ प्रचलित हो गई थीं। इन भ्रांत धारणाओं को खत्म करना जरूरी था। पद्म सिंह शर्मा ने एक सच्चे समालोचक के रूप में बिहारी के मान, गौरव और यश की फिर से स्थापना की। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शर्मा जी ने तुलनात्मक आलोचना पद्धति का आश्रय लेकर बिहारी के वर्चस्व को फिर से स्थापित किया। इस संबंध में शर्मा जी ने तुलनात्मक समालोचना की शास्त्रीय पद्धति को भी जन्म दिया। उन्होंने शास्त्रीय आधार पर दो कवियों के विभिन्न स्वरूपों का विभाजन किया। इस संबंध में पण्डित जी ने अलंकार शास्त्र को अपना उपजीव्य बनाया। बिहारी के दोहों से ‘गाथा सप्तशती’ के छंदों की तुलना करते समय उन्होंने आनन्दवर्धनाचार्य के अर्थापहरण संबंधी तीन भेदों का सहारा लिया। वस्तुतः पंडित जी इस तुलनात्मकता का सहारा लेकर बिहारी को अन्य कवियों से श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहते थे। ऐसा करने के लिए उन्होंने संस्कृत कवियों के साथ भी उनकी तुलना की है।

उन्होंने तो संस्कृत कवियों से भी बिहारी को बढ़-चढ़ कर बताया है और बिहारी और संस्कृत कवियों का संबंध उपमान और उपमेय का संबंध बताया।

पद्म सिंह शर्मा की तुलनात्मक आलोचना के परिणाम

पंडित पद्म सिंह शर्मा की इस आलोचना का एक सुखद परिणाम यह हुआ कि बिहारी की काव्य-प्रतिभा का विषद विश्लेषण हुआ | इसके लिये शर्मा जी ने प्रभाववादी आलोचना का भी सहारा लिया |

शर्मा जी ने बिहारी सतसई में से असंख्य दोहे देकर ‘गाथा सप्तशती’ के साथ उनकी तुलना की और ‘बिहारी सतसई को श्रेष्ठ रचना सत्यापित करने का प्रयास किया । ‘बिहारी सतसई’ का एक दोहा है-

नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।         अलि कलि सौं बंध्यों, आगे कौन हवाल ।।

इस दोहे के द्वारा कवि अपने आश्रयदाता राजा जयसिंह को उपदेश देना चाहता है। अतः यह दोहा आश्रयदाता की हित चिंता से लिखा गया है। पद्म सिंह शर्मा ‘गाथा सप्तशती’ तथा ‘आर्य सप्तशती’ के दोहों से तुलना करने के बाद स्पष्ट करते हैं कि बिहारी अपने कार्य करने में अधिक सफल हुए हैं। वे लिखते हैं- “इन सब की अपेक्षा भौरे के लिए बिहारी की हित-चिन्ता बहुत गम्भीर मधुर और हृदयस्पर्शी है। न इसमें तटस्थता की झलक है, न रस-पान का प्रकारोपदेश है, न एक अघखिली कली को छोड़कर खिली क्यारियों में खुले में खेलने की छुट्टी है | वाह!”

बिहारी सतसई के अनुसार गाथा सप्तशती की एक गाथा में नायिका का प्रवासी पति आकर फिर विदेश जाने की सोच रहा है। इसी प्रसंग में कवि ने संयोग-काल की अत्यल्पता प्रदर्शित करने के लिए नायिका के केशों की ‘गुलझट’ के अभी सीधे न होने का वर्णन किया है। लेकिन बिहारी ने इसी प्रसंग में नायिका के स्वाभाविक रंग के वापिस न आने का वर्णन किया है। इस व्यापार के चुनाव में अधिक कलात्मकता है। शरीर और मुख के रंग का स्वाभाविक होना अत्यन्त वांछनीय और अल्पकाल की क्रिया है। “गई हुई कान्ति का मुख पर फिर से आ जाना तो प्रिय-दर्शन का तात्कालिक प्रभाव है।” शर्मा जी ने इस दोहे की प्रशंसा करके प्रौढ़ सहृदयता का परिचय दिया है।

इस प्रकार ‘गाथा सप्तशती’ तथा ‘आर्या सप्तशती’ के असंख्य छन्दों की तुलना शर्मा जी ने बिहारी सतसई के मिलते-जुलते दोहों के साथ की है। ऐसा करते समय वे दोहे विशेष के काव्य-सौन्दर्य का उद्घाटन करते हैं। एक छोटी-सी पदावली में छिपे हुए गूढ़ार्थ को वे अभिव्यक्त कर देते हैं। शर्मा जी की तुलनात्मक आलोचना पद्धति की यह उल्लेखनीय विशेषता है। इस कार्य में शर्मा जी को अभूतपूर्व सफलता मिली है। यही नहीं, बिहारी के सौष्ठव का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने प्राचीन आचार्यों के मान्य काव्यांगों का निरूपण भी अनेक स्थलों पर कर दिया है। उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि बिहारी के असंख्य दोहे ध्वनि काव्य (उत्तम काव्य) के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। शर्मा जी लिखते हैं- “बिहारी की कविता जितनी चमत्कारिणी और मनोहारिणी है उतनी ही गहरी, गूढ़ और गम्भीर है। उसकी चमत्कृति और मनोहारिता का प्रभाव इससे अधिक और क्या होगा कि समय ने समाज की रुचि बदली, पर वर्तमान समय के सुरुचि-सम्पन्न कविता-प्रेमियों का अनुराग उस पर आज भी वैसा ही बना है………”

लेकिन अनेक स्थलों पर उन्होंने बिहारी का अनुचित पक्षपात भी किया है। ऐसे करते समय उनकी आलोचना निर्णायक आलोचना बन गई है। इसी निर्णायक तत्त्व की प्रधानता तथा काव्यांगों के निर्देश मात्र के कारण शुक्ल जी ने उनकी आलोचना को रूढ़िगत आलोचना कह दिया है।

मिश्र बन्धुओं का योगदान

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि पद्म सिंह शर्मा ने जहाँ प्रौढ़ तुलनात्मक समीक्षा-पद्धति को स्पष्ट किया। लेकिन आगे चलकर इसी समालोचना पद्धति का सहारा लेते हुए मिश्र बन्धुओं ने बिहारी और देव के झगड़े को जन्म दिया। उन्होंने बिहारी के काव्य की ओर संकेत करते हुए देव को सर्वश्रेष्ठ कवि सिद्ध किया। फलतः तुलनात्मक समालोचना पद्धति ने तूल पकड़ लिया। बिहारी के यश के लिए कई विद्वान् आगे आए। हिन्दी साहित्य में बिहारी और देव की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए एक अखाड़ा तैयार हो गया। इसी बाद-विवाद के सन्दर्भ में पंo कृष्ण बिहारी मिश्र ने ‘देव और बिहारी’ नामक आलोचनात्मक ग्रंथ लिखा। यह ग्रंथ पद्म सिंह शर्मा की पद्धति पर लिखा गया था। इसमें देव की मुख्यतः बिहारी और अन्य बहुत से कवियों से तुलना की गई। इस ग्रंथ का लक्ष्य भी देव को बिहारी की अपेक्षा श्रेष्ठ सिद्ध करना था। कृष्ण बिहारी मिश्र का निष्कर्ष था कि बड़े-बड़े कवि भी अपने पूर्ववर्ती कवियों के प्रति ऋणी हैं |

‘देव और बिहारी’ में वे कहते हैं कि कालिदास, शेक्सपियर, गोस्वामी तुलसीदास आदि महान् कवियों ने भी अपने पूर्ववर्ती कवियों को अपनाने में कोई दोष नहीं माना। भारतीय आचार्य आनन्दवर्धन और पाश्चात्य विद्वान् ऐमरसन ने भी यही स्वीकार किया। कवि अपने भाव में अगर कुछ नवीन भाव ग्रहण करता है तो उसका भावाहरण क्षम्य है। पंo पद्म सिंह शर्मा ने जहाँ बिहारी के फुटकर छंदों की तुलना की थी, वहाँ कृष्ण बिहारी मिश्र ने देव और बिहारी के फुटकर छंदों की समालोचना की। उनकी आलोचना का आधार सर्वत्र शास्त्रीय ही है। वे लिखते भी हैं-

“गुणाधिक्य, अलंकार बाहुल्य, रस परिपाक एवं भाव चमत्कार कविता की उत्तमता की कसौटी रहने चाहिए।”

देव और बिहारी : कृष्ण बिहारी मिश्र

कृष्ण बिहारी मिश्र ने तुलनात्मक आलोचना पद्धति का आश्रय लेकर एक बार पुनः देव को बिहारी से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिखाया। देव और बिहारी की तुलना का दौर समाप्त होने को नहीं आ रहा था। लाला भगवानदीन ने एक बार फिर से इस विषय को गर्मा दिया और अनेक तर्क-वितर्क देकर फिर से देव की अपेक्षा बिहारी को श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया। वस्तुतः इस युग में तुलनात्मक समालोचना का काफी बोलबाला रहा। आगे चलकर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सूर और तुलसी की तुलना करते हुए तुलसी को सर्वोच्च सिद्ध किया। कारण यह था कि शुक्ल जी तुलसी के बड़े भक्त थे। अन्यत्र भी उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास को महान् घोषित किया था।

निष्कर्ष

तुलनात्मक समालोचना पद्धति से दो कवियों के गुण-दोषों का तो स्पष्ट पता चल जाता है। साथ ही विभिन्न देशकाल के कवियों के मूलभूत विषयों एवं तथ्यों को भी जानने का अवसर मिल जाता है। लेकिन इस आलोचना का सबसे बड़ा दोष यह है कि प्रायः समालोचक व्यक्तिवादी हो जाता है और तटस्थ होकर समालोचना नहीं कर पाता। वस्तुतः देव और बिहारी के बारे में जो भी तुलनात्मक आलोचनाएँ हुई हैं, वे व्यक्तिपरक ही रही हैं। व्यक्ति-रुचि के कारण ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे प्रबुद्ध आलोचक भी छायावाद के प्रति न्याय नहीं कर सके।

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