वाग्यंत्र का अर्थ व विभिन्न वागवयवों के कार्य ( Vagyantra ka Arth v Vibhinn Vagangon Ke Karya )

     ⚫️ ध्वनि उत्पादन में वाक अवयवों की भूमिका ⚫️
 ( Dhvani Utpadan Men Vaak Avyavon Ki Bhumika )

◼️ मानव जब ध्वनि का उच्चारण करता है तो वह अपने वाग्यंत्रों के विभिन्न वागगों का प्रयोग करता है | औच्चारिकी नामक शाखा के अंतर्गत हम वागंगों अथवा वागवयवों का अध्ययन करते हैं | वागवयव  दो शब्दों के मेल से बना है – वाग और अवयव |  वाग या वाक् का अर्थ है – वाणी और अवयव का अर्थ है – अंग | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिस अंग से वाणी अथवा ध्वनि का उच्चारण होता है उसे वागवयव कहते हैं यह सभी वागवयव  मुखर विवर में स्थित हैं |
 इनका विवेचन इस प्रकार है :-

1️⃣ फेफड़े : – फेफड़ों से श्वास- नि:विश्वास की प्रक्रिया चलती है जिससे ध्वनि का उत्पादन होता है | इस प्रकार फेफड़े ध्वनि उत्पादन प्रक्रिया का मूल अंग हैं |

2️⃣ भोजन नली :- भोजन नली का स्वन-उत्पादन प्रक्रिया में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं है लेकिन फिर भी इसकी चर्चा वागगों में की जाती है | यह दांतो द्वारा चबाए गए भोजन को आमाशय तक ले जाती है | यह श्वास नली के साथ सटी होती है | भोजन नली के द्वार पर एक आवरण होता है | भोजन निगलते समय यह आवरण श्वास नली को ढक देता है और भोजन नली को खोल देता है |  इससे भोजन श्वास-नली में न जाकर भोजन नली में ही जाता है |

3️⃣ श्वास-नली :- श्वास नली के माध्यम से ही वायु नासिका से फेफड़ों तक पहुंचती है और श्वास नली के माध्यम से ही बाहर निकलती है | स्वन प्रक्रिया में श्वास नली का अत्यधिक महत्व है |

4️⃣ स्वर यंत्र :- स्वर यंत्र श्वास नाल के ऊपरी किनारे के पास विद्यमान होता है | जब नि:विश्वास वायु फेफड़ों से बाहर निकलती  हैं तो श्वास नाल से होती हुई स्वर यंत्र तक पहुंचती है | इस स्वर यंत्र में ही स्वर तंत्रियाँ होती हैं |

5️⃣ स्वर तंत्रियाँ :- स्वर यंत्र में पतली झिल्ली से बने दो पतले पर्दे होते हैं जो अत्यंत लचीले होते हैं | इनको ही स्वर तंत्री कहते हैं | स्वर तंत्रियों के कंपन से ही अनेक प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं |

6️⃣ काकल:- स्वर तंत्रियों के बीच के खुले भाग को काकल कहते हैं | इसके रास्ते की वायु बाहर निकलती है | इसे ‘स्वर-यंत्र मुख’ भी कहते हैं |

7️⃣ अभिकाकल:- श्वास नली के द्वार पर आवरण के रूप में एक छोटा सा पर्दा लगा रहता है | यह भोजन को श्वास नली में जाने से रोकता है | इसे अभिकाकल कहते हैं |

8️⃣ कंठ पिटक:- गले का वह भाग जो कुछ उठा रहता है उसे कंठ पीटक कहते हैं | सामान्य भाषा में इसे ‘टेटुवा’ कहते हैं | यह ध्वनियों का उच्चारण करने व उन्हें विविध रूप देने में सहायक होता है |

9️⃣ कंठ मार्ग :- कंठ मार्ग मुख के नीचे तथा कंठ छिद्र के ऊपर होता है | उच्चारण में इसकी महत्व भूमिका होती है |

🔟 कंठ :- तालु के नीचे तथा काकल के ऊपर के भाग को कंठ कहते हैं | क, ख, ग, घ आदि ध्वनियों का उच्चारण कंठ से ही होता है |

🔹11. कौवा अथवा अलजिह्व :- कोमल तालु से जो एक छोटा सा मांस-पिंड नीचे की ओर लटकता है | उसी को हम कौवा याअलजिह्व कहते हैं |अनुनासिक स्वरों का उच्चारण करने में अलजिह्व की महती भूमिका होती है |

🔹12. नासिका विवर :- मुख और नासिका के बीच स्थित रिक्त स्थान को नासिका विवर कहते हैं |इसके माध्यम से ही हम सांस लेते हैं | अनुनासिक ध्वनियों का उच्चारण करते समय सांस इसके रास्ते से ही बाहर निकलती है |

🔹13. तालु:- मुख विवर के ऊपर की ओर जो गोलाकार सी छत होती है उसके सबसे पिछले भाग को कोमल तालु तथा अगले भाग को कठोर तालु कहते हैं |
च,  छ, ज, झ आदि के उच्चारण में तालु की महत्वपूर्ण भूमिका होती है |

🔹14. मुख विवर :- अलजिह्व के एक ओर नासिका विवर तथा दूसरी ओर मुख विवर है | मुख विवर में दंत,  वर्त्स, तालु, जिह्वा आदि वागंग होते हैं |

🔹15. दंत मूल :- कठोर तालु के  अंतिम छोर को दंत मूल कहते हैं |  यहीं पर दांतो की जड़े होती हैं |

🔹16. दंत :- दंत मूल से ही दांतो की दोनों पंक्तियां निकलती है ऊपर के दंत मूल से ऊपर की दंत पंक्तियां तथा नीचे के दांत मूल से नीचे की दंत पंक्तियां निकलती हैं |
दांतो से ही दंत्य ध्वनियों का उच्चारण होता है |  जैसे- त, थ, द, ध  आदि ध्वनियां दन्त्य हैं |

🔹17. वर्त्स : ऊपर के दांतो के निकट के तालु-भाग को वर्त्स  कहते हैं |
‘न’  का उच्चारण वर्त्स की सहायता से होता है |

🔹18. मूर्धा : ऊपर की दंत पंक्ति के निकट के कठोर तालु के खुरदरे भाग को मूर्धा कहते हैं |
ट, ठ, ड, ढ आदि का उच्चारण मूर्धा से ही होता है |

🔹19. जिह्वा :- मुख विवर के मध्य निचले भाग में जिह्वा होती है | यह प्रायः नीचे की ओर शिथिल पड़ी रहती है | जिह्वा के 5 भाग होते हैं:- जिह्वा नोक, जिह्वाग्र, जिह्वा मध्य, जिह्वा पश्च, और जिह्वा मूल |

🔹20. ओष्ठ :- मुख विवर के द्वार पर दंत पंक्तियों के ऊपर आवरण के रूप में जो ऊपर नीचे दो अवयव है उनको ओष्ठ कहते हैं |
प, फ, ब, भ आदि ध्वनियों के उच्चारण में ओष्ठों की महती भूमिका होती है |

🔷 👉  इस प्रकार स्वन-प्रक्रिया में वागगों का विशेष महत्व है |  इनमें से प्रत्येक वागंग किसी न किसी रूप में ध्वनि उच्चारण में सहायक है | भाषा वैज्ञानिकों ने विभिन्न वैज्ञानिक यंत्रों द्वारा इन वागंगो से उत्पन्न ध्वनियों का समुचित अध्ययन किया है |

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