अयोध्यासिंह उपाध्याय का साहित्यिक परिचय

जीवन परिचय — श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय खड़ी बोली के आरंभिक कवियों में से एक हैं | श्री मैथिलीशरण गुप्त के बाद उन्हें द्विवेदी युग का सबसे बड़ा कवि माना जा सकता है | उनका जन्म सन 1865 में उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की निजामाबाद नामक नगर में हुआ | उनके पिता का नाम भोला सिंह उपाध्याय तथा माता का नाम रुक्मिणी देवी था | मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात उन्होंने आरंभ में अध्यापन का कार्य किया | तत्पश्चात में कानूनगो के पद पर नियुक्त हुए | सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्होंने हिंदू विश्वविद्यालय में अवैतनिक अध्यापन किया | सन 1947 में उनका देहांत हो गया |

प्रमुख रचनाएँ — श्री अयोध्या सिंह उपाध्याय ने गद्य और पद्य दोनों विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई | उनकी प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं —

(i) काव्य –– वैदेही-वनवास, प्रिय प्रवास, चोखे चौपदे, चुभते चौपदे, पद्य प्रसून, रस कलश, प्रेम प्रपंच आदि |

(ii) उपन्यास — अधखिला फूल, ठेठ हिंदी का ठाठ, वेनिस का बांका |

(iii) आलोचना — कबीर वचनावली, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास |

साहित्यिक विशेषताएँ — श्री अयोध्यासिंह उपाध्याय के साहित्य की प्रमुख विशेषताओं को निम्नलिखित बिंदुओं में समाहित किया जा सकता है —

(i) भक्ति-भावना — भक्ति-भावना उनके साहित्य की प्रमुख विशेषता है | कृष्ण उनके आराध्य हैं | प्रेम-प्रपंच में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है | प्रिय-प्रवास श्री कृष्ण के मथुरा गमन को आधार बनाकर लिखा गया है | लेकिन उनका यह काव्य भ्रमरगीत से सर्वथा भिन्न है | इसमें उन्होंने भ्रमर के स्थान पर पवन को दूत बनाकर भेजा है | प्रियप्रवास में लोकमंगल की भावना भी प्रकट होती है | राधा पवन से कहती है —

जाते-जाते अगर पथ में, कलांत कोई दिखावे |

तो तू जाके निकट, उसकी कलांतियों को मिटाना ||

(ii) उदात्त प्रेम का वर्णन — उनके साहित्य में उदात्त प्रेम का वर्णन मिलता है | रीतिकालीन कवियों की भांति उनके साहित्य में अश्लील चित्र नहीं | प्रियप्रवास की राधा कृष्ण से अनन्य प्रेम करती है, उनके बिना उनका जीवन नरक-तुल्य है लेकिन फिर भी वह स्वार्थी नहीं है | वह प्रत्येक जीव का भला चाहती है | इस आधार पर उनका प्रिय-प्रवास मैथिली शरण गुप्त की ‘यशोधरा की विषय वस्तु से मिलता जुलता है | प्रियप्रवास की राधा कहती है —

“प्यारे जीवें जग हित करें चाहे न आवें |”

राधा कृष्ण की सुगंधी को अपने हृदय से लगाकर अपना जीवन बसर करने की बात कहती है–

” पूरी होवे न यदि तुझसे अन्य बातें हमारी |

तो तू, मेरा विनय इतना, मान ले और औ चली जा |

छू के प्यारे कमल-पग को प्यार के साथ आजा |

जी जाऊँगी हृदय तल में, मैं तुझी को लगाकर ||”

(iii) पौराणिक कथाओं की नवीन अभिव्यक्ति — अयोध्या सिंह उपाध्याय ने अपने साहित्य में पौराणिक कथाओं को नये ढंग से अभिव्यक्त किया है | ‘प्रिय प्रवास’ में भ्रमर के स्थान पर पवन को दूत बनाकर भेजते हैं | दूसरे, उनका काव्य समाज-सुधार और परोपकार की भावना से ओतप्रोत है | वे लिखते हैं —

“कोई कलांता कृषक-ललना, खेत में जो दिखावे |

धीरे-धीरे परस उनको, क्लान्ति सर्वांग खोना |

जाता कोई जलद यदि हो, व्योम में तो उसे ला |

छाया सीरी सुखद करना, शीश तप्तांगना के |”

(iv) खड़ी बोली की प्रतिष्ठा — अयोध्या सिंह उपाध्याय ने खड़ी बोली हिंदी को काव्य के क्षेत्र में अवतरित किया | वे आरंभिक कवियों में से एक हैं जिन्होंने खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में चुना | यद्यपि आरंभ में उनका झुकाव भी ब्रजभाषा की ओर था | उनकी रचना ‘रस कलश’ ख़डी बोली में है परंतु बाद में ‘प्रिय प्रवास’ और ‘वैदेही वनवास’ रचनाओं में वे खड़ी बोली हिंदी को काव्य-भाषा के रूप में चुनते हैं | उन्होंने सरल, सहज और आम बोलचाल की खड़ी बोली का प्रयोग किया |

(v) विरह-वर्णन — यद्यपि अयोध्या सिंह उपाध्याय के काव्य में श्रृंगार रस के संयुक्त और वियोग दोनों पक्षों का वर्णन मिलता है परंतु फिर भी वे विरह-वर्णन में अधिक कुशल प्रतीत होते हैं | ‘प्रिय-प्रवास’और वैदेही- वनवास’ में उनका विरह-वर्णन अत्यंत मार्मिक व प्रभावशाली है | ‘प्रिय-प्रवास’ में राधा पवन को दूध बनाकर श्री कृष्ण के पास भेजती है और अपने मन की व्यथा को अभिव्यक्त करने के लिए प्रार्थना करती है | परंतु राधा की विरह-वेदना समाज-कल्याण और परोपकार से ओतप्रोत है जो अयोध्या सिंह उपाध्याय जी की नवीन एवं मौलिक उद्भावना कहीं जा सकती है |

(vi) कला पक्ष — अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का कला पक्ष भी उनके भाव पक्ष की भांति सशक्त एवं प्रभावशाली है | उन्होंने अपने साहित्य में दैनिक जनजीवन के विभिन्न विषयों के साथ-साथ पौराणिक विषयों को भी अपने साहित्य का आधार बनाया |

उनकी भाषा सरल, सहज़,स्वाभाविक एवं विषयानुकूल है | क्योंकि वे आरंभ में ब्रजभाषा में साहित्य लेखन किया करते थे अतः कालांतर में जब वह खड़ी बोली हिंदी में काव्य रचना करने लगे तो उनकी हिंदी में भी ब्रजभाषा तथा अन्य स्थानीय भाषाओं के अनेक शब्द दिखाई देते हैं | उनकी भाषा में तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज आदि अनेक प्रकार के शब्द मिलते हैं | मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से भी उनकी भाषा में निखार आया है | अलंकारों, छन्दों तथा बिम्बों के प्रयोग से उनकी भाषा अत्यंत प्रभावशाली बन पड़ी है | काव्य रूप के दृष्टिकोण से उन्होंने मुक्तक तथा प्रबंध दोनों प्रकार के काव्य लिखे हैं |

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