शास्त्रीय आलोचना ( Classical Criticism )

अर्थ एवं स्वरूप

शास्त्रीय आलोचना को अंग्रेजी में ‘एकडेमिक क्रिटिसिज्म’ भी कहते हैं। इस आलोचना पद्धति के अन्तर्गत आलोचक लक्षण ग्रंथों में वर्णित काव्यशास्त्रीय नियमों के आधार पर साहित्यिक रचना का मूल्यांकन करता है। उदाहरण के रूप में यदि हम हिन्दी के किसी महाकाव्य का परीक्षण करना चाहें तो हम आचार्य मम्मट और विश्वनाथ द्वारा दिए गए महाकाव्य के लक्षणों को आधार बनाएँगे और यह देखने का प्रयास करेंगे कि उन शास्त्रीय लक्षणों का आलोच्य महाकाव्य में किस सीमा तक निर्वाह हुआ है। कवि जिस सीमा तक महाकाव्य में शास्त्रीय नियमों का पालन अपनी रचना में कर पाएगा, उसी सीमा तक वह सफल महाकाव्य सफल कहा जाएगा। इसी प्रकार से यदि अंग्रेजी के किसी महाकाव्य का मूल्यांकन करना हो तो हम अरस्तू, डब्ल्यू. पी. केर तथा एम्बर क्राम्बी जैसे आलोचकों द्वारा प्रतिपादित काव्यशास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर उस महाकाव्य का मूल्यांकन करेंगे। इस प्रणाली के अन्तर्गत आलोचक न तो व्याख्या करता है और न व्यक्तिगत रुचि के आधार पर रचना का मूल्यांकन करता है। इतना ही नहीं, इसमें आलोचक अपने मन पर पड़े रचना के प्रभाव को भी प्रस्तुत नहीं करता, क्योंकि इस आलोचना पद्धति में रचना के बाह्य रूप विधान का अधिक विश्लेषण होता है। अतः इसे Formal Criticism भी कहते हैं।

पाश्चात्य शास्त्रीय आलोचना

भारतीय साहित्यशास्त्र की भाँति पश्चिमी राष्ट्रों में भी समालोचना की प्राचीन परम्परा रही है। आरंभ में इसे ‘क्लासिकल क्रिटिसिज़्म’ कहा जाता था। ‘क्लासिकल’ शब्द का संबंध रोम की राजकीय व्यवहार नीति से था जिसके अनुसार वहाँ का समाज अपने-अपने आर्थिक स्तर के आधार पर भिन्न-भिन्न वर्गों में बंटा हुआ था। समाज में वर्ग की विशेषता को प्रकट करने के लिए प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ विशेषणों का प्रयोग होता था। धीरे-धीरे समाज के प्रथम वर्ग के लिए किसी श्रेणी विशेष का प्रयोग न करके ‘क्लास’ शब्द का प्रयोग होने लगा। कालांतर में सामाजिक जीवन की यह प्रक्रिया साहित्यिक जगत् में प्रवेश कर गई और सर्वोच्च श्रेणी के लेखक को ‘क्लासिकल लेखक’ तथा उसकी रचना को ‘क्लासिकल’ रचना कहा जाने लगा। धीरे-धीरे इस शब्द की ध्वनि का विस्तार हुआ। आगे चलकर केवल यूनान और रोम के कवियों को ही ‘क्लासिकल’ कवि कहा गया। अन्य लेखक भी उनकी भावधारा, रचना प्रक्रिया का अनुकरण करने लगे। कालांतर में क्लासिकल कवि उनको माना गया, जिनमें साहित्य शालीनता का प्राचीन गौरव अभिव्यक्त होता था अर्थात् क्लासिकल लेखक उन्हें स्वीकार किया गया जिनमें बुद्धि की प्रौढ़ता, शील की प्रौढ़ता, मस्तिष्क की प्रौढ़ता, भाषा और शैली की प्रौढ़ता थी। इलियट ने तो स्पष्ट स्वीकार किया है कि इस प्रकार की प्रौढ़ता के बिना काव्य रचना में श्रेष्ठता के गुण नहीं आ सकते। यही कारण है कि आरम्भ में होमर, एस. ई. लिज़, वर्जिल और दाँते जैसे लेखकों की रचनाओं को क्लासिकल कहा गया और उनकी रचनाओं का परीक्षण जिस समीक्षा पद्धति द्वारा किया गया उसे शास्त्रीय समालोचना ( Classical Criticism ) की संज्ञा दी गई। इस प्रकार पाश्चात्य शास्त्रीय आलोचना को विकसित करने में अरस्तू, प्लेटो, हारेस, लौंजाइन्स जैसे विचारकों का प्रमुख स्थान है।

वस्तुतः अरस्तु, प्लेटो, हारेस आदि पाश्चात्य जगत के महान् आचार्य हुए हैं। इन विद्वानों ने काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का न केवल विशद विवेचन किया, अपितु सभी काव्यांगों को परिभाषित भी किया है। इन्हीं तत्त्व-चिन्तकों की विचार सामग्री को आधार पर क्लासिकल क्रिटीसीजम का विकास हुआ | इस समालोचना पद्धति के विकास के तीन प्रमुख कारण माने गए हैं-

(क) मानववाद अथवा प्राचीन उत्कृष्ट कृतियों का अनुकरण।

(ख) आरिस्टॉटलवाद (अरस्तू) अथवा अरस्तू के पोयटिक्स का प्रभाव।

(सी) तर्कसंगत प्राथमिकतावाद या तर्कसंगतता का नियम।

ये तीनों कारण डॉ. लीलाधर गुप्त ने दिए हैं। इस प्रकार की आलोचना पद्धति का प्रभाव यह हुआ कि समालोचक प्रायः आलोच्य रचना के कला पक्ष अथवा बाह्य विधान की ओर अधिक ध्यान देने लगे और समालोचना का विकास रूढ़ि युक्त समालोचना से किया जाने लगा। कालांतर में इस प्रवृत्ति की प्रक्रिया यह हुई कि जब शास्त्रीय परम्परा द्वारा निर्धारित पुनरुत्थान काल की रचनाएँ समुचित गौरव नहीं पा सकीं, तो उसकी प्रतिक्रया हुई और उसका परिणाम हुआ-स्वच्छन्दतावादी आलोचना, जिसने साहित्य में नूतन मार्ग को प्रशस्त किया।

भारतीय शास्त्रीय आलोचना

यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि पाश्चात्य समीक्षा जगत में जिस प्रकार की शास्त्रीय समीक्षा पद्धति का विकास हुआ, उसी प्रकार की शास्त्रीय आलोचना पद्धति भारतीय साहित्य में भी विकसित हुई। संस्कृत में शास्त्रीय समालोचना तथा उससे सम्बन्धित आचार्यों की एक लम्बी परम्परा है। इस सन्दर्भ में भारत के ‘नाट्यशास्त्र’ का उल्लेख किए बिना हम भारतीय शास्त्रीय आलोचना की व्याख्या कर सकेंगे। इसके पश्चात शास्त्रीय आलोचना सम्बन्धी असंख्य काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखे गए हैं। भामह का “काव्यालंकार”, दण्डी का “काव्यादर्श”, उद्भट्ट का “काव्यालंकारसारसंग्रह”, रुद्रट का “काव्यालंकार”, वामन की “काव्यालंकार सूत्रवृत्ति”, आनन्दवर्धन का “ध्वन्यालोक” अभिनवगुप्त की “अभिनवभारती”, कुन्तक का “वक्रोक्तिजीवित्म्”, आचार्य विश्वनाथ का “साहित्यदर्पण”, मम्मट का “काव्यप्रकाश”, क्षेमेन्द्र का “औचित्य विचार चर्चा”, पंo जगन्नाथ का “रसगंगाधर” आदि असंख्य काव्यशास्त्रीय रचनाएँ हैं। इन सबमें रस, अलंकार, ध्वनि, वक्रोक्ति, रीति, औचित्य तथा छंद योजना का विस्तृत विश्लेषण हुआ है। यही नहीं, आगे चलकर रीतिकाल में केशवदास, भिखारीदास, मतिराम, देव, चिन्तामणि आदि असंख्य आचार्य कवियों ने भी काव्यशास्त्रीय नियमों और सिद्धान्तों का विस्तृत विवेचन किया। संस्कृत काव्यशास्त्र में शास्त्रीय समालोचना पद्धति के सभी आधारभूत नियम और सिद्धान्त देखे जा सकते हैं। आज भी किसी महाकाव्यात्मक रचना का विश्लेषण करने के लिए हमें भामह, दण्डी, रुद्रट, उद्भट्ट और विश्वनाथ द्वारा दी गई महाकाव्य की परिभाषाओं का सहारा लेना पड़ता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विभिन्न काव्यशास्त्रियों द्वारा महाकाव्य, खण्डकाव्य, गीतिकाव्य, मुक्तक काव्य, नाटक आदि काव्य विधाओं का विवेचन करने के लिए हमें शास्त्रीय नियमों का आधार लेना पड़ता है। इस प्रकार से पश्चिमी देशों की इस परम्परा में महाकाव्य, नाटक, रंगमंच, त्रासद और कामद भावनाएँ, गीति, ध्वनि और औचित्य आदि सभी समीक्षा के विषय रहे हैं।

शेक्सपियर काल में भी शास्त्रीय समालोचना पद्धति प्रचलित थी। उस समय उपर्युक्त सैद्धान्तिक नियमों के साथ-साथ इस बात पर भी विचार किया जाता था कि युग परिवर्तन के सन्दर्भ में किस प्रकार से व्यापक घरातल पर शास्त्रीय नियमों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। शास्त्रीय समीक्षा पद्धति का प्रभाव हमें ड्राइडन, जॉनसन, गिल्बर्ट आदि 19वीं शताब्दी के आलोचकों में देखने को मिलता है। इस सन्दर्भ में हम एक उदाहरण देख सकते हैं। एडिसन ने ‘पैराडाइज़ लॉस्ट’ की आलोचना करते समय अरस्तू की मान्यताओं को ध्यान में रखा तथा वर्जिल को आदर्श रूप मानकर उसकी आलोचना की है। आज भी पश्चिम में ऐसे समालोचकों का अभाव नहीं हैं जो शास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर काव्य रचनाओं का मूल्यांकन करते हैं।

हिन्दी साहित्य में मैथिलीशरण गुप्त के ‘साकेत’, अयोध्या सिंह उपाध्याय के ‘प्रिय प्रवास’ और प्रसाद की ‘कामायनी’ की समालोचना करते समय भारतीय और पाश्चात्य शास्त्रीय नियमों को हमेशा आधार बनाया जाता है। शास्त्रीय समीक्षा के आधार पर यदि पाश्चात्य साहित्य में वर्जिल के साहित्य को तो हिन्दी साहित्य में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस” को आदर्श माना जाता है।

शास्त्रीय आलोचना का महत्त्व

शास्त्रीय समालोचना साहित्य समीक्षा का सर्वाधिक प्रौढ़ रूप माना जाता है। इस समालोचना का अस्तित्व किसी भी देश की सांस्कृतिक निधि में गौरव का विषय है। उदाहरण के रूप में संस्कृत काव्यशास्त्र के सभी आचार्य हमारी समृद्ध काव्य समीक्षा के उल्लेखनीय विद्वान् हैं। उनकी रचनाएँ आज भी हिन्दी साहित्य को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। परन्तु इस आलोचना पद्धति में एक त्रुटि भी है। जब शास्त्रीय नियमों की रूढ़ि और संकीर्णता से इसे ग्रस्त कर दिया जाता है तो स्वस्थ आलोचना पद्धति की विकास परम्परा अवरुद्ध हो जाती है। प्रायः शास्त्रीय आलोचक पूर्वाग्रह से ग्रस्त होता है। वह यह मानकर चलता है कि प्राचीन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र के मूल्यांकन के जो सिद्धान्त बनाए थे वे आप्तवचन हैं। अतः उनका उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा आलोचक युग परिवर्तन की ओर ध्यान नहीं दे पाता। यह दृष्टिकोण साहित्य कल्याण की दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। जिस प्रकार मानव जीवन चिरन्तन और गतिमय है उसी प्रकार से साहित्य भी चिरन्तन और गतिशील है। समाज में होने वाले परिवर्तन और संशोधन की छाया साहित्य के क्षेत्र में भी देखी जा सकती है। ऐसी स्थिति में केवल पुरातन शास्त्रीय नियमों को आधार बनाना उपयोगी नहीं हो सकता। एक प्रतिभा सम्पन्न समीक्षक शास्त्रीय सिद्धान्तों में आवश्यक परिवर्तन, परिवर्द्धन करके अपने युग की रचना का सही मूल्यांकन कर सकता है।

शास्त्रीय आलोचना की त्रुटियाँ

यदि हम शास्त्रीय समालोचना के पूर्व निर्धारित रूप को ही ग्रहण करके चलेंगे तो उससे एक बड़ी बाधा उत्पन्न हो जाएगी। ऐसा करने से विकासशील जीवन से हमारा सम्पर्क टूट जाएगा। शब्दानुशासन की भाँति समालोचना भी साहित्य का नियामक पक्ष है। समालोचना की भाव निधि और शिल्प निधि में भी साहित्य जगत की तरह होने वाले परिवर्तन की ओर ध्यान देना चाहिए। इस संबंध में आधुनिककालीन छायावादी साहित्य का उदाहरण लिया जा सकता है। यदि हम शास्त्रीय परम्परायुक्त परिपाटी के आधार पर छायावादी काव्य का मूल्यांकन करेंगे तो हम इस काल को निकृष्ट काल कहेंगे स्वर्ण काल नहीं । कारण यह है कि छांयावाद सौन्दर्यमयी स्वच्छन्दतावाद की उपज है। ऐसी स्थिति में शास्त्रीय आलोचना छायावादी काव्य पर पूर्णतया लागू नहीं हो सकती। यही बात प्रगतिवादी कविता, प्रयोगवाद और नई कविता पर भी अक्षरश: सत्य है | अतः आवश्यकता इस बात की है कि शास्त्रीय आलोचना की परम्परा को हम युगीन आवश्यक जीवन तत्त्व प्रदान करें, जिससे कि वह और पुष्ट तथा उपयोगी बन सके।

निष्कर्ष

अन्त में हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आलोचक शुद्ध शास्त्रीय आलोचना एवं अपनी व्यक्तिगत रुचि के कारण आलोच्य कृति का सही मूल्यांकन नहीं कर सकता और न ही वह अपने मन पर पड़े प्रभाव को सही प्रकार से अभिव्यक्त कर सकता है। यही कारण है कि कुछ विद्वान् शास्त्रीय आलोचना को एकांगी तथा पूर्वाग्रह से युक्त मानते हैं। आज हिन्दी साहित्य की स्थिति पूर्णतया बदल चुकी है। विभिन्न प्रकार के आलोचक अपनी-अपनी दृष्टि से कृतियों की आलोचना करने लगे हैं। एक विद्वान् आलोचक के शब्दों में, “इसके साथ सबसे मुख्य समस्या हिन्दी में पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों तथा गुटबन्धी से युक्त समीक्षा की है। किसी को रातों-रात बड़ा लेखक स्थापित या विस्थापित करना समीक्षकों के बाएँ हाथ का खेल है। शास्त्रीय आलोचना धीरे-धीरे अपना महत्त्व खोने लगी है। उसके स्थान पर नई आलोचना जैसी आलोचना पद्धतियाँ विकसित होने लगी हैं।”

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