( यहाँ KU /MDU /CDLU द्वारा निर्धारित बी ए प्रथम सेमेस्टर – हिंदी की पाठ्य पुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित तुलसीदास के पदों की सप्रसंग व्याख्या की गई है | )
दैहिक दैविक भौतिक तापा | राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ||
सब नर करहिं परस्पर प्रीति | चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती ||
चारिउ चरन धर्म जग माहीं | पूरी रहा सपनेहुँ अघ नाहीं ||
राम भगति रत नर अरु नारी | सकल परम गति के अधिकारी || (1)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड के ‘रामराज्य वर्णन’ शीर्षक से लिया गया है | इस पद्यांश में कवि ने रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख किया है |
व्याख्या — रामराज्य की विशेषताओं का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि राम राज्य में किसी को दैहिक, दैविक और भौतिक दु:ख नहीं होते थे | सभी नागरिक सुखी थे | सभी लोग आपस में प्रेम पूर्वक रहते थे | वे वेद-शास्त्रों में बताए गए अपने-अपने धर्म के मार्ग पर चलते थे | राम राज्य में संसार में धर्म के चारों चरण पूर्ण रूप से विद्यमान थे | वहां पाप तो स्वप्न में भी नहीं था | सभी नर और नारियाँ श्री राम की भक्ति में लीन रहते थे | सभी लोग परम गति अर्थात मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी थे |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा | सब सुंदर सब बिरुज सरीरा ||
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना | नहिं कोउ अबुध न लच्छनहीना ||
सब निर्दम्भ धर्मरत पुनी | नर अरु नारी चतुर सब गुनी ||
सब गुनग्य पंडित सब ग्यानी | सब कृतग्य नहीं कपट सयानी ||
राम राज नभगेस सुनु सचराचर जग माहिं |
काल कर्म सुभाव गुन कृत दुख दुख काहुहि नाहिं || (2)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि रामराज्य में किसी की अल्पायु में मृत्यु नहीं होती थी | किसी को किसी प्रकार की पीड़ा अथवा कष्ट नहीं था | सभी लोग सुंदर और स्वस्थ शरीर वाले थे | रामराज्य में कोई गरीब, दीन-हीन और दु:खी नहीं था ; न ही कोई अज्ञानी और शुभ लक्षणों से हीन था | सभी लोग अहंकार एवं पाखंड से रहित थे तथा धर्म-कर्म में रत रहते थे | सभी स्त्री-पुरुष बहुत चतुर तथा गुणों से युक्त थे | सभी लोग शास्त्रों के ज्ञाता, पंडित तथा विद्वान थे | सभी लोग कृतज्ञ थे ; कोई भी व्यक्ति धूर्त व चालाक नहीं था |
हे गरुड़ जी, सुनो! रामराज्य के जड़-चेतनमय संसार में काल, कर्म और स्वभाव गुणों के अनुसार किसी को भी दु:ख व्याप्त नहीं होता था |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
भूमि सप्त सागर मेखला | एक भूप रघुपति कोसला ||
भुअन अनेक रोम प्रति जासू | यह प्रभुता कछु बहुत न तासू ||
सो महिमा समुझत प्रभु केरी | यह बरनत हीनता घनेरी ||
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी | फिरि एहिं चरित तिन्हहुँ रति मानी || (3)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — कवि कहता है कि कौशल नरेश श्री रामचंद्र सात सागरों की मेखला अर्थात करघनी वाली पृथ्वी के एकमात्र राजा हैं | उनके एक-एक रोम में असंख्य ब्रह्मांड हैं | यही कारण है कि उनके लिए यह प्रभुता भी कुछ महत्व नहीं रखती | प्रभु राम की उस असीम महिमा को समझ लेने के बाद यह कहने पर कि वे सात सागरों से घिरी हुई पृथ्वी के एकछत्र सम्राट हैं, उनकी बड़ी हीनता प्रतीत होती है | कहने का भाव यह है कि प्रभु राम इस विशाल पृथ्वी के एकमात्र सम्राट हैं – ऐसा कहना भी उनका अपमान है क्योंकि उनकी प्रभुता तो इससे भी कहीं अधिक बढ़कर है |
हे खगेश! जो भक्त प्रभु की इस महिमा को अच्छी प्रकार से जान लेता है वह उसकी लीला से प्रेम करने लगता है |
विशेष — (1) प्रभु राम की प्रभुता का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
सोउ जाने कर फल यह लीला | कहहिं महा मुनिबर दमसीला ||
राम राज कर सुख संपदा | बरनी न सकइ फनीस सारदा ||
सब उदार सब पर उपकारी | बिप्र चरन सेवक नर नारी ||
एक नारि ब्रत रत सब झारी | ते मन बच क्रम पति हितकारी ||
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज |
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज || (4)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — कवि कहता है कि इंद्रियों का दमन करने वाले श्रेष्ठ मुनिजन कहते हैं कि प्रभु राम की महिमा को जानने का फल उनकी लीला का अनुभव करना है | अर्थात जो भक्त श्री रामचंद्र जी की महिमा को जान लेते हैं वे उनकी लीला को अनुभव कर उनसे प्रेम करने लगते हैं | रामराज्य की सुख-संपदा का वर्णन शेषनाग और सरस्वती भी नहीं कर सकते |
रामराज्य में सब नर-नारी उदार व परोपकारी थे | सभी लोग ब्राह्मणों की चरणों की सेवा करने वाले थे | सभी पुरुष एक पत्नीव्रत का पालन करते थे | स्त्रियाँ भी, मनसा, वाचा, कर्मणा पति का हित करने वाली थी | रामराज्य में दंड केवल संन्यासियों के हाथों में होता था | भेद नीति का पालन केवल नर्तक समाज में नृत्य को लेकर किया जाता था | श्री रामचंद्र जी के राज्य में ‘जीतो’ शब्द का प्रयोग केवल मन को जीतने के लिए किया जाता था |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन | रहहिं एक सँग गज पंचानन ||
खग मृग सहज बयरु बिसराई | सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ||
कूजहिं खग खग नाना बृन्दा | अभय चरहिं बन करहिं आंनदा ||
सीतल सुरभि पवन बह मंदा | गुंजत अलि लै चलि मकरन्दा ||
लता बिटप मागें मधु चवहिं | मनभावतो धेनु पय स्रवहीं ||
ससि संपन्न सदा रह धरनी | त्रेताँ भह कृतजुग कै करनी || (5)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — राम राज्य की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि रामराज्य में वन में वृक्ष फले-फूले रहते थे | हाथी और शेर साथ-साथ रहते थे | पशु-पक्षी स्वाभाविक वैर-भाव भूल गए थे | सभी में पारस्परिक प्रेम की भावना बढ़ गई थी | वहां वन में पशु-पक्षी नाना प्रकार की ध्वनि करते थे तथा निर्भय होकर विचरण करते थे | अत्यंत शीतल और सुगंधित पवन मंद-मंद गति से बहती थी | भंवरे गुंजार करते हुए पुष्पों पर मंडराते रहते थे और मकरंद ले जाते थे | लता और वृक्ष मांगने मात्र से ही मधु टपका देते थे | गाय भी मनचाहा दूध देती थी | धरती भी सदैव हरीतिमा-संपन्न अर्थात फसलों से युक्त रहती थी | उस समय सतयुग की बातें त्रेता युग में ही हो गई थी |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
प्रगटी गिरिन्ह बिबिध मनि खानी | जगदातमा भूप जग जानी ||
सरिता सकल बहहिं बर बारी | सीतल अमल स्वाद सुखकारी ||
सागर निज मरजाँदा रहहीं | डारहिं रतन तटहिं नर लहहीं ||
सरसिज संकुल सकल तड़ागा | अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ||
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज |
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज || (6)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — रामराज्य की संपन्नता का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि उस समय पर्वत भी जगत की आत्मा भगवान राम को राजा समझकर अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट करते थे | सभी नदियों में शीतल, निर्मल, मीठा, स्वादिष्ट और सुखद जल प्रवाहित होता था | रामराज्य में समुद्र अपनी मर्यादा में रहते थे | वे अपने किनारों पर रत्न डाल देते थे जिन्हें मनुष्य ग्रहण कर लेते थे | उस समय सभी तालाब कमलों से भरे रहते थे | दसों दिशाओं के विभाग बहुत ही खुश थे |
श्री रामचंद्र जी के राज्य में चंद्रमा अपनी किरणों से पृथ्वी को परिपूर्ण रखता था | सूर्य उतना ही तपता था जितने से काम बनता था | रामराज्य में बादल भी कहने मात्र से ही वर्षा कर देते थे |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हे | दान अनेक द्विजन्ह कहँ दीन्हे ||
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर | गुनातीत अरु भोग पुरंदर ||
पति अनुकूल सदा रह सीता | सोभा खानि सुसील बिनीता ||
जानति कृपासिंधु प्रभुताई | सेवति चरन कमल मन लाई ||
जद्यपि गृहँ सेवक सेवकिनी | बिपुल सदा सेवा बिधि गुनी ||
निज कर गृह परिचरजा करई | रामचंद्र आयसु अनुसरई || (7)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु राम ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किए और अनेक ब्राह्मणों को दान दिए | वह वेद-मार्ग का पालन करने वाले थे और धर्म की धूरी को धारण करने वाले थे | वे सत, रज और तम ; इन तीनों गुणों से परे तथा भोग में इंद्र के समान थे |
सीता सदा पति के अनुकूल रहती थी और वे शोभा की खान, सुशील तथा विनम्र स्वभाव की थी | वह दया के सागर श्री राम की प्रभुता को अच्छी प्रकार से जानती थी और मन लगाकर उनके चरण-कमलों की सेवा करती थी | यद्यपि राजमहल में असंख्य दास-दासियां थी फिर भी वे सभी सेवा की विधि में अत्यधिक कुशल थी और घर की सब सेवा अपने हाथों से करती थी | अर्थात सीता घर के सभी कार्य करने में दक्ष थी और नौकरों के होते हुए भी वह घर के सभी कार्य स्वयं करती थी | वह हमेशा श्री राम की आज्ञा का पालन करती थी |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
जेहि बिधि कृपासिंधु सुख मानइ | सोइ कर श्री सेवा बिधि जानइ ||
कौसल्यादि सासु गृह मांही | सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं ||
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता | जगदंबा संततमनिंदिता |
जासु कृपा कटाच्छु सुर चाहत चितव न सोइ |
राम पदारबिंद रति करति सुभावहि खोइ || (8)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि दया के सागर भगवान श्री राम जिस प्रकार से सुख मानते थे सीता जी वही करती थी | वह सेवा की विधि को अच्छी प्रकार से जानती थी | वह कौशल्या आदि सभी सासुओं की सेवा करती थी | उन्हें किसी बात का न तो अभिमान था और न ही अहंकार |
जगत जननी सीता उमा, रमा, ब्रह्मा आदि देवताओं से वंदित थी और सर्वगुण संपन्न थी | कोई उसकी निंदा नहीं करता था | जिसकी कृपा दृष्टि के लिए देवतागण लालायित रहते थे परन्तु वह उनकी तरफ देखती भी नहीं थी वही लक्ष्मी अपने स्वभाव को छोड़कर हमेशा श्री राम के कमल रूपी चरणों से प्रेम करती थी |
विशेष — (1) रामराज्य की विशेषताओं का उल्लेख है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक अवधी भाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द-चयन सर्वथा उचित एवं भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) दोहा एवं चौपाई छंदों का सफल प्रयोग किया गया है |
अवधेस के द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे |
अवलोकि हौँ सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ||
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन-जातक-से |
सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे || (9)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित एवं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली‘ के बालकांड से अवतरित है | प्रस्तुत अवतरण में तुलसीदास जी ने श्री राम के बाल रूप का वर्णन किया है |
व्याख्या — अयोध्या की एक नारी अपनी सखी को दशरथ के पुत्रों के विषय में बताते हुए कहती है कि हे सजनी! मैं सवेरे-सवेरे अयोध्यापति दशरथ के द्वार पर गई | तभी राजा दशरथ अपने पुत्र राम को गोद में लेकर भवन से बाहर निकले | चिंताओं का नाश करने वाले बालक को देखकर मैं चकित सी रह गई | जो उन्हें देखकर चकित न हो उसे धिक्कार है |
खंजन पक्षी के शावक के समान चंचल, काजल लगे हुए तथा मन को मोहित करने वाले शिशु राम के नेत्रों को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो चंद्रमा में समान गुणों वाले दो नवीन कमल विकसित हो रहे हों |
विशेष — (1) बालक राम के रूप-सौंदर्य व बाल लीला का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ |
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ ||
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु अनंदित लोचन-भृंग पिएँ |
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जग में फलु कौन जिएँ || (10)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — श्री राम के बाल रूप का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि बालक राम के पैरों में सुंदर घुंघरू हैं तथा कमल रूपी हाथों में पहुंची ( एक प्रकार का कंगन ) है | उनके वक्षस्थल पर सुंदर मणियों की माला शोभायमान है | उनके नवीन नीले शरीर पर पीले रंग का चोगा चमक रहा है | बालक राम को अपनी गोद में लिए हुए राजा दशरथ पुलकित हो रहे हैं |
तुलसीदास जी पुनः कहते हैं कि बालक राम का मुख कमल के समान है तथा उनके नेत्र रूपी भँवरे उस मुखमंडल के सौंदर्य रूपी पराग का पान करते हुए आनंदित हो रहे हैं | अंत में तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि इस प्रकार के परम सुंदर बालक राम को मन में न बसाया तो फिर इस संसार में जीने का फल ही क्या है?
विशेष — (1) बालक राम के रूप-सौंदर्य व बाल लीला का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं |
अति सुन्दर सोहत धूरि भरे छवि भूरि अनंगकी दूरि धरैं ||
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनी-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं |
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं || (11)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — श्री राम के बाल रूप का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि बालक राम के तन की कांति नीलकमल के समान है | उनकी आंखों की सुंदरता कमल की शोभा को हरण करने वाली है | धूल से भरे होने पर भी वे इतने सुंदर लग रहे हैं कि कामदेव की सुंदरता को भी पीछे छोड़ जाते हैं |
बालक राम के दांत बिजली की चमक की भांति चमक रहे हैं | वे किलकारियां भरते हुए बाल-लीलाएं कर रहे हैं |
तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्यापति महाराज दशरथ के ये चारों बालक मेरे मन रूपी मंदिर में सदैव विहार करते रहें |
विशेष — (1) बालक राम की बाल लीला का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलनकी |
चपला चमकैं घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी ||
घुँघुँरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी |
नेवछावरि प्रान करै तुलसी बलि जाउँ लला इन बोलनकी || (12)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — श्री राम के बाल रूप का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि बालक राम के सुंदर दांतो की पंक्ति कुंद नामक श्वेत पुष्प की कलियों के समान है | कोमल पत्तों के समान ऊपर और नीचे के दोनों होठों को खोलने का दृश्य अत्यंत मनोहर लगता है | बालक राम ने अपने गले में जो मोतियों की माला धारण की हुई है उसकी कांति बादलों में चमकती हुई बिजली के समान है |
बालक राम के मुख पर घुंघराले बाल लटक रहे हैं तथा उनके कपोल ( गाल ) प्रदेशों पर कानों में धारण किए हुए कुंडल शोभायमान हो रहे हैं | वे तोतली आवाज में बोलते हुए बहुत आकर्षक लगते हैं | तुलसीदास जी बालक राम की इस तोतली आवाज़ पर बलिहारी जाते हैं |
विशेष — (1) बालक राम के रूप-सौंदर्य व बाल लीला का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
पदकंजनि मंजु बनीं पनहीं, धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ |
लरिका सँग खेलत-डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ ||
तुलसी अस बालक सों नहिं नेहु कहा जप जोग समाधि किएँ |
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जगमें फलु कौन जिएँ || (13)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि शिशु राम के कमल रूपी चरणों में सुंदर जूते सुशोभित हैं तथा कमल रूपी हाथों में छोटा धनुष और बाण है | वे सरयू तट, चौराहों तथा बाजार में बालकों के साथ क्रीड़ा करते हुए घूम रहे हैं |
तुलसीदास जी कहते हैं कि यदि ऐसे बालक से स्नेह नहीं तो तप-योग और समाधि करने का क्या लाभ? जो नर श्री राम से स्नेह नहीं करते वे गधे, सूअर और कुत्ते के समान हैं |
विशेष — (1) बालक राम के रूप-सौंदर्य व बाल लीला का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
पुरतें निकसी रघुवीरवधू धरि धीर दए मगमें डग द्वै |
झलकीं भरि भाल कनीं जलकी, पुट सूखि गए मधुराधर वै ||
फिरि बूझति हैं, चलनो अब केतिक, पर्नकुटी करिहौ कित ह्वै?
तियकी लखि आतुरता पियकी अँखियाँ अति चारु चलीं जल च्वै || (14)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली के ‘अयोध्या कांड’ के ‘वन गमन’ से उद्धृत है |
व्याख्या — वनवास जाते समय श्री राम की पत्नी सीता ने नगर से बाहर निकलते समय धैर्यपूर्वक अभी दो कदम ही रखे थे कि उनके मस्तक पर पसीने की बूंदें झलकने लगी | उनके दोनों होठों के पुट सूख गए | फिर सीता ने अपने पति राम से पूछा कि हे प्रिय! अभी हमें और कितना चलना है और कहां पर पर्णकुटी बनानी है? अपनी पत्नी की ऐसी व्याकुलता एवं थकावट का अनुभव करते हुए प्रियतम राम की सुंदर आंखों से आंसू बहने लगे |
विशेष — (1) वनवास के अवसर पर सीता जी की कष्टप्रद स्थिति व श्री रामचंद्र की भावविह्वलता का मार्मिक चित्रण किया गया है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
(5) वर्णनात्मक शैली है |
जलको गए लक्खनु, हैं लरिका परिखौ, पिय! छाँह घरीक ह्वै ठाढ़े |
पोंछि पसेउ बयारि करौँ, अरु पाय पखारिहौँ भूभुरि-डाढ़े ||
तुलसी रघुबीर प्रियाश्रम जानि कै बैठि बिलंब लौं कंटक काढ़े |
जानकीं नाहको नेहु लख्यो, पुलको तनु, बारि बिलोचन बाढ़े || (15)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — सीता ने अपने पति राम से कहा कि लक्ष्मण पानी लेने के लिए गए हैं, वे अभी बालक ही हैं | उन्हें आने में देर लगेगी | यहाँ वृक्ष की छाया में एक घड़ी खड़े होकर आप उनके आने की प्रतीक्षा कर लें | मैं आपके पसीने को पोंछकर हवा कर देती हूँ और गर्म रेत में झुलसे तुम्हारे पाँव को धो देती दूँ | सीता के इन वचनों को सुनकर तथा उनके मार्गजन्य कष्टों व थकावट को दूर करने के लिए प्रभु राम वहाँ पर कुछ समय तक अपने पैरों से कांटे निकालते रहे | अपने पति राम के विशेष प्रेम को देखकर सीता का शरीर रोमांचित हो उठा और उनके नेत्रों से प्रेम के आँसू प्रवाहित होने लगे |
विशेष — (1) राम और सीता के पारस्परिक प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
(5) वर्णनात्मक शैली है |
बनिता बनी स्यामल गौरके बीच, बिलोकहु, री सखी! मोहि-सी ह्वै ||
मगजोगु न कोमल, क्यों चलिहै, सकुचाति मही पदपंकज छवै |
तुलसी सुनि ग्रामबधू बिथकीं, पुलकीं तन, औ चले लोचन च्वै |
सब भाँति मनोहर मोहनरूप, अनूप हैं भूपके बालक द्वै || (16)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — गांव की एक स्त्री अन्य स्त्रियों से कहती है कि हे सखी! तुम मेरे समान होकर देखो | श्याम वर्ण और गौर वर्ण के राजकुमारों के बीच एक नारी विराजमान है जो बड़ी सुंदर है | वह कोमल अंगों वाली है और जंगली मार्ग पर चलने योग्य नहीं है | पता नहीं यह किस प्रकार इस कठोर मार्ग पर चल सकेगी? पृथ्वी भी उनके चरण कमलों को छूने से सकुचा रही है |
तुलसीदास जी कहते हैं कि उस स्त्री के वचन सुनकर सभी ग्राम वधुएँ चकित हो गई | उनके शरीर रोमांचित हो गए और उनकी आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी | अंत में तुलसीदास जी कहते हैं कि राजा दशरथ के दोनों बालक सब प्रकार से सुंदर हैं ; उनका रूप मोहित करने वाला है |
विशेष — (1) राम, लक्ष्मण और सीता के अद्वितीय सौंदर्य का वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
(5) वर्णनात्मक शैली है |
सीस जटा, उर-बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी-सी भौंहें |
तून सरासन-बान धरें तुलसी बन-मारगमें सुठि सोहैं ||
सादर बारहिं बार सुभायँ चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं |
पूँछत ग्रामबधू सिय सों, कहौ, साँवरे-से सखि! रावरे को हैं || (17)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — ग्रामीण स्त्रियां सीता जी से पूछती है कि हे सखी! जिनके सिर पर जटाएं हैं, जिनका वक्षस्थल व भुजाएं विशाल हैं, नेत्र लालिमा से परिपूर्ण हैं, जिनकी भौहें तिरछी हैं, जिन्होंने धनुष-बाण धारण किया हुआ है और जो वन-मार्ग पर चलते हुए बड़े शोभायमान लग रहे हैं और आदरपूर्वक बार-बार तुम्हारी और देखते हैं और साथ ही हमारे मन को मोहित करते हैं ; वे श्याम वर्ण वाले राजकुमार तुम्हारे कौन हैं?
विशेष — (1) ग्राम वधुओं की सहज तथा स्वाभाविक उत्सुकता का मार्मिक वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण तथा वात्सल्य रस है |
(5) वर्णनात्मक शैली है |
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली |
तिरछे करि नैन, दै सैन तिन्हैं समुझाइ कछू, मुसुकाइ चली ||
तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं |
अनुराग-तड़ागमें भानु उदैँ बिगसी मनो मंजुल कंजकलीं || (18)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — ग्रामीण वधु के अमृत रस में डूबे वचनों को सुनकर सीता तत्काल जान गई कि ये ग्रामीण स्त्रियां बड़ी चतुर और समझदार हैं | अत: सीता ने अपने नेत्रों को तिरछे करके और संकेतों के द्वारा उन्हें समझा दिया और कुछ-कुछ मुस्काते हुई आगे चल पड़ी | श्री राम के दर्शन करके ग्रामीण नारियों ने अपने नेत्रों का पुण्य लाभ प्राप्त कर लिया | उस समय वे इस प्रकार सुशोभित हो रही थी मानो प्रेम रूपी सरोवर में राम रूपी सूर्य के उदय होने से सुंदर कमल के समान नारियों की आंखें कमल की कलियों की तरह विकसित हो गई हों |
विशेष — (1) सीता की आंगिक चेष्टाओं का स्वाभाविक वर्णन है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) माधुर्य गुण है |
(5 ) सवैया छन्द है |
जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचिअ जानकीजानहि रे |
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे ||
गति देखु बिचारि बिभीषन की, अरु आनु हिएँ हनुमानहि रे |
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दावानल संकट-कोटि-कृपानहि रे || (19)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित तुलसीदास द्वारा रचित ‘कवितावली‘ के ‘उत्तरकांड‘ के ‘विविध भाव चित्र‘ शीर्षक से अवतरित है |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि संसार में किसी को किसी से कुछ मांगना नहीं चाहिए | यदि मन में मांगने का विचार आ ही जाता है तो सीता के प्राण प्रिय प्रभु श्रीराम से ही मांगना चाहिए जिनसे मांगने पर मांगने की प्रवृत्ति ही नष्ट हो जाती है जो अपनी शक्ति से समूचे संसार को जला देती है |
विशेष — (1) तुलसीदास की प्रभु राम के प्रति अनन्य भक्ति भावना प्रकट होती है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
(5) वर्णनात्मक शैली है |
भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरिरु भलो लहि कै |
करषा तजि कै परुषा बरषा हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै ||
जो भजै भगवानु सयान सोई, ‘तुलसी’ हठ चातकु ज्यों गहि कै |
नतु और सबै बिषबीज बए, हर हाटक कामदुहा नहि कै || (20)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — भक्ति के महत्व को उजागर करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो श्रेष्ठ भारत भूमि और श्रेष्ठ कुल में जन्मा है, श्रेष्ठ समाज और उत्तम शरीर पाकर, क्रोध को त्यागकर, कठोर वर्षा, सर्दी, गर्मी और वायु को सहन करता हुआ अर्थात भीषण कठिनाइयों का सामना करता हुआ चातक जैसी दृढ़ भक्ति-भावना को अपनाकर भगवान का भजन करता है, वही ज्ञानवान पुरुष है | लेकिन यदि मनुष्य मानव-जन्म प्राप्त करके भी ईश्वर की भक्ति नहीं करता तो उसकी स्थिति ऐसी है मानो वह सोने का हल प्राप्त करके उसमें कामधेनु को जोड़कर विष के बीज बो रहा हो |
विशेष — (1) तुलसीदास जी की अनन्य भक्ति भावना प्रकट होती है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सो भामिनी, सो सुतु, सो हितु मेरो |
सो सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो ||
सो ‘तुलसी’ प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौँ बहुतेरो |
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसों रामको होइ सबेरो || (21)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — प्रभु भक्ति के महत्व को उजागर करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो देह और घर का स्नेह त्यागकर शीघ्र बड़े प्यार के साथ श्री राम का दास बन जाए वही मेरे लिए माता, पिता, बहन, भाई, पत्नी, पुत्र, हितैषी, सगा संबंधी, मित्र, दास, गुरु, देवता, स्वामी और नौकर है | तुलसीदास जी कहते हैं कि और कहाँ तक बढ़कर कहूँ वही मुझे प्राणों से प्रिय है |
विशेष — (1) तुलसीदास जी की प्रभु राम के प्रति अनन्य भक्ति-भावना प्रकट होती |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
सियराम-सरूपु अगाध अनूप बिलोचन-मिननको जलु है |
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है ||
मति रामहिं सों, गति राम हिं सों, रति रामसों, राम हिं को बलु है |
सबकी न कहै, तुलसी के मतें इतनो जग जीवनको फलु है || (22)
प्रसंग — प्रस्तुत पद्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘मध्यकालीन काव्य कुंज’ में संकलित एवं गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित ‘विविध भाव चित्र’ नामक शीर्षक से उद्धृत है |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि मेरी नेत्र रूपी मछलियों के लिए सीताराम का अनूप रूप अथाह जल राशि के समान है | कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार मछलियां पानी के बिना जीवित नहीं रह सकती उसी प्रकार से वे सीता-राम के दर्शन किए बिना जीवित नहीं रह सकते | इसके पश्चात तुलसीदास जी कहते हैं कि कानों को सुनने के लिए राम-कथा, जिह्वा या मुख्य के लिए प्रभु श्री राम का नाम होना चाहिए और हृदय में श्रीराम ही की मूर्ति के लिए स्थान होना चाहिए | बुद्धि भी श्रीराम में, गति भी श्री राम में, प्रेम भी श्री राम से होना चाहिए तथा श्री राम पर ही भरोसा होना चाहिए | अंत में तुलसीदास जी कहते हैं कि वे सबकी बात नहीं कहते लेकिन उनके मतानुसार जगत में जीवन का इतना ही फल है |
विशेष — (1) तुलसीदास जी के अनुसार प्रभु राम की भक्ति ही जीवन का फल है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
झूठो है झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है |
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है ||
जानपनीको ग़ुमान बड़ो, तुलसी के बिचार गँवार महा है |
जानकीजीवनु जान न जान्यौ तो जान कहावत जान्यो कहा है || (23)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि जिन संतों ने इस संसार का सार तत्व प्राप्त कर लिया है वे कहते हैं कि संसार झूठा है |
हे दुष्ट प्राणी! तू उसी मिथ्या जगत के करोड़ों संकट सहन करता है तथा दांत निकाल निकाल कर हा-हा कर विनय करता है | तुझे अपने ज्ञानवान होने का बहुत अभिमान है किंतु मेरे विचार से तू महामूर्ख है | जानकी के प्राण श्री राम को जानकर भी तूने नहीं जाना और तू स्वयं को ज्ञानी कहलाता है ; वास्तव में तूने अभी जाना ही क्या है? कहने का अभिप्राय यह है कि जो श्री राम की महिमा को नहीं जानता वह सच्चा ज्ञानी नहीं हो सकता |
विशेष — (1) तुलसीदास जी के अनुसार श्री राम को जानना ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
( 4) प्रसाद गुण है |
को भरिहै हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जो भरिहैं |
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहैं ||
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहिं कालहु तें डरिहै |
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै || (24)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं कि भगवान श्री राम जिसको खाली कर देते हैं भला उसे कौन भर सकता है और जिसे वे भर देते हैं तो उसे कोई खाली नहीं कर सकता | प्रभु राम जिसे स्थापित कर देते हैं उसे कोई उखाड़ नहीं सकता और जिसे प्रभु श्री राम उखाड़ देते हैं उसे कोई स्थापित नहीं कर सकता | प्रभु श्री राम की कृपा को देखते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं अपने मन में यह भली प्रकार समझते हुए स्वप्न में भी काल से भयभीत नहीं होता हूँ | जिस प्राणी पर प्रभु श्री राम कृपा करें तो उस पर कोई क्रोध करके भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता |
विशेष — (1) कवि के अनुसार जिन पर प्रभु राम अपनी कृपा दृष्टि रखते हैं उनका कोई भी अहित नहीं कर सकता|
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
मातु-पिताँ जग जाइ ताज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई |
नीच, निरादरभाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई ||
रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसीं प्रभु सों कह्यो बारक पेटु खलाई |
स्वारथको परमारथको रघुनाथु सो साहेबु, खोरि न लाई || (25)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी अपने जीवन के कटु यथार्थ का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि माता-पिता ने उसे संसार में जन्म देकर छोड़ दिया | भाग्य ने उनके माथे पर कुछ अच्छा नहीं लिखा | इस प्रकार वह नीच और निरादरणीय कायर होकर कुत्ते के टुकड़ों के लिए भी लालायित रहा |
इसके पश्चात तुलसीदास जी कहते हैं कि तब मैंने श्री राम का स्वभाव सुना और उनसे एक बार अपना खाली पेट दिखा कर निवेदन किया | तब प्रभु राम ने मेरे स्वार्थ और परमार्थ में तनिक भी दोष नहीं देखा और उन्हें पूर्ण कर दिया |
विशेष — (1) कवि ने अपनी बाल्यावस्था के संकटों की ओर संकेत किया है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) प्रसाद गुण है |
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी |
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी ||
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी |
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनश्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी || (26)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मजदूर, कृषक वर्ग, व्यापारी वर्ग, भाट लोग, नौकर-चाकर, नट, चोर, दूत और जादूगर आदि सभी लोग अपने पेट की आग को बुझाने के लिये ही विभिन्न प्रकार के कार्य करते हैं, यहाँ तक कि अपनी रोजी-रोटी के लिये वे पहाड़ों तक पर चढ़ जाते हैं | शिकारी लोग शिकार की तलाश में घने जंगलों को छान देते हैं | पेट की आग को बुझाने के लिये ही लोग धर्म-अधर्म के विभिन्न कार्य करते हैं, यहाँ तक की कुछ लोग पेट की आग को बुझाने के लिये अपने बेटे तथा बेटी तक को बेच देते हैं | कहने का तात्पर्य यह है कि भूख मनुष्य को कुछ भी करने के लिये बाध्य कर देती है | तुलसीदास जी कहते हैं कि पेट की आग समुद्र की आग से भी विकराल है, इसे राम रूपी घनश्याम ही बुझा सकते हैं |
विशेष — इन पंक्तियों के माध्यम से कवि के समय की सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियां उजागर होती हैं |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) गेयता एवं सगीतात्मकता है |
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि,
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी |
जीविका विहीन लोग सिद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करि?’
वेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ विलोकिअत,
साँकरे सबैं पै, राम! रावरें कृपा करी |
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु !
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी || (27)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जब किसान की खेती ठीक से न हो पा रही हो, भिखारी को कहीं से भीख या भेंट ना मिल पा रही हो, व्यापारी का व्यापार ना चल रहा हो तथा नौकर-चाकर लोगों को कहीं काम ना मिल रहा हो ; ऐसे समय में आजीविका विहीन लोग चिंतित होकर सोचते रहते हैं और एक दूसरे से कहते हैं कि “कहाँ जायें? क्या करें?” तुलसीदास जी कहते हैं कि वेदों-पुराणों में भी कहा गया है और लोगों ने स्वयं अपनी आँखों से देखा है कि संकट के समय केवल श्री राम जी ही लोगों पर कृपा करते हैं | तुलसीदास जी दुरावस्था की अग्नि को देख कर हहा करते हैं और श्री राम को सम्बोधित करते हुये कहते हैं कि हे दीनबंधु! दरिद्रता रूपी रावण ने दुनिया को दबा रखा है अर्थात हे प्रभु जिस प्रकार तुमने रावण का संहार किया था उसी प्रकार तुम इस दरिद्रता रूपी रावण का संहार करके दुनिया को गरीबी से छुटकारा दिलाओ |
विशेष — (1) कवि के समय की आर्थिक स्थिति की झलक मिलती है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) गेयता एवं संगीतात्मकता है |
कीबे कहा, पढ़िबे को कहा फलु, बूझि न बेदको भेदु बिचारैं |
स्वारथको परमारथको कलि कामद रामको नामु बिसारैं ||
बाद-बिबाद बिषादु बढ़ाई कै छाती पराई औ आपनी जारैं |
चारिहुको, छहुको, नवको, दस-आठको पाठु-कुकाठु ज्यों फारैं || (28)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — तुलसीदास जी कहते हैं – मुझे क्या करना है, क्या पढ़ना है, मुझे क्या फल मिलेगा? – इन सब बातों पर विचार करना आवश्यक है |
तुलसीदास जी कहते हैं कि इस कलयुग में स्वार्थ और परमार्थ आदि अनेक प्रकार की इच्छाओं को पूरा करने वाले प्रभु श्री राम को लोग भूल गए हैं | वे व्यर्थ का वाद-विवाद करते हैं तथा अपने लिए और दूसरों के लिए कष्ट का कारण बनते हैं | चार वेदों, छह शास्त्रों, नौ व्याकरणों तथा अठारह पुराणों का अध्ययन करके लोग इस प्रकार समय को नष्ट कर देते हैं जैसे कुकाठ को फाड़ने में समय नष्ट हो जाता है |
विशेष — (1) कवि ने संदेश दिया है कि कोई भी कार्य करने से पूर्व अच्छी प्रकार से विचार-विमर्श कर लेना चाहिए |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) गेयता एवं संगीतात्मकता है |
धूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ |
काहू की बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ |
तुलसी सरनाम गुलामु है राम को, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ |
माँगि कै खैबो, मसीत को सोइबो, लैबोको एकु न दैबको दोऊ | (29)
प्रसंग — पूर्ववत |
व्याख्या — गोस्वामी तुलसीदास जी अपनी फक्कड़ाना मस्ती का परिचय देते हुए कहते हैं कि चाहे कोई मुझे धूत कहे या चाहे अवधूत कहे ; जाति से मुझे कोई राजपूत समझे या जुलाहा, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता | वे कहते हैं कि मुझे किसी की बेटी से अपने बेटे की शादी नहीं करनी जिससे कि उसकी जाति बिगड़ जाए | तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं तो श्री राम का दास हूँ और उनकी शरण में रहता हूँ, इसलिए जिसको जो अच्छा लगे वो वही कहता रहे | मैं इन बातों से विचलित नहीं होता | मैं तो मांग कर खाता हूँ और मस्जिद में सोता हूँ, मुझे किसी से न एक लेना है और न किसी को दो देने हैं अर्थात मुझे किसी से कोई लेना-देना नहीं है | मेरे तो प्रभु श्री राम ही सब कुछ हैं |
विशेष — (1) तुलसीदास जी की निर्भीक व मनमौजी वृत्ति प्रकट होती है |
(2) सरल, सहज तथा साहित्यिक ब्रजभाषा का प्रयोग है |
(3) शब्द चयन सर्वथा उचित और भावाभिव्यक्ति में सहायक है |
(4) गेयता एवं संगीतात्मकता है |
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