रुबाइयाँ ( Rubaiyan ) : फिराक गोरखपुरी

आँगन में लिए चाँद के टुकड़े को खड़ी

हाथों पे झूलाती है उसे गोद-भरी

रह-रह के हवा में जो लोका देती है

गूँज उठती है खिलखिलाते बच्चे की हँसी | (1)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संस्कृत कविता ‘रुबाइयाँ’ में से अवतरित है | इसके शायर फिराक गोरखपुरी जी हैं | प्रस्तुत रुबाई में कवि ने अपने छोटे बच्चे के साथ खेल रही माँ का चित्र प्रस्तुत किया है |

व्याख्या — शायर कहता है कि मां अपने प्रिय बेटे को गोद में लिए हुए घर के आंगन में खड़ी है | वह उसे अपनी गोद में लेकर अपने हाथों पर झुलाती है | वह बार-बार अपने शिशु को हवा में उछालती हैं और प्रसन्न होती है | शिशु भी माँ के हाथों से झूले लेकर खिलखिलाता हुआ हंसने लगता है | बच्चे के खिलखिलाहट हवा में गूंजने लगती है | इस प्रकार मां और उसका शिशु दोनों ही प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं |

नहला के छलके-छलके निर्मल जल से

उलझे हुए गेसुओं में कंघी करके

किस प्यार से देखता है बच्चा मुँह को

जब घुटनियों में ले के है पिन्हाती कपड़े | (3)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संस्कृत कविता ‘रुबाइयाँ’ में से अवतरित है | इसके शायर फिराक गोरखपुरी जी हैं | प्रस्तुत रुबाई में कवि ने अपने छोटे बच्चे और उसकी माँ का चित्र प्रस्तुत किया है |

व्याख्या — शायर कहता है कि पहले मां ने अपने छोटे बच्चे को स्वच्छ जल से छलका-छलका के नहलाया | फिर उसने उसके उलझे हुए बालों में कंघी की | जब वह अपने घुटनों में अपने बच्चे को पकड़ कर उसे कपड़े पहनाती है तो वह शिशु बड़े प्यार से अपनी माँ के मुँह को देखता है |

दीवाली की शाम घर पुते और सजे

चीनी के खिलौने जगमगाते लावे

वो रूपवती मुखड़े पै एक नर्म दमक

बच्चे के घरौंदे में जलाती है दिए | (3)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संस्कृत कविता ‘रुबाइयाँ’ में से अवतरित है | इसके शायर फिराक गोरखपुरी जी हैं | प्रस्तुत रुबाई में कवि ने दीवाली के दृश्य का सजीव वर्णन किया है |

व्याख्या — दीवाली की शाम है | सारा घर रंग-रोगन से पोता हुआ और पूरी तरह से सुसज्जित है | माँ अपने बच्चे को प्रसन्न करने के लिए चीनी मिट्टी के जगमगाते हुए सुंदर खिलौने लेकर आती है | माँ के सुंदर-सलोने मुख पर एक कोमल चमक है | वह अत्यधिक प्रसन्न दिखाई दे रही है | अपने बच्चे को प्रसन्न करने के लिए वह उसके रेत के बने हुए घर में एक दीपक जला देती है |

आँगन में ठुनक रहा है ज़िदयाया है

बालक तो हई चाँद पै ललचाया है

दर्पण उसे दे के कह रही है माँ

देख आईने में चाँद उतर आया है | (4)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संस्कृत कविता ‘रुबाइयाँ’ में से अवतरित है | इसके शायर फिराक गोरखपुरी जी हैं | प्रस्तुत रुबाई में कवि ने एक छोटे बच्चे की जिद का स्वाभाविक वर्णन किया है |

व्याख्या — शायर कहता है कि छोटा बच्चा आंगन में ठुनकता हुआ अपनी जिद पर अड़ा हुआ है | छोटा बच्चा किसी भी वस्तु की जिद कर बैठता है | आज वह अपनी माँ से चाँद लेने की जिद कर रहा है | ऐसे में मां को एक युक्ति सोचती है | वह अपने हाथ में एक दर्पण को लेकर उसे अपने बच्चे के हाथों में दे देती है और उसमें चांद का प्रतिबिंब उसे दिखाती है और कहती है कि देखो तुम्हारा चाँद इस दर्पण में आ गया है, अब तुम इससे जी भरकर खेल सकते हो |

रक्षाबंधन की सुबह रस की पुतली

छायी है घटा गगन की हल्की-हल्की

बिजली की तरह चमक रहे हैं लच्छे

भाई के हैं बाँधती चमकती राखी | (5)

प्रसंग — प्रस्तुत काव्यांश हिंदी की पाठ्यपुस्तक ‘आरोह भाग 2’ में संस्कृत कविता ‘रुबाइयाँ’ में से अवतरित है | इसके शायर फिराक गोरखपुरी जी हैं | प्रस्तुत रुबाई में कवि ने रक्षाबंधन के समय का एक सुंदर शब्द-चित्र प्रस्तुत किया है |

व्याख्या — कवि कहता है कि आज रक्षाबंधन का त्यौहार है | आकाश में काले-काले बादलों की हल्की घटाएं छाई हुई हैं | रक्षाबंधन के अवसर पर नन्ही बालिका खुशी से चहक रही है | उसके हाथों में राखी-रूपी लच्छे बिजली के सामान चमक-दमक रहे हैं | वह प्रसन्न होकर अपने भाई की कलाई पर चमकती राखी बांधती है |

अभ्यास के प्रश्न ( रुबाइयाँ : फिराक गोरखपुरी )

(1)शायर ( फिराक गोरखपुरी ) राखी के लच्छे को बिजली की चमक की तरह कहकर क्या भाव व्यक्त करना चाहता है?

उत्तर — राखी एक पवित्र धागा है | यह बहन के प्रेम का प्रतीक है |भले ही यह कच्चा धागा है परंतु इसका बंधन बहुत ही पक्का है |इसकी पवित्रता मन की प्रत्येक छटा को चीरकर चमक बिखेरने वाली होती है | शायद इसीलिए शायर ने राखी के लच्छे को बिजली की चमक से युक्त बताया है | जिस प्रकार आकाश में चमकने वाली बिजली सबका ध्यान अपन ओर आकर्षित कर लेती है ठीक उसी प्रकार से राखी के धागे की चमक भी भाई-बहन को आकर्षित करती है |

यह भी देखें

गज़ल ( Gajal ) : फिराक गोरखपुरी

आत्मपरिचय ( Aatm Parichay ) : हरिवंश राय बच्चन

दिन जल्दी जल्दी ढलता है ( Din jaldi jaldi Dhalta Hai ) : हरिवंश राय बच्चन

पतंग ( Patang ) : आलोक धन्वा

कविता के बहाने ( Kavita Ke Bahane ) : कुंवर नारायण ( व्याख्या व अभ्यास के प्रश्न )

बात सीधी थी पर ( Baat Sidhi Thi Par ) : कुंवर नारायण

कैमरे में बंद अपाहिज ( Camere Mein Band Apahij ) : रघुवीर सहाय

सहर्ष स्वीकारा है ( Saharsh swikara Hai ) : गजानन माधव मुक्तिबोध

उषा ( Usha ) शमशेर बहादुर सिंह

बादल राग : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ( Badal Raag : Suryakant Tripathi Nirala )

बादल राग ( Badal Raag ) ( सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ): व्याख्या व प्रतिपाद्य

कवितावली ( Kavitavali ) : तुलसीदास

लक्ष्मण मूर्छा और राम का विलाप ( Lakshman Murcha Aur Ram Ka Vilap ) : तुलसीदास

बगुलों के पंख ( Bagulon Ke Pankh ) : उमाशंकर जोशी

छोटा मेरा खेत ( Chhota Mera Khet ) : उमाशंकर जोशी