हरियाणा की सांग परंपरा ( Haryana Ki Sang Parampara )

हरियाणा की सांग परंपरा
हरियाणा की सांग परंपरा

हरियाणा में लोक साहित्य का विशेष एवं अनूठा योगदान है | लोक साहित्य या जन-साहित्य वह साहित्य होता है जिसमें स्थानीय साहित्यकारों द्वारा लोक-भाषा में जन-जीवन की झांकी प्रस्तुत की जाती है | हरियाणा की सांग परंपरा हरियाणवी लोक साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय पक्ष रहा है |

सांग का अर्थ ( Saang Ka Arth )

‘सांग’ शब्द ‘स्वांग’ का तद्भव रूप है जिसका शाब्दिक अर्थ है – भेष धारण करना, रूप धारण करना अथवा नकल करना | सांग को नौटंकी का पर्याय भी माना जाता है | हरियाणा में ‘सांग भरना’ या ‘स्वांग भरना’ एक मुहावरा भी है जिसका अर्थ होता है – रूप बनाना, रूप धरना या मूल की नकल करना | धोखा देने के लिए ढोंग करने अथवा आडंबर के रूप में वेश बदलने को भी स्वांग कहा जाता है |

श्री जगदीश माथुर ‘सांग’ का प्राचीनतम नाम ‘संगीत’ मानते हैं उनका मानना है कि ‘संगीत’ ही बाद में ‘सांग’ बन गया |

श्री राम नारायण अग्रवाल ‘सांग’ की उत्पत्ति के विषय में कहते हैं — “स्वांग का एक नाट्य रूप उत्तर मध्यकाल में उत्तर तथा मध्य भारत में ‘ख्याल’ के नाम से विकसित हुआ था | उसी ने बाद में पंजाब में ‘ख्याल, राजस्थान में ‘तुर्रा कलगी’, ब्रज क्षेत्र में ‘भगत’ और हरियाणा में ‘सांग’ नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की |”

सांग हरियाणा की लोकप्रिय नाट्य-शैली है | यह विधा हरियाणा के लोकमानस पर जादू का-सा प्रभाव डालती है | रागनियों की स्वर-लहरी तथा वाद्य-संगीत से परिपूर्ण कथा को सुनकर अथवा देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं |

हरियाणा की सांग परंपरा का विकास ( Haryana Ki Saang Parampara Ka Vikas )

हरियाणा की सांग परंपरा एक प्राचीन एवं लंबी परंपरा है विद्वानों ने इस परंपरा के उद्भव एवं विकास को समझने के लिए इसका वर्गीकरण समय व इस परंपरा में हुए परिवर्तनों के आधार पर किया है | ‘सांग’ के उद्भव एवं विकास का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है —

(1) संक्रमण काल ( 1200 ईस्वी से 1750 ईस्वी ) — हरियाणवी सांग-परंपरा का यह युग 1200 ईस्वी से 1750 ईस्वी तक माना जाता है | श्री राम नारायण अग्रवाल के अनुसार 11 वीं सदी में पंजाब के मल्ल नामक जाट, रावत नामक राजपूत और रंगा नामक जुलाहे ने मिलकर एक स्वांग मंडली बनाई | इन लोगों ने गांव-गांव घूमकर स्वांग द्वारा जनता का मनोरंजन किया | कालांतर में यही स्वांग-परंपरा हरियाणवी सांग ( Haryanvi Saang ) के नाम से प्रसिद्ध हो गई |

हरियाणा के महान सांगी रामकिशन व्यास ने 13वीं सदी में हरियाणवी सांग का आरंभ स्वीकार किया है | उन्होंने नारनौल निवासी गुजराती ब्राह्मण बिहारीलाल से हरियाणवी सांग का उद्भव माना है | उन्होंने इस संबंध में लिखा है –

“नारनौल का गुजराती ब्राह्मण बिहारीलाल था

सांग शुरू किया सन बारह सौ छह का साल था |”

उन्होंने अपने इस पद्यांश में बिहारीलाल के शिष्य चेतन का भी उल्लेख किया है जिसने बिहारीलाल के बाद सांग-परंपरा को आगे बढ़ाया | 1658 ईस्वी में औरंगजेब ने सांगों पर प्रतिबंध लगा दिया | 1707 ईस्वी औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात बालमुकुंद ने 1709 ईस्वी में सांग को पुनः जीवित करने का प्रयास किया | बालमुकुंद के बाद उनके शिष्य शिवकुमार ने सांग परंपरा को आगे बढ़ाया | उनके दूसरे शिष्य किशनलाल भाट ने सांग-कला के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किए | किशनलाल भाट को ‘सांग का पितामह’ कहा जाता है |

(2) प्रारम्भिक काल ( 1750 ईस्वी से 1850 ईस्वी ) — हरियाणवी सांग-परंपरा के दूसरे चरण को प्रारंभिक युग के नाम से जाना जाता है | इसका समय 1750 ईस्वी से 1850 ईस्वी तक है | इस युग के सांगियों में सर्वप्रथम नूह जिले में जन्मे सादुल्ला का नाम लिया जा सकता है | उन्हें मेवाती जनकवि होने का गौरव प्राप्त है उन्होंने 1787 ईस्वी में मेवाती भाषा में महाभारत की रचना की है जिसका नाम ‘पण्डून का कड़ा’ है | बंसीलाल भी इस युग के प्रमुख सांगी हुए हैं | उन्होंने ‘गुरु गुग्गा’, ‘राजा गोपीचंद’ तथा ‘राजा नल’ जैसे प्रसिद्ध सांगों की रचना की | एक गुजराती ब्राह्मण पंडित अंबाराम भी इस युग के प्रमुख सांगी हुए हैं |

(3) उत्कर्ष काल ( 1850 ईस्वी से 1950 ईस्वी ) — हरियाणवी सांग परंपरा का तीसरा चरण उत्कर्ष युग के नाम से जाना जाता है | इस युग को हरियाणवी सांग-साहित्य का स्वर्ण युग भी कहा जाता है | इस युग का समय 1850 ईस्वी से 1950 ईस्वी तक है | इस युग का प्रारंभिक दौर भक्ति भावना से ओतप्रोत रहा | इस युग में अनेक प्रसिद्ध सांगी हुए जिनमें अलीबख्श, बालकराम, अहमदबख्श थानेसरी, बाबा हीरादास उदासी, ताऊ सांगी, पंडित किशन लाल, दीपचंद, बाजे भगत, पंडित लख्मीचंद आदि का नाम लिया जा सकता है |

अलीबख्श रेवाड़ी के क्षेत्र में लोकप्रिय थे | इनके सांगों में भक्ति-भावना प्रमुख थी | इनके सभी सांग ईश्वर-वंदना से आरंभ होते थे | इनके प्रमुख सांगों में श्री कृष्ण लीला, गुलबकावली, फिसाने अजाइब आदि का नाम लिया जा सकता है |

योगेश्वर बालकराम शेखपुरा गांव ; जिला करनाल के निवासी थे | इन्होंने ‘पूरणमल भगत’ तथा ‘निहालदे नर सुल्तान’ जैसे सांगों की रचना की | इनके शिष्य पंडित रामकिशन ब्यास भी प्रसिद्ध सांगी हुए |

अहमदबख्श थानेसरी ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे | इनकी रचनाओं में ज्योतिष शास्त्र, हिंदू -मुस्लिम संस्कृति का समन्वय तथा वात्सल्य भाव आदि का अनूठा मिश्रण मिलता है | सोरठा, पद्मिनी, चंद्रकिरण, कृष्ण लीला आदि इनकी प्रमुख रचनाएं हैं |

सांग रतन सैन राजा का’ हीरादास उदासी की प्रसिद्ध रचना है | इस सांग की कथा जायसी की पद्मावत के समान है |

ताऊ सांगी भी हरियाणा के प्रमुख सांगी हुए हैं | उनके जीवन वृत्त व वास्तविक नाम का पता नहीं चला | वह ताऊ सांगी के नाम से ही विख्यात हुए | इन्होंने ‘रुक्मिणी विवाह’ नामक एक पद्यबद्ध सांग की रचना की जिसमें 178 पद्य हैं |

पंडित किशनलाल ने मोरध्वज, भक्त प्रह्लाद, बारहमासा आदि सांगों की रचना की |

पंडित दीपचंद ने हरियाणवी सांग को नई प्रतिष्ठा प्रदान की | इन्होंने नल-दमयंती, राजा भोज, गोपीचंद आदि सांगों की रचना की |

बाजेराम भी हरियाणा के प्रमुख सांगी हुए हैं | वे बाजे भगत के नाम से लोकप्रिय हुए | नल-दमयंती , हीर-रांझा, महाभारत आदि पर्व, कृष्ण-जन्म आदि इनके प्रमुख सांग हैं |

पंडित लख्मीचंद को हरियाणवी साहित्य के युग पुरुष की संज्ञा दी जाती है | वे सर्वाधिक प्रतिभावान सांगी थे | उन्होंने सांगों को दैनिक जीवन से जोड़ा तथा रागनि के वर्तमान रूप को जन्म दिया | पूरणमल, गोपीचंद, शकुंतला, हीर-रांझा, पद्मावत, चंद्रहास आदि उनके प्रमुख सांग हैं |

(4) आधुनिक काल ( 1950 ईस्वी से अब तक ) — हरियाणवी सांग-परंपरा का चौथा चरण आधुनिक युग के नाम से जाना जाता है | इस युग की समय-सीमा 1950 से लेकर अब तक मानी जाती है |

इस युग के सांगियों में पंडित मांगेराम, रामकिशन व्यास, धनपत सिंह, फौजी मेहर सिंह आदि का नाम उल्लेखनीय है |

पंडित मांगेराम पंडित लख्मीचंद के शिष्य थे इन्होंने लगभग 40 सांगों की रचना की | इनके सांगों में छैल बाला, अमर सिंह राठौर, पिंगला भरथरी, कृष्ण-सुदामा आदि प्रमुख हैं |

रामकिशन ब्यास प्रसिद्ध सांगी योगेश्वर बालक राम के शिष्य हुए हैं | इनके प्रमुख सांग हैं – सत्यवान सावित्री, चंद्रहास, शशिकला आदि |

धनपत सिंह पंडित मांगेराम के समकालीन थे | हीर-रांझा, लीलो चमन, गोपीचंद आदि इनके प्रमुख सांग हैं |

हरियाणवी लोक साहित्य में फौजी मेहर सिंह का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है | वह पंडित लख्मीचंद के शिष्य थे | उन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज में कार्य किया था | सत्यवान सावित्री, सरवर नीर, शाही लकड़हारा, सुभाषचंद्र बोस आदि उनकी प्रमुख रचनाएं हैं |

इस प्रकार कहा जा सकता है कि हरियाणा में सांगों की एक समृद्ध परंपरा है | इस परंपरा का प्रारंभ 13वीं सदी से हुआ | इसने 19वीं सदी में लोकप्रियता प्राप्त की | परन्तु आज हरियाणवी सांग-परंपरा अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है | सांग के स्थान पर अश्लीलता और फूहड़ता परोसी जा रही है |

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10 thoughts on “हरियाणा की सांग परंपरा ( Haryana Ki Sang Parampara )”

  1. बाकी सब सही है मगर मेहरसिंह का सांग काल और रचनाएं कौन -कौन सी हैं?
    चूंकि वो अट्ठारह साल की उम्र में फौजी बन गए और छब्बीस साल की उम्र में चल बसे थे । जबकि वह विश्व युद्ध का समय था ।तो उन्होंने कब सांग सीखा,कब सांग किए ?
    थोड़ा मार्गदर्शन करें।

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