मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाएं ( Madhyakalin Bhartiy Arya Bhashayen )

अधिकांश विद्वान 1500 ईo पूo के काल को भारतीय आर्य भाषाओं का काल मानते हैं | तब से लेकर आज तक भारतीय आर्य भाषा की यात्रा लगभग 3500 वर्ष की हो चुकी है |

अधिकांश विद्वान भारतीय आर्य भाषा के इस लंबे काल को तीन भागों में बांटते हैं :

  1. प्राचीन भारतीय आर्य भाषा ( 1500 ईo पूo से 500 ईo पूo तक)
  2. मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा ( 500 ईo पूo से 1000 ईo तक )
  3. आधुनिक भारतीय आर्य भाषा ( 1000 ईo से अब तक )

यहां मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का विवरण अभीष्ट है | मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का काल 500 ईo पूo से 1000 ईo तक माना जाता है | सुविधा की दृष्टि से विद्वानों ने मध्यकालीन आर्य भाषा को तीन भागों में बांटा है : –

( क ) आदिकाल ( 500 ईo पूo से ईस्वी के आरम्भ तक )

( ख ) मध्यकाल ( ईo के आरम्भ से 500 ईo तक )

( ग ) उत्तरकाल ( 500 ईo से 1000 ईo तक )

मध्यकालीन आर्य भाषाएँ / Madhyakalin Arya Bhashayen

मध्यकालीन आर्य भाषाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :-

  1. पालि : यह मध्यकालीन आर्य भाषा के प्रथम चरण की भाषा है | इस भाषा का प्रयोग बौद्ध धर्म के अनुयायियों द्वारा हुआ | इस भाषा का नामकरण आधुनिक काल के यूरोपीय विद्वानों ने किया लेकिन फिर भी इस भाषा के नामकरण को लेकर विद्वानों में मतभेद है | पाली भाषा के क्षेत्र को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है | कुछ विद्वान इसे मगध की बोली मानते हैं तो कुछ उज्जयिनी की लेकिन यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि बौद्ध भिक्षुओं ने बौद्ध धर्म के प्रचार प्रसार के लिए पाली भाषा का अधिक से अधिक प्रयोग किया |

पाली भाषा के दो रूप हैं – ( क ) पालि, ( ख ) अभिलेखी प्राकृत | अभिलेखी प्राकृत का संबंध भी पालि के साथ ही है | जहां पालि का संबंध है जातक कथाओं और पिटकों से है वहीं अभिलेखी प्राकृत का संबंध उन लेखों से है जो शिलाओं पर अंकित है | इसलिए इसे शिलालेखी प्राकृत भी कहते हैं | इसमें दो प्रकार के अभिलेख प्राप्त होते हैं – अशोक कालीन अभिलेख तथा अशोकेतर अभिलेख |

2. प्राकृत : – प्राकृत का समय ईo के आरम्भ से 500 ईo तक है | विद्वानों का मत है कि प्राकृत भाषा जनभाषा यानी सामान्य लोगों की भाषा थी | इसलिए ही इसका नाम प्राकृत पड़ गया | प्राकृत शब्द को तीन अर्थों में लिया जा सकता है | प्रथम अर्थ में यह अभिलेखी प्राकृत से संबंधित है | द्वितीय अर्थ में भारत तथा भारत से बाहर असंख्य प्राकृत हैं | तृतीय अर्थ में प्राकृत में अपभ्रंश तथा अवहट्ठ शामिल की जा सकती हैं | इस प्रकार भूगोल, धर्म व साहित्य के आधार पर प्राकृत के अनेक भेद किए जा सकते हैं |

3. शौरसेनी :- शौरसेनी वस्तुतः प्राकृत का ही एक प्रकार है | मथुरा अथवा शूरसेन के आसपास बोली जाने वाली बोली को शौरसेनी कहां गया| इसका विकास वहां कि उसे स्थानीय बोली से हुआ जो पालि के काल में प्रचलित थी | शौरसेनी संस्कृत से प्रभावित थी | विद्वान इसे परिनिष्ठित भाषा भी कहते हैं | संस्कृत के गद्य नाटकों की भाषा शौरसेनी है | जैन धर्म की दिगंबर शाखा ने शौरसेनी भाषा का प्रयोग किया |

4. अर्धमागधी :- अर्धमागधी भी एक अन्य प्राकृत का रूप है | इसका क्षेत्र मागधी बोली और शौरसेनी बोली के बीच का है | यह बोली कौशल क्षेत्र के आसपास की भाषा थी | अर्धमगधी में मागधी बोली कि अनेक प्रवृतियां स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं | शायद इसी कारण से इसका नामकरण अर्धमागधी किया गया | जैनियों ने इस भाषा को आर्ष या आर्षि कहा है | बहुत सा जैन साहित्य अर्धमागधी में रचा गया | नाटकों में भी इसका खूब प्रयोग मिलता है |

5. मागधी : – मागधी मूलतः मगध के आसपास की भाषा है | कुछ विद्वान इसका संबंध महाराष्ट्री से भी जोड़ते हैं | कुछ विद्वानों के अनुसार मागधी का जन्म शौरसेनी से हुआ | उधर लंका में पालि को ही मागधी कहा गया है | मागधी में कोई स्वतंत्र साहित्यिक रचना प्राप्त नहीं हुई | संस्कृत नाटकों के निम्न पात्र ही इस भाषा का प्रयोग करते हैं | इसे गौड़ीय भी कहा गया है | इसके चार रूप प्रसिद्ध हैं – (क ) बाह्लीकी, (ख ) ढक्की, ( ग ) शाबरी, ( घ ) चांडाली |

6. अवहट्ठ :- अपभ्रंश प्राकृत कालीन जन-भाषा का विकसित रूप है | इसका समय प्राकृत के बाद का है | प्राकृत का समय ईo के आरंभ से लेकर 500 ईo तक का माना जाता है तो अपभ्रंश का समय 500 ईस्वी से 1000 ईo है | अपभ्रंश को ‘अवहंस’ भी कहा जाता है | इसे आभीरी, ग्रामीण भाषा तथा देशी भाषा भी कहा जाता है | अधिकांश जैन साहित्य अपभ्रंश में मिलता है | स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा जाता है |

7. अवहट्ठ :- अपभ्रंश के साथ-साथ अवहट्ठ का उल्लेख करना भी आवश्यक है | अपभ्रंश तथा आधुनिक भाषाओं की संधिकालीन भाषा को विद्वान अवहट्ठ कहते हैं | विद्यापति की कीर्तिलता और कीर्ति पताका रचनाएं अवहट्ठ भाषा में रचित हैं | अवहट्ठ भाषा को आधुनिक भाषाओं की जननी कहा जा सकता है | इसके दो रूप प्रसिद्ध हैं – पूर्वी तथा पश्चिमी | दोनों रूपों में साहित्य की रचना की गई है |

इस प्रकार हम देखते हैं कि यह मध्यकालीन आर्य भाषाओं का समय 500 ईo पूo से 1000 ईo तक माना जाता है | इन 1500 वर्षों के काल में अनेक भाषाओं का उद्भव तथा विकास हुआ | पालि, प्राकृत, शौरसेनी, अर्धमागधी, मागधी, अपभ्रंश तथा अवहट्ठ मध्यकालीन आर्य भाषाएँ हैं | ये भाषाएं आधुनिक आर्य भाषाओं की पृष्ठभूमि तैयार करती हैं |