स्वन : अर्थ, परिभाषा, प्रकृति/स्वरूप व वर्गीकरण ( Svan : Arth, Paribhasha, Prakriti /Swaroop V Vargikaran )

       स्वन की अवधारणा : अर्थ, परिभाषा व प्रकृति 
     ( Svan  : Arth,  Paribhasha Evam Prakriti )

 

‘स्वन’ शब्द के लिए हिंदी में प्राय:  ‘ध्वनि’ शब्द का प्रयोग किया जाता है | ‘ध्वनि’ शब्द ‘ध्वन’ धातु में ‘इ’ प्रत्यय लगने से बना है | ध्वनि का अर्थ है- आवाज करना या घोष करना | ‘ध्वनि’ का कोशगत अर्थ है- आवाज, नाद या घोष | परंतु भाषा विज्ञान की शाखा ध्वनि-विज्ञान में केवल मानव मुख से उच्चारित ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है |

भाषा-विज्ञान की शाखा ध्वनि-विज्ञान में स्वन का अर्थ है- “मानव मुख से उच्चारित वे ध्वनियां जिनसे भाषा की संरचना हो सकती है |”
इससे यह बात स्पष्ट होती है कि भाषिक स्वन व्यवस्थित होकर सार्थक होते हैं और साथ ही यह मेघ-गर्जन, वाद्य यंत्रों की ध्वनि के समान श्रव्य भी होते हैं | यह वक्ता द्वारा उच्चरित ऐसी ध्वनियाँ हैं जो उसकी बुद्धि से प्रेरित होती हैं तथा श्रोता द्वारा कानों से ग्रहण करके बुद्धि द्वारा समझी जाती हैं |
यह पहले बताया जा चुका है कि ‘स्वन’  शब्द ‘ध्वनि’ शब्द का पर्याय है |  कोई भी ध्वनि (स्वन) किसी अन्य ध्वनि (स्वन ) के समान नहीं होती |  उच्चारण,  स्थान तथा प्रयत्न की दृष्टि से समान कहलाने वाले स्वनों में भी थोड़ा बहुत अंतर अवश्य रहता है |
अंग्रेजी भाषा में स्वन शब्द के लिए ‘फोन’ ( Phone ) शब्द का प्रयोग किया जाता है |  यह शब्द मूलत: लैटिन भाषा का है जिसका अर्थ है – ध्वनि | इसलिए ध्वनि का पर्याय स्वन  स्वीकार किया गया है |

स्वन  की परिभाषा ( Svan Ki Paribhasha ) 

यदि गहराई से चिंतन किया जाए तो हमें पता चलता है कि प्रत्येक स्वन अपने आप में एक विशिष्ट इकाई है |  उस स्वन-विशेष के अभिलक्षण किसी अन्य स्वन से नहीं मिलते | उदाहरण के रूप में त, थ स्थान और प्रयत्न की दृष्टि से एक ही जाति वर्ग के माने जाते हैं  क्योंकि यह दोनों ध्वनियाँ दंत्य और स्पर्श ध्वनियाँ हैं लेकिन प्राणत्व के आधार पर ‘त’ अल्पप्राण ध्वनि है और ‘थ’ महाप्राण ध्वनि है | इस स्तर पर दोनों अलग-अलग हैं |

इस संदर्भ में हम कह सकते हैं- “भाषा की सूक्ष्मतम इकाई ध्वनि (स्वन)  है |”

🔹डॉक्टर रत्नचंद्र शर्मा के अनुसार – “मानव जब बोलता है तो उसके मुख विवर से  वायु निकलती है जो वाग्यंत्रों के कारण कुछ आवाज उत्पन्न करती है जिसे ध्वनि (स्वन )  कहा जाता है |”

🔹डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार – “भाषा-ध्वनि वह ध्वनि है जिसे वक्ता अपने मुख के नियत स्थान से नियत प्रयत्न द्वारा किसी नियत ध्येय  को स्पष्ट करने के लिए उच्चरित करे और श्रोता जिसे उसी अर्थ में ग्रहण करे |”

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि स्वन (ध्वनि)  का मानव मुख के वागगों , श्रवण आदि से गहरा संबंध है | भाषा विज्ञान में स्वन  (ध्वनि) का समग्र अध्ययन करने वाली शाखा ही स्वन-विज्ञान कहलाती है |

🔷 स्वनों का वर्गीकरण / Svanon Ka Vargikaran

अधिकांश विद्वानों ने तीन आधारों पर स्वरों का वर्गीकरण किया है – स्थान,  प्रयत्न और करण | स्वनों के वर्गीकरण को हम इस तालिका के द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं :-

स्वनों का वर्गीकरण
 

ध्वनि उत्पादन की प्रक्रिया में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि फेफड़ों से जो वायु विभिन्न वागंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है,  उसके मार्ग में कुछ रोकथाम होती है जिससे ध्वनियां  उत्पन्न होती हैं |  सभी वागंग अपने-अपने स्थान पर रोकथाम करते हैं  | इसके लिए उस स्थान पर श्वास-वायु द्वारा कुछ प्रयत्न भी किया जाता है |

इसलिए ध्वनि वर्गीकरण में स्थान व प्रयत्न का विशेष महत्व है | इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करेंगे | उदाहरण के रूप में कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग में स्थान के कारण अंतर है |  लेकिन एक ही वर्ग के वर्णों में भी अंतर देखने को मिलता है |वह प्रयत्न के कारण है जैसे ‘त’ और ‘थ’ दोनों ही एक ही वर्ग में आते हैं (तवर्ग) और  दोनों का उच्चारण स्थान दंत है परंतु प्रयत्न के कारण दोनों में अंतर है | ‘त’ अल्पप्राण ध्वनि है जबकि ‘थ’ महाप्राण ध्वनि है |

स्वनों के वर्गीकरण का तीसरा आधार है- करण | करण का अर्थ है- इंद्रिय |  स्थान और करण में विशेष अंतर है |  स्थान स्थिर है परंतु करण गतिशील साधन है | कंठ, तालु,  मूर्धा,  दंत आदि स्थान है जबकि अधरोष्ठ,  जिह्वा, स्वरतंत्रियाँ  करण हैं | 

 

स्थान के आधार पर स्वनों का  वर्गीकरण/ Sthan Ke Aadhar Par Svano ke Prakar

फेफड़ों से आती हुई वायु वाग्यंत्र  के जिस  स्थान के कारण विकृत होती है उस स्थान को ही उस स्वन (ध्वनि ) का स्थान कहते हैं | उदाहरण के रूप में यदि हम श्वास वायु  को कंठ के स्थान पर रोककर कुछ ध्वनियाँ उत्पन्न करें तो उन ध्वनियों का उच्चारण स्थान ‘कंठ’ होगा और वे कण्ठ्य ध्वनियां कहलाएंगी |
स्थान के आधार पर स्वरों (ध्वनियों) को 8 वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है;  यह हैं : (1) काकल्य, (2) कण्ठ्य, (3) तालव्य, (4) मूर्धन्य, (5) वर्त्स्य, (6) दंत्य, (7) ओष्ठ्य, (8) जिह्वामूलीय |

👉 काकल्य ध्वनियों का उच्चारण करते समय श्वास वायु बंद कंठ द्वार को खोलकर झटके से बाहर निकलती है |

👉 कण्ठ्य ध्वनियों का उच्चारण करते समय वायु कंठ में अवरुद्ध होती है |

👉 तालव्य ध्वनियों का उच्चारण करते जिह्वा तालु  को स्पर्श करती है |

👉 मूर्धन्य ध्वनियों का उच्चारण करते समय जिह्वा मूर्धा को स्पर्श करती है |

👉 वर्त्स्य ध्वनियों का उच्चारण करते समय जिह्वा वर्त्स ( मसूडा ) को स्पर्श करती हैं |

👉 दंत्य ध्वनियों का उच्चारण करते समय जिह्वा की नोक ऊपर के दांतो को स्पर्श करती है |

👉 ओष्ठ्य  ध्वनियों का उच्चारण करते समय ऊपर-नीचे के ओष्ठ आपस में मिलते हैं |

👉 जिह्वामूलीय ध्वनियों का उच्चारण करते समय अलजिह्वा का स्पर्श जिह्वामूल से होता है |

प्रयत्न के आधार पर स्वनों का वर्गीकरण / Prayatn ke Aadhar Par Svanon ke Prakar

स्वन-उत्पादन की प्रक्रिया में श्वास-वायु की रोकथाम और उसे विकृत करने में हमें जो प्रयत्न करना पड़ता है, उसे प्रयत्न कहते हैं |
यह प्रयत्न दो प्रकार का होता है : – 1️⃣ अभ्यन्तर और 2️⃣ बाह्य |

1️⃣ अभ्यंतर प्रयत्न पांच प्रकार का है : (1) स्पृष्ट, (2) ईषदस्पृष्ट, (3) विवृत, (4) ईषदविवृत, (5) संवृत |

(1) स्पृष्ट : स्पृष्ट का अर्थ है- स्पर्श किया गया | ‘क’ से लेकर ‘म’ तक के 25 व्यंजन स्पर्श व्यंजन कहलाते हैं | इन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जिह्वा विभिन्न वागंगों को स्पर्श करती है |

(2) ईषदस्पृष्ट : ईषदस्पृष्ट का अर्थ है-  थोड़ा सा स्पर्श किया गया | इन ध्वनियों का उच्चारण करते समय जिह्वा  वागंगों  को थोड़ा सा स्पर्श करती है | य, र, ल, व  ऐसी ही ध्वनियाँ हैं |  इन्हें अंतस्थ व्यंजन भी कहते हैं |

(3) विवृत : विवृत का अर्थ है – खुला हुआ | जिन ध्वनियों का उच्चारण करते समय मुख विवर खुला रहता है | उन्हें विवृत कहते हैं | इन्हें ऊष्म व्यंजन भी कहते हैं | श, ष, स, ह  ऐसी ही ध्वनियां है |

(4) ईषदविवृत : ईषदविवृत का अर्थ है – थोड़ा खुला हुआ | जिन ध्वनियों के उच्चारण में मुख विवर अपेक्षाकृत थोड़ा खुला हुआ होता है| उन्हें ईषदविवृत कहते हैं |

(5) संवृत : संवृत का अर्थ है – बंद | जिन ध्वनियों का उच्चारण करते समय मुख और जिह्वा इतने अधिक संकरे हो जाते हैं कि उनसे थोड़ी ही ध्वनि निकल पाती है,  उन्हें संवृत ध्वनियाँ कहते हैं | ई और ऊ ऐसी ही ध्वनियाँ हैं |

2️⃣ बाह्य प्रयत्न : बाह्य प्रयत्न के ग्यारह भेद हैं :- (1) विवार, (2) संवार, (3) श्वास, (4) नाद, (5) घोष, (6) अघोष, (7) अल्पप्राण, (8) महाप्राण, (9) उदात्त, (10) अनुदात्त, (11) स्वरित |
बाह्य प्रयत्न का संबंध स्वर तंत्रियों से है |

👉 विवार  का अर्थ है – स्वर तंत्रियों का खुला रहना  और संवार का अर्थ है – बंद रहना |

👉 जब स्वर तंत्रियाँ  खुली रहती हैं तो श्वास बिना किसी घर्षण के आता जाता रहता है लगभग यही स्थिति ‘श्वास’की है ऐसी स्थिति में अघोष ध्वनियां उत्पन्न होती हैं |

👉 संवार का अर्थ है – स्वर तंत्रियों का बंद रहना | इससे ‘नाद’ तथा ‘घोष’ ध्वनियाँ उत्पन्न होती हैं |

👉 अल्पप्राण और महाप्राण का संबंध श्वास वायु की मात्रा से है | अल्पप्राण ध्वनियों के उच्चारण के समय कम श्वास वायु तथा महाप्राण ध्वनियों के उच्चारण के समय अधिक स्वास वायु बाहर निकलती है |
प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा तथा पांचवा वर्ण अल्पप्राण है तथा दूसरा व  चौथा वर्ण महाप्राण है |

👉 उदात्त, अनुदात्त और स्वरित  का संबंध ध्वनियों के आरोह अवरोह से है | ऊपर उठती (ऊंची ) ध्वनियों को उदात्त, नीचे गिरती ध्वनियों को अनुदात्त तथा बीच की ध्वनियों को स्वरित कहते हैं |

 करण के आधार पर स्वनों का वर्गीकरण / Karan Ke Aadhar Par Svano ke Prakar

करण का अर्थ है – वागिन्द्रय | वागिंद्रियों को 3 वर्गों में बांटा जा सकता है – अधरोष्ठ, जिह्वा व स्वर तंत्री |
1. अधरोष्ठ – अधरोष्ठ का अर्थ है – नीचे वाला ओष्ठ |  नीचे वाला ओष्ठ गतिशील होता है |  यह कभी ऊपर वाले ओष्ठ को स्पर्श करता है तो कभी दंत पंक्ति को |
2. जिह्वा – यह सब से गतिशील वागिंद्रिय है |  यह कभी तालु को स्पर्श करती है, कभी दंत को तो कभी मूर्धा को |
3. स्वरतंत्री – स्वर तंत्री भी गतिशील वागिंद्रिय है | यह अनेक प्रकार की ध्वनियों का उत्पादन कभी खुल कर तो कभी बंद होकर करती हैं |

◼️ इस प्रकार ध्वनियों का वर्गीकरण तीन आधारों पर किया जाता है –  स्थान, प्रयत्न व करण परंतु अनेक भाषा वैज्ञानिक करण  को प्रयत्न में ही समाहित कर लेते हैं | इस प्रकार स्वन (ध्वनि)  वर्गीकरण के मुख्यतः दो आधार माने जाते हैं – स्थान और प्रयत्न |

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